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देवताओंका नमोस्युणं.
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हेगीक सोतो सब समदृष्टिही होते है, ऐसा कहना, या ऐसामान लेना, सब गलत है | क्योंकि जैन धर्मकी क्रिया करनेवाले में भी -- निश्चयसें तो सेंकडोंमें दो चार भी समदृष्टि मिलाना कठीन ही है | वैसें श्रावकोंमैभी- रात्रिभोजन त्याग, आ दि क्रियाओको समदृष्टिभी करते है, मिथ्या दृष्टिभी करते हैं. सो क्या सब छुडाने के योग्य है ? तूं कहेगी कि यह सब - व्यवहारिक क्रि 'याओ - छुडाने के योग्य नही है. तो पिछे - जिनप्रतिमाका पूजनको, व्यवहारिकपणेका-आरोप रखके, छुड़ाने के वास्ते-द्वेषभाव कर रही है. सो तेरी - किस गतिके वास्ते होगा ? इत्यलं. विस्तरेण ॥
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|| अब देवताओंका - नमो त्थूणंका, विचार ॥
ढूँढनी - पृष्ट ७० ओ० १३ से - और नमोत्थुर्ण के पाठ विषयमें - तर्क करोंगे तो, उत्तर यह है कि, पूर्वक भावसे मालुम होता है कि, देवता - परंपरा व्यवहारसे कहते आते है. ॥ भद्रबाहु स्वामी जीके पिछे, तथा वारावर्षी कालके पिछे-लिखने लिखाने में फरक पड़ा. हो । अतः ( इसी कारण ) जो हमने अपनी बनाई - ज्ञानदीप - कां नामकी पोथी - संवत् १९४६ की छपी पृष्ट ६८ में - लिखाया कि, मूर्त्तिखंडनभी हट है, ( नोट ) वह इस भ्रम से लिखा गयाथा कि- जो शाश्वती मूत्र्त्तियें हैं वह २४ धम्मवितारामकी हैं, उनका उ स्थापकरूप- दोष लगने के कारण, खंडनभी- हठ है, परंतु सोचकर देखा गया तो, पूर्वोक्त कारण से वह लेख ठीक नहीं । और प्रमाणिक० जैन सूत्रोंम - मूर्त्तिका पूजन, धर्म प्रवृत्ति, अर्थात् श्रावकके सम्यक्त्व व्रतादिके अधिकार में, कहीं भी नहीं चला इत्यर्थःसमीक्षा - अब इहां पर ढूंढनीका विचार देखो कि - पृष्ट. ६९
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