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माना गया है। यदि यह शुक्र अकेला सप्तम स्थान में हो तो पति की स्थिति यथावत रहती है। किन्तु शुभ ग्रह से युक्त शुक्र सातवें होने पर सुख की वृद्धि, चन्द्रमा से युक्त होने पर कीर्ति
और पाप ग्रहों से युक्त होने पर कष्ट आदि मिलते हैं । पुत्रादि का विचार भी इसी तरह करना चाहिए । अष्टम स्थान पति का धन एवं कुटुम्ब स्थान होता है। अतः उसमें भी उक्त ग्रहों की स्थिति होने पर इसी प्रकार का फल कहा गया है।
तुर्य पश्यति तुर्यपोऽस्ति निहितं क्रू रेऽपि तस्मिन्भवे, वेन्न प्राप्तिः खलु खेचरे च सदधिष्ठानं तदिन्दौ स्थिते। स्वामिप्रेक्षणजितेऽपि च तदस्तित्वं न तद्वाषिके,
लाभश्चन्द्र युगीक्षणेन रहितं पूर्ण च चन्द्र क्षणम् ॥१६॥ अर्थात् चतुर्थेश चतुर्थ भाव को देखे तो (निधि) है, उस पर क्रूरग्रह की दृष्टि होने पर निधि होते हुए प्राप्ति नहीं होती। चतुर्थ स्थान में ग्रह होने पर धन पात्रादि में होता है । वहाँ चन्द्रमा स्थित होने पर और चतुर्थेश की दृष्टि न होने पर भी निधि होती है। चन्द्रमा की युति दृष्टि न होने पर एक वर्ष तक लाभ नहीं होता और चन्द्रमा की दृष्टि से पूर्ण लाभहोता है।
भाष्य : चतुर्थ भाव निधि (जमीन में गढ़े धन) का प्रतिनिधि भाव है । अत: चतुर्थ स्थान पर चतुर्थेश की दृष्टि होने पर भूमि से गढ़ा हुआ धन या खजाना अवश्य होता है । यदि पाप ग्रह की इस भाव पर दृष्टि हो तो पाप प्रभाववश धन की प्राप्ति नहीं होती। यदि इस भाव में कोई ग्रह हो तो धन उसकी धातु के पात्र में रखा होता है। चन्द्रमा इस भाव का कारक ग्रह है। अत: इसकी चतुर्थ भाव पर दृष्टि या युति से धन की प्राप्ति
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