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( ५५ ) भाव । इनका महत्त्व समझाने के लिए इनकी तुलना एक फलते फूलते वृक्ष से की गयी है । चन्द्रमा फलित रूपी वृक्ष का बीज है, लग्न उसका पुष्प है तो नवांश उसका फल है और भाव उस फल का आस्वादन है। जैसे बीज के बिना पुष्प, फल और फलास्वाद की कल्पना असम्भव है । उसो प्रकार चन्द्रमा का विचार किये बिना यथार्थ फलादेश का ज्ञान असम्भव ही है । अतः प्रत्येक प्रश्न में सर्वप्रथम की चन्द्रमा स्थिति, अन्य ग्रहों से युति, दृष्टि एवं बलाबल का सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिए। तदनन्तर लग्न, नवांश और सम्बन्धित भाव का गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए । इस प्रकार इन चारों का परिशीलन कर निष्कर्ष रूप म जो फल ज्ञात हो, उसे कहने से फलादेश यथार्थ रूप में घटता है।
सारांश यह कि प्रश्नकाल में चन्द्रमा, लग्न, नवांश और भाव ये चारों बली हो तो कार्य की पूर्ण सिद्धि होती है। इनमें से एकादि के निर्बल होने पर अनुपात से कार्यसिद्धि की कल्पना करनी चाहिए।
उदितं चिन्तयेभ्दावं भावि भूतञ्च चिन्तयेत् ।
कार्यभावेन योगञ्च कार्य भावस्थितं ग्रहम् ॥५७॥ अर्थात् उदित (लग्न) भाव का विचार करे और फिर भूत भविष्यत् भाव का चितवन करे । कार्य भाव के द्वारा योग और कार्य भाव में स्थित ग्रह का विचार करें।
भाष्य : प्रश्नलग्न से भूत, भविष्य एवं वर्तमान की जानकारी के लिए आचार्य ने उक्त श्लोक के पूर्वार्द्ध में संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया है। प्रत्येक राशि में ३०-३० अंश होते हैं । अतः लग्न का स्पष्टीकरण कर उसके भुक्तांशों को भूतकाल, भोग्यांशों को
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