Book Title: Bhuvan Dipak
Author(s): Padmaprabhusuri, Shukdev Chaturvedi
Publisher: Ranjan Publications

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Page 140
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४० ) रूप से लाभदायक होती है लग्नेश के बलवान होने पर भी क्रेता (ग्राहक) को लाभ होता है । विक्रय के प्रश्न के समय यदि लाभ स्थान ( एकादश भाव ) बलवान हो तो खरीदी हुई वस्तु बेचने से विक्रेता को लाभ होता है । यहाँ भाव के बल का निश्चित, भाव पर शुभ ग्रह एवं भावेश की युति या दृष्टि से करना चाहिए। और भावेश के बल का निर्णय उच्चराशि, मूल त्रिकोण, स्व राशि, मित्रराशि या शुभवर्ग में स्थिति के अनुसार कर लेना चाहिए। इस रीति से जब लाभस्थान या लाभेश बलवान् हो तो विक्रय से लाभ होता है और यदि लग्न या लग्नेश बलवान हो तो खरीदने से लाभ कहना चाहिए । भाव एवं भावेश के बलनिर्णय तथा क्रय-विक्रय से लाभ के इस प्रसंग में प्रायः सभी विद्वानों का लगभग यही मत है । स्वक्षेत्रे तु बलं पूर्णं पादोनं मित्रभे ग्रहे । अर्धं समगृहे ज्ञेयं पदं शत्रुगृहे स्थिते ॥ १३० ॥ अर्थात् — स्वराशि में ग्रह का पूर्ण बल, मित्रराशि में पादोन (३ / ४) समराशि में आधा और शत्रुराशि में एक पाद ( १ / ४) होता है । भाष्य : क्रय-विक्रय से लाभ की मात्रा जानने के लिए विभिन्न राशियों में ग्रह के बल का तारतम्य बतलाया गया है । ग्रह अपनी राशि में हो तो पूर्ण बल, मित्र राशि में हो तो तीन चौथाई; समराशि में हो तो आधा और शत्रु राशि में हो तो उसका बल चतुर्थांश तुल्य होता है । यद्यपि शुभ और पाप दोनों प्रकार के ग्रहों के बल में यही तारतम्य रहता है For Private and Personal Use Only

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