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( १३८ ) ग्रह से युक्त या दृष्ट हो। (ii) लग्न, तृतीय, पंचम और सप्तम इन भावों में राहु,
शनि, सूर्य या मंगल स्थित हो। (iii) लग्न में राहु और अष्टम में सूर्य हो । (iv) लग्न में सूर्य हो और चन्द्रमा नष्ट हो।
मूर्ती क्रूरग्रहः श्रेयाअछु यसी क्रूरदृङ नहि।
शुभो न शोभनो मूतौ शुभदृष्टिस्तु शोभना ॥१२६॥ अर्थात् लग्न में पाप ग्रह शुभ किन्तु पाप दृष्टि शुभ नहीं होती। तथा लग्न में शुभ ग्रह शुभ नहीं होता किन्तु उसकी दृष्टि शुभ होती है।
भाष्य : इस द्वार में प्रतिपादित पिछले समस्त श्लोकों का निष्कर्ष इस श्लोक में बतलाया गया है । युद्ध, शत्रुवध, विवाद, धातुकर्म, मुकद्दमा जुआ, तस्करी एवं अन्य समस्त उग्र, क्रूर या हिंसक कार्यों में फल या परिणाम का निश्चय करने की एक मात्र रीति यह है कि यदि लग्न में पाप ग्रह स्थित हो अथवा लग्न पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो इन कार्यों में सफलता मिलती है। किन्तु यदि प्रश्न लग्न में शुभ ग्रह हो या लग्न पर पापग्रह की दृष्टि हो तो इन कार्यों में निश्चित रूप से असफलता मिलती है । प्रायः सभी आचार्य इस मत से सहमत हैं। २६. अथ क्रय-विकयसमर्घमहर्घ द्वारम्
क्रेता लग्नपति यो विक्रेताऽयपतिः स्मृतः। - गृह्नाम्यहमिद वस्तु सति प्रश्ने अमूदृशे ॥१२७॥ अर्थात् इस वस्तु को मैं खरीदूं या नहीं, इस प्रश्न में
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