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( १४१ ) किन्तु उनके शुभ एवं पाप प्रभाव में विपरीत क्रम होता है उदाहरणार्थ स्वराशि में शुभ ग्रह पूर्ण शुभ फल, मित्रराशि में पादोन शुभ फल, समराशि में अर्ध शुभ फल और शत्रुराशि में एकपाद शुभ फल, देता है। किन्तु पापग्रह स्वराशि में एक पादपापफल मित्रराशि में अर्ध पापफल, समराशि में पादोन पाप फल और शत्रु राशि में पूर्णपाप फल देता है। अतः क्रय-विक्रय से लाभ एवं हानि की मात्रा निश्चित करते समय शुभ एवं पाप ग्रहों के फल के इस क्रम को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए । अन्यथा विपरीत फलादेश की अधिक सम्भावना रहती है। बलतारतम्य के इस प्रसंग में वाराह मिहिर, कल्याणवर्मा एवं वैद्यनाथ आदि का भी यही मत है।
समर्घ वा महर्घ वा वस्तु में कथयामुकम् । पृच्छायां येन खेटेन शुभत्वं प्रतिपाद्यते ॥१३॥ खेटोऽसौ यावतो भासान् यति लग्नस्य सौम्यताम् ।।
विधत्ते तावतो मासान्समधं ब्रवते बुधाः॥१३२॥ अर्थात् वस्तु मन्दी होगी या तेज इस प्रश्न में जिस ग्रह से लग्न को शुभता मिले, वह ग्रह जितने मास तक लग्न को शुभत्व प्रदान करे, उतने मास तक वह वस्तु मन्दी रहेगी
भाष्य : तेजी-मन्दी का निश्चय प्रश्नलग्न के बल को देख कर किया जाता है। लग्न अपने स्वामी या शुभ ग्रह से युत या दृष्ट हो तथा केन्द्र में शुभ ग्रह हो तो वह बलवान होती है। यदि लग्न पाप ग्रहों से युत दृष्ट हो अथ वा पाप ग्रह केन्द्र स्थान में हों तो वह निर्बल कही जाती है। इस प्रकार जो ग्रह जितने समय तक लग्न को बल या शुभत्व प्रदान करता है, उतने समय तक विचारणीय वस्तु मन्दी रहती है । अन्य आचार्य
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