Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni
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( १०६ )
अंडजीका सूत्रपाठ
है, सो, और इस ढूंढनीका मरोड क्या है सो भी, किंचित् लिख कर दिखाते है - यथा पाठार्थ-अंबडपरिव्राजकको न कल्पे, अन्यतीai ( शाक्यादिक साधु ) अन्यतीर्थी के देव ( हरिहर | दि ) अन्य - तीयोंने ग्रहण किये हुये अरिहंतचैत्य ( जिनप्रतिमा) को - वंदना, नमस्कार करना, परंतु अरिहंत और अरिहंतकी प्रतिमाकों वंदना नमस्कार करना कल्पे. इति पाठार्थ. || अब ढूंढनीका मरोड दिखा ते है कि - ( अएणउत्थिय परिग्गहियाणिवा अरिहंत चेइयंवा ) इस पाठका अर्थ, अन्यथने ग्रहण किई जिन प्रतिमाका है. उसका ढूंढनी अर्थ करती है कि अन्य यूत्थिकों में से किसीने ग्रहण किया अरिहंतका सम्यक् ज्ञान, अर्थात् भेषतो है परिव्रजाक, शाक्यादिक, और सम्यक्तव व्रतवा अनुव्रत रूप धर्म, अंगीकार किया हुवा है जिनाज्ञानुसार यह अर्थ करके. ! पाठके अंतपदका जो. - अरिहंत, और अरिहंतकी प्रतिमाको, वंदन, नमस्कार करना, कल्पे, इस प्रतिज्ञाकरने रूप पदका अर्थको छोडदेके, जिसका कुछ भी संबधार्थ नहीं, है, वैसा अगडं बगडं लिखके अपणी सिद्धिक
रनेको, ८० । ८१ । ८२ । ८३ । पृष्ट तक — कुतोकोंसे फोकटका पेट फुकाया है। इससे क्या विपरीतपणाकी सिद्धि होयगी ! सिद्धि न होगी; परंतु तेरेको, और तेरा वचनको अंगीकार करने वालोंको, वीतराग देवके वचनका भंग रूपसें, संसारका भ्रमण रूप फलमाप्तिकी, सिद्धि हो जावे तो हो जावो ! परन्तु जिनप्रतिमाका नास्तिकपणाकी सिद्धितो तेरा किया हुवा विपरीतार्थ से कभी भी न होगी ||
ढूंढकीनी पृष्ट. ८३ ओ. १४ ( गण्णत्थ अरिहंतेवा अरिहंतचे - इयाणिवा ) पूर्व पक्ष में लिखके - पृष्ट. ८४ के उत्तर पक्षमें अर्थ लिखती हैं । यथा - ( णण्णत्थ ) इतना विशेष, इनके सिवाय और
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