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( १४२ )
भी इसी मत के समर्थक है ।
अथासावशुभश्चिन्त्यः
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कियदिर्वासरंरयम् ।
सौम्यभावं विलग्नस्य विधास्यति विनिश्चितम् ॥ १३३ ॥ ज्ञातव्या दिवसैर्मासा मासंस्तार्वाम्दरस्य हि । समर्धता वस्तुनो हि प्रतिपाद्या विचक्षणः ॥ १३४ ॥
अर्थात् इसके बाद अशुभ ग्रह का विचार करना चाहिए कि यह कितने दिन में लग्न को शुभता प्रदान करेगा। इस रीति से जितने दिन आयें, उतने मास पर्यन्त वस्तु की समर्पता रहेगी - ऐसा विचार कहें ।
भाष्य : यदि प्रश्न लग्न अपने स्वामी या शुभ ग्रह से दृष्टयुक्त न हो और पापग्रह से दृष्ट युक्त होने से अशुभ प्रभावग्रस्त हो तो विचारणीय वस्तु तेज होती है । यह पापग्रह का अशुभ प्रभाव लग्न पर जितने दिनों तक रहेगा, वस्तु भी बाजार में उतने समय तक तेजी का रुख पकड़ेगी । जब तक यह पाप प्रभाव समाप्त होकर लग्न पर शुभ प्रभाव नहीं पड़ना शुरू होगा, तब वस्तु मन्दी का रुख अपनायेगी । आशय यह है कि जितने दिनों लग्न पर शुभ प्रभाव रहेगा, उतने मास तक मन्दी और जितने दिनों तक लग्न पर पाप प्रभाव रहेगा, उतने दिन तक तेजी रहेगी । प्रश्नशास्त्र के प्रायः सभी आचार्यों ने इस मत को स्वीकार किया है ।
अधिष्ठातुर्बलं ज्ञेयं लग्ने स्वामि विर्वाजते । बलहीने त्वधिष्ठातुः प्राहुः स्वामिबले बलम् ॥ १३५ ॥
अर्थात् लग्न के स्वामी से वर्जित होने परव स्तु के प्रति
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