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( ६६ ) नवांश के आधार पर जैसे प्रसव काल का ज्ञान करते हैं; लग्न के भुक्तनवांश के आधार पर उसी प्रकार गर्भ के मास एवं दिन का ज्ञान किया जाता है। इस रीति की चर्चा श्लोक ८८ के भाष्य में की जा चुकी है। १८. अथ स्त्रीलाभादि द्वारम्
स्थाने चतुर्थे सौम्यत्वमापन्ने ललना धृता।
सप्तमे सौम्यतां प्राप्ते प्रष्टुः कान्ता विवाहिता ॥१॥ अर्थात् चतुर्थ स्थान शुभ होने पर प्रश्नकर्ता की स्त्री रखेली और सप्तम स्थान शुभ होने पर विवाहिता होती है।
भाष्य : इस द्वार में ४ श्लोकों में ग्रन्थकार ने पृच्छक की स्त्री विवाहिता या अविवाहिता (रखेली) होगी तथा स्त्री सुख कैसा होगा इन प्रश्नों का ही विचार किया है। यद्यपि इस द्वार का नाम स्त्री लाभादिद्वार है किन्तु इसमें पृथक रूप से स्त्री प्राप्ति के योग का विचार नहीं किया गया। कारण यह है कि प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति का विचार श्लोक ६०-६१, ७२७४ एवं ८०-८३ में किया जा चुका है। तदनुसार लग्नेश एवं सप्तमेश (कार्येश) में स्थान, युति या दृष्टि सम्बन्ध होने पर तथा कार्य स्थान पर चन्द्रमा की युति या दृष्टि होने से स्त्रीप्राप्ति का निश्चय सरलतापूर्वक किया जा सकता है। इस प्रकार स्वयं विचार कर लेने का निर्देश आचार्य ने श्लोक ८३ में दिया है।
इसीलिए इस द्वार में प्राप्त स्त्री कैसी होगी? इस प्रश्न का ही मुख्यतया विचार किया गया है। यदि चतुर्थ स्थान शुभ ग्रह की युति, दृष्टि या उसकी राशि के प्रभाव से शुभ हो
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