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पार्थ अवतार अक्षरोंसें शान नही. (८५) देखके कभी ज्ञान नहीं होगाकि, यह किसकी-मूर्ति है. जैसें अनपढ-अक्षर, कभी नहीं वाच सकता, फिर तुम-अक्षराकारको देखके, तथा-मूर्तिको देखके, ज्ञान होना किस भूलसे कहते हो, ज्ञान तो ज्ञानस होता है. क्योंकि अज्ञानीको तो पूर्वोक्त-मूर्तिसे ज्ञान होता नहिं. और ज्ञानीको-मूर्तिकी गर्ज नहीं इत्यर्थः
समीक्षा-वाहरे ढूंढनी वाह ! अक्षरोसे, और मूर्ति से तो, ज्ञान होता ही नहीं है, यह बात तो तेरी निशानके जंडेपर चढानेवाली ही है। क्योंकि ढूंढकों तो-जबसे माताके गर्भ में आये है, तबसे ही-तीन ज्ञान लेके आये होंगे, इस वास्त न तो-अक्षरोंकी जरूरी रहती है. और न तो-मूर्तिकी जरुरी रहती है. यह बात तो तेरे पास बैठनेवाले, ही मान लेवेंगे. दूसरे कोइभी मान्य न करेंगे । क्योंकि हमको तो-अक्षरोंको, मास्तर दिखाके शिखाता है. जद पि. छेसे-बांचना, और पढना, आता है । तैसे ही हमारे माता पिता, अथवा गुरुजी, हमको पिछान करा देते है कि-यह वीतरागदेवकी मूर्ति है. पिछेसे उनके गुणोकोभी समजाते है. तब ही हमारी समजमें आता है. इस वास्ते-अक्षराकी स्थापना, और हमारे परमोपकारी वीतरागदेवकी-मूर्तिकीभी स्थापना, हमारा तो निस्तारही करनेवाली होती है । और तुम ढूंढकों तो त्रण ज्ञान सहित जन्म लेते होंगे ? इस वास्ते न तो-अक्षरोकी स्थापनाकी, और न तो वीतरागदेवकी-मूर्तिकी स्थापनाकी, जरुरी रहती होगी। ? जब वेशाही था तो, प्रथम पृष्ट. ३६ में-आकार (नकसा) देखनेसें ज्यादा, और जल्दी समज आती है. यह तो हमभी मानते है, वेशा क्यों लिखाथा ? कुछ पूर्वाऽपरका विचार तो करणाथा ? हमको सो-नाम, और स्थापना, इन दोनोकोभी जरुरी रहती ही है ।
॥ इति अक्षरोंसें ज्ञानका विचार ।।
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