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( १६७ ) जहाँ सूर्य स्थित हो (वह स्थान), ४. यदि गुरु नीच राशि, अस्त एवं वक्री न हो गुरु जहाँ बैठा हो, ५. मंगल, बुध एवं शुक्र इन तीनों में से बलवान् ग्रह जहाँ स्थित हो और ६. शनि या शनि के दुर्बल होने पर मंगल, बुध और शुक्र मे से जो २ शेष बचें उनमें से वलवान् ग्रह जहाँ बैठा हो। इस प्रकार छ: प्रश्न लग्न वनते हैं। शेष छ: राशियों में भी बल के क्रम से छ: लग्नों की कल्पना करने से एक ही प्रश्न लग्न में १२ लग्न उदित होते हैं। इसी प्रकार धन, पराक्रम, सुख आदि प्रत्येक भाव में १२१२ लग्नों की कल्पना से द्वादश भावों में १४४ लग्न होते हैं।
भाष्य : यदि एक ही लग्न में पृच्छक अनेक प्रश्न करे अथवा अनेक व्यक्ति एक ही लग्न में प्रश्न करें तो उन प्रश्नों का विचार करने की रीति पर यहाँ ग्रन्थकार ने संक्षेप में प्रकाश डाला है। यदि ऐसी परिस्थिति हो तो विद्वान् दैवज्ञ प्रथम प्रश्न का उत्तर लग्न से, दूसरे प्रश्न का चन्द्रस्थित राशि को लग्न मानकर, तीसरे प्रश्न का उत्तर सूर्य स्थित राशि को लग्न मानकर, चौथे प्रश्न का उत्तर गुरु स्थित राशि को लग्न मानकर किन्तु ऐसा तभी करे जब गुरु नीच राशि गत, अस्तंगत या वक्री न हों, पाँचवे प्रश्न का उत्तर मंगल, बुध और शुक्र में से जिसके अंश अधिक हों, वह जिस राशि में स्थित हो उसे लग्न मानकर तथा छठे प्रश्न का उत्तर शनि जिस राशि में हो उसे लग्न मानकर देना चाहिए। यदि शनि निर्बल हो तो पूर्वोक्त मंगल, बुध एवं शुक्र में से जो २ ग्रह शेष बचे हैं उनमें अंशाधिक्य के आधार पर जो ग्रह बलबान हो, वह जिस राशि में बैठा हो उस राशि को लग्न मान कर उक्त प्रश्न के फल का विचार करना चाहिए। नीलकण्ठ आदि विद्वानों ने भी एक लग्न में अनेक प्रश्नों का उत्तर देने के
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