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( १५६) ढूंढनीकाही-सूत्र पाठार्य. मग्ग पवत्तणं. । सुमग्ग विप्पलोयणेणं च वढइणं महति अासायणा, तेण अणंत संसारय हिंडणं । ए एणं अठेणं गोयमा एवं वुच्चइ, तंच णोणं तहत्ति समणु जाणेज्जा ॥
ढूंढनीकाहि अर्थ लिखते हैं-तिम निश्चय कोइ कहे कि-मैं १अरिहंत भगवंतकी मूर्तिका, गंध, माला, विलेपन, धूप, दीप, आदिक विचित्र वस्त्र, और फल, फूल, आदिसे, पूजा, सत्कार, आदिकरके-प्रभावना करूं तीर्थकी उन्नति करता हूं, ऐसा कहनेकोहे गौतम ! सच नहीं जानना, भला नहीं जानना ।। हे भगवंत किस लिये आप ऐसा फरमाते हो कि-उक्त कथनको, भला नहीं जानना, हे गौतम ! उस उक्त अर्थके अनुसार, २असंयमकी दृद्धि होय, मलीन कर्मकी वृद्धि होय, शुभा ३ शुभ कर्म प्रकृतियोंका वंध होय, ४ सर्व सावद्यका त्याग रूप, जो व्रत है उसका भंग होय,
१ यहांपर ख्याल करनेका है कि-महावीर भगवंतके विद्यमानमें भी, गंध मालादिकसे-अरिहंत भगवंतकी 'मूर्तिपूजाकी' प्रवृत्ति-हो रहनेपरही, गौतम स्वामीने-अपनी पूजाका (अर्थात् साधु पुरुषोंकी पूजाका) खुलासा कर लेनेके वास्ते, यह प्रश्न पुछा है । परंतु श्रावक तो सदा 'जिन पूजन करते ही चलेआते हैं ।
२ साधुओंकोही असंयमकी वृद्धि होय ॥
३ जिनमूर्तिपूजामें शुभकर्मका बंध विशेष रहा हुवा है । ... ४ सर्व सावद्यका त्यागी जो साधु है उनकाही व्रतका भंगमाना है परंतु श्रावकको निषेध नहीं।
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