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( १०२) सूत्रोंका लेखमें--अधिकता. सविस्तार लिखते । अब इस विषयमें ढूंढनीको हम क्या लिखेंक्योंकि-जिन प्रतिमापूजनका लेख--दिगंबर, श्वेतांबरके, लाखो शास्त्रोंमें हो चुका है, और पृथ्वीभी-हजारो वरसोसें, जिन मंदिरोसेंमंडितभी हो रही है, तोभी यह ढूंढनी--अखीयां भींचके, लिखती है कि, सम्यक धर्मका लक्षण होता तो, सुधर्मस्वामीजी अवश्य लिखते ? अब ऐसे निकृष्ट आचरणवालेको, हम किसतरे समजानेको सामर्थ्यपणा करेंगे ? इत्यलंविस्तरेण. . ॥ अब गणधरोंका लेखमें भी-अधिकताका, विचार ॥
ढूंढनी-पृष्ट. ७५ ओ. ७ सें-हम देखते हैं कि, सूत्रोंमे ठाम २, जिन पदार्थोंसे-हमारा विशेष करके, आत्मीय-स्वार्थभी सिद्ध नहीं होता है, उनका विस्तार-सैंकडे पृष्टॉपर-लिखधरा हैपर्वत, पहाड, बन बागादि ॥ पुनः 'पृष्ट. ७६ से-परंतु-मंदिर मूतिका विस्तार, एक भी प्रमाणीक-मूलसूत्रमें, नहीं लिखा.॥
समीक्षा-पाठक वर्ग ! यह ढूंढनी क्या कहती है ! देखो कि-सूचनमात्र सूत्रको, सूत्रका तो-मान देती है। फिर कहती है कि-आत्मीय स्वार्थभी-सिद्ध नहीं होता है, उनका-विस्तार, सैंकडे पृष्टों पर, गणधर महाराजाओने लिखधरा है । वैसा कहकर-अपणी पंडितानीपणाके गमंडमें आके-तीर्थंकरोंको, तथा गणधर महापुरुषोंकोभी-तिरस्कारकी नजरसे, अपमान करनेको-प्रवृत हुई है। वैसी-ढूंढनीको-क्या कहेंगे ? क्योंकि मूत्रमें तो एक 'चकार, मात्रभी रखा गया होता है. सोभी अनेक अर्थोकी सूचनाके लिये ही रखा जाता है वेसें महा गंभीरार्थवाले-जैन सूत्रोंका लेखको, सैंकडे पृष्टोतक-निरर्थक ठहराती है ? अरे बिना गुरुकी ढूंढनी ! गणधर महाराजाओके लेखका रहस्य, तुजको समजमें आया होता तो-वैसा लिखतीही क्योंकि, हमारा स्वार्थकी सिद्धि
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