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( ११४) जंघाचारणे-मूर्ति, पूजी नही. होताहै, क्योंकि 'लोगस्स उज्जो यगरे ' कहा जाता है, उसमें-- चौविस तीर्थकर, और केवलीयोंकी--स्तुति, होती है। फिर दूसरी छालमें--नंदीश्वर द्वीपमें, समवसरणकरे, तहां. पूर्वोक्त--चैत्यवंदन, करे । फिर रहने के स्थान आवे, यहां पूर्वोक्त-ज्ञान स्तुति, अथवाइरिवही, चौवीस त्या, करे ॥ . पृष्ट. १०४ ओ १५ से. एकबात औरभी समजनेकी है. ॥ पृष्ट १०१ ओ. २ से चेइयाइं-वंदइ, नमसइं ऐसापाठ-नहीं आया ॥ ओ. ६ सें--केवलं--स्तुति, की गई है, नमस्कार किसीको, नहीकरी ॥ पृष्ट. १०६ ओ. ३ से-धातु पाठमें लिखाहै बदि अभिवादन स्तुत्योः अर्थात् "धदि" धातु, अभिवादन-स्तुतिकरनेके अर्थमें है ॥ ___ समीक्षा-पाठकवर्ग? देखिये ढूंढनीजीका ढूंहकपणा, लिखती हे कि,-ठाणांगनी सूत्रमें, और जीवाभिगम सूत्रमें,-नंदीश्वर द्वीपका, तथा पर्वतों की रचनाका, औरवहां-शाश्वती " मूर्ति मंदिरोंका" कथनतो आताहै ।। वैसा कहकरभी, जंघाचारणके पाठमें-अपणी चातुरी-प्रगट करतीहै, और कहतीहै, कि-जंघाचारण-रुचक वरद्वीपमें, पहिलीही छालमें जाते है, परंतु उहाँ रहे हुयें-शाश्वतें मंदिर, मातको-वंदना, नमस्कार, नहीं करतेहै । और जो-चैत्यवंदना, कहींहै, सोतो वहां-ज्ञानकी, स्तुतिकरी, अर्थात् धन्यह केवल ज्ञानकी शक्ति-जिसमें सर्व पदार्थ प्रत्यक्षहै, अथवा इरियावहीका, ध्यान करनेका-अर्थभी, संभव होताहै, उसमें लोगस्स उज्जोयगरे कहा जाताहै. । हे ढूंढपंथिनी ! चैत्य वंदनका अर्थ ज्ञानकी स्तुती होती है वैशा कौनसे सिद्धांतसें, और कोनसे गुरुके पाससे-तूंने पढा ? और उहां नंदीश्वरादिक द्वीपोंमें कौनसा केवल ज्ञानका देर-कर
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