________________
राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। [१५
राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। "ज्यों माचन-कोदों परभाव, जाय जथारथ दिष्टि स्वभाव । समझै पुरुष और की और, त्योंही जगजीवनकी दौर ॥"
सल्लकी वनमें घोर हाहाकार मचा हुआ है। कोई किसी ओर भागा जारहा है, कोई किसी ओर झाड़ियोमे घुमकर प्राण बचा रहा है; और कोई भयके कारण बुरी तरह चिल्ला रहा है । चारो ओर कोलाहल मचा हुआ है, मानो साक्षात् प्रलय ही आनकर उपस्थित होगई है। वह देखो वजघोष हाथी, जिसके गण्डस्थलसे मद झर रहा है, मदमाता होकर यहां ठहरे हुए इस यात्री-संघ पर टूट पड़ा है । कुपित हुआ ऐसे त्रास देरहा है कि सबको प्राणोंके लाले पडे हुये है। वह मानो इस संघको यह शिक्षा देरहा है कि 'दूसरेकी जीवनचर्यामे बाधा डालना ठीक नहीं। मैं आनन्दसे अपनी हथनियोंके साथ इस वनमें आनन्दक्रीडा किया करता था, तुमने बीचमे आकर यह क्या अड़गा डाल दिया। लो, इसका फल चाखो ।' मत्त हाथी रोषवान हुआ इसतरह बुरीतरह हिंसाकर्म रत होरहा था।
परन्तु जरा नजर बढ़ाइये । यह हाथी अपनी विद्युद्गतिसे क्यों शिथिल होता जारहा है । अरे, यह तो अपनी क्रूरता भी छोड़ता जा रहा है, शांति इसके निकट आती जा रही है । क्या कारण है कि यह यहां इन मौनी साधुके सामने चुपचाप खड़ा होकर एकटक उनकी ओर निहार रहा है ? साधु महाराजका दिव्य शरीर है। उनके उरस्थलमें श्रीवत्सका लक्षण सोह रहा है,