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( ८७ ) और लग्नेश का योग होने पर तथा विचारणीय भाव पर चन्द्रमा या भावेश की दृष्टि पड़ने पर उस भाव का फल मिलता है। इस सामान्य नियम से विद्वान सभी भावों के प्रश्नों का विचार सुगमतापूर्वक कर सकते हैं। १३. अथ लग्नेशस्थिति द्वारम्
लग्नेशो यदि षष्ठे स्वयमेव रिपुस्तदा भवत्यात्मा।
मृत्युकृदष्टमगोऽसौ, व्ययगः सततं व्ययं कुरुते ॥४॥ अर्थात् यदि लग्नेश षष्ठ स्थान में हो तो व्यक्ति स्वयं अपना शत्रु (कार्यनाशक) होता है। (यदि) यह अष्टम स्थान में हो तो मृत्युकारक और द्वादश स्थान में हो तो सदैव व्यय कराता है।
__ भाष्य : लग्नेश की त्रिक स्थान में स्थिति का फल विचार करने से पूर्व भावों के शुभाशुभत्व की संक्षिप्त चर्चा कर लेना सर्वथा प्रासंगिक होगा। तन्वादि द्वादश भावों में से लग्न, पंचम
और नवम ये तीन भाव श्रेष्ठ, षष्ठ, अष्टम और द्वादश ये तीन भाव नेष्ट तथा शेष छः भाव मध्यम फलदायक माने गये हैं। यह शुभाशुभत्व भावों की प्रकृति और उनके प्रतिनिधित्व के आधार पर किया गया है। चूंकि षष्ठ भाव रोग और शत्रु का, अष्टम भाव मृत्यु और पतन का तथा द्वादश भाव व्यय और हानि का प्रतिनिधि भाव है । अतः इन्हें नेष्ट भाव कहा गया है। किसी भी भाव का स्वामी ग्रह जब छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो जाता है, तो वह भाव के फल को नष्ट या विपरीत कर देता है। यही कारण है कि ज्योतिषशास्त्र के समस्त आचार्यों ने इन स्थानों को दुःस्थान एवं निषिद्ध स्थान माना है।
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