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(६) लाहीका घोडा--खांडके खिलोने...
॥ अब लाहीको घोडा ॥ ढूंढनी-पृष्ट ५६ ओ १३ सें-बालकने अज्ञानतासे उसको ( लाठीको ) घोडा कल्प रखा है, तातें उस कल्पनाको ग्रहके, घोडा कह देते है, परंतु घास दानेका-टोकरा तो नहीं रख देते है। वैसें भगवान्का-आकार, कह देते है, परंतु वंदना, नमस्कार तो नहीं करे । और लडु पेंडे तो अगाडी नहीं धरें।
समीक्षा-भला हमनेभी तेरा लिखा हुवा-मान लियाकै, भगवानका आकारको देखके-आकार कह देते हो, परंतु नमस्कार नहीं करते हो । तो-नाम देके तो-नमस्कार, करतेही होंगे कि नहीः ? जो भगवान्का-नाम, देके-नमस्कार, करते हो, तव तो घोडाका नाम देकेभी-घास दानेका टोकरा रख देनेकी-सब क्रिया करनी पडेगी ? तुम कहोंगे लड्ड पेंडे तो, भगवान्का-नाम देके नही चढाते है ? हम यह अनुमान करते है कि-जिसको खानेको नहीं मिलता होगा उनको, भगवानके-नामपै, खेराद करनेका कहांसे मिलेगा ? इसमें मूढता तो देखो कि, जिस भगवानका-नाम देके, नमस्कार करें, उस भगवान्की-मूर्ति देखके, नमस्कार करें तो हम डुब जावे. यह किस प्रकारके कर्मका उदय समजना ?
॥ इति लाठीका घोडा ।।
॥ अब खांडके खिलोने ॥ ढूंढनी-पृष्ट. १७ ओ. १३ से-खांडके हाथी, घोडा, खानेसे दोष है ॥ पृष्ट. ५८ में-मिट्टीकी-गौ, तोंडनेसें हिंसा लागे. परंतु मि ट्टीकी गौसे-दुध, न मिले, दोष तो हो जाय, परंतु लाभ न होय । इत्यादि-पृष्ट. ५९ तक सुधि ।
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