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( ५६ ) भाव में) स्थित होकर अशुभ तथा केंद्र एवं त्रिकोण स्थान मे शुभ फल देता है।'
भावोऽथ कार्यरूपो यस्तदधिपलग्नाधिपो चिन्त्यौ।
वीक्षणयोगी भावाधिष्ठातारौ पुनश्चिन्त्यौ ॥५६॥ अर्थात् कार्य सम्बन्धी जो भाव है उसके स्वामी और लग्नेश इन दोनों का विचार करे। फिर इन दोनों भावों के स्वामियों की युति और दृष्टि का विचार करे।
भाष्य : लग्नादि १२ भावों में जिस भाव से सम्बन्धी प्रश्न हो उस भाव के स्वामी और लग्नेश इन दोनों के बलाबल, युति दृष्टि एवं स्थिति का विचार फल कथन से पूर्व करना आवश्यक है। क्योंकि इन्हीं के आधार पर फल कहा जाता है। उदाहरणार्थ यदि प्रश्न सन्तान सम्बन्धी हो तो पंचमेश और लग्नेश द्वारा स्त्री सम्बन्धी हो तो सप्तमेश और लग्नेश द्वारा तथा भाग्य सम्बन्धी प्रश्न हो तो भाग्येश और लग्नेश द्वारा उक्त रीति से विचार करना चाहिए।
लग्नपतिर्यदि लग्नकार्याधिपतिश्च वीक्षते कार्यम् । लग्नाधीशः कार्य कार्येशः पश्यति विलग्नम् ॥६०॥ लग्नेशः कार्येशं विलोकते विलग्नपं तु कार्येशः।
शीतगुवृष्टौ सत्यां परिपूर्णा कार्यनिस्पत्तिः॥६१॥ अर्थात् यदि लग्नेश लग्न को और कार्येश कार्यभाव को देखता हो (अथवा) लग्नेश कार्यभाव को और कार्येश लग्न को
१. यम्दावनाथो रिपुरिःफ रन्ध्रे दुःस्थानपो यम्दवनस्थितो वा। तम्दावनाशं कथयन्ति तज्ज्ञाः
-जातक पारि० ॥
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