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|| मूर्तिपूजन - मिथ्यात्वादि दोषं ॥
( १३१.) रंभ, नहीं लगता है ! तुम कहोंगे कि लगता तो है, तो तुमको कौनसी अधोगतिका दाता है ? उनका भी तो विचार लिखके, साथमेही दिखा देनाथा, जिससे तेरे ढूंढक श्रावको को भी ज्ञान हो जाता कि, हम तो सभी प्रकारसें- दुर्गातिके ही बंदे बननेवाले है ! हम तो सुनते हे किं-जिस गावमें, स्थानक नहीं होता है उहांपर, ढूंढक साधुको रहनेकी विनती करते है तब, धम धमाटसे पुकारकर उठते है कि- स्थानक तो बंधाते नही हो, काहैकी विनतीकरते हो | और उपदेश करके, पैसेकी वर्गनी कराने भीसामील हो जाते है, उहां पर तुमेरी दया माता, कहां जाती है ? केवल जूठा बकवादही करतेहो कि, कुछ तत्त्वकाभी- विचार करते हो ! हमतो यही समजते है कि जोकोइ तवका विचार करनेवाला होगा सोतो - तुमेरा ढूंढक पंथकी नजिकमें भी न खडा रहेगा । कारण उनको भी कलंकित ही होना पडेगा । और जो अजान होगे सो तुमेरा पकडाया हुवा - हठषणेका अनघड पथ्थरा लेके फगाता फिरेगा और बुद्धिमान होंगे सो सूत्रका - पाठको, और अपणाकर्त्तव्योंको, और साथही उनका - तात्पर्यको विचार करके ही अपणा पांउ धरेंगे, उनको कोइभी- दुर्गतिका कारण न रहेंगा. के वल मूढ काही - फजेता होता है । और तूं जो दूसरा, मिथ्यात्वकादोष कहती है-- सोतो तेरे को ही प्राप्तहोता है । क्योंकि - प्रतिमारूप अजीव पदार्थको दूसरेकी पास - जीवपणको, पुकार रही है ? और अपणा आत्माको मिथ्यात्वसे, मलीन कररही है । और हम है सोतो, योग्यायोग्यका विचार करणेमेंही तत्पर रहते है, किस वास्ते जुठा कलंक देके जडको-चेतनपणे, मनाती है ? हम कहते है कि अब भी विचार करों, और सद्गुरुका शरणास्यो, आगे जैसी तुमेरी भवितव्यता, हम तो कहने में निमित्त मात्र है. ॥ ॥ इति मूर्तिपूजनमें मिथ्यात्वादि दोषका विचार ||
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