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( ११३ )
विचार द्वार में प्रतिपादित कोई लाभ योग न हो; किन्तु भाग्य भाव पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो व्यक्ति को अप्रत्याशित लाभ होता है । कारण यह है कि इच्छित या चिन्तित लाभ केवल लाभ योग होने पर ही सम्भव है । अतः प्रश्न कुण्डली में लाभ योग न होने के कारण निश्चित प्रक्रिया या माध्यम से लाभ होने का प्रश्न ही नहीं उठता । भाग्य स्थान पर शुभ ग्रह की दृष्टि भाग्य को प्रबल करती है । इसी भाग्य के प्रभाववश पृच्छक को अचिन्तित या अप्रत्याशित लाभ होना युक्तिसंगत है । सारांश यह है कि इस योग में प्रश्नकर्ता जिस व्यक्ति, व्यवसाय या माध्यम से लाभ पूछता है उससे लाभ न होकर किसी अन्य प्रकार से और अप्रत्याशित रूप से लाभ होता है और इस लाभ का हेतु भाग्य या प्रारब्ध की प्रबलता ही है । यहाँ आचार्य ने लाभभाव की अपेक्षा भाग्य भाव को अधिक महत्वपूर्ण बतलाया है । क्योंकि लाभ योग न होते हुए भी भाग्य के प्रभाववश लाभ होता है । लग्नाधिपतिर्भुनक्ति कार्यं तदेव यदि तस्मात् ।
र
शत्रौ यात्यथ मित्रे तस्मिन्काले तदा सिद्धिः ॥ १०४॥
अर्थात् यदि लग्नेश अष्टम स्थान में हो तब वह शत्रु राशि में होने पर कार्य का नाश करता है और मित्र राशि में होने पर कार्य की सिद्धि करता है ।
भाष्य : ज्योतिष जगत में प्रायः यह सामान्य नियम प्रचलित है कि जिस भाव का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें स्थान में हो तो उस भाव के फल का नाश होता है । इसका विवेचन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं-- कि यदि भाव का स्वामी त्रिक स्थान में मित्र ग्रह की राशि में हो तो वह भाव की वृद्धि करता
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