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(१३०) मूर्तिपूजनमें-मिथ्यात्वादि दोष... रपाल राजाको प्रतिबोध करनेवाले श्री हैमचंद्राचार्य महाराजका दिया है कि, जिस हैमचंद्राचार्यको, वर्तमान कालमें-जो अंग्रजे लोको-बडे प्रवीन गीने जाते है, सोभी, सर्वज्ञपणेकीही उपमा देके-बढामान दे रहे है, उस महापुरुषोंको-यद्वातद्वा लिखनेवाली सेरे जैसी-विचार शून्याते दूसरी कौन बनेगी ? । अगर जो तेरा ढूंढकपणेका पंथको ढकके रखा होतातो,क्यों इतना फजेता होता।
॥ इति ढूंढनीके चैत्य शब्दका, विचार ॥
॥ अब मूर्तिपूजनमें-मिथ्यात्वादि दोषका, विचार ॥
ढूंढनी-पृष्ट. ११८ मेंसे-लिखती है कि-मूर्तिपूजनमें, षट्कायारंभादि दोष है, ॥ और पृष्ट १२०, ओ. ७ सें-और दूसरा बडा दोष-मिथ्यात्वका है । क्यों कि-जड को चेतन मानकर मस्तक जूकाना, यह मिथ्या है. ॥
समीक्षा-हमतो जैन सिद्धांतोका-अक्षरे अक्षर चिंतामणि रत्नके तुल्य, मान्यकरनेवाले है, परंतु तुमेरे ढूंढकों जैसे नहीं है कि, यह तो माने, और यह तो न माने,क्यौं कि केवल मूर्तिपूजनमेंहीषटकायाका आरंभ दिखाके, उनका निषेध करनेके लिये यह योथापोथाकी रचना किई,। परंतु तेरे ढूंढक सेवको, जे-स्थानक - धाते है, । और दीक्षा महोत्सव, और मरण महोत्सव करते है, । संघ निकालकर तुमको-वंदना, करनेको आते है । उसमें तो पूर्णअविवेकसे, महा आरंभका कार्य करते है, उसका, और तूं ने लिखा हुवा सूत्रका पाठका-विचार, करती वखत-तुमेरे ढूंढकोकी मति, नजान कौनसा-खेतचरणको, जाति है ? सो उनका विचार किये बिना, केवल-मूर्ति पूजनमें ही, षटकायाका आरंभ दिखानेको, थोथापोथा-लिख मारते हो, ? क्या उसमें तुमको-पटकायाका आ
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