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( १३६ ) लग्नेश ग्राहक और लाभेश विक्रेता कहा गया है।
भाष्य : क्रय-विक्रय के प्रश्न में लग्नेश खरीदार और लाभेश बेचने वाला होता है। इन दोनों के बलाबल से ऋता और विक्रेता को लाभ या हानि का निर्णय करना चाहिए। साधारणतया लग्न क्रय का और लाभ स्थान विक्रय का प्रतिनिधि भाव होता है। अतः इनके बलवान या निर्बल होने पर क्रय या विक्रय में लाभ अथवा हानि होती है। स्वयं ग्रन्थकार ने अपना यह आशय अगले श्लोकों में व्यक्त किया है। नीलकंठ एवं जीवनाथ आदि आचार्य भी इस मत से सहमत हैं।
बलशालि विलग्नं चेद् गृह्यते यत्क्रयाणकम् । तस्मात्क्रयाणकाल्लाभः प्रष्टुर्भवति निश्चितम् ॥१२॥ विक्रीणाम्यमुकं वस्तु प्रश्नेऽप्येवं विधे सति । आयस्थाने वलवति विक्रेतव्यं क्रयाणकम् ॥१२६॥ शुभ स्वामियुते लाभे विक्र याल्लाभमादिशेत् । लाभेशे शुभ वर्गाढये मित्रक्षेत्रादिकेऽपि च ॥
(प्रश्न भूषण) अर्थात् बलवान् लग्न होने पर जो वस्तु खरीदी जाती है, उससे प्रश्नकर्ता को लाभ होता है । 'मैं अमुक बस्तु बेचूं ?' इस प्रश्न में लाभ स्थान बलवान होने पर खरीदी वस्तु बेचनी चाहिए। शुभ ग्रह एवं स्वामी से लाभ स्थान युत होने पर तथा लाभेश के शुभ वर्ग या मित्रक्षेत्र में स्थित होने पर विक्रय से लाभ कहना चाहिए।
भाष्य : पहले कहा जा चुका है कि लग्न और लाभ भाव क्रमश: क्रय एवं विक्रय के प्रतिनिधि भाव है। अतः जब लान बलवान् हो, उस समय खरीदी गई वस्तु खरीदार को निश्चित
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