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( ७८ ) या कार्येश की शुभ ग्रह के साथ युति हो तो शुभ फल और पापग्रह के साथ युति हो तो पाप फल की कल्पना कर लेनी चाहिए। इसी प्रकार लग्नेश या कार्येश पर शुभ ग्रह की दृष्टि होने पर शुभ फल तथा पाप ग्रह की दृष्टि होने पर पाप फल का विचार भी फलादेश से पूर्व विद्वानों को स्वयं कर लेना चाहिए । कारण यह है कि शुभ एवं पाप ग्रहों की दृष्टि या युति का फल सुप्रसिद्ध एवं सामान्यतया सभी को ज्ञात होने के कारण ग्रन्थकार ने यहां स्वयं विवेचित नहीं किया है। किन्तु इस दृष्टि या युति का भी फल पर आवश्यक रूप से प्रभाव पड़ता है । अतः उन्होंने सलाह दी है कि इस दृष्टि और योग का भी विचार कर तब निष्कर्ष रूप में विद्वान फलादेश करें।
परस्पर दृष्टिमात्रेण अर्धयोगं विनिर्दिशेत् ।
चन्द्रदृष्टिं विना ज्ञेयं शुभं पादफलं बुधैः ॥७७॥ अर्थात् केवल परस्पर दृष्टि से अर्धयोग कहना चाहिए (तथा) चन्द्रमा की दृष्टि के बिना विद्वान (राजयोग का) शुभ फल एक पाद (१/४) कहें।
भाष्य : लग्नेश एवं कार्येश में स्थान या युति सम्बन्ध होने पर राजयोग होता है। यदि इन दोनों में उक्त सम्बन्ध न होकर दृष्टि सम्बन्ध हो तो अर्धयोग मानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि लग्नेश और कार्येश की परस्पर दृष्टिमात्र होने से योग आधा बनता है। परिणामतः इसका फल भी राजयोग की तुलना में आधा ही कहना चाहिए। इस दृष्टि सम्बन्ध के होने पर भी कार्य सिद्धि अवश्य होती है। किन्तु अन्तर इतना ही है कि राजयोग होने पर कार्य की सिद्धि सम्मान पूर्वक एवं अल्प प्रयास से होती है जब कि इस योग में पूरा प्रयास करने पर कार्य की
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