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( १५१ ) भाष्य : कार्यसिद्धि की कालावधि का निश्चय करने के लिए ग्रन्थकार ने दो रीतियाँ बतलायी हैं। प्रथम रीति यह है किप्रश्न लग्न के नवमांश स्वामी और लग्नेश के नवमांश स्वामी में मित्रता, युति या दृष्टि होने पर इन दोनों के अन्तरतुल्य काल में कार्य की सिद्धि होती है। सूर्यादि ग्रहों का काल क्रमशः अयन, क्षण (२ घटी), दिन, ऋतु (२ मास), मास, पक्ष एवं वर्ष बतलाया गया। राहु और केतु का काल यथाक्रमेण आठ मास एवं तीन मास माना गया है । अतः लग्ननवांशस्वामी से लग्नेश नवांश स्वामी तक गणना द्वारा प्राप्त अन्तर को लग्नेश ग्रह के काल से गुणा कर कालावधि का निश्चय किया जाता है। उदाहरणार्थ मीन राशि के १५ अंश २५ कला स्पष्टलग्न के समय प्रश्न किया गया। उस समय गुरु स्पष्ट ११/२७/१ ४० था तथा प्रश्न कुण्डली निम्नलिखित थी : ___ यहाँ प्रश्न लग्न में वृश्चिक नवांश है अतः नवांशस्वामी || के मंगल है। तथा गुरु मीन के नवमांश में होने के कारण स्वयं ही । नवांश स्वामी भी है । अतः लग्न नवांश वृश्चिक से लग्नेश नवांश मीन तक गणना करने से ५ संख्या आयी। लग्न नवांश स्वामी मंगल का काल दिन होता है। अतः निश्चय किया गया कि पाँच दिन में कार्य सिद्धि होगी।
द्वितीय रीति के अनुसार लग्नेश जिस भाव से मित्रता, युति या दृष्टि रखता है। लग्नेश से उस भाव तक गणना कर संख्या ज्ञात करें। इस संख्या तुल्य मासों में कार्य की सिद्धि
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