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पराधीनता का भी विचार किया जाता है ।।
वाणिज्य व्यवहारं च विवादं च समं परैः।
गमागमकलत्राणि पश्येत् प्राज्ञः कलत्रतः ॥४६॥ अर्थात् वाणिज्य, व्यापार, विवाद, आवागमन और स्त्री का विचार विद्वान् सप्तम भाव से करें।
भाष्य : इस भाव से व्यापारिक विभिन्न कार्य, लेन-देन, व्यवसाय का चुनाव, राजनैतिक एवं व्यापारिक विवाद, यात्रा तथा प्रवास से निवृत्ति और परणीता पत्नी का विचार किया जाता है। इसके साथ-साथ विवाह, रोमांस (प्रणय सम्बन्ध), नष्टपदार्थ, वधू-प्रवेश, रतिकलह, समुद्र यात्रा, चोरी का माल एवं विस्मृति का भी निर्णय होता है ।
नद्युत्तारेऽध्वव षम्य दुर्गे शात्रवसंकटे।
नष्टे दंष्ट्र रणे व्याधौ छिद्र छिद्र निरीक्षयेत् ॥५०॥ अर्थात् नदी पार करना, यात्रा में आपत्ति, दुर्गभंग, शत्रु'संकट, नष्ट, सर्पदंश, व्याधि और गहछिद्र का विचार अप्टम स्थान से करें।
भाष्य : इस भाव से विचारणीय विषयों में -नदी, समुद्र आदि पार करना, समुद्र यात्रा में आपत्ति, दुर्ग पर संकट, शत्रुओं की बाधा और बन्धन, मृत्यु, अपहरण, चोरी हुआ द्रव्य, सर्प, बिच्छू और कुत्ते का काटना, रोग, आकस्मिक दुर्घटना तथा भूत-प्रेत, पिशाच-शाकिनी आदि भय मुख्य हैं। ऋण, ऊँची
१. रिपौ मातुलमान्धारि चतुस्पाद्वन्ध भीव्रणान् ।
तव श्लो० ५२
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