________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १५२ ) होती है। किन्तु ग्रन्थकार की यह दूसरी रीति प्रश्नशास्त्र के अन्यआचार्यों को मान्य नहीं है। प्रथम रीति अवश्य सर्वसम्मत है। ३३. अथ द्रेष्काणादिद्वारम
द्रेष्काणे यत्र लग्नं स्याद्वाविंशतितये ततः।
ट्रेष्काणे यदि लग्नेशः पृच्छायां तन्मृति ध्रुवम् ॥१५०॥ अर्थात (रोगी के) प्रश्न में जिस द्रेष्काण में लग्न हो, उससे २२वें द्रेष्काण में कदाचित लग्नेश हो तो निश्चित रूप से मृत्यु होती है। ___ भाष्य : राशि के तृतीय भाग को द्रेष्काण कहते हैं। प्रत्येक द्रेष्काण १० अंश का होता है। राशि में १ अंश से १० अंश तक प्रथम द्रेष्काण, ११ अंश से २० अंश तक द्वितीय द्रेष्काण और २१ अंश से ३० अंश तक तृतीय द्रेष्काण होता है। इस प्रकार लग्न से लेकर सप्तम भाव तक में राशियों में २१ द्रेष्काण व्यतीत हो जाते हैं। और २२वाँ द्रेष्काण सदैव अष्टम स्थान का होता है । इस लिए यदि लग्नेश लग्न के द्रष्काण से २२वें द्रेष्काण में हो तो वह अष्टमभाव में स्थित होता है। परिणामतः लग्नेश मृत्यु भाव (अष्टम) में होने के कारण रोगी की मृत्यु होना कहा गया है ।
लग्नपो मृत्युपश्चापि लग्ने स्थातामुभौ यदि । स्थितौ द्रेष्काण एकस्मिंस्तदा मूर्तिनिरामया ॥१५१॥ लग्नपो मृत्युपश्चापि मृत्यौ स्यातामुभौ यदि ।
स्थितौ द्रष्काण एकस्मिस्तदा मृत्युन संशयः॥१५२॥ अर्थात् यदि लग्नेश और अष्टमेश दोनों लग्न में एक ही द्रेष्काण में हों तो शरीर स्वस्थ रहता है। यदि लग्नेश और
For Private and Personal Use Only