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( ९६) मूर्तिपूजन व्यवहारिक कर्म. .. . में-देवताओंका मूर्तिपूजन-व्यवहारिक कर्म, कुल रूढीवत् , कहकर दिखाया । और फिर कहाकि-सम्यग् दृष्टिभी पूजते है, मिथ्या ह. ष्टिभी पूजते है । अब इहां पै-नमोथ्थुणका पाठ, शास्वती जिनमूर्तियांके आगे, देवता-परंपरा व्यवहारसे कहते आते है, वैसा लिखके दिखाया | और इस लेखके-नीचेका भागमें-जैन सूत्रोंमें मूर्तिका पूजन, धर्म प्रवृत्तिमें, अर्थात् श्रावकके--सम्यक्त्व व्रतादिके अधिकारमें, कहींभी नहीं चला. ॥ अब विचार यह है कि-समदृष्टि भी पूजते है, मिथ्या दृष्टिभी पूजते है । बैसा लेख ढूंढनाही-अपणी पोथीमें लिखती है, यहभी तो सूत्रमेंसेही लिखा होगा ? । तब कैसे कहती है कि-सम्यक्त्व व्रतादि अधिकारमें-मूर्ति पूजन कहीभी नही चला ?। विशेषमें तूं इतनाही मात्र-कह सकेगी कि-व्रताधिकारमें ' मूर्तिका पूजन' कही नहीं चला है । परंतु है विमतिनी ! सम्यक्त्व विनाके ढंढकोका, जो व्रत है सोतो, केवल पोकलरूपही है, और ब्रतादि मेहलका पायारूप सम्यक्त्व है, उनकी दृढ प्राप्तिका कारण 'जिन मूर्तिका पुजनभी ' है | किस वास्ते विपरीत तकॊ करके भोंदू लोकोंको जिन मार्गसें भ्रष्ट कर रही है ? हे ढंढनी अपणे लेखमें-तही लिखती है कि-मूर्तिको सम्यग दृष्टिभी पुजते है. तो पिछे " नमोत्थुणं अरिहंताणं." इत्यादि यह उत्तम पाठभी पढनेका, उत्तम व्यवहारसेंही चला आया होगा? तो यह परंपराभी उत्तमही होगी ? जैसे श्रावकके कुलमें, रात्रिभोजन त्याग, सामायिक, पोसह, करनेका परिपाठ है, और दो टंक आवश्यक क्रिया
आदिक व्यवहारिक जो जो कर्म है, उनको, जबसे बालक अज्ञान: पणे होता है, तबसेही उत्तमपणेका व्यवहारिक कर्तव्य जानके, सब प्रवृत्ति करनेको लग जाता है ! तूं कहेगी यह बालक तो सम्य क्वधारी है, तो अभी जिसको शरीर ढकनेकी तो खबरभी नहीं
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