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( ३१ ) है-धाम्य और अधाम्य । धाम्य धातुओं में सुवर्ण आदि तैजस (चमकीले पदार्थ जैसे सोना-चाँदी आदि सप्त धातु एवं विभिन्न प्रकार के रत्न) तथा अधाम्य धातुओं में मृत्तिकादि अतैजस (चमकीलापन रहित) जैसे मिट्टी, पत्थर, कोयला एवं विभिन्न खनिज पदार्थ माने गये हैं। मूलवर्ग में तृण आदि से लेकर वृक्ष पर्यन्त विभिन्न पदार्थ जैसे तृण, गुल्म, लता, वल्ली, काष्ठ, औषधि, धान्य एवं अन्य उभ्दिज पदार्थ स्वीकार किये गये हैं। मूलवर्ग भी दो प्रकार का होता है-जलज और स्थलज । जल में उत्पन्न होने वाले को जलज और भूमि में उत्पन्न होने वाले को स्थलज कहते हैं। जीव वर्ग में अण्डज (अण्डा से उत्पन्न पक्षी आदि), श्वेदज (कीट), जरायुज एवं पिण्डज आदि समस्त जीव आते हैं। ये जीव तीन प्रकार के होते हैं १. द्विपद, २. चतुस्पद एवं ३. सरीसृप । इनका विस्तार से विवेचन अग्रिम श्लोकों में किया गया है । प्रश्नशास्त्र के सभी मानक ग्रन्थों में धातु, मूल एवं जीवादि ऐसा ही वर्गीकरण मिलता है ।
चन्द्रमा, मंगल, शनि एवं राहु धातु संज्ञक ग्रह हैं। यदि इन ग्रहों का लग्न से सम्बन्ध हो, तो धातु सम्बन्धी प्रश्न होता है । धाम्य एवं अधाम्य धातु के निर्णय का प्रकार यह है- यदि उक्त ग्रह पाप ग्रह के नवमांश में हों, तो धाम्य धातु और यदि शुभ ग्रह के नवमांश में हों, तो अधाम्य धातु जानना चाहिए। आगे ३७ वें श्लोक में आचार्य ने इसका विस्तार से विचार किया है ।
सूर्य और शुक्र मूलसंज्ञक हैं। यदि इनका सम्बन्ध लग्न से हो, तो मूल सम्बन्धी प्रश्न होता है । जलज एवं स्थलज का ज्ञान
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