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( ११२) द्रौपदीजीके-पाठमें-कुतर्को. -- और दूसरी साबूतीमें-ढूंढनी, कहती है कि-सूरयाम देवने-- पूजाकरी, ऐसें-द्रोपदीने करी, वैसें देवकी--उपमा, दीहै, परंतु श्रा. विकाको श्राविकाकी उपमा-नही दीई है । हे मुमतिनी ! क्या इ. तनाभी भावार्थ तूं समजी नहीं ? देख इसका--भावार्थ, यह है कितुमेरे जैसे जो, शाश्वती-जिन प्रतिमाको, मानके--कत्रिम, अर्थात्अशाश्वती, जिनप्रतिमाका लोप करनेका-प्रयत्न कररहे है, उनकाहृदय नयन, खोलनेकेलिये, यह-सूर्याभ देवकी-उपमा. दीई है। जैसे-देवताओं सदाकाल 'शाश्वती जिनमतिमाका' पूजनसे, अ. पणा भवोभवका-हित, और कल्याणकी-प्राप्ति, करलेते है, तैसे ही-श्रावक श्राविकाओंकोभी-अरिहंतदेवकी मूर्तिका, पूंजन, स. दाकाल करके, भवोभवका--हित, और कल्याणकी प्राप्ति, अवश्य ही करलेनी चाहिये, इस भावको-जनानेके लिये ही, यह सूरयाम देवताकी-उपमा, दीहै । जैसे-दश वैकालिककी, आद्य गाथामें क. हाहै कि देवावि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो देवताभी तिसको-नमस्कार करतेहै, जिसका मन सदा धर्ममें होता है. तो मनुष्य नमस्कार करें उसमें-क्या बड़ी बात है तैसें द्रौपदीजीके-पाठमेंभी समजनेका है ॥ और देवताकी-उपमा, देनेका-दूसरा प्रयोजन, यहहै कि-जितनी, देवता-भक्ति, करसकते है उतनी-मनुष्योंसे पाये, नही हो सकतीहै, परंतु इस द्रौपदीजीने तोमनुष्य रूप होके भी-सूरयाभ देवताकीतरां, सविस्तरबडा आडं. बरसे--अरिहंत प्रतिमाकी, पूजा कि है । इसभावको भी, जनानेके लिये, यह सूरयाभ-देवताकी-उपमा, दीइ है. ॥ और जैसी-शा. श्वती जिन प्रतिमाकी, भक्ति, करनेकी है, तैसी ही-अशाश्वती जिन प्रतिमाकी, भक्ति, करनेकीहै । और यह दोनोपकारकी-म. तिमाका पूजनसे, भावानु सार-एक सरखाही, फलकी प्राप्ति हो.
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