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(१०८)
आनंद श्रावकमीका-सूत्रपाठ.
अरिहंतकी-मूर्तिभीदेव, तो गुरुको-वंदना किसपाठसे हुई । ताते हमने-अर्थ किया, वही यथार्थ है। हे सुमतिनी ! तूं अपणे सेवकोंमें-सर्वज्ञपणेका, डोलतो दिखाती है, परंतु इतना विचारभीनही करती है, कि-जब अन्ययूथिक शाक्यादिक-साधुको, वंदना, नमस्कार, करना-नही कल्पें तो, जैन के-साधुको तो, वंदना, नमस्कार, करनेका अर्थापत्तिसे ही-सिद्धरूप, पडाहै. इसवास्ते यहतेरालेख, सर्व आचार्योंसें-निरपेक्ष रूप होनेसें, तेरेकों, और तेरे आश्रितों को-बाधक रूप होगा, परंतु-साधक रूप, न होगा। इत्यलं ॥
॥ इति अंबडजी श्रावकके, पाठका विचार ॥
॥ अब आनंद श्रावकजीके सूत्र पाठका विचार ॥ ढूंढनी-पृष्ट. ८७ सें-आनंद श्रावकके विषयका पाठ लिखके. पृष्ट ८९ ओ. ३ से लिखतीहै कि-संवत् ११८६ की लिखी हुई-उपाशक दशासूत्रकी, ताडपत्रकी प्रतिमें ऐसा पाठ सुना है ( अण्णउथिय परिग्गहियाई चेइया) परंतु ( अरिहंत चेहयाई) ऐसे नहीं है । यह पक्षपातीयों ने प्रक्षेप, किया है ।
समीक्षा-हे ढूंढनी ? यह ११८६ के सालका ताडपत्रका पुस्तक है, वैसा-सुना है, परंतु तूंने-देखा तो, है नहीं, तो पिछे यह पाठका-फर्क कैसे लिख दिखाया ? तूं कहेगीके-ए. एफ रुडौल्फ हरनल साहिबके लेखके अनुमानसे-लिखती हुँ । तो भी इस पुस्तकका अनुमान-उस पुस्तकपै, कभी नही होसकता है । खेर जो तूं-साहिबके लेखसे भी, विचार करेंगी तो भी-तेरी जूठी कल्पनाकी-सिद्धि तो, कभी भी होने वाली नही है । क्यों कि, जो
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