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( १८ ) भाष्य : ज्योतिषशास्त्र की विभिन्न शाखाओं में ग्रह मैत्री का विस्तार से विचार किया गया है। जातकशास्त्र में नैसर्गिक एवं तात्कालिक भेद से पंचधा-मैत्री का निरूपण मिलता है। ताजिक शास्त्र में पंचधा-मैत्री के स्थान पर मित्र, सम एवं शत्रु का विचार किया जाता है। किन्तु प्रश्नशास्त्र में न तो पंचधा मैत्री का ही विचार करते हैं और न ही मित्र, सम एवं शत्रु का अपितु यहाँ इन दोनों रीतियों से भिन्न ग्रहों के मित्र एवं शत्रु का ही विचार किया जाता है। ___ग्रह मंत्री के प्रसंग में मित्र ग्रह से तात्पर्य है—'वह ग्रह जो अपने प्रभाव से अन्य ग्रह या ग्रहों के मौलिक फल में वृद्धि करता है, मित्र कहलाता है। इसी प्रकार 'जो ग्रह अपने प्रभाव से दूसरे ग्रहों के फल में ह्रास या विरोध उत्पन्न करता है, वह शत्रु कहा जाता है। उदाहरणार्थ—सूर्य, चन्द्र, मंगल एवं गुरु आपस में एक-दूसरे के प्रभाव में वृद्धि करने के कारण परस्पर मित्र हैं। किन्तु ये ही ग्रह बुध, शुक्र, शनि एवं राहु के प्रभाव में ह्रास या विरोध उत्पन्न करने के कारण उनके शत्रु माने गये हैं। हमारे महर्षियों एवं मनीषी आचार्यों ने इसी तथ्य के आधार पर ग्रहों की मित्रता एवं शत्रुता का निर्धारण किया है। फलादेश में ग्रहों के इस मित्रता और शत्रुता जैसे पारस्परिक-सम्बन्ध को जानना परमावश्यक है। क्योंकि यह सम्बन्ध ग्रह स्थिति तथा ग्रहयोग के
१. मिन्नं तृतीयपञ्चमनवमैकादशगतोऽपि यो यस्य ।
धनमृतिरिपुरिस्फेषु च समो ग्रहः स्यादिति ज्ञेयम् ।। ... शत्रुस्तथैकतुर्ये जायास्थाने तथा दशमे ।
(रोमक एवं आचार्य हिल्लाज के अनुसार)
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