________________
पूर्ण भद्रादि यक्षोंका पूजन. (१०१) प्रकारसे न रहेगी । तब हम-दान, दया, शील, तप, भाव आदि मेभी-अधिक अधिक प्रवृति करके, हमारा आत्माको अनंत दुःखकी जालमेंसेभी-छुडानेको समर्थ, हो जायगें । एक तो वीतरागदेवकी भक्तिकाभी-लाभ होजायगा, और हमारा आत्माभी-अनंत दुःखकी जालसे सहज छुट जायगा। इतना सामान्य मात्रभी विचार करके, ढूंढनी-लेख लिखनेको प्रवृत्ति करती तब तो, तीर्थकर गणधर महाराजाओंका, अघोर पातक रूप-अनादर, कभी न करती, वैसा हम अनुमान करते है । परंतु क्या करेंकि--जिसके अंगमें-यक्ष राक्षसोका, अथवा मिथ्यात्वरूप भूतका, प्रवेश हो जाता है, तब परा धीनपणे--उस जीवके बशमें, कुछ नही रहता है, तो पिछे विचार ते कहांसे आवे ! क्योंकि जिस-- चैत्य' शब्द करके-पूर्ण भद्र, मोगरपाणी, यक्षोंके विषयमें-मूर्ति मंदिरका अर्थ करती है, उसी 'चैत्य' शब्दका अर्थ-अरिहंतके विषयमें--जब जिस जिस शास्त्रमें आता है, तब यह ढूंढ पंथिनीढूंढनी प्रत्यक्षपणे लिखा हुवा मंदिर मूत्तिका अर्थको छुपाने के लिये, अगडंबगडं-लिख मारती है. । इसी बास्ते हम अनुमान करते है कि, 'यक्ष' या 'मिथ्यात्वरूप' महा भूतका प्रवेश हुये विना, ऐसा-अति विपरीत पणेका आचरण,क्यौं. करती, ? और देखोकि-एक तो अपणा आत्माको, और अपणे आश्रित सेवकोका-आत्माको, वीतरागदेवकी भक्तिसे-दूर करके, और सेवकोंको धनादिककी लालच दिखाके, यक्षादि मिथ्यात्वदेवके वशमे करनेको, यह अघोर दुखका पायारूप-ग्रंथकी,रचनाभी क्यों करती ? " अहो कर्मणो गहना गतिः" || और यक्षादिकोंकी जो मूर्ति-पत्थररूपकी है, उनकी प्रार्थनासे, धन पुत्रादिककी प्राप्ति होनेका लिखके, नीचेके भागमे यों लिखती है कि-जिन मंदिरका पूजना, सम्यक धर्मका-लक्षण होता तो, सुधर्मस्वामीजी-अवश्य
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org