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(१५२) पंचम स्वप्नका-पाठार्थ. १ स्थापना करवाने लग जायेंगे, द्रव्य ग्रहणहार--मुनि हो जायेंगे, लोभ करके मूर्ति के गलेमें -माला गेरकर, फिर उसका (मोल) करावेंगे, और- तप, उज्जमण, कराके--धन इकट्ठा करेंगे, जिन बिंब ( भगवानकी मूर्तिको ) प्रतिष्टा करावेंगे, अर्थात् मूर्तिके कानमें-- मंत्र सुनाके, उसे पूजने योग्य करेंगे, ( परंतु मंत्र सुनाने वालोंको, पूजें तो ठीक है क्योंकि- मूर्तिको मंत्र सुनानेवाला--मृत्तिका गुरु हुआ, और चैतन्य है, इत्यादि ॥ और होम, जाप, संसार हेतु पू. जाके-फल आदि बतावेंगे, उलटे पंथमें पडेंगे. ।। इत्यादि कहकर, मप्पदीपिका, विस्तार लेखका प्रमाण दिया है.
॥ इति ढूंढनीका लिखाहुवा सूत्र और पाठार्थ ।। समीक्षा-यद्यपि इस लेखपै-गप्पदीपिका समीरमें-उत्तर, हो गया है, तो भी-पाठक वर्गकी सुगमता के लिये, जो कुछ फरक है सो-लिख दिखाता हुं । देखिये कि-सिद्धांतमें जहां जहां "चैत्य" शब्द आता रहा उहां उहां तो, मंदिरका अर्थ-छोडनेके लिये ढूंढनीने उलट पलट करके, बेसंबंध-बकवाद करना, सरु किया।
और इहांपै शीघ्रही " चैत्य " शब्दसे, मंदिरका अर्थ इनको मिल गया, हमतो योग्यही-समजते है, परंतु ढूंढनीजीका धिठाईपणा कितना है । खेर अब इस पाठमें, विचार यह है कि-मंदिर, मूर्तिको-बनवानेका, और पूजनेका--अधिकारी--केवल श्रावक वर्ग है । और माधु है सो-केवल भाव पूजाका अधिकारी है। परंतु यह निकृष्ट कालके प्रभावसे,अपनी साधुवृत्तिको छोडके,
१ ढूंढनीको-चैत्य शब्दका अर्थ, ११२ से भी अधिक, जूठा मिल गया । मात्र मंदिर मूर्तिका अर्थ नहीं मिला। परंतु यहां पर, चैत्य स्थापना कहनसें " मंदिर स्थापना " ढूंढनीको-हम दिखा देते है, सो ख्यालकरके देख लेवें ॥
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