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Janumanuman
अंबडजीका सूत्रपाठ.. (१०७) कीसीको नमस्कार नहीं करूंगा, किनके शिवाय (अरिहंतेवा) अरिहंतजिको ( अरिहंतचइयाणिवा) पूर्वोक्त अरिहंत देवजीकी आज्ञानुकूल संयमको पालनेवाले, चैत्यालय, अर्थात् चैत्य नाम ज्ञान, आलय नाम घर, ज्ञानकाघर अर्थात् ज्ञानी, (ज्ञानवान् साधु ) गणधरादिकों को वंदना करूंगा, अर्थात् देव गुरुको । देव पदमें-अरिहंत, सिद्ध, गुरुपदमें, आचार्य, उपाध्याय, मुनि इत्यर्थः॥
फिर-पृष्ट ८५ ओ ५ से-अब समजनेकी बात है कि-श्रावकने, अरिहंत, और अरिहंतकी मूर्तिको, वंदना करनी तो आगार ररकी । और इनके सिवा सबको वंदना करनेका त्याग किया। तो फिर-गणधरादि, आचार्य, उपाध्याय, मुनियोंकों, वंदनाकरनी बंदहुई ॥ क्योंकि देवको तो-वंदना, नमस्कार, हुई, परंतु गुरुको वंदना नमस्कार करनेका त्याग हुआ । क्यों कि-अरिहंत भी देव,
और अरिहंत की मूर्ति भी देव, तो गुरुको वंदना किस पाठसे हुई । ताते जो प्रथम हमने अर्थ किया है वही यथार्थ है।
समीक्षा-पाठक वर्ग ! आत्माराम तो बिचारा संस्कृत पढा हुआथा ही नहीं. वैसा. पृष्ट २१ में-ढूंढनीने लिखाथा सो क्या सत्य होगा, ? क्योंकि सम्यक शल्योद्धारमें-( अरिहंतेवा, अरिहंत चेइयाणिवा) इसका अर्थ-अरिहंत, और अरिहंतकी प्रतिमा, इतना किंचित मात्रही अर्थ दिखाया। और, इस ढूंढनीने तो, ढूंढढूंढ कर अर्थात् मेंसेंभी अर्थात् निकाल निकालाकरके गूढार्थको दिखाया, कि-जो जैनमतमें आजतक लाखो आचार्य हो गये उसमेंसे किसीनेभी नहीपाया । धन्यहै ढूंढनीकी 'धनगरी, माताको फि-जिसने ऐसी पुत्रीको जन्म देदिया। इसीवास्ते कहती है, केअरिंहत, और अरिहंतकी प्रतिमाका-अर्थ करें तो, गुरुको वंदना नमस्कार, करनेका त्याग हुआ। क्योंकि-अरिहंत भी देव, और
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