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(१४३) सावधाचार्य-और ग्रंथो. रागभाषित-परम उत्तम दया क्षमा रूप, धर्मको-हानि पहुंचती है ॥ हे ढुंढनी ! तुं सत्यरूप जैन धर्मका वारसा, करती है किस वास्ते, क्यों कि, तूंही तेरी गप्प दीपिकामे, लिखती है कि-ढूंढत ढूंढत ढूंढलिया, सब वेद पुराण कुरानमे जोई ॥ ज्युंदही माहेसे म. खण ढूंढत, त्युं हम ढुढीयांका मत होई. १॥ ___यही तेरा वाक्यका-विचार कर कि, इसमें सत्यरूप जैन धर्म का, कोइ नाम मात्रभी है? केवल जैनाभास बनके, किस वास्ते जैन मतको कलंकित करतीहै!| फिर लिखती है कि-सत्य दया धर्मका नाश कर दिया है ॥ हे ढूंढनी ! इहांपर थोडासा तो विचार करकि, उन महा आचार्योंने--सत्य दया धर्मका,जंड लगाया हैकि,नाश कर दिया है ?। तेरी मति क्यौं बिगडी हुई है, जरा इतिहासोकी तरफ तो देख कि-मालवा, मारवाड, गूजरात, काठियावाड,दक्षिण, आदि देशोमें, यज्ञ याज्ञादिकमें--हजारो पशुओंका होम कियाजाताथा, उनका प्रतिबंध-राजा, महाराजाओंको, प्रतिवोध करके-करवा दिया, सो उस महापुरुषोंने सत्य दया धर्मको-स्थापित किया कि,नाश कर दिया? हे ढूंढनीजी तेरेको इतना गर्वकिस करतूत से-होगयाकि जो कुछभी दिखता नही है||फिर लिखती है कि-तुम्हारीसी तरह,पूर्वोक्त आ. चार्यों की बनाई--नियुक्तियोंके पाथे,गपौडेसे भरे हुये-नही मानते हैं । हे ढूंढपंथिनी ! चउद पूर्व धारी भद्रबाहु स्वामिजीकी रची हुई-नियुक्तियोंको, तूं गपौडेसे भरे कहती है, तो पिछे, कौनसे ते रे-बावेकी रची हुई-नियुक्तियांको,निर्दोष मानती है, उनका नाम तो लिखनाथा ?। और नियुक्तियोंको दूषित करनेको, तूंने गौतम स्वामि विषये-कुतर्क किई है,सोभी विचार शून्यपणेसेंही किई है,क्योंकि-जब जंघाचारण जंघाके बलसे-नंदीश्वर द्वीप तक जाते है, तो पिछे सूर्यको किरणोका-आधारसे, गौतम स्वामीजीका-अष्टापद उ
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