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३०८] भगवान पार्श्वनाय । इस सेवा-मार्गसे विमुख नहीं थीं। कोमलांगी रमणीरत्नोंने अपने वासना विलासको उठाकर एक तरफ रख दिया था । ज्ञान अंजनसे उन्होंने अपने दिव्य चक्षुओंको प्रभामई बना लिया था। गृहकुटुम्बका ममत्व उनकी 'वसुधैव कुटुम्बकम्'की नीतिमें बाधक नहीं था। वह स्वयं संयमी जीवन व्यतीत करती हुई अपना आत्मकल्याण करती थीं और देश में सर्वत्र विहार करती हुई विद्वानोसे शास्त्रार्थ करता और जनताको धर्मामृतका पान कराती थीं । वह रमणीरत्न थीं सारे संसारके लिये आदर्शरूप थी। इन्हींके साथ श्वेत वस्त्रोंको धारण करनेवाले उदासीन गृहत्यागी श्रावक और श्राविकायें भी अपनी शक्तिके अनुसार धर्मप्रभावनाके कार्यमें संलग्न थे । इन सबके विषयमें श्री गुणभद्राचार्यजी कहते हैं कि.
"सुलोचनाद्याः पत्रिशत्सहस्राण्यार्यिका विभोः। श्रावका लक्षमेकंतु त्रिगुणाः श्राविकास्ततः ॥१५३॥"
अर्थात्-'उन भगवान्के समवशरणमें सुलोचनाको आदि लेकर छत्तीसहजार अनिकाएं थीं. एकलाख श्रावक थे और तीनलाल श्राविकायें थीं।" यह सब ही अपना आत्मकल्याण करत सर्वत्र भगवान के साथ रहकर धर्मका उद्योत करते थे। इनके अतिरिक्त जनेकों राना, सेठ और देव-देवियां भगवान के साधारण भक्त । इनमें मुख्य भगवान्के माता-पिता थे, वे इन तीर्थकर भगवान हद प्रदानी होकर उनके मासनका या फलानेमें दत्तचित्त छ । यही बात श्री वादिरानमूग्निी इन शब्दोमें प्रकट करते है'राजा पुनः स जिनभक्तिमरावनम्रः,
मोच्यकराव्यपदमदिनमण्डलश्री।