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( ७३ )
११. अथ राजयोग द्वारम्
आद्यो लग्नपतिः कार्ये लग्ने कार्याधिपो यदि। द्वितीयो लग्नपो लग्ने कार्ये कार्याधिपो भवेत् ॥७२॥ लग्नपः कार्यपश्चापि लग्ने यदि तृतीयकः। चतुर्थः कार्यगौ स्यातां यदि लग्नपकार्यपौ ॥७३॥ चतुर्पु तुभयत्रापि चन्द्रदृग्दर्शनं मिथः।
कार्यसिद्धिस्तदा ज्ञेया मित्रे चेदधिकं शुभम् ॥७४॥ अर्थात लग्नेश कार्यभाव में और कार्येश लग्न में हो तो प्रथम योग; लग्नेश लग्न में और कार्येश कार्य भाव में हो तो द्वितीय योग; लग्नेश और कार्येश लग्न में हों तो तृतीय योग; तथा लग्नेश और कार्येश दोनों कार्य भाव में हों तो चतुर्थ योग (होता है)। किन्तु इन चारों योगों में परस्पर चन्द्रमा की दृष्टि हो तो कार्य सिद्धि जाननी चाहिए। यदि चन्द्रमा मित्रराशि आदि में हो तो अधिक शुभ फल होता है। ___ भाष्य : पहले श्लोक ६० तथा ६१ में लग्नेश और कार्येश के दृष्टि सम्बन्ध के आधार पर कार्य सिद्धि के ३ योगों का वर्णन किया गया है। यहां लग्नेश और कार्येश के स्थिति सम्बन्ध के आधार पर ४ राजयोगों का विवेचन किया जा रहा है । ग्रन्थकार की यह कल्पना पाराशर की सम्बन्ध चतुष्टय और उनके आधार पर राजयोग की परिकल्पना से पर्याप्त मात्रा में साम्य रखती है। महर्षि पाराशर ने सर्वप्रथम सम्बन्ध चतुष्टय का विचार किया था। ये चार सम्बन्ध हैं : १. दृष्टि सम्बन्ध, २. स्थान सम्बन्ध, ३. युति सम्बन्ध एवं ४. एकान्तर सम्बन्ध ।
ग्रन्थकार ने एकान्तर सम्बन्ध को छोड़ कर शेष ३ संबंधों
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