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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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Ketka** **
निवेदन।
*TERETRO BOOK प्रसिद्ध जैन ऐतिहासज्ञ-श्री० बाबू कामताप्रसादजी जैन, .(मा० संपादक-"वीर")ने निसप्रकार आधुनिक शैलीपर तुलनात्मक दृष्टिसे भगवान् महावीर, भ० महावीर व बुद्ध, संक्षिप्त जैन इतिहास आदि ग्रंथोंका अतीव खोज व मननपूर्वक संपादन किया है उसीप्रकार प्रस्तुत ग्रन्थका संपादन भी आपने कई वर्षोंकी खोजपूर्वक करके दिगम्बर जैन इतिहासमें अमर नाम प्राप्त करलिया है; क्योंकि ऐसे तो अनेक तीर्थंकरोंके चरित्र प्रकट होचुके हैं व होंगे परन्तु जिस ढंगपर आप इन ग्रंथोंका संपादन कररहे हैं वह जैनइतिहासका अभूतपूर्व मसाला ही है।
हर्ष है कि आपके अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थों के अनुसार इस महान ग्रन्थका प्रकाशन भी आज हो रहा है व "दिगम्बर जैन के ग्राहकोंको उपहारमें भी दिया जाचुका है जिससे इसका प्रचार सुलभतासे होरहा है। हमारे परम मित्र बाबू कामताप्रसादजी अपनी ऐसी अमूल्य कृतियें हमें प्रकाशनार्थ देते रहते हैं उसके लिये आपके हम बड़े कृतज्ञ हैं। हमारी यही भावना है कि आप ऐसे और भी अनेक ग्रन्थोंकी रचना करके अभूतपूर्व जैन साहित्यका विशेष २ प्रकाश करें।
प्रकाशक ।
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कृतझता-शान ।
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पहले ही उन अनुपम पुण्य अवसर और अलौकिक करण - भावके "निकट मैं कृतज्ञता पाशमें वेष्टित हू; जिनके वलपर प्रस्तुत ग्रन्थ रचनेका साहस मुझे हुआ । मनुष्य अनन्त संसारमें हीन - शक्ति होरहा है, वह परिस्थितिका गुलाम वन रहा है। जिसको वह पकड़े हुये है, उसीपर मर मिटने के लिये तैयार है । रुढि और धर्ममें सूक्ष्म और बादर भन्तर जो भी है, उसे समझनेवाले विरले ही परीक्षा - प्रधानी हैं। फिर भला गुरुतर महत्वगाली और अपूर्व ग्रन्थ - रत्नोंके होते हुये भी कैसे कोई इस रचना के लिये अवसर और भावकी सराहना करके उन्हें धन्यवादकी सुमनाजलि समर्पित करेगा ! पर प्रभृ पार्श्वके पादपद्मोंमें नतमस्तक होकर वर्तमान लेखक उनका आभार स्वीकार करनेको वाघ है, क्योंकि उन्होंकी कृपासे मनुष्यों में शक्तिका सञ्चार होता है और वे सत्यके दर्शन कर पातेहैं । प्रस्तुत रचना सत्यकी ओर हमें कितनी टे जायगी ? इसका उत्तर पाठकगण स्वय ही ढूँढ लें । इस विपयमें मेरा कुछ लिखना व्यर्थ है । हा, उन महानुभावोंका आमार स्वीकार कर लेना में अपना कर्तव्य समझता हू, जिनमे मुझे इस ग्रन्थ सकलनमें सहायता प्राप्त हुई है । श्री जैनसिद्रात भवन, आरा, ऐलक पन्नालाल सरस्वती भण्डार, बम्बई और श्री इम्पीरियल लायब्रेरी, क्लकत्ताने आवश्यक साहित्य प्रदान करके मेरा पूरा हाथ बढाया है, मैं इस कृपाके लिये उनका आभारी हूँ | साथ ही मैं अपने मित्र श्रीयुत मूचन्द्र किसनदासजी कापडियाके अनुप्रहको नहीं भुला सक्ता है । यह ही नहीं कि उनके सदुत्साहसे यह रचना - प्रकाशमें आरही है, प्रत्युत इसके निर्माणमें भी उन्होंने आवश्यकीय ग्रन्थों और साहित्य पत्रोंको जुटाकर इसकी रचना सुगम - साध्य बना दी । अतएव उन्हें में विशेष रूपमें धन्यवाद समर्पित करता हू । विश्वास हैं, उनके उत्साहका आदर करके विद्वान् पाठक इम रचनाको अपनायेंगे और आशा है कि इसके द्वारा वे जैनधर्मका मस्तक ऊँचा होता पायेंगे | इत्यलम् !
1
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अलीगंज (एटा)
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विनीत - कामताप्रसाद जैन |
ता० ११-१०-१९२८
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হস্র ৯৯৬শুভ®®®®® | ঘূত্মশুণিষ্ম =
শ্লোক্সাকুল্পেী বুলি स्कृतिम छहसागाकृतः
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উলঙ্গ।
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विषय-सूची। प्रत्ताश्ना-भगत विनय । मघ ऐशिवामें जैनधर्म १९९ १-पुरोहित निश्मृति पृ० नागवंशज मध्य एशिया२-काठ और मरभूति ... ७ वासी रे ... ...२.1 २-रानर्षि सगिविंद नार १३-भगवानका दीनाप्रहग
वाहस्ति ... ... १५ तपक्षण ... ...२०३ - वहीं घग्नामि मौर १४-ज्ञानप्राप्ति मौर धर्मप्रचार २१६ कुरग मील ... ... २६
विदेशोंमें मगमनका ५-मानन्दकुमार ... ... २९ ।
विहार ... ...२६१ ६-उस समदी तुमचा .. १८१५-भगवान्का वोपदेश...२३८ ७-उवालीन यार्मिक परिस्थिति /१६-धर्मोपदेशका प्रमा- ...२८४ ८-बनारस नोर राजा विश्वसन ९० वैदिक ऋपियोपर असर २८९
-जगवानका शुभ अवतार १०९ / 15-भगवान के प्रमुख शिष्य ३०५ १०-कुमार जानन और तापस
भगवानरे गगवर ...३०९ समागन ... ....१९
मुनि पिहिताश्व ...३११ ११-धरपेन्द्र-स्मारती कृत
श्वेताम्बर शानोंमे पाई __ झवाहापन ... ...१२६ }
शिष्य ... ...३२० १२ नागवंशजोका परिवर....५४ १८-मस्तलिगोशाला मोहलाएयरा के अनुसार ना
पन, प्रभृति ... ...३२२ विद्याधाः . ...१५५ १९-सागरदत्तलोर बन्दुदत्त श्रेष्ठी३३३ आज लकी दुनिया २०-महाराजा राम ...३४.
भातबंडमें... ..१५६ २१-जिनेन्द्रमत्त से ...३६१ रावणकी संकाओर याताल 180 २२-विशुदर मुनि . ...३६५ मित्रने लंच और नदी- २३-राजावपाल और चित्रकार२६९
चिनिया, पाताल लका ७० । २४-भगवानका निवांग लाम ३७० मप्यमान वम यदीपमें २५-भगवान् पार्श्वनाथ और
का नहीं ... ...१८३ महावीरस्वामी ...३७८ निमें जैनधर्म ...1८६ २६-उपसंहार ... ...४०२ सवाल मध्य एशियान १९४ | २७-प्रयकारक, परिचय ...४.४
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. पंक्ति
शुद्धाशुद्धि पत्र।
मुख
पृष्ठ प्रस्तावना
७,
८
२३ ,
९
वहां
५६ ५९ ७४
फुटनोट
॥ १० १९
स्नीष्टाब्द रनीष्टाब्द reforier reformer
वही सम्रा
सम्राट ग्लीनिजाम ग्लीनिंग्स आजीविन्ग्स आजीविक्स अवश्य ही स्वव
स्वय. गया
गया है। माना गया
माना उनसे ईस्वी
ईस्वीसे पूर्व को भगद्भजन
भगवद्भजन यह नोट पृ० १४०की ८वीं है, वहाकी उधर पर्दै
गोंके
૭૮
૧૭
उनने
८५
९८ फुटनोट ३ १०७ ११
कोर
११२
१४१ १४५ १४६
फुटनोट २१
कको
यदि
एक कहा गया दिया
दिया गया
२०१५
वेह
वह
वर
वर
पर्पा
२१६ २३६
वर्पा समवसरणे
समवरणे
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प्रस्तावना। 'जिन गुनकथन अगमविस्तार। बुधिवल कौन लहै कवि पार ॥' श्री जिनेन्द्र भगवानके गुण अपार हैं, वे अनन्त हैं, अचित्य
हैं ! योगीजन अपनी समाधिलीन अलौनिमित्त । किक दशामें उनके दर्शन एक झांकी
मात्र कर पाते हैं। बड़े २ ज्ञानी उनके दिव्य चरित्रको प्रगट करने में अपना साराका सारा ज्ञानकोष खतम कर डालते हैं, पर उनका चित्रण अधूरा ही रहता है। अनी, स्वयं गणधर महाराज जो उत्कृष्ट मनःपर्ययज्ञानके धारक होते हैं, वे भी उन प्रभूके गुण वर्णन करने में असमर्थ रहते हैं । अगाध समुद्रका पारावार एक क्षुद्र मानव कैसे पा सक्ता है ? तिसपर आजकलके अल्पज्ञ मनुष्यके लिये यह बिल्कुल ही असंभव है कि वह ऐसे अपूर्व और अनु"म प्रभूके विषयमे कहनेका कुछ साहस कर सके ! आजसे तीन हजार वर्ष पहले हुये श्रीपार्श्वजिनेन्द्रका दिव्य चरित्र अब क्योंकर पूर्ण और यथार्थ रूपमें लिखा जासक्ता है ? परन्तु हृदयकी भक्ति सब कुछ करा सक्ती है। वह निराली तरंग है जो मनुष्यके हृदयमें अपूर्व शक्तिका संचार करती है । हिरणी इसी भक्ति-इसी प्रेमके बलसे सिहके सामने जा पहुंचती है। अपने बच्चेके प्रेममे वह पगली होजाती है । भक्ति वा प्रेमका यही रहस्य है और यही रहस्य इस ग्रन्थके संकलन होने में पूर्ण निमित्त बन रहा है। भक्तिकी लहरमें एक टक बहकर अपना आत्म-कल्याण करना ही यहां इष्ट है । इसकी तन्मयतामें अपने ज्ञान ज्योतिमय आत्म रूपका दर्शन पानेका प्रयास उपहासास्पद नही हो सकता।
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[२]
वैसे समयकी परिस्थिति और प्रभृ पार्श्वके प्रति आधुनिक विद्वानों के अयथार्थ उद्गार भी इसमें कारणभृत हैं। फिर जरा यह मोचनेकी बात है कि प्रभू पार्श्व आखिर एक मनुप्य हीथे-मनुप्यसे ही उनने परमोच्च-परमात्मपद प्राप्त किया था-मनुप्यके लिए एक मनुष्य ही आदर्श होसक्ता है और मनुष्य ही मनुष्यको पहचानता है उससे प्रेम करता है और अपने प्रेमीपर वह सब कुछ न्योछावर कर डालता है । यही कारण है कि इस कालके पूज्य कविगण जैसे श्री गुणभद्राचार्यजी महाराज, श्री वादिराजसूरिजी, श्री सनलकीर्तिनी, कविवर भूधरदासजी आदि अपने प्रभू-भक्ति प्लवित हृदयनी प्रेमपुष्पांजलि इन प्रभूके चरणकमलोंमें समर्पित कर चुके हैं। अपना सर्वस्व उनके गुण-गानमें वार चुके है । इन महान् कविवरोंका अनुकरण करना धृष्टता जरूर है, पर हृदयकी भक्ति यह संकोच काफूर कर देती है और प्रभूके दर्शन करनेके लिये बिल्कुल उतावला बना देती है। इस उतावलीमें ही यह अविकसित भक्ति कर्णिका प्रभू पार्श्वके गुणगानमें आत्म लाभके मिससे प्रस्फुटित हुई है। विद्वज्जन इस उतावलीके लिये क्षमा प्रदान करें और त्रुटियोंसे मूचित कर मनुग्रहीत बनावें। जैनधर्ममें माने गये चौबीस तीर्थंकरोंमेंसे भगवान् पार्श्वना
घनी तेवीसवें तीर्थकर थे। यह इलाकु भगवान पार्श्वनाथजी वंशीय क्षत्री कुलके शिरोमणि थे । जब ऐतिहासिक व्यक्ति थे। यह एक युवक राजकुमार थे तन्हीसे
इन्होने उस समयके विकृत धार्मिक वातावरणको सुधारनेका प्रयत्न किया था। जैनपुराणों में उन प्रभुका
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[३] विशद चरित्र लिखा हुआ मिलता है। इन्हीं ग्रंथोंके आधारसे एवं
अन्य जैनेतर शास्त्रों और ऐतिहासिक साधनों द्वारा यह पुस्तक लिखी गई है । इसमें जो कुछ है वह सब पुरातन है; केवल इसका रूप-रंग और वेश-भूषा आधुनिक है। शायद किन्हीं लोगोंकी अब भी यह धारणा हो कि एक पौराणिक अथवा काल्प'निक पुरुषकी जीवनीमें ऐतिहासिकताकी झलक कहांसे आसक्ती है ? और इस मिथ्या धारणाके कारण वह हमारे इस प्रयासको अनावश्यक समझें! किन्तु उनकी यह धारणा सारहीन है। 'प्रभु पार्श्व कोई काल्पनिक व्यक्ति नहीं थे। पौराणिक बातोको -कोरा ठपाल बता देना भारी धृष्टता और नीच कृतघ्नतामे भरी हुई अश्रद्धा है । भारतीय पुराणलेखक गण्यमान्य ऋषि थे। उन्होंने कोरी कवि कल्पनाओंसे ही अपने पुराणग्रन्थोंको काळा नहीं किया है। जबकि वह उनको एक 'इतिहास' के रूपमै लिख रहे थे। वेशक हिदू पुराणोंमें ओतप्रोत अलंकार भरा हुआ मिलना है; परन्तु इसपर भी उनमें ऐतिहासिकताका अभाव नहीं है। तिसपर जैनपुराण तो अलंकारवादसे बहुत करके अछूते हैं और उनमें मौलिक घटनाओंका समावेश ही अधिक है। उनकी रचना स्वतन्त्र और यथार्थ है । किसी अन्य संप्रदायके शाखोंकी नकल कनेका आभास सहसा उनमें नहीं मिलता है । साथ ही वे बहुभाचीन भी हैं। मौर्यसम्राट चंद्रगुप्तके समयसे जैन वाड्मय नियमितरूपमें
१-पुगणमितिवृत्तमाख्यायिकोदाहरण धर्मशास्त्रमर्यशान चेतिहास.-योटिल्य । २-रेपनन, एन्शियेन्ट इन्डिया पृ०००। ३-जेनत्र 2.3. XXII. Intro-P. IX.
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[४] गुरुशिष्य परम्परा प्रणालीपर बडी होशियारीके साथ चला आरहा था। उसमें अज्ञात भूलका होना असंभव था। उपरान ईसाकी प्रारंभिक शताव्दयोंमें वही तत्कालीन ऋषियोकी दृढ़स्मृति परसे लिपिबद्ध कर लिया गया था। अवन्य ही ऋपियोंकी स्मृति शक्तिकी हीनताके कारण उस समय वह सांगरूपमे उपलब्ध नहीं हुआ। पन्नु जो कुछ उपलव्य थ वह बिल्कुल ठीक और यथार्थ था। इत्त अवम्यामें जैन मान्यताको लसगत बतलाने के लिए कोई कारण दृष्टि नहीं पड़ना । इमलिये श्री पाश्वनाथ भगवानको भी एक झाल्पनिक पक्त नहीं ख्याल किया जासका है।
भारत वसुन्धगके गर्भसे जो प्राचीन पुरातत्व प्राप्त हुआ है, उससे भी यहा प्रमाणित होता है कि प्राचीन भारतमें अवश्य ही श्री पार्थनाथजी नामक एक महापुन्य होगये हैः जो जैनियोके तेवीमवें तीर्थकर थे। कोड़ीमा प्रान्तनें उदयगिरि खण्डगिरि नामक स्थान 'हाथीगुफा" का शिलालेखके कारण बहुप्रख्यात है। यहांचा शिल्पकार्य न बाट भिक्षुगन महामेघवाहन खारवेल द्वारा निर्मापरित जगया गया था, जिनका समय ईसवीसनसे २१२ वर्ष पूर्वा निश्रित । इस मिनःकार्य में भगवान पार्श्वनायनीकी एकसे अधिक नग्न मूर्तिया और उनके पवित्र जीवनकी प्राय सब ही मुख्य घटनायें बहुत ही चातुर्यमे करी हुई मिलती हैं। अब यदि भगदाद पाचनाथ नामक कोई महापुल्प वास्तव में हुआ ही न होता ने आजने मव ढोत्कार वर्ष पहलेके मनुन उनकी मृतिगं और
१क्षिा जैन पनि ० ००। -हिन्दी विश्वकोष भा० १ १० ५.८९ । ३-ग','', गटीमा जैन स्रक पृ० ८९।
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[५] जीवन घटनायें किस तरह निर्मित करा सक्ते ? उस समय उनको गुजरे इतना भारी जमाना भी नहीं हुआ था कि लोग अपनी कामनाको काममें लेआते ! बल्कि बात तो यथार्थमें यही है कि ईसासे पूर्व आठवीं शताब्दिमें भगवान् पार्श्वनाथनी अवश्य हुये थे; जैस्टे कि जैन ग्रंथोंसे प्रमाणित है। मथुराके कंकालीटीलेसे भी ईसवी पहली शताव्दिकी बनी हुई भगवान पार्श्वनाथकी नग्न मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं और वहांपर एक ईटोंका बना हुआ बहुप्राचीन जैन स्तूप भी था; जिसका समय बुल्हर और विन्सेन्ट स्मिथ प्रभृति विद्वान् भगवान् पार्श्वनाथका समवर्ती बतलाते हैं। अब यदि २४३ तीर्थकर भगवान् महावीरजी (पांचवी शताब्दि ईसासे पूर्व) के पहले भगवान पार्श्वनाथनी नहीं हुवे तो फिर उस समयका जैनस्तूप कहांसे आगया ? अतः मानना पड़ता है कि भगवान पार्श्वनाथनी अवश्य ही एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे !
उधर जैनेतर साहित्यपर दृष्टि डालनेसे भी हमें बौड साहित्यसे भगवान महावीरके पहिले एक जैन तीर्थकरका होना प्रमाणित होता है । मज्झिमनिकायमें लिखा है कि निगन्ध पुत्र सञ्चकने म० बुद्धसे वाद किया था। अब यदि जैनधर्म भगवाद महावीरनीसे पहलेका न होता, जो म० बुद्धके समकालीन थे, तो फिर एक जैनका लड़का (निगन्थ पुत्त ) म० बुद्धका समकालीन नहीं होसक्ता था। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि भगवान महावीरजीके पहले भी कोई महापुरुष जैनधर्मका प्रणेता होगया था। बौद्धसा
१-जैनस्तूप एण्ड अदर एण्टीक्वटीज आफ मथुरा पृ० १३ । २-भगवान महावीर और म० बुद्र पृ० १९९ ।
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[६] हित्यमें केवल यही एक उल्लेख नहीं है, बल्कि और भी कई उल्लेख हैं जिनसे भगवान् पार्श्वनाथके अस्तित्व और उनके शिष्यों आदिका परिचय मिलता है । अतएव इसतरह भी हम जनमान्यताको ठीक पाते है। ऐसे ही उत्कट प्रमाणोको देखकर आधुनिक विद्वानोंने भी
भगवान् पार्श्वनाथजीको एक ऐतिहासिक आधुनिक विद्वान भीश्री महापुरुष माना है । वह कोई काल्पनिक पार्श्वको ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं थे, यह वात प्राय सब ही पुरुष मानते है। विद्वान मानने लगे हैं । यहांपर उनमें से
___ कुछका अभिमत उद्धृत कर देना अनुचित न होगा। पहले ही प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् डा० टी० के० लड्डू बी० ए०, पी० एच० डी०, एम० आर० ए० एस० आदिको ले लीजिए। आप अपने बनारसवाले व्याख्यानमें कहते है:-" यह प्रायः निश्चित है कि जैनधर्म बौद्धमतसे प्राचीन है और इसके संस्थापक चाहे पार्श्वनाथ हो और चाहे अन्य कोई तीर्थंकर जो महावीरजीसे पहले हुए हो।" प्रख्यात् दार्शनिक विद्वान् साहित्याचार्य ला० मन्नोमल एम० ए० जज एक लेखमें
१-भगवान् महावीर और म० वुद्धका परिशिष्ट । बौद्ध शास्त्रोंमें जैनोंका उन्न निगन्यरूपमें हुआ है। स्वयं जैनग्रयोंमें भी जनमुनि 'निग' के नामले परिचित हुये है । (मूलाचार पृ. १३) 'निगय का संस्कृतस्प 'निर्घन्य है, जिसका भाव निर (=नहीं)-प्रथ (=ग्रथि=
गाठ) अर्थात् प्रथियोंसे रहित है । नैकोवी और बुल्हरने निगयोका भाव • जैनोले प्रमाणित किया है । (देखों जैनसूत्र S B. E की भूमिका ।
*२-जैन लॉ० पृ. २२३ ।
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भगवान पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकता स्वीकार करते हुये लिखते हैं कि " श्री पार्श्वनाथजी जैनोंके तेईसवें तीर्थंकर हैं। इनका समय इसासे ८०० वर्ष पूर्वका है ।" इसी तरह 'हिन्दी विश्वकोष' के योग्य सम्पादक श्रीमान् नगेन्द्रनाथ वसु, प्राच्यविद्यामहार्णव, सिद्धान्तवारिधि, शब्दरत्नाकर "हरिवंशपुराण" के परिचयमें लिखते हैं कि "जैनधर्म कितना प्राचीन है, इस विषयमें आलोचना करनेका यह स्थान नहीं है; तब इतना कह देना ही बस होगा कि जैन संप्रदायके २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथस्वामी स्वीप्टान्दसे ७७७ वर्ष पहले मोक्ष पधारे थे।" एक अन्य लब्धकीर्ति बंगाली विद्वान् डॉ० विमलचरण लॉ० एम० ए०, पी० एच० डी०, एफ० आर० हिस्ट० एस० आदि अपनी पुस्तक 'क्षत्रिय क्लैन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया ' (1० ८२ में) वैशालीमें जैनधर्मका प्रचार भगवान् महावीरसे पहलेका बतलाते हुये लिखते हैं कि " पार्श्वनाथजी द्वारा स्थापित हुये धर्मका प्रचार भारतके उत्तर-पूर्वी क्षात्रयोंमें और खासकर वैशालीके निवासियोंमें था।" दक्षिण भारतीय विद्वान् प्रॉ० एम. एस. रामास्वामी एंगर एम० ए० लिखते हैं कि "भगवान महावीरके निकटवर्ती पूर्वज पार्श्वनाथ थे, जिनका जन्म ईसासे पहले' ८७७ में हुआ था। उनका मोक्षकाल ईसासे पूर्व ७७७ में माना जाता है । किन्तु इनके उपरान्त एक विश्वसनीय जैन इतिहासको पाना कठिन है । " इसी अपेक्षा
१-जैनधर्म विषयमें अजैन विद्वानोंकी सम्मतिया पृ० ५१ । २-हरिवशपुराण भूमिका पृ० ६ । ३-स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म भा० १ पृ. १२ ।
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[८]
प्रसिद्ध राधास्वामी महर्षि श्री शिवव्रतलालजी वर्मन एम० ए०, एल० एल० डी० श्री पार्श्वनाथका अस्तित्व स्वीकार करके कहते है कि " जैनियोंमेंसे कोई पार्श्वनाथकी पूजा करता है, कोई महावीरस्वामीकी, इन सबमें मतभेद बहुत कुछ नहीं है ।"' श्री डा० वेनीमाधव वारुआ डी० लिट० भी श्री पार्श्वनाथनीको महावीरस्वामीका पूर्वागामी तीर्थकर स्वीकार करते है।
इस तरह पर भारतीय विद्वानोकी दृष्टिमे भगवान् पार्श्वनाथ एक वास्तविक महापुरुष प्रमाणित हुये है । यही हाल पाश्चात्य विद्वानोंका है । उनमें बहुप्रसिद्ध प्रो० डॉ० हर्मन नेकोबीफे मन्तव्यपर ही पहले दृष्टिपात कर लीजिये । उन्होने "जैनसूत्रो" की भूमिकामें जैन धर्मको बौद्धमतसे प्राचीन सिद्ध करते हुये लिखा है कि "पार्श्व एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे, यह बात अब प्रायः सबको स्वीकार है।"
(That Parsia as a historical person, is now admutted by all, is very probable Jaina Sutras S B E XLV Intro p. XI).
इसी व्याख्याकी पुष्टि डॉ० जार्ल चारपेन्टियर पी० एच० डी० "उत्तराध्ययन सुत्र" की भूमिका (ए० २१) में निम्न शब्दों द्वारा करते है:
"We ought also to remember both thut the Jain religion is certainly older than Mahavira, his reputed predecessor Parssa having almost certainly existed as a real person, and that, consequently, the main points of the onginal doctnne may hare been codified long before Mahayra " (The Uttradbyayan Sutra, Upsala ed Intro P. 21).
१-जैनधर्मका महत्व पृ० १४ । २-हिस्ट्री ऑफ दी प्री बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० ३७७ ।
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[ ९ ]
अर्थात् - "हमें यह दोनों बातें याद रखना जरूरी हैं कि सचमुच जैनधर्म महावीरजी से प्राचीन है । इनके सुप्रख्यात पूर्वागामी श्री पार्श्व अवश्य ही एक वास्तविक पुरुषके रूपमें विद्यमान रहे थे । और इसीलिये जैन सिद्धान्तकी मुख्य बातें महावीरजीके बहुत पहले ही निर्णीत होगई थीं ।"
हालही में बरलिन विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० डॉ० हेल्थ वॉन ग्लासेनाप्प पी० एच० डी० ने भी जैन मान्यताको विश्वसनीय स्वीकार करके भगवान् पार्श्वनाथजीकी ऐतिहासिकता सारपूर्ण बतलाई है ।गत वेम्बली प्रदर्शनीके समय एक धर्म सम्मेलन हुआ था, उसके विवरण में जैनधर्मकी प्राचीनता के विषय में लिखते हुये सर पैट्रिक फैगन के० सी० आई० ई०, सी० एस० आई० ने भी यही प्रकट किया है कि " जैन तीर्थंकरों में से अंतिम दो - पार्श्वनाथ और महावीर, निस्संदेह वास्तविक व्यक्ति थे; क्योंकि उनका उल्लेख ऐसे साहित्य ग्रन्थोंमें है जो ऐतिहासिक हैं । यही बात मि० ई० पी० राइस सा० स्वीकार करते हैं । (They may be regarded as historical) श्रीमती सिन्कलेपर स्टीवेन्सन भी पार्श्वनाथजीको ऐतिहासिक पुरुष मानतीं हैं । * फ्रांस के प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ विद्वान् डॉ० गिरनोट तो स्पष्ट रीति से उनको ऐतिहासिक पुरुष घोषित करते हैं । ( "There can no longer be any doubt that Paisvanatha was historical personage")" इसी प्रकार अग्रेजी के महत्वपूर्ण कोष- ग्रंथ "इंसाइ
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१ - डर जैनिसमस पृ० १९-२१ । २- ग्लिीजन्स ऑफ दी इम्पावर पृ० २०३ । ३ - कनारीज लिटरेचर पृ० २० । ४- हार्ट ऑफ जैनीज्न पु० ४८ । ५- ऐसे ऑन दी जैन बाइव्लोप्रेफी ।
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[80]
क्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड ईथिक्स" में (भा० ७ पृ० ४६९)
कि - " २३ जासक्ते है ।"
जैनधर्मकी प्राचीनता सिद्ध करते हुए कहा गया है तीर्थंकर पार्श्व बहुतायतसे जैनधर्मके संस्थापक कहे परन्तु इससे भी स्पष्ट उल्लेख "हार्मसवर्थ हिस्ट्री ऑफ दी वर्लड " भा० २४० ११९८ में इसप्रकार है. -
" They (The Jains) beliere in a great number of prophets of their faith anterior to Nataputta (Sri Mahavira Vardhamana ) and pay special reverence to this last of these, Parsva or Parsvanatha Herein they are correct, in so far as the latter personality is more than mythical He was indeed the royal founder of Jainism ( 776 B C ) while his succe• ssor, Mahavira was younger by many generations and can be considered only as a reforner As early as the time of Gautam, the religious confraternity founded by Parsy, and known as the Nigantha, was a formally established sect, and according to the Buddhist Chronicles, threw numerors difficulties in the way of the nsing Buddhism ( " Haims orth's History of the world" Vol. II P 1198)
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अर्थात् - " जैनी नातपुत्त महावीर वर्द्धमान के पहले कई तीर्थक्रोका होना मानते हैं और उनमेंसे अंतिम पार्श्व अथवा पार्श्वनाथकी विशेष विनय करते है । यह वह ठीक करते हैं क्योंकि वह (पार्श्वनाथ जी) पौराणिकसे कुछ अधिक अर्थात् ऐतिहासिक पुरुष है। यही जैनधर्मके राजवंशी प्रणेता थे; जब कि इनके अनुगामी महावीर इनमे कई सन्तति उपरांतके एक सुधारक ही थे । गौतमबुद्धके समयमें ही पार्श्व द्वारा स्थापित धार्मिक संघ, जो 'निगन्थ' नामसे परिचित था, एक पूर्व स्थापित संप्रदाय था और बौद्ध ग्रन्यकि अनुसार उसने बौद्धधर्मके उत्थान में बहुतसी लड़चने ढालीं थीं ।"
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[११] इन अभिमतोसे भी हमारा उपरोक्त कथन बिलकुल स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे, परन्तु इसके साथ ही यह प्रश्न अगाडी आगया है कि क्या पार्श्वनाथनी ही जैनधर्मके संस्थापक थे, जैसे उपरके कितनेक विद्वानोंका मत है। हमारे प्रसिद्ध देशभक्त ला० लाजपतरायनीने तो अपने "भारतव
का इतिहास" (भा० १४० १२९)में यह मत जैनियोंका बतला दिया है। किन्तु दर असल बात यह नहीं है । जैन लोग तो अपने धर्मको अनादि निधन मानते हैं । वह यथार्थ सत्य है। इस कारण उसका कभी लोप नहीं होता । पर तो भी वह कालचक्रके अनुसार विक्षिप्त और उदित होता रहता है। इस कालमें जैनधर्मका सर्व प्रथम प्रचार भगवान ऋषभदेव या
वृषभदेवने किया था और उनके बाद श्रीपार्श्वनाथजी जैनधर्मके कालान्तरसे २३ तीर्थंकर और हुये थे। संस्थापक नहीं हैं। इन सबका समय आजकलके माने हुये
प्राचीन और इतिहासातीत कालमें जाकर बैठता है । हम अगाड़ी इस बातको स्वतंत्र प्रमाणों द्वारा प्रगट करेंगे कि जैनधर्मका अस्तित्व वैदिक काल एवं उससे भी पहले विद्यमान था। इस दशामें हम भगवान पार्श्वनाथको जैनधर्मका संस्थापक स्वीकार नही कर सक्ते । प्रत्युत कई विद्वान तो पार्श्वनाथजीके पूर्वागामी तीर्थंकरोंको भी ऐतिहासिक पुरुष स्वीकार करते हैं। श्री नगेन्द्रनाथ वसु, प्राच्य विद्यामहार्णव एम० आर० ए.
एस० आदि स्पष्ट लिखते हैं कि-"उन बाइसवें तीर्थंकर श्रीने- (पार्श्वनाथनी)से पहले बाईसवें तीर्थकर
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[१२] मिनाथजी एक ऐति- श्री नेमिनाथस्वामी भगवान श्री कृष्णके __ हासिक पुरुष और मपर्क भ्राता (ताऊके लड़के ) थे। .. शेष तीर्थकर। भगवान् श्री कृष्णको यदि हम ऐतिहा
निक पुरुष मानते हैं तो हमें बलात् उनके साथ होनेवाले २२वें तीर्थकर श्रीनेमिनाथको भी ऐतिहासिक 'पुरुष मानना पड़ेगा। यही वान डॉ० फूहररने "एपीग्रेफिका इडिका (भा० १ ४० ३८९ और भा० २ ४० २०६-२०७)में लिखी है कि-"जैनियोंके २२वें तीर्थकर श्री नेमिनाथजी ऐतिहासिक पुरुष माने गये हैं। भगवदगीताके परिशिष्टमें श्रीयुत वरवे स्त्रीकार करते हैं कि नेमिनाथ श्रीकृष्णके भाई थे । जब जैनियोंके २२वें तीर्थकर श्रीकृष्णके समकालीन थे तो शेष इक्कीस श्रीकृष्णसे
कितने वर्ष पहले होने चाहिये, यह पाठक स्वयं अनुमान कर सक्ते __ हैं।" इसी कारण श्रीयुत प्रो० तुकाराम लम्णशर्मा लद्दु बी० ए०,
पी० एच०डी०. एम. आर. ए. एस. एम० ए० एस०, इत्यादिने कहा है कि "सबसे पहिले इस भारतवर्षमें "ऋषभदेवजी" नामके महर्षि उत्पन्न हुए। वे दयावान भद्र परिणामी पहले तीर्थकर हुए जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्थाको देखकर 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी मोक्ष शास्त्रका उपदेश किया। बस यह ही जिन दगेन इस ऋल्पमें हुआ। इसके पश्चात् अजितनाथसे लेकर महावीर तक तेईस तीर्थकर अपने२ समयमें अज्ञानी जीवोंका मोह अन्धकार नाश करते रहे ।" इसीलिये श्रीयुत वरदानात मुख्यो
१-दग्विापुगा भूमिका पृ० ।-अजैन विद्वानोंती मन्मतिया (m) • 201
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[१३] पाध्याय एम० ए०ने ठीक कहा है कि पाश्र्वनाथजी जैनधर्मके आदि प्रचारक नहीं थे, परन्तु मका प्रथम प्रचार ऋषभदेवनीने किया सारसकी पुष्टि के प्रमाणोका अभाव नहीं है।'' हठात् डॉ० हर्मन जोत्रीको भी यह प्रगट करना पड़ा है कि:
• th.c!, noth; th pr ... Parsha was the í alla luneus, 1711 (57ut1m., man mous in making Rinona ine for : 1:11and it's (:- I founder) ..there may To apple fins luis'ocul in c tricos en which makes him the 1. ' ' than 1 "-( I !! 12 AEE ..!s. TOI, II P163 )
अर्थात-'पार्श्वको जैनधर्मका प्रणेता या संस्थापक सिद्ध करनेके लिए कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। जन मान्यता स्पष्ट रीतिसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको इसका सस्थापक बतलाती है। जैनियोंकी इस मान्यतामें कुछ ऐतिहासिक सत्य हो सक्ता है।' इस प्रकार पाश्चात्य विद्वानों का पूर्वोक्त मत उन्हींके वचनोसे बाधित है तौभी हम स्वतंत्र रीतिसे जैनधर्मकी प्राचीनतापर प्रकाश डालेंगे; जिससे कि विद्वत्समानसे यह भ्रम दूर होजाय कि जैनधर्मके संस्थापक श्री पार्श्वनाथजी अथवा महावीर थे। जैनधर्मकी विशेष प्राचीनता स्वय उसके कतिपय सिद्धातोंसे
ही प्रगट है। उसमें जो वनस्पति, जैनधर्मकी प्राचीनता पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पदार्थो में उसके सिद्धान्तोंसे जीवित शक्ति का होना बतलाया गया प्रकट है। है, वह उसकी बहु प्राचीनताका द्योतक
है । क्योकि Enthology विद्याका मत इस सिद्धांतके विषयमे है कि वह सर्व प्राचीन मनुष्योंका मल
१-पूर्व पृ० १८ ।
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[ १४ ]
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{Animistic behef) है । इसके साथ ही नैनसिद्धान्तमें तत्वों वा द्रव्यों का वर्णन करते समय गुणोका प्रथक् विवेचन नहीं किया गया अर्थात गुणोंको स्वयं एक तत्त्व वा द्रव्य नहीं माना गया है। इससे प्रगट है कि जैनधर्म वैशेषिक दर्शनसे बहुत प्राचीन है, जैसे डॉ० जैकोबी प्रगट करते हैं।' इन दोनों बातोंके अतिरिक्त जैनियोंकी आदर्श पूजा और अणुवाद भी उसकी बहु प्राचीनताको प्रमाणित करते हैं । जैनी उन महान पुरुषोंकी पूजा करते है जो सर्वोत्कृष्ट, सर्वज्ञ और सर्वहितैषी थे । इस प्रकारकी पूजा प्राचीन - मनुष्योंमें ही प्रचलित थी । सचमुच " जो धर्म अत्यन्त सरल होगा वह अपने से अधिक जटिल धर्मसे प्राचीन समझा जायगी ।" और यह मानी हुई बात है, जैसे कि मेजर जनरल फरलान्ग साहब कहते है कि "जैनधर्मसे सरल - पूना में, व्यवहारमें और सिद्धांतमें और कौनसा धर्म होसक्ता है ? " यही हाल अणुवाद सिद्धान्तका है । 'इन्साइक्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एन्ड ईथेक्स' - भाग २ ट० १९९-२०० का निम्न अंश ही इस विषय में पर्याप्त है
"In the oldest philosophical speculations of the Brahmins, as preserved in the Upanishada, we find no trace of an atomic theory, and it is therefore controverted in the Vedanta Sutra, which claims systematically to interpret the teachings of the Upanishads. Nor it is acknowledged in the Sankhya and Yoga philosophies, which have the next claim to be considered orthodox, ie to be in keeping with the Vedas, for even ne Vedanta Sutra allows them the title of Smnus Est the atomic
१ - जेनसूत्र S. BE Intro 2-Carlyle Heroes & Hero worship 3-Thomas, Jainism-Early Faith of Asoka.
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[१५]
theory mahes an integral part of the Vaisesika, and it is achnon lcdgeil by thc Nyanya, tho Brahmanical philosophies, which h e originated by secular scholars ( Pandits), rather than by divine or religious men. Imong the hetrodor, it has been adopted by the Jauns, and ..also by the Ajivikas ..... .. We place the Jains first because they seem to have worhed out their system from the most primitive notions about matter., -(CRE Vol. II. PP 199-200)
भावार्थ-'ब्राह्मणोके प्राचीनसे प्राचीन सैद्धांतिक ग्रंथोंमें, जैसे कि वे उपनिषदोमें बताये गये हैं, कोई भी उल्लेख अणुसिद्धान्तका नहीं है । और इसीलिये वेदान्तसूत्र में इसका खण्डन किया
गया है, जो उपनिषट्र शिक्षाओको व्यवस्थित रीतिसे बतलानेका दावा । करता है । वेदोंके समान मान्य सांख्य और योगदर्शनोंमें भी इस सिद्धान्तका कोई उल्लेख नहीं है किन्तु वैशेषिक और न्याय दर्शनोंमें यह स्वीकार किया गया है पर यह दोनों दर्शन अर्वाचीन पंडितोंकी रचनायें हैं-न कि किप्ती दैवी या धार्मिक पुरुषकी । वेद विरोधी मतोमें जैन और आजीविकोको यह सिद्धान्त मान्य था । .. जैनोको ही हम पहले मुख्य स्थान देते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने सिद्धान्तको पुद्गल सम्बन्धी अतीव प्राचीन (most primitive) मतोंके अनुसार निर्दिष्ट किया है । ' इसतरह अणुसिद्धान्त भी जैनियोके धर्मको अत्यन्त प्राचीन सिद्ध करता है । इस अवस्थामें उसका प्रारम्भ भगवान नेमिनाथ या पार्श्वनाथ अथवा महावीरसे हुआ वतलाना कोरी शेखचिल्ली की कहानी होगी। उसका प्रारंभ जैसे कि जैनियोंकी मान्यता है, एक बहुत प्राचीन कालमें भगवान ऋषभदेव द्वारा ही हुआ था। इसी कारण प्रसिद्ध सस्कृतज्ञ विद्वान्
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[ १६ ]
पुरातत्वविदोंका जैसे डॉ० ग्लासेनापको यह स्वीकार करना पड़ा है कि " संभवत. आर्यो का यही (जैनधर्म) सबसे प्राचीन तात्विक दर्शन है और अपनी जन्मभूमिमे यह आजतक बिना किसी रद्दोबदलके चला आता है ।"
इस कालमें जैनधर्मका सर्व प्रथम उपदेश भगवान् ऋषभदेवने ही एक अतीव प्राचीनकालमें पुरातत्वकी साक्षी । दिया था, यह वात पुरातन भारतीय पुरातत्व से भी सिद्ध होती है । जैनमदिरों में ऋषभदेवजीकी अनेक प्रतिमायें 'चौथेकाल' अर्थात् भगवान् महावीर या उनसे पूर्ववर्ती कालकी बतलाई जाती है । सचमुच उनमें कोई लेख न रहनेसे और उनकी बनावट अस्पष्ट और असंस्कृत होनेके कारण उन्हें उक्त प्रकार प्राचीन मानना कुछ अनुचित नहीं है । तिसपर जब हम राजा खाग्वेलके हाथी गुफा वाले लेखमें एक नन्दवशी राजा द्वारा श्री० ऋषभदेवजी की मूर्तिको कलिंगसे पाटलीपुत्र ले जानेका उल्लेख पाते है,' तो इस व्याख्याको और भी विश्वसनीय पाते है । नन्दगके पहलेसे श्री ऋषभदेवकी मूर्तिया बनने लगीं थीं, यह बात हाथीगुफाके उक्त प्राचीन गिलालेखसे प्रमाणित है । फिर खडगरिकी गुफाओं में भी श्री ऋषभदेवकी मूर्तियां उकेरी हुई है और मथुराके ककाली टीलेसे ईमासे पूर्व और बादकी प्रथम शताब्दियोंके प्रारंभिक कालकी जैन मूर्तियां निकली हैं, जिनमें कई एक श्री ऋषभदेवजी की है । इम तरह जन्मारक पृ० १३८ | २ - जेनस्तूप ० २१-३० ।
A
२ - बगाल, बिहार, ओड़ी एण्ड अघर एण्टीक्वटीज आफ
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[१७]
उपरोक्त वर्णनसे यह स्पष्ट है कि भगवान ऋषभदेवके आस्तित्वको आनसे ढाई हजार वर्ष पहलेके लोग स्वीकार करते थे और उन्हें
नयाका 'आदिपुरुष' मानते थे। हाथीगुफाके उपरोक्त शिलालेखम उनका उल्लेख 'अग्रनिन'के रूपमें हुआ है। अतएव पुरातन पुरातत्व भी श्री ऋषभदेवजीको जैनधर्मका इस युगकालीन आदि
प्रचारक सिद्ध करता है।
द्वि साहित्यसे भी यह प्रमाणित है कि जैनधर्म म० बुद्धके
जन्मकालमें एक सुसंगठित धर्म था और पाद्ध ग्रंथ भी श्रीऋषभ- वह निगन्थ धम्म'के नामसे बहुत पह- . का जनधर्मका प्रणेता लेसे चला आरहा था। हम पहले ही
लात है। कह चुके हैं कि बौद्ध ग्रन्थोमें जैनियोक
दी है और उसमें 'निगन्थों' (ज नम्बरपर गिना है। यदि जना प्रा इस तरह दूसरे नंबरपर नहीं।
___ सम्बन्धमें अनेक सारगर्भित उल्लेख मौजूद अगुत्तरनिकाय' में एक सूची म० बुद्धके समयके साधुआ
उसमें 'निगन्थों (जैनियों को आजीवकोंके बाद दूसरे "ना है। यदि जैनी प्राचीन न होते तो उनकी गणना दूसरे नंबरपर नही होसक्ती थी। इसके साथ ही हम जानते हैं कि आजीविक मतकी सृष्टि भगवान पार्श्वनाथके मक्खलिगोशाल नामक एक भ्रष्ट जैन मुनि द्वारा ही मुख्यहुई थी, जैसे कि प्रस्तुत पुस्तकमे यथास्थान बताया गया है। ॥ दशाम आजीविकों को पहले और उनके बाद जेनोको गिनना .-स्टडीज इन साउथ इन्ज्यिन जैनीम भाग . ८० ।। २-डायोलाग्म ऑफ दी बद (3. B B. Tol. II.) Intry to Fasseps-Silhundn-Sattr.
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[१८] असंगत है। परन्तु यह संभवतः इस कारणसे है कि नैनी उस समयके पहले 'निगन्ध' नामसे परिचित न होकर किसी अन्य नामसे विख्यात् होंगे । सचमुच श्वेतांवर शास्त्रोंमें उस कालसे पहलेके जैन मुनि
'कुमारपुत्त निगन्थ' नामसे परिचित मिलते है। 'श्रमण' रूपसे __ भी जैन मुनि पहले विख्यात थे । 'कल्पसूत्र' में जैनधर्मको 'श्रमण 'धर्म' ही लिखा है। यही बात दि. जैन ग्रन्थोसे भी प्रमाणित है। इसके साथ ही हम अगाड़ी यह भी देखेंगे कि वैदिक कालमें जैन लोग 'व्रात्य नामसे भी परिचित थे। यह बात हिन्दू विद्वान मानते हैं कि वैदिक मत अहिंसा प्रधान नहीं था-प्रारम्भसे ही उसमें हिसक विधान मौजूद थे और जैनधर्ममें अहिंसा ही मुख्य है, जिसकी छाप वैदिक धर्मपर आखिर पड़ी थी। अतएव जबतक वैदिक मतमें अहिंसादि व्रतोंको अपनाया नहीं गया था, तबतक उनका अपने प्रतिपक्षी जैनियोको उनके अहिंसा मादि पांच व्रतोंके कारण "व्रात्य" नामसे उल्लेख करना सर्वथा उचित था। सभवतः भगवान पार्श्वनाथके समय तक जैनी "वात्य" और "समण" नामसे ही परिचित रहे थे और इसके उपरांत वे मुख्यत "निगथ" नामसे विख्यात हुये । यही कारण है कि उपरोक्त बौद्ध ग्रंथमें उन्हें आजीविकों के बाद दूसरे नम्बर पर गिना गया है । जो हो, बौद्ध
१-उत्ताध्ययन व्या० २३ । २-कल्पमूत्र (Stwenson' पृ०.८३ । ३-मर्पि शिवव्रतलाल एम० ए०का "जैनधर्म और पदिक चम' बीर की ५४० २३५ और प्रिन्मिपल्स ऑफ हिन्दु इथिक्म पृ. ४८३-४८७ । ४-लाजपतराय, "भारतवर्षका इतिहास' भाग १ पृ० १२९ और भारतगौम्वन्गे तिलककाव्याख्यान-अर्जेन विद्वानोंकी मनमरिया पृ० १० ।
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[१९] अंधके इस उल्लेखसे जैनधर्म म० बुद्ध और उनके बौद्धधर्मसे बहुत पहलेका प्रमाणित होता है। फिर बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति सर्वज्ञ आप्तके उदाहरणमें ऋषभ और महावीर वर्द्धमानका उल्लेख करते हैं। (न्यायविन्दु ब० ३) इसमें जैनियोके २४ तीर्थंकरोंमेंसे आदि अन्तके जैन तीर्थंकरोंका उल्लेख करके व्याख्याकी सार्थकता स्वीकार की गई है। इसी तरह बौद्धाचार्य आर्यदेव भी जैनधर्मके आदि प्रचारक श्री ऋषभदेवको ही बतलाते हैं । बौद्धोके प्राचीन ग्रन्थ 'धम्म:पदम् में भी अस्पष्ट रीतिसे श्रीऋषभदेव और महावीरजीका उल्लेख आया है। एक विहान् उसके निम्न गाथाका सम्बन्ध जैनधर्मसे प्रगट करते हैं और कहते हैं कि इसमेंके 'उसभं' और 'वीर' शब्द खासकर जैन तीर्थंकरोंके नाम अपेक्षा लिखे गए हैं---
"उसभं पवरं वीरं महेसिं विजिताविनं । अनेजं नहातकं बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। ४२२॥"
-धम्मपदम् । इसप्रकार वौद्ध साहित्यसे भी यही प्रकट है कि इस जमानेमें जैनधर्मका प्रचार भगवान ऋषभदेव द्वारा हुआ था; जिनके समयका पता लगाना इतिहासके लिए इससमय एक दुष्कर कार्य है।
१-मत शास्त्र "वीर" वर्प ४ पृ० ३५३ । __२-इन्डियन हिस्टारीकल क्वार्टी भाग 3 पृ. ४७३-४७५ 'उदस्ता दिवननगे में "ऋषभ' शब्दकी उत्पत्ति अबेस्तन (Avestan) शब्द 'भग्गम' ( =नर )से लिखी है, जिसके अर्थ पुरुष, बैल, बहादुर आदि होते हैं। इसी तरह 'वीर' के अर्थ भी वहादुर लिखे हैं। साराश मि० गोविन्द पैने उक्त पत्रिकामें इन दोनों शब्दों को बहु प्राचीन सिद्ध किन है । अवेस्त्रन भाषामें अर्हत् शब्द भी मिलता हैं ।
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[२०] . अब यदि ब्राह्मण साहित्य पर दृष्टि डाली जाय तो प्रगटतः
उसमें भी जैन व्याख्याको विश्वसनीय वेदोंमें जैन उल्लेख ! बतलाया हुआ मिलता है। ब्राह्मण साहि
त्यमें सर्व प्राचीन पुस्तकें वेद माने गये हैं और इनमें ऋग्वेद संसार भरमें सर्व प्राचीन पुस्तक बतलाई गई है। अतएव यहाँपर हम पहले इन वेदोंमें ही जैन उल्लेखोंको देख लेना उचित समझते है। यह प्राय सबको ही मान्य है कि जैनिबोके आप्तदेव 'अहंत्' अथवा 'अर्हन्' नामसे परिचित है। सिवाय बौद्धोंके और किसी भी मतने इस शब्दका व्यवहार नहीं किया है किन्तु बौद्धोके निकट भी इसके अर्थ एक आप्तदेवसे नहीं हैप्रत्युत उनके एक खास तरहके साधुओंका उल्लेख 'महतु' रूपमें होता है। अतएव जैनियोंके ही 'उपासनीय आप्त अहेन' नामसे उल्लेखित मिलते है और इन्हीं 'महन का उल्लेख ऋग्वेद संहिता (अ० २ व० १७)में हुआ है। कालीदासनीके 'हनूमान नाटक' [अ० १ श्लो० ३)में भी यही कहा गया है कि 'अर्हन' जैनियोंके. उपासनीय देव है। अगाड़ी ऋग्सहितामें (१०११३६-२) मुनयः सातवसनाः रूपमें भी दिगम्बर जैन मुनियों का उल्लेख मिलता है। डॉ० अलबेट वेबरने वेदके यह शब्द जैन मुनियों के लिये व्यवहृत ये स्वीकार किये हैं। ३ अषम, मुपार्य, नेमि आदि नाम - १-पूर्व प्रमाण । -मेक्षमूलर द्वाग सम्पादित, स्टन १८५४की जसी, मा० २ प० ५७९ । ३-इन्डियन एण्टीक्वरी मा० ३० १९०१ और जिनेन्द्रमत दर्पण पृ० २१ । ४-ऋग्वेद १०-३, ६-७, ३८-७ । न्यजर्वद- सुपावमिन्द्रहा। :-वाजस्यनु प्रसव आवभूवना च विअभवनानि सर्वत । मनमिराजा परियात्ति विद्वान् प्रजा पुष्टि वानमानो -अस्मम्वाहा ॥-१० म० २५ ॥
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[२१] भी ऋग्वेद और यजुर्वेदमें आये हैं और यह नाम जैन तीर्थकरोंक हैं। प्रत्युत चौवीस तीर्थकरों और श्री महावीरजीके उल्लेख भी ऋग्वेद और यजुर्वेदमें बतलाये गये हैं * ऋग्वेदमें ऐसे 'श्रमणों का भी जिक्र है, जो यज्ञोमें होनेवाली हिसाका विरोध करते थे। यह श्रमण जैनोंके सिवाय और कोई नहीं होसक्ते; क्योंकि जैनधर्म स्पष्ट रीतिसे यज्ञोमें होनेवाली हिसाका विरोधक प्रारम्भसे रहा है. और वह श्रमण धर्म भी कहलाता है अन्यत्र प्रस्तुत पुस्तकमें हमने
१-हिस्टॉरोकल ग्लीनिनिंग्स पृ० ७६ । ... श्रीयुत प० अजितकुमारजी शास्त्रीने 'सत्यार्थ दर्पण में (पृ० ९१) ऋग्वेद आदिने निम्न उद्धरण दिये हैं, इनसे जैन तीर्थकरोंका व्यक्तित्व प्रमाणित है:- . -
."ॐ त्रैलोक्यप्रतिष्टितान् चतुर्विशतितीर्थकरान् ऋषभाया वर्द्धम:न्तान् सिद्धान् शरण प्रपद्ये । ॐ पवित्र नग्नमुपविप्रसामहे एषा नग्नों ग्निये) जातिर्येषां वीरा । येपा नग्मं सुनग्न ब्रह्म सुब्रह्मचारिण उदितेत
सा देवस्य महर्पयो महर्षिभिजहेति या जकस्य य जंतस्य च सा एषा | भवतु शातिर्भवतु, तुष्टिर्भवतु, गक्तिर्भवतु, स्वस्तिर्भवतु, श्रद्धाभवतु, जि भवतु ।' ( यज्ञेषु मूलमंत्र एप इति विधिकदल्या)। "जातारमिन्द्र ऋषमं वदन्ति अतिवारमिन्द्रं तमरिष्टनेमि । भवे भवे । सुपार्श्वमिन्द्र हवे तु शक्र अजित जिनेन्द्रं तद्वद्वर्द्धमान पुरुहूतमिन्द्र
॥ नम सुवीरं दिग्वासस ब्रह्मगर्भ सनातनम् । दयातु दीर्घायुस्त्वाय वर्चसे सुप्रजास्त्वाय रक्ष रक्ष रिटनेमि स्वाहा ।' (बृहदारण्यकें). 'आतिय्यरूपं मासर महावीरस्य नग्नहु । पामुपासादामेतत्तियौ रात्रौः मुगमुताः ॥' यजुर्वेद अ० १९ म० १४ पमिन्द्रस्य प्रमहसाऽने वन्दे नव श्रिय । भो गम्मवानसिममध्वरेष्विव्यसे ।" ऋग्वेद ४० ४ भ० ३ १.६.. ऋग्वेद ३-३-१४-२।।
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[२२] ऋग्वेदकी प्रजापति परमेष्टिनवाली ऋचाओंका सम्बन्ध जैनधर्मसे दतलाया है। 'छान्दोग्य उपनिषद् 'के उल्लेखसे प्रजापतिका जनसंबंध , और भी स्पष्ट होजाता है । वहां वह नारदके प्रश्नके उत्तरमें कहते हुए आत्मविद्याके समक्ष चारों वेदोंको कुछ भी नहीं मानते है । इस प्रकार वेदोंके इन सब उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कि उनके समयमें भी जैनधर्म एक प्रचलित धर्म था। तिसपर हिन्दू 'भागवत' में जो ऋषभदेवको आठवां अवतार माना है, उससे उनका अस्तित्व देठोसे भी प्राचीन ठहरता है क्योंकि उनमे १५वे वामन अवतारका उल्लेख मौजूद है । यही बात है कि हिन्दू प्रॉ० स्वामी विरुपाक्ष दडियर धर्मभूषण, पंडित, वेदतीर्थ, विद्यानिधि, एम० ए० लिखते है कि जैन शास्त्रानुसार 'ऋषभदेवनीका नाती मारीचि प्रकृतिवादी शा और वेद उसके तत्वानुसार होनेके कारण ही ऋग्वेद आदि प्रन्थोंकी ख्याति उसीके ज्ञान द्वारा हुई है। फलतः मारीचि ऋषिके स्तोत्र, वेदपुराण आदि ग्रन्थों में हैं और स्थान पर जैन तीर्थंकरोका उल्लेख पाया जाता है। तो कोई कारण नहीं कि हम वैदिक कालमें जैनधर्मका अस्तित्व न मानें । अस्तु !
बहुधा वेदोंके उपरोक्त जैन विषयक उल्लेखोंके सम्बन्धमें यह मापत्तिकी जाती है कि निरुक्त और भाष्यसे उनका जैन सम्बन्ध प्रगट नहीं है। किन्तु इस विषयमें हमें यह भूल न जाना चाहिये कि वेदोंके जो भाप्य आदि उपलब्ध हैं वह अर्वाचीन हैं। वेदोंका वास्तविक अर्थ और उनकी ऐतिहासिक परिपाटी बहुत पहले ही लुप्त होचुकी थी। भगवान पार्श्वनाथजीके समकालीन (ई० पू०
१-बीर भाग ५ पृ० २४०।२-अजैन विद्वानोंकी सम्मतियां पृ० ३१॥
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[ २३ ]
वीं शताब्दि) वैदिक विद्वान् कौत्स्य वेदोंकी असम्बंधता देखकर भौचकासा रह गया था और उसने वेदोको अनर्थकं बतलाया था (अनर्थका हि मंत्राः । यास्क, निरुक्त १५ – १) यास्कका ज्ञान भी वेदोके विषयमे उससे कुछ ज्यादा अच्छा नहीं था । (निरुक्त १६/२) फिर ईस्वी चौदहवीं शताब्दिमें आकर सायण भी ऋग्भाप्य में वैदिक मान्यता के अर्थको ठीकर नहीं पाता है । ( स्थाणुरयम् भारहारः किलामूर्वित्य वेदं न विज्ञानाति योऽर्थम् ।) इस दशामें यह कैसे कहा जाता है कि वेदोंमें ऋषभ नेमि, अर्हन् आदि जैनत्व द्योतक शब्दों का अर्थ जो आजकल किया जाता है वहां ठीक है ? स्वयं ब्राह्मण विद्वान ही उनको जैनत्व सूचक बतलाते हैं। उधर प्राचीन जैन विद्वान उनका उल्लेख जैनधर्मकी प्राचीनता के प्रमाण रूप में करते मिलते हैं । तिसपर स्वयं भाष्यकार सायण वैदिक अर्थको स्पष्ट करनेके लिये पुराणादिको प्रमाणभूत मानता है और पुराणादिमें ऋषभ, अर्हन् आदि शब्द स्पष्ट जैनत्व सूचक मिलते है । अतः वेदोंमें जैनोंका उल्लेख होना प्राकृत सुसंगत है ।
वेदोके बाद रामायण में भी जैन उल्लेख मौजूद है, जिससे स्पष्ट है कि 'रामायण काल' में भी जैन
रामायण कालमें जैनधर्म |
धर्म विद्यमान था । रामायणके बालकाण्ड ( सर्ग १४ लो० २२ ) के मध्य राजा दशरथका श्रमणोंको आहार देनेका उल्लेख
है । ("तापसा भुञ्जते चापि श्रमणा भुञ्जते तथा । ") श्रमण शव्दका अर्थ भूषण टीकामे दिगम्बर साधु किया गया है । ("श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वातवसनाः | ") भतएव यह श्रमण दिगम्बर जैन
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[२१] साधु ही थे। इसके साथ ही 'योगवाशिष्ट' में जो श्री रामचंद्रजीके मुखसे 'जिन' (जिनदेव, जिनकी अपेक्षा 'जैन' नाम है)के समान होनेकी इच्छा प्रगट कराई गई है, इससे उक्त वक्तव्यकी और भी अधिक पुष्टि होती है। वाल्मीकीय रामायणमें है कि रामचन्द्रनी राजसूय यज्ञ करनेको रानी हुये थे, परन्तु भरतनीने उन्हें अहिंसाधर्मका महत्व समझाकर ऐसा करनेसे रोक दिया था। (देखो प्रिंसपिरस आफ हिन्दू ईयक्त ट० ४४६) रामचन्द्रनीके
श्वसुर जनक बहुप्रसिद्ध है । जैन पुराणोंसे जाना जाता है कि वह __ पहले वेदानुयायी थे; परन्तु उपरांस जैनधर्मका प्रभाव उनपर पड़ा __या और वे जैनधर्मके ज्ञाता हुये थे। हमें हिन्दू शास्त्रोंमें भी एक
जनक राजाका उल्लेख इसी तरह मिलता है, किन्तु वह काशीरान बतलाये गये हैं। कहा है कि एकवार महर्षि गार्य उनके पास पहुंचे और उन्हें उपदेश देने लगे। पर वह उनको अधिक उपदेश दे न सके, प्रत्युत उन्होंने स्वयं ब्राह्मण होते हुये भी उन क्षत्रीरानसे ब्राह्मधर्म-आत्मधर्मका उपदेश ग्रहण किया था। जैनधर्म क्षत्रियोंद्वारा प्रतिपादित आत्मधर्म ही है। अतएव रामायणके जमानेमें भी जैनधर्म वर्तमान था । रामायणके बाद महाभारत कालमें मी जैनधर्मके चिन्द मिलते
हैं। 'महाभारत के अश्वमेघपर्वकी अनुमहामारतके समय गीता अ०४८ श्लो० २से १२ तकमें जैन धर्म । जैन और बौद्धके अलगर होनेकी साक्षी
है। इसके अतिरिक्त महामारतके आदि १-योगवाशिष्ट स. १५ श्लो० ८ और जनइतिहास सीरीज भाग १ पृ. १०-१३२-उत्तरपुगज पृ० ३३५1-नवश्लोष माग ११० २०२॥
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[२५] पर्व ० ३ लो० २६-२७ में भी जैन मुनियोंका उल्लेख 'नग्न क्षपणक के रूपमें है । 'अद्वेतब्रह्मसिद्धि' नामक हिन्दू ग्रन्थके कर्ता क्षपणकके अर्थ जैन मुनि करते हैं। यथाः " क्षपणका जेन मार्ग सिद्धांत प्रवर्तक इति केचित ।" (ए० १६९) अन्य श्रोतोंसे भी क्षपणपके अर्थ यही मिलते हैं। इसके साथ ही महाभारत शांति पर्व, नोक्षधर्म अ० २१९ श्लो०६में सप्तभंगी नयका उल्लेख है। फिर इसी पवेके अ० २६३ पर नीलकंठ टीकामें ऋषभदेवके पवित्र चरणका प्रभाव आहेतो वा नेनोपर पड़ा कहा गया है। इन उल्ले-खोंसे महाभारतकालमें भी जैन धर्मका प्रचलित होना सिद्ध है। भगवान् पार्श्वनाथके पहले से उपनिषधोंका बहु प्रचार होरहा
था और उस समय भी जैनधर्मका अस्तिउपनिषदोंमें जैनधर्म । त्व यहां प्रमाणित है । उपनिषधोंसे यह
बात प्रगट है कि वेदोंके साथ ही कोई वेदविरोधी ऐसे तत्ववेत्ता अवश्य थे जिनकी 'ब्रह्मविद्या' (आत्मविद्या)के आधारपर उपनिषधोंकी रचना हुई थी। श्रीयुत उमेशचन्द्रनी भट्टाचार्यने यह व्याख्या अन्यत्र अच्छी तरह प्रमाणित कर दी है। उनका कहना है कि इस समय उस ब्रह्मविद्याका प्रायः सर्वथा लोप है। उसके बचे-खुचे कुछ चिन्ह उपनिषधोंमें ही यत्रतत्र मिलते हैं। उस समय वेदों और उपनिषधोंके अतिरिक्त ब्रह्मविद्या विषयक साहित्य 'लोक' नामसे अलग प्रचलित था। अब तनिक विचारने की बात है कि उपरोक्त ब्रह्मवादी कौन थे ? यदि
१-पश्चतत्र ५।१ । २-जैन इतिहास सीरीज भा० १ पृ० १३ ॥ ३-इंडियन हिस्टोरीकल क्वारटी भा० ३ पृ. ३०७-३१५ ।
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[२६] हम 'ब्रह्म' शब्दको जीव-अजीवका द्योतक माने जैसा कि प्रगट किया गया है तो उसका सामजस्य जैन सिद्धान्तसे ठीक बैठता है ! उपनिषध कालमें जैनधर्मका मस्तक अवश्य ऊँचा रहा था, यह बात 'मुण्डकोपनिषद' एवं 'अथर्ववेद के उल्लेखोसे प्रमाणित है; जैसे कि हम अगाडी देखेंगे। जर्मनीके प्रसिद्ध विद्वान् हर्टलसाने यह सिद्ध किया है कि 'मुण्डकोपनिषद में करीब२ ठीक जैनसिद्धांत जैसा वर्णन मिलता है और जैनोंके पारिभाषिक शब्द भी वहां व्यवहृत हुये हैं। तिसपर जैनोंके 'पउमचरिय' नामक प्राचीन अन्यसे 'मुण्डकोपनिषद' के कर्ता ऋषि अंगरिस जैनोंके मुनिपदसे भ्रष्ट हुये प्रगट होते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें वैदिक धर्मको जैनधर्मसे मिलता जुलता बनानेका प्रयत्न इसीलिये किया था कि वैदिक धर्मावलम्बी जैनधर्मकी ओर अधिक आकृष्ट न हो। प्राचीन 'ब्रह्मविदों' के 'इलोक साहित्य के जो यत्रतत्र अंश मिलते हैं; उनका यदि विशेष अध्ययन किया जाय तो हमें विश्वास है किउनकी शिक्षा जैनधर्मके विरुद्ध नहीं पड़ेगी। 'कठोपनिषद' में (२-६-१६) प्राप्त 'श्लोक साहित्य का एक अंश हमने देखा है और उसमें जैनधर्मसे कुछ भी विरोध नहीं है। जैन मान्यताके मनुसार यह प्रगट है कि जैन-वाणी (हादशांग श्रुतज्ञान)की सर्व प्रथम रचना इस कालमें ऋषभदेव हारा हुई थी और वह श्लोक
१-धीर वर्ष ५ पृ. २३८ । इन्डो-टेरनियन मृल ग्रन्थ और मनोधन मा. ३ व 'धर्मध्वज' वर्ष ५ अक १५० ९ । ३-विपके दिये देयो 'वीर' वर्ष ६ में प्रकट होनेवाला 'ऋपि अगरिस मोर उनम' शीप रेग।
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[२७] बद्ध थी। जैन शास्त्रों में उसकी अलग २ श्लोक संख्या दी हुई है।' अतः इससे यह संभव है कि उस समय जन श्रुत ही 'श्लोक साहित्य के नामसे परिचित हो। शायद इसमें भाषा विषयव आपत्ति हो, क्योंकि जैनश्रुत अर्द्ध मागधी भाषामय बनाया गया है । किंतु अर्धमागधीका उल्लेख भगवान महावीरजीके श्रुतज्ञानके सम्बन्धमें है और उसकी अर्धमागधी भाषा मागघदेश अपेक्षा ही बताई गई है। इस दशामें यह नहीं कहा जासक्ता कि भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित श्रुतज्ञान किस भाषामें ग्रन्थबद्ध था ? बहुत संभव है कि वह प्राचीन संस्कृतसे मिलती जुलती भाषामें हो । भगवान ऋषभदेव द्वारा एक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ रचे जाने का उल्लेख मिलता ही है। इस प्रकार उपनिषदोंसे भी तत्कालीन जैनधर्मके अस्तित्वका पता चलता है। भारतीय वैयाकरणोंमें शाकटायन बहु प्रसिद्ध और बहु प्राचीन
हैं। इन्होंने अपने व्याकरणमें जैनधर्मका शाकटायनकी साक्षी। उल्लेख किया है। बल्कि यह त्रयं नैन
थे, यह बात प्रॉ० गुस्टव आपटने अपने "शाकटायन व्याकरण" (मद्रास सन् १८९३)की भूमिकामे अच्छी तरह सिद्ध की है।* वह लिखते हैं, "पाणनिने अपने गकरणमें शाकटायनका बहुत जगह वर्णन किया है। पातंजलिने भी अपने
१-जैनसिद्धात भास्कर भा० १ किरण १ पृ० ५६-५७ ।
२-'मागध्यावतिका प्राच्या शौरसैन्यर्धमागधी वाहीकी दक्षिणात्या च भाषा सप्त प्रकीर्तिताः । चर्चासमाघान पृ. ३९-४० देखो। . ३-सक्षिप्त जैन इतिहास भा० १ पृ० १३ ।
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[२८]
-महाभाप्यमें शाकटायनका प्रमाण दिया है। शाकटायनके बनाये हुये उणादि सूत्र वैयाकरणोमें भलेप्रकार प्रचलित हैं। शाकटायनका नाम ऋग्वेदके प्रातिशाख्य, शुक्लयजुर्वेद और यास्कके निरुक्तमें भी आया है। बोपदेवके 'कवि-कल दुर' में नहा आठ प्रसिद्ध बयाकरणों का वर्णन है उनमें शाकटायनका भी नाम है। इनमेसे केवल इन्द्रका ही नाम शाकटायनने अपने व्याकरणमें लिया है। शान्टायनके बनाये हुये शब्दानुशासनके हरएक पाठके शुरू में यह वाक्य है-"महाश्रमण संघाधिपतेः श्रुतकेवलिदेगीचार्यत्य शाकटायनस्य' इससे स्पष्ट है कि शाकटायन जैन मुनि थे । २ इनके 'उणादिमत्र' में " इण सिज जिदीडप्यवियोनक सत्र २८९ पाद ३ है: जिसका अर्थ सिद्धांतकौमुदीके कर्ताने 'निनोर्हन्' किया है। इसका भाव जैनधर्मके संस्थापकसे है क्योंकि हिन्दू ग्रन्थोंमें जैनधर्मके संस्था‘यकका उल्लेख सर्वत्र 'जिन' व अर्हन' रूपमें किया गया है। यह शाकटायन निरुक्तिके कर्ता यास्कके पहिले हुये थे और यास्क पाणिनिसे कितनी ही शताब्दियो पहले हुए, जो महाभाष्यके कर्ता पात- ‘जलिके पहले विद्यमान थे। अब पातलिको कोई तो ईसासे पूर्व २री शताब्दिका बताते है। और कोई ईसासे पहले ८वी या २०
किन्तु अव किन्हीं विद्वानोंका मत है कि प्राचीन शाकटायन जैन नहीं ये । जैन शाकटायन तो गष्टकट वयी राजा अमोघवर्पके समयमें हुए वताए जाते है।
१-इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । ___ पाणिन्यमरजनेन्द्रा. जयन्त्यष्टादिशान्दिका ॥' २-जिनेनमत दर्पण भा० १ पृ. ५-६ । ३-जैन इतिहास सीरीज भा० १ पृ. १३-१४ ।
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[२९] वीं शताब्दिमें हुआ बतलाते हैं। किन्तु जो हो, इससे यह स्पष्ट है कि वैयाकरण शाकटायन ऋग्वेदके प्रतिशाख्योंके पहले होचुके थे और इस दशामें भी जैनधर्म बहु प्राचीन सिद्ध होता है। हिन्दुओंके पुराण ग्रन्थोंसे भी जैनधर्मकी प्राचीनता स्वयंसिद्ध
है। उनके सर्व प्राचीन विष्णुपुराणमें हिन्दुपुराणोंमें जैन- जैन तीर्थंकर सुमतिनाथका उल्लेख है। धर्मकी साक्षी। तथापि उसमें जैनधर्मकी उत्पत्ति देव
और असुरोके युद्धके परिणाम स्वरूप स्वयं विष्णुके शरीरसे उत्पन्न मायामोह नामक पुरुषके द्वारा बहु प्राचीनकालमें हुई बतलाई गई है । मायामोह मुण्डे सिर, नग्नरूप, हाथमें मयूरपिच्छ लिये और तपस्या करते नर्मदा तटपर अवस्थित असुरोंके आश्रममें पहुंचे और उनको जैनधर्मरत किया, यह भी इस पुराण में लिखा है । यह असुर 'माईत' कहलाये। (देखोबंगाली आवृत्ति, अंश ३ अ० १७-१८), भागवतपुराणमें जनधर्मके प्रणेता श्री ऋषभदेवजीका विशेष वर्णन है। उनको वहां २२ अवतारोंमे आठवां बतलाया है। उनकी वंशपरम्परा सम्बंध लिखा है कि १४ मनु हुये, जिनमें स्वयंभू मनु पहले थे। ब्रह्माने जब देखा कि मनुष्य संख्या नहीं बढी तो उसने स्वयंभूमनु और सत्यरूपाको पैदा किया और सत्यरूपा स्वयंभूमनुकी पत्नी हुई। प्रियव्रत नामक पुत्र हुआ, जिसके आग्नीन्ध और उसके नाभि हुये । नाभिका विवाह मरुदेवीसे हुआ और इनसे श्री ऋषभदेव १-हिन्दी एण्ड लिट्रेचर ऑफ जैनीज्म पृ० १० १२-इन्डियन एसीक्वेरी भा० पृ०१:३।
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[३०]
-
हुये। भागवतमें स्पष्ट गैतिसे इन ऋषमदेवको स्वयं भगवान कबत्यपनि हिता है । तथा उनको दिगम्बर वेष और जैनधर्मना चलानेवाला जलाया है। इस उल्लेखसे प्रगट है कि मृष्टिके प्रारम्भमें, जो हिन्दू मानते हैं, जब ब्रह्माने त्वयंभृमनु और सत्वरूपाको उत्पन्न किया तो ऋषभदेव तब उनसे पांचवीं पीढ़ीमें हुये और "पहले मतयुगके अन्तमें हुये और २८ सतयुग इस अरसे तक व्यतीत होगये । इस प्रकार ऋषभदेवका अस्तित्व एक अतीव प्रचीनगालमें प्रगट होता है और यह सर्वमान्य है कि भागवतोक्त ऋयभव ही जनों ने प्रथम तीर्थकर है। उनके मातापिताका नाम
और गेष वर्णन भागवनमें भी प्रायः वैसा ही है जैसा जनशास्त्रोंमें है । भागवतके अतिरिक्त 'वराहपुराण' और 'अग्निपुराण में भी ऋषभदेवका उल्लेख विद्यमान है । 'प्रभासपुराण में तो केवल ऋषभदेवका ही नहीं बलिक रखें तीर्थंकर श्री नेमिनाथनीचा उल्लेख भी मौजूद है। इनके अतिरिक्त हिंदू ‘पमपुराण में वेदानुयायी गना बेनके जैन होने का वर्णन मिलता है। जब वह राज्य करहे
-भावन स्कन्ध . ल. ३-३ । २-भागवत मन्व २ अ० ७ ब्यावर ) पृ. ७६ :-जिनेन्द्रमा दर्गा भा १ . १० । ४-हिन्दी विश्वकोप न० : पृ. १४ मार डॉ.न्दविन्धन, कल्यत्री भृमिन इ. ५ वय नाय पिता अपम हमदलित वर्ष महानु नामम। -समो भन्दव्याग्न पनामानोडम्वत् । भामरत र नग्नासमीनबभत् ॥ ७. विम्ले र उप जिन्दवर कर सवनर व मंद सुवगः त्रिः ॥ १९ ॥ मी डिन मियुगतिविमल बने ।
। प्रनार मुनिमगर शत् ॥
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[
१]
थे तब एक दिगंबर जैन मुनि उनके पास आये थे और उन्हें देव, शास्त्र, गुरुका स्वरूप समझाकर जैनधर्मका श्रद्धानी बनाया था।' 'वामनपुराण में वेणको ब्रह्मासे छठी पीढ़ीमें हुआ बताया है। इससे भी जैनधर्मकी प्राचीनता प्रमाणित है । ' शिवपुराण' में 'अर्हन् । भगवानका शुभ नाम पापनाशक और जगत सुखदायक बतलाया गया है। नागपुराणमें कहा है कि जो फल ६८ तीर्थोके यात्रा करनेमें होता है, वह फल आदिनाथ (ऋषभदेव)के स्मरण करनेसे होता है। इस प्रकार पुराणग्रन्थोंसे भी जैनधर्मकी प्राचीनता स्पष्ट है। इन पुराणों के कथन बहुप्राचीन कथानकोंके माधारपर हैं और उनमें सत्यांश मौजूद है; यह बात आधुनिक विद्वान भी स्वीकार करते हैं ।*
१-अ० जैनगजट भा० १४ पृ. ८९-वेणस्य पातकाचारे सर्वमेव वटाम्यहम् ॥ तस्मिन्-छासतिं वर्मज्ञे प्रजापाले महात्मनि । पुरुषः कश्चिदायातो ब्रह्मलिगौधरस्तथा ॥ नग्नरूपो महाकाय सितमुण्डो महाप्रभः । मार्जन शिखिपत्राणा कक्षाया स हि धारयन् ॥ पटमानो मरुच्छास्त्र वेदशास्त्रविदूषकम् । यत्रवेणो महाराजस्तत्रोपायावरान्वित. ॥ अर्हन्तो देवता यत्र निन्वों गुरुरुच्यते । दया वै परमो धर्मस्तत्र मोक्ष प्रदृट्यने ॥ एव वेणस्य वै राज्ञः मष्टिरेव महात्मनः । वर्माचार परियज्य कय पापे मतिर्भवे ॥ R.C. Dutt, Hindu Shastras Pt. VIII. pp. 213-22
२-अ० जनगजट भा० १४ पृ० १६२ हाथीगुफावाले शिलालेखमें जैन सम्राट्के वीरत्वकी उपमा राजा वेग से दी है। इससे भी राजा वेणका जैन होनर प्रगट है। (देखो जर्नल आफ दी बिहार एण्ड ओरिमा रिसर्च सोसाइटी, भा० १३ पृ० २२४ । ३-सत्यार्थ दर्पण पृ. ८९॥
४-पूर्व प्र. पृ. ८७ यथा -'अक्षप्ठिपु तीर्थेषु यात्रावा यत्फलं भवेत् । आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् ॥'
* Macdonell's History of Sanskıit.
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[ ३२ ]
अतके विवेचनसे जैनधर्मकी प्राचीनताका वोध पूर्णरूपेण हो गया है. परन्तु हम पूर्वमें यह बतला 'त्रास' प्राचीन जैनोंका आये है कि भगवान् महावीरजी के पहले
द्योतक है ।
जैनोका उल्लेख ' व्रात्य
रूपमे उसी
तरह होता था, जिस
तरह उपरांत वे और अब जैन
' निर्ग्रन्थ ' और ' अईत ' नामसे प्रख्यात हुये थे नामसे जाहिर है । इसलिये यहांपर हमको अपने इस कथनको सार्थकता भी प्रकट कर देना उचित है । इसके लिये हमें दक्षिणी जन विहान प्रो० ए० चक्रवर्ती महोदय के महत्वपूर्ण लेखका आश्रय लेना पड़ेगा, जो अग्रेजी जैनगजट ( भा० २१ नं० ६) में प्रकाशित हुआ है । इस साहाय्यके लिये हम प्रोफेसर साहब के विशेष आभारी है। वैदिक साहित्य में 'व्रात्य' शव्द्रका प्रयोग विशेष मिलता है और उससे उन लोगों का आभास मिलता है जो वेदविरोधी थे और जिनसे उपनयन आदि सरकार नहीं होते थे । मनु व्रात्य विषय यही कहते हैं कि "ये लोग जो द्विजों द्वारा उनकी सजातीय पत्नियोंसे उत्पन्न हुये हों, किन्तु जो धार्मिक नियमो का पालन न कर सकने के कारण सावित्रीसे प्रथक कर दिये गये हो, व्रात्य है ।" (मनु १०/२० ) यह मुख्यता क्षत्री थे । मनुजी एक व्रात्य ात्री ही अल, मछ, लिच्छवि, नात, करण, खस और द्राविड़ वंशकी उत्पचितकाने है । ( मनु० १०/२२ ) वास लोगोंका नावा भी रूपका था । उनकी एक खास तरहकी पगड़ी (क)- एक वहम और एक खाम प्रकारका धनुष (यएक कपड़ा पहनने और रथमें चलने थे।
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[३३] उनका एक चांदीका आभूषण 'निश्क' नामका था। वे मुख्यतः दो विभागों-हीन और ज्येष्ठमें विभक्त थे । यद्यपि वे संस्कारोंसे रहित समझ लिये जाते थे, परन्तु वैदिक आर्य उनको पुनः अपनेमें वापस ले लेते थे। उनके वापस लेनेकी खास क्रियायें 'व्रात्यस्तोम' नामसे थीं। आधुनिक विद्वान पॉ० वेबर साने इन्हें उपरान्तकी बौद्ध जातियों सदृश भाना है और बतलाया है कि यह बौद्धोंके समान कोई ब्राह्मणविरोधी लोग थे। किन्तु प्रॉ० साहबका यह अनुमान भ्रान्तमय है, क्योंकि बौद्धधर्मका जन्म ब्राह्मण साहित्यसे बहुत पीछेका है। इसी तरह अन्य विद्वानोंका इन्हें कोई विदेशी असभ्य जाति अथवा रुद्रशिव सम्प्रदाय बतलाना भी भ्रांतिसे खाली नहीं है। सचमुच यह व्रात्य लोग आर्य थे और विशेषतः क्षत्री आर्य थे क्योंकि वैदिक ग्रन्थोंमें कहा है कि व्रात्य न ब्राह्मणोंकी क्रियायोंको पालते थे और न कृषि या व्यापार ही करते थे। इसलिये व्रात्य न तो ब्राह्मण थे और न वैश्य थे। वे योद्धा थे, क्षत्री थे। अस्तु; पूर्व पृष्ठोंमें हम यह बतला ही आये हैं कि वेदोंमें खासकर ऋग्वेद संहितामें ऋषभ अथवा वृषभ, अरिष्टनेमि आदि जैन तीर्थकरोंके नाम खूब मिलते हैं और भागवत, विष्णु र आदि पुराणों के अनुसार यह ऋषभदेव जैनधर्मके मादि सस्थापक और क्षत्री वंशके थे यह भी प्रगट है । जैन शास्त्र भी इन तीर्थंकरोंको क्षत्री वंशोद्भव ही बतलाते हैं। इतना ही क्यों उनके अनुसार आर्य मर्यादाकी सृष्टि इक्ष्वाक् वंशीय क्षत्रीयों द्वारा ही हुई हैं। ऋग्वेदके वृषभ
9-Indischen Studien 1. 32. २-विण्णुपुगण २-१ । ३-आदिपुराण और उत्तरपुगण देखो।
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२
[३४] अथवा ऋषभदेवका इक्ष्वाक्वंश और पुरुकुल है। महाकवि कालिदास भी इक्ष्वाक्वंशी राजाओंके राजर्षि होनेकी साक्षी देते हैं। जेनतीर्थकरोंमें वीस इसी वंशके थे और शेष चार अन्य इरिवंश आदिके थे । उपनिषदों में जिस आत्मविद्या और नियमोंका चर्णन है, वह भी इन्हीं इक्ष्वाक्वंशी क्षत्रियोंके प्रभावका परिणाम है। संभवत काशी, कौशल, विदेह आदि पूर्वीय देशोंके आर्य पश्चिमके कुरुपाञ्चाल आर्योके पहलेसे हैं। और इन प्रदेशोंमें जैनवर्मका प्रभाव म० बुद्धके पहलेसे विद्यमान था । तिसपर मनुने जिन अल्ल, मल्ल, लिच्छवि, नात, द्राविड़ आदि जातियोंको व्रात्यक्षत्रीकी सतान लिखा है, वह प्राय सब ही जैनधर्मकी मुख्य उपासक मिलती है । मल्ल क्षत्रियोकी राजधानी पावासे ही अंतिम तीर्थकर महावीरस्वामीने निर्वाण लाभ किया था। भगवान महावीर तबतक वहां पहुचे नहीं थे, परन्तु तो भी वह उनके अनन्यभक्त थे और भगवान्को अपने नगरमें देखनेके इच्छुक थे। इससे प्रकट है कि उनमें जैनधर्मका श्रद्धान भगवान महावीरसे पहलेका विद्यमान था। लिच्छवि क्षत्रियोंमें भी जैनधर्मकी विशेष मान्यता थी। वे पहले से जैनधर्मानुयायी थे; क्योंकि उनके प्रमुख राजा चेटको जनग्रन्थों में पहलेसे ही मैनधर्मका श्रद्धानी लिखा है। यती राना भगवान महावीरके मातुल थे। नात अथवा नाथवंशमें
रिक्षानो, हॉबने विशिनाम् ।
निानि , योगाने तनत्यजाम् ॥ २- मावी. और म० दरका परिमिष्ट और मज्झिमनिकाय ११. २।३- प्र. पृ. १८ । ४-पूर्व पृ. ६।
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[१५] तो स्वयं भगवान् महावीरका जन्म ही हुआ था । और भगवानके माता-पिता एवं अन्य परिजन पहलेसे ही जैनधर्मके हानी थे। द्राविड लोगोंमें मैनधर्मका बहु प्रचार रहा है, यह सर्व प्रकट है । लात्यायन सूत्रोंसे यह प्रकट ही है कि व्रात्योंका मुख्यस्थान बिहार था, जो जेनतीर्थंकरों के कार्यका भी लीलास्थल रहा है। अतएव इन बातोंको देखनेसे ही यह ठीक जंचता है कि व्रात्यलोग जैन थे, अथवा जैनोंका प्राचीन नाम 'व्रात्य' था। किन्तु इतने परसे ही सन्तोष कर लेना ठीक नहीं है।
मगाड़ी यह बात प्रगट है कि वेदोंसे वेदोंके अरुणमुख यति एक यज्ञ विरोधी दलका अस्तित्व सिद्ध भी जैन थे। है, जो यति कहलाते थे | वही यक्ति
'अरुणमुख' कहे गये हैं अर्थात इनके मुखमें वेदों का पाठ नहीं था । तथापि यह वेदोंके यज्ञविधानके भी विरोधी थे, क्योंकि इसी कारण इन्द्रने इन्हें सजा दी थी ३ ताण्डिय ब्राह्मणमें (१४।२।५।२८) यह यूं लिखी हैं:'इन्द्रो यतीन पालटकेभ्यः प्रयच्छत्तम् अस्तीलावग असरदासोऽशुद्धोमन्यत स एतत् शुद्धाशुद्धियं अपश्यत्तेन अवयवा'
अर्थात -“इन्द्रने यतियों को गीदड़ों के सम्मुख डाल दिया। एक दुर्वाणाने उससे कहा-( टीकाकारके अनुसार उने चाह्मण हत्याका पातकी बताते हुये) “ उसने अपने आपको अशुद्ध
१-अत्रिय क्लैन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया पृ० ८२ । २-जना राफर, ऐशियाटिक सोसाइटी, बबई, No. LIII, भाग १९.
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[३६] जाना । उसने 'शुद्धाशुद्धिये मत्र (एक खास श्रमण कथन) देखा जौर वह पवित्र ह गया।" यही कथा इसी ग्रन्थमें (१८१४९) फिर कही गई है और इसमे उक्त मत्र देखनेके स्थानमें इन्द्रको प्रजापति पाप गया लिखा है, जिनने उसे ' उपहव्य ' दिया था । इन्द्र और यतियोंकी यह कथा ऐतरेय ब्राह्मण ( ७१२८ ) और तान्द्रय ब्रह्मण (1१1४ और १३३१७) में भी दी गई है। ऐतरेय ब्राह्मणमें इन्द्र यतियोंका भेडियोके डालने और अरु णमुखोके मारने आदिके कारण सोमरस पान करनेसे वंचित हुआ लिखा है । और 'तन्ड्य ब्राह्मग' में कहा गया है कि इन्द्रने यतियोंको गीउडोंके डाल दिया, पर तौभी तीन-प्युरश्मि, बृहदगिरि और न्योरज बच रहे । इन्द्रने इन्हें पाल पोस बड़ा किया
और युवा होनेपर उन्हें वरदान दिया। प्युरश्मिने राज्यबलकी आक्षा की-मो 'पर्थरम्म' समनके द्वारा इन्द्रने उसे रानवल
१- की देव शाह गुरपृनामे जो निम्न मत्र हैं, वह शायद इसी 'शुद्ध जन्द्रि' मत्ररे द्योतक है, जिनको टीकाकार भी अमण मंत्र चलाना है ~~
" अपवित्र पवित्रो वा सुस्थितो दु स्थितोऽपि वा । . ध्यायेन्पचनमस्तार सवपाप प्रमुच्यते ॥ १ ॥ अपवित्र पवित्रो वा सर्वावस्या गतोऽपि वा।।
3 स्मन्त्यरमन्मान स वायाभ्यतरे शुचि. ॥२॥" २-हा इन्दने 'शुदाशुद्धिर' मंत्र, जो जनमत्र प्रतीत होता है, के स्थानपर नापतिरे पास जगने लिखा तो यह भी हमारे इस वक्तव्या पोषक है कि प्रजापति जैनधर्म प्रणेताका मृत्रक है । अथर्ववेदवे महाचाल प्रजापति भी जैन और संभवत. श्री ऋषभदेव है। इससे भी प्रजापति जैन सम्बन्ध प्रक्ट है ।
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[३ ] दिया। बृहदूगिरीने ब्राह्मण गौरव पानेकी अभिलाषा की, सो इंद्रने 'बृहदगिरि' समनके बल उसे वह गौरव दिया । और रयोवनने पशुधन चाहा, इंद्रने 'स्योवनीय' समनके द्वारा उसे पशुधन भेंट किया। इस ग्रन्थके टीकाकार इन यतियोकों वह व्यक्ति बतलाते हैं जो वेदविरुद्ध नियमोंका पालन करते थे, यज्ञोंके विरोधी थे और कर्मकाण्डके निषेधक थे । इनमें ऐसे ब्राह्मण थे जो 'ज्योतिष्तोमा आदि यज्ञ न करके अन्य प्रकार जीवन यापन करते थे। इन उल्लेखोंमें (१) यतियोंको यज्ञ विरोधी सन्यासी लिखा है, जो यज्ञ मंत्रोंका भी उच्चारण नहीं करते थे; (२) वैदिक आर्यों में उनको प्रसिद्धि नहीं थी और वे इन्द्र एवं इन्द्रभक्तों द्वारा प्रताड़ित हुये थे; (३) किन्तु जिस उद्देश्यके लिए यह यती खड़े हुये थे, वह एक समय इतना प्रबल होगया कि इन्द्रपूजा और सोमयज्ञ बन्द होगये ।* स्वयं इंद्रपर हत्याओंके पातक लगाए गए । (४) इस झगड़ेके अन्तमें यज्ञवादकी विजय हुई और इन्द्रपूना एवं यज्ञोंको पुनरावृत्ति हुई । (६) यह यती जैन यतियों के समान हैं; क्योंकि ___.. 'मत्स्यपुराण' के निम्न वर्णनसे भी यह बात प्रमाणित होती है कि एक समय अवश्य ही जैनधर्मकी इतनी प्रबलता होगई थी कि इन्द्रका मान और विनय जाता रहा था -
__“ इन्द्र राज्य विहीन बृहस्पतिके पास अपनी फरियाद लेकर पहुचा। बृहस्पतिने गृहशाति और पौष्टिक कर्मद्वारा इन्द्रको बलिष्ठ बनाया । और जनैधर्मके आश्रयसे उसने रजिपुत्रोंको, (जिनने इन्द्रको राज्यच्युत किया था) मोहित किया ! बृहस्पतिने खूब ही रजिपुत्रोको वेदत्रय भ्रष्ट किया । इसपर इन्द्रने उन चेद बाह्य और हेतुवादी रजिपुत्रोंको वज़से नष्ट करदिया ।" (मत्स्य पु० आनन्दाश्रम० अ० २४ श्लो. २८-४८ ।
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[३८]
टीकाकार सावण इन यातियोक कपालको 'महा खर्जूर फल' के समान अर्थात् बिल्कुल त्रुटी हुई बतलाते हैं । जैसि कि वस्तुतः जैन चतियोकी होती हैं | हिन्दू पद्मपुराण आदि ग्रन्थोंमें जैन मुनि - योंका वर्णन करते हुये उन्हें ' सितमुण्डो ' बतलाया है । इससे अहिंसाघमेके अनुयायी जैनोका अस्तित्व उपरांत के वैदिक कालमें सिद्ध होता है । इसतरह भी 'व्रात्यों' का जैन होना प्रकट है; क्योकि उपरोक्त उल्लेखोंसे उस समय जैन यतियोंका होना प्रमाणित है । अस्तु.
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जैनाचार ग्रन्थों में चारित्र के दो भेद (१) अणुव्रत और (२) महाव्रत किये गये हैं । अणुव्रत गृहव्रतोंको पालनेकी मुख्य- स्थोंकि लिए हैं और महाव्रतों का पालन तासे जैनोंका प्राचीन यतिगण करते है । महाव्रतों को 'अग्रवत' नाम त्रात्य है । अथवा ' अनागारव्रत ' भी कहते हैं । जैनधर्म प्रारम्भ से ही अजैनोंको दीक्षित करनेका हामी रहा है । आर्य और अनार्य सब ही उसमें दीक्षित किये नाचुके हैं ।' गृहस्थों अथवा श्रावकोंके लिये ग्यारह प्रतिमार्यो (दर्जी) का विधान है और सबसे नीची व्यवस्थामें केवल जैनधर्मका श्रद्धानी होना पर्याप्त है उसमें व्रों तकका अभ्यास नहीं किया जाता है इसलिए यह अवतदृशा कहलाती है । ब्राह्मण अन्योंमें इनका डेस व्रत्य धन पानेके योग्य पुरुषके रूपमें हुआ है । इनमे बढ़कर बनी श्रावक हैं यह कुछ व्रतों का पालन करते व प्रतिमाओंमें विशेष २ व्रत जैसे सामायिक,
है । फिर
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से ४० ३००-३८१ व ४२३-४२७ ।
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[३९] प्रोषधोपवासादिके अनुसार उपरोक्त शेष भेद निर्दिष्ट हैं । अंतिमा ग्यारहवीं प्रतिमावाले चेल खण्डधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। इनके बाद यति हैं जो बिलकुल नग्न रहते और निर्जन स्थानोंमें ज्ञान ध्यानमई जीवन व्यतीत करते हैं; जैसे कि प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान बता दिया गया है । यूनानी लोगोने जिन साधुओंका उल्लेख 'जैम्नोसोफिस्ट्स' (Gymnosophists ) नामस किया है, वह यही है । श्रावक इन यतियोंको उनकी आहारकी वेलापर आहारदान देकर बड़ा पुण्य संचय करते हैं। अथर्ववेदमें जो गृहस्थके एक व्रात्यको पड़गाहने और उसके फल स्वरूप विविध लाभ पानेका वर्णन है वह बिलकुल जैन यतिको आहारदान देनेकी विधि और फलके विवरणके समान है । जैन तीर्थकर ही सर्वोच्च यति हैं, जो मार्ग प्रभावना (धर्मोद्योत) करनेके लिये अद्वितीय हैं। इन तीर्थंकरोंकी भक्ति देव देवेन्द्र करते हैं। उनके पंचकल्याणक करने, समवशरण रचने आदिका वर्णन पाठक प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान पढ़ेंगे। इन सब बातोंको ध्यानमें रखनेसे ही हम 'व्रात्यों का यथार्थ भाव समझ सकें और उन्हें जैन ही पायेंगे; जैसे कि पहले ही हम प्रगट कर चुके हैं । 'व्रात्य' शब्द व्रतोको पालन करनेके कारण निर्दिष्ट हुआ है, यह पहले ही कहा जाचुका है । कोषकारोंका अभिमत भी यही है और 'प्रश्नोपनिषद' (२-११)के अग्निके प्रति 'व्रत्यस्त्वम्' उल्लेखसे भी यही प्रगट है। शंकर इसकी टीकामें कहते हैं कि 'वह स्वभावसे शुद्ध है।' ( स्वभावतः एव शुद्ध इति भभिप्रायः) इससे केवल विनयभावको लेना ठीक नहीं, बल्कि इससे यह भी प्रगट है कि व्रात्य लोगोंमें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य
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द्विनौने चतिरिक्त वन्य पदार्थ लोग भी सनिलित है। नेते कि जेनाने बदलः क्षेतुने वता, क्षत्री, वैप इन लोन तरहले इत्येंना भिग ही है। बाद कि नयनतना उद्देश्य वेदोंने दिल्ड हुप्रचार अनेचा था तो वह नितान्त पयर है कि वे ऐसी नासाने माने सिद्धान्तों प्रगट करते जो सरल
और जनप्रिय होतो। सचमुच ब्रात्याची भाश जैनोंच्ने प्रस्त मामाने सनान हो घो क्योंनि उनले विश्व हा गया है कि'जो बोल्ने सुगन है उसने दे ३ठिन उसलाते हैं।' (बदुल्चन वायन दुत्पन् नाहः) इस देतसे साफ जाहिर हैलिये संस्कृत नहीं गेलते थे । बतएव इस सजनत्यसे भी प्रात्यों का जैन होना सिद्ध है । नबनाल्ने भी जैन लोग 'प्रती ( Terteis) नामसे परिचित थे।* ब्राह्मण ग्रंथाने प्रात्योंन उडेल गरगिर' रूपमें भी हुना है;
जिसका अर्थ सायण उन लोगोसे करता 'गरगिर' शब्द भी है जो विष भक्षण करते थे । ब्राह्मणके व्रात्योंको जैन मूल श्लोकके साथ यह व्याख्या-वाक्य मूचक है। भी है कि"ब्रह्मदयं जन्य भन्नुम अदंति!"
सारण इसके मर्य करता है कि "वे ब्राह्मणोंके लिये खास तौरसे बनाये गये भोजनको खाते हैं।" लात्यायन मुत्रोंके टीकाकार अग्निस्वामी लिखते हैं कि "गरगिर व एते ए ब्रह्मा जन्ममंत्रम् अदति ।" सचमुच यहां कुछ गड़बड़
• नरीश्वर और सत्राट्, पृ. ३९८-३९९ और डिक्लिपशन सॉफ एमिया पृ० १९५६ २१३ ।
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[४ ] घोटाला है। 'गरगिर' का अर्थ विषभक्षक अथवा विषाक्तभाषीके हो सक्के हैं। दोनों ही तरह यह शब्द उपहास सूचक है । सायणके अर्थ इस आधारपर अवलंवित हैं कि आगन्तुक रूपमें व्रात्य वह भोजन भी ग्रहण कर लेते हैं जो ब्राह्मणों के लिये बना हो; अर्थात् उनकी दृष्टिसे जिसको (आहारदानको) ग्रहण करनेका अधिकार केवल ब्राह्मणों हीको था, इस दशामें व्रात्योंद्वारा अपने इस अधिकारका अपहरण होता देख कर ब्राह्मणोंने उपरोक्त शब्दका व्यवहार उनके लिए भर्त्सनामय आक्षेपमें किया है और यदि उक्त शब्दका अर्थ अग्निस्वामीके अनुसार माना जाय तो उसके अर्थ "विषाक्त भाषी" के होंगे, क्योंकि वे (व्रात्य) उस मंत्रका उच्चारण नहीं करेंगे जिसके प्रारम्भमें 'ब्रह्म' शब्द होगा । इससे प्रगट है कि व्रात्य ब्रह्मवादियोंके विरोधी थे और वे वैदिक मंत्रोंका उच्चारण नहीं करते थे। यह दूसरे अर्थ ही समुचित प्रतीत होते हैं क्योंकि 'जिन' या 'अर्हन्त' को निर्दिष्ट करनेमें इसका बहु व्यवहार हुआ मिलता है। जिनसेनाचार्य अपने 'जिन सहस्रनाम में निम्नशब्दोंका उल्लेख करते हैं:-"ग्रामपतिः, दिव्यभाषापतिः, वाग्मीः, वाचस्पतिः, वागीश्वरः, निरुक्तवाक्, प्रवक्तवचसामीसः, मंत्रवित, मंत्ररत् इत्यादि ।" इन उल्लेखोंसे एक अन्य प्रकारके मंत्रोंका होना स्पष्ट है, जिनका सम्बंध वैदिक मंत्रोंसे सिवाय विपरीतताके और कुछ न था। सचमुच तीर्थकरोंके द्वारा निर्दिष्ट हुए मंत्रोंका ही प्रयोग 'वात्यों' (जैनों) द्वारा होना उपयुक्त है; जो उनके लिये उतने ही प्रमाणीक थे जितने कि वैदिक मंत्र वेदानुयायियोंके लिए थे। अतएव उनका वेदमंत्रोंको उच्चारण न करना युक्तियुक्त और सुसंगत है और इस दशामें
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उनका उल्लेख प्रतिपक्षियों द्वारा 'गरगिर' रूपमें होना भी ठीक है ।।
इस विवेचनका सम्बंध ' अरुणमुख ' शव्दसे भी ठीक बैठता है; जिसका प्रयोग उन वतियोंके लिये हुआ था जो जैन थे, जैसे पहले कहा जा चुका है । इस कथनका समर्थन इन शब्दोसे भी होता है जो जैन भावको प्रगट करते हैं; यथा: - ऋषभ, आदिजिन, महात्रतपतिः महायतिः, महाव्रतः, यतीन्द्रः, दृढव्रतः, यति, अतीन्द्रः, इन्द्राचर्यः आदि । इनसे केवल यतियों और व्रतियों का अस्तित्व ही जैन शास्त्रोंमें प्रगट नहीं होता, बल्कि इनसे यह भी प्रगट है कि इस धर्मके प्रभाव के सामने इन्द्र सम्प्रदाय - वैदिक मतका वास हुआ था । ' अदन्टयम् दन्डेण अनन्तश्चरंति ' अर्थात् ' वे उसको दण्ड देकर रहते जिसको दण्ड नहीं देना चाहिये ।' इस उल्लेखसे प्रगट है कि व्रती पुरुष जहां रहते हैं वहां इन्द्र- यज्ञोंके विरुद्ध. आज्ञायें निकालते हैं, क्योंकि उसमें हिंसां होती है। ऐतरेय ब्राह्मण' एवं अन्य वैदिक साहित्यमें ऐसे बहुतसे उल्लेख हैं जिनमें विविध ' राजाओं द्वारा उनके राज्योंमें यज्ञोंके करने देनेका निषेध मौजूद है । सतपथ ब्राह्मण और वजसनेय संहितासे भी यही प्रगट हैं जिनमें कौशल - विदेह देशके पूर्वी आर्योको मिथ्या घर्मानुयायी और वैदिक यज्ञोंका विरोधी लिखा है और यहां जैनधर्मका बहु प्रचार प्राचीनकाल से था ।
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- व्रात्योंके खास वस्त्र, पगड़ी, रथ आदि जो कहे गये हैं; वह एक साधारण और स्थानीय वर्णन है - और उनका सम्बंध केवल ग्रहस्य एवं गृहपति व्रात्यों (जैनों ) से है । किन्तु
पगड़ी, रथ, ज्यहाद आदि शब्दोंकी
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विवेचना |
'धनुष' (ज्योद) कुछ विशेष अर्थ रखता है ।' टीकाकारने उसे ' अयोग्यं धनुष' लिखा है । बहुधा वह धनुष प्रत्यंचा रहित अथवा नुमाइशी धनुष बताया गया है । इससे क्या मतलब सघता था, यह कहा नहीं गया है तो भी यह ठीक है कि धनुष शस्त्र रूपमें क्षत्रियोंका एक मुख्य चिन्ह है, परन्तु ऐसे निकम्मे धनुषको वह क्यों रखते थे ? इससे यही भाव समझ पड़ता है कि वह इन अहिंसा धर्मानुयायी क्षत्री पुरुषोंके लिये केवल उनके क्षत्रियत्वका बोधक एक चिन्ह मात्र था । यह तो स्पष्ट ही है कि उनके गुरुओंने उनसे अहिंसाव्रत ग्रहण कराया होगा, उस समय उनके लिये अपने जातीय कर्मको त्याग कर ब्रह्मचारी होजाना और खाली हाथों रहना जरूर अखरा होगा । जिस तरह आजकल सिख लोग केवल नुमायशी ढंगपर 'किरपान' को रखते हैं, उसी तरह वह क्षत्री भी जो अहिंसाव्रतधारी थे, अपने हाथमें अपना कुलचिन्ह 'धनुष' प्रत्यंचा रहित
कल
१ – यह ध्यान रहे कि व्रात्य शब्द श्रावक और साधु दोनों का सूचक उसी तरह है, जैसे बौद्धकालमें 'निर्ग्रन्थ', मध्यकालमें " आईत" और आज - " जैन " शब्द हैं । तिसपर पगड़ी, रथ, धनुष, एक लाल कपडा पहननेका उल्लेख गृहपतिके सम्बन्धमें हुआ है । ( J. R. A. S. 1921) इस कारण इन वस्तुओंका सम्बन्ध केवल 'हीन व्रात्यों' ( श्रावकों ) से समझना चाहिये । 'ज्येष्ठ नात्य' (साधु) तो बिलकुल दिगम्बर ही प्रगट किये गये है । जैसे कि हमने भी भगवान् पार्श्वनाथ एव उनके पूर्वके तीर्थकरोको नग्न वेषधारी प्रगट किया है । सम्भव है कि अयोग्य धनुषको उनके हाथमें बतलामा उपहास सूचक हो । जैसे आजकल कोई लोग अहिंसाधर्मको राजनीतिका विरोधी बतलाते है ।
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[ ४४ ] रखते थे । यह उपरोल्लिखित प्रॉ० सा०का अनुमान है । इसके अतिरिक्त हीन, ज्येष्ट, गृहपति, अनुचनः, स्थिवरः, समनिचमेद्रः, निंदितः आदि शब्द जो व्रात्योके सम्बन्धमें व्यवहृत हुये है। इनका
भी खुलासा कर देना आवश्यक है । हीन और ज्येष्ठसे तो भाव -सभवतः अणुव्रतों और महाव्रतोसे होगा और गृहपति गृहस्थ भावकोंका आचार्य या नेता होता है। इसे विशेष धनवान और विद्वान् बताया है । इस शव्दका प्रयोग जैन शास्त्रों, जैसे श्वे० उवास्गदशाओमे हुआ मिलता है । वाकीके तीन शब्दोंका व्यवहार ज्येष्ठ व्रात्योके प्रति हुआ है । इनका अर्थ लगाने में सब ही टीकाकार भ्रांतिसे बच न सके हैं, यह बात प्रॉ० चक्रवर्ती सा० बतलाते हैं। वह अगाड़ी कहते हैं कि 'अनुचन' का अर्थ तो हो टीका
कारोने ठीक लगाया है, जिसका मतलब ज्येष्ठ व्रात्य दिगम्बर एक धर्मशास्त्र ज्ञाता विद्वान्से है। स्थजैन मुनि थे। विर शब्द भी साफ है जिसके अर्थ
गुरुसे हैं और इसका व्यवहार जैनशास्त्रोंमें खूब हुआ मिलता है । जैन गुरुओंकी शिप्य परम्परा 'स्थिविरावली' नामसे प्रख्यात है । जिन सहननाममें भी इसका प्रयोग हुआ मिलता है। किन्तु वैदिक टीकाकारोंने इसे भी नहीं समज पाया है, क्योंकि यह समनिचमेद्र शब्दके साथ प्रयोजित हआ है। इस शब्दका शब्दार्थ 'पुरुषलिंगसे रहित' होनेका है। टीकाकार भी यही कहते हैं, यथा--"अपेतप्रजननाः ।" भला व्रात्योंके लिये ऐसा घृणित वक्तव्य क्यों घोपित किया गया ? सामान्यतःजो पुरुप सामानिक रीतिके अनुसार सवस्त्र होगा, तो सचमुच उसके प्रति
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कोई भी ऐसे शब्दोंका प्रयोग नहीं कर सक्ता है । इसलिए इन शब्दोके प्रयोगसे उस पुरुषका भाव निकलता है जिसने सम्पूर्ण सांसारिक सम्बंधोंको त्याग दिया हो, जो ग्रहस्थ न हो और यति जीवनको पहुंच कर दिगम्बर साधु होगया हो। 'सम' शब्दके अग्रप्रयोगसे लक्षित है कि वह कामवासनासे रहित है । अतएव यह वर्णन ठीक है और वह व्रात्यो अथवा व्रतीयोंमें ज्येष्ठ (मुनि )के पदके लिये आवश्यक है । सायण इस शब्दकी व्याख्या करते हुये 'समनिचमेद्रों की एक प्राचीन सम्प्रदायका उल्लेख करते हैं, जो 'देव सम्बंधिन' थे और जिनके लिये एक खास व्रात्यस्तोत्र रचा गया था। इससे प्रगट है कि यह प्राचीन संप्रदाय थी और शुद्ध भी थी। शेप 'निदित.' शब्दका व्यवहार व्रात्योमें सर्व निम्नभेदका द्योतक है । यह पहले ही कहा जाचुका है कि व्रात्यों (जैनो )में श्रद्धानी पुरुष सबसे नीची अवस्था में होते हैं और उनमें अनार्य लोग भी दीक्षित कर लिये जाते हैं। सचमुच अव्रती श्रावकोंमें ऐसे सब ही तरहके श्रद्धानी लोग समिलित होते है। जैनशास्त्रोंमें इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। समाजसे बहिष्कृत और पातकी पुरुष भी पश्चात्ताप करने और आत्मोन्नतिके भाव प्रगट करनेपर' जैनाचार्यों द्वारा धर्म मार्गपर लगा लिये जाते हैं। अतएव 'निंदित.' . ' शब्दसे ऐसे पुरुषों को भी व्रात्यों (वैदिक कालके जैनो )में निर्दिष्ट किया गया है; क्योंकि वे व्रती पुरुषोंके संसर्गमें रहते थे और उस समय सब प्रकारके जैनों के लिये यही शब्द (वात्य) व्यवहृत होता था। इन्हीं निंदित पुरुषोंके कारण ब्रात्य शब्दके ओछे भाव भी वैदिक शास्त्रोंमें प्रगट किये गये मिलते है।
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अब 'अथर्ववेद' में जो व्रात्य उल्लेख हैं उनको ले लीजिये।
यह तो विदित ही है कि 'बहुत असे अथर्ववेद और जैनधर्म। तक अथर्ववेद वेद ही नहीं माना जाता
रहा है । इसकी वेद रूपमें मान्यता वैदिकमतके मेल मिलाप और पारस्परिक ऐक्य भावकी द्योतक है। सचमुच इसमें उस समयका जिक्र है कि जब आर्य लोग सामाजिक महत्ताको ढीली करके द्राविड़ साहित्य और सभ्यताकी ओर उदारतासे पग बढ़ा रहे थे। ऐसे समय स्वभावतः आर्योंके विविध मतोंमें परस्पर ऐक्य और मेलमिलापके भाव जागृत होना चाहिये थे। तिसपर व्रात्योंके बढते प्रभावको देखकर ऐसा होना जरूरी था । 'अथर्ववेद' अगरिस नामक ऋषिकी रचना बताई जाती है और मनोंके 'पउमचरिय' में इन अंगरिसका जैन मुनिपदसे भ्रष्ट होकर अपने मतका प्रचार करना लिखा है । इस दशामें अथर्ववेदमें जैनधमैके सम्यघमें जो बहुत कुछ बातें मिलनी है वह कुछ अनोखी नहीं हैं । अथर्ववेदके १५वें स्कन्धमें यही भाव प्रदर्शित हैं। वहां एक महावात्यकी गौरव गरिमाका बखान किया गया है । यह महाव्रात्य वेद लेखककी दृष्टिमें किसी खास स्थानका कोई क्षत्रिय व्रात्य था। मात्य (नेन) धर्मकी प्रधानताके समय समाजमें क्षत्रियोंका मासन ऊंचा होना स्वामायिक है और सचमुच ईमासे पूर्व छठी, सानी मतादियो बल्कि इससे भी पहलेसे क्षत्रियों की प्रधानताके चिह उस समयके भारनमें मिलने थे। उस समयका प्रधान धर्म, मनियम (जैनधर्म ) था, परन्तु इसके अर्थ यह मी नहीं हैं कि
में बाकि रिये कोई स्थान ही न था। प्रत्युत भगवान्
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[४७] महावीरजीके प्रधान और प्रमुख गणधर गौतमखामी ब्राह्मण ही थे। उपनिषदोंमें जो वर्णन है उससे भी प्रगट होता है कि काशी, कौशल, विदेहके ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंकी प्रधानताको स्वीकार कर लिया था। इसी प्रधान भावके कारण व्रात्योमें मुख्य क्षत्रिय साधुका
गुणगान करना प्राकृत सुसंगत होगया अथर्ववेदके महाव्रात्य था । अथर्ववेदके १५वें स्कन्धमें जिस श्री ऋषभदेव थे। महाव्रात्यका गुणानुवाद वर्णित है, वह
सिवाय वृषभ या ऋषभदेवके और नहीं हैं। उसमें जो वर्णन है वह जैनाचार्य जिनसेनके मादिपुराणमें वर्णित श्री ऋषभदेवके चारित्रके समान ही है। अवश्य ही आदिपुराण अथर्ववेदसे उपरांत कालकी रचना है, पर उसका आधार बहु प्राचीन है। अथर्ववेदमें पहले ही महाव्रात्य प्रजापतिको अपनेको स्वर्णमय देखते लिखा है । वह 'एकम् महत ज्येष्ठ ब्रह्म तपः सत्यम्' आदि होगये। उनकी समानता वहां ईशम् और महादेवसे भी की गई है। जिन सहस्रनाममें भी वृषभदेवके ऐसे ही नाम मिलते हैं, जैसे; प्रजापति, महादेव, महेश, महेन्द्रवन्दप, कनकप्रभ, स्वर्णवर्ण, हेमाभ, तप्तचामिकरच्छ वि., निष्टाप्तकनकच्छायाः, हिरण्यवर्ण, स्वणामाः, सतकुम्भनिवप्रभाः । अथर्ववेदके इस प्रारम्भसे ही
१-यहा भी प्रजापतिको एक महावान्य अर्थात् दि० जैन साधु वतलाया है, जो सम्मवत श्री ऋपभदेव ही थे। अनएव इस उल्लेखसे भी प्रजापति परमेष्ठिन्की वैदिक ऋचाओमे हमारा जैन सम्बन्ध प्रगट करना ठीक है।
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हमें वृषभदेव के दर्शन होजाते हैं, जो व्रतोंको सर्व प्रथम प्रगट करनेवाले थे, सर्व प्रथम तपश्चरणका अभ्यास और सत्यका उपदेश देनेवाले थे और जिन्होंकी वंदना देवदेवेन्द्रोंने की थी। जैन दृष्टिसे " तपश्चरणकी मुख्यता कायोत्सर्ग आसन द्वारा सर्दी गर्मी एवं अन्य कठिनाइयोंको सहते हुये ध्यानमग्न स्थित रहने में स्वीकृत है । वृषभदेव इसी आसन में तपस्यालीन रहे थे । अनेक जैन मंदिरोंमें I आज भी उनकी मूर्ति कायोत्सर्ग रूपमें मिलती है । तीर्थंकर भगवानके लिए देव निर्मित समवशरणका जिक्र भी पहले हो चुका है। अथर्ववेद में अगाड़ी तीसरे प्रपतक में वृषभदेवकी इस जीवन घटना अर्थात कायोत्सर्गे तपस्या करने और फिर केवली हो देवों द्वारा रचे गये समोशरण में बैठने का भी उल्लेख है । उसमें लिखा है कि "वह एक वर्ष तक सीधे खडे रहे, देवोंने उनसे कहा, " व्रात्य, अब आप क्यों खडे है ?" .. उनने उत्तर में कहा, "उनको मेरे लिये एक आसन लाने दो।" उस व्रात्यके लिये वे आसन लाये; उप्प आसनपर व्रात्य आरूढ होगए | उनके देवगण सेवक थे 1 इत्यादि इस व्रात्यके सम्बंध में भी पगड़ी, धनुष और रथका उल्लेख है । इससे केवल महाव्रात्य प्रभुको एक क्षत्रियव्रात्य प्रगट करनेका ही भाव है । इसीलिए क्षत्री व्रात्योंके साधारण जीवन क्रियाओंपगड़ी आदिका उल्लेख चिन्ह रूपमें कर दिया है । इन महाव्रात्यके सम् अलौकिक बातोंका भी उल्लेख है। साराशतः इन महापुरुपको गौरवविशिष्ट और वैदिक देवताओंसे भी उच्चतम प्रगट किया गया है । कितने ही वैदिक देवता इनके सेवक बताये गये हैं । यह महाव्रात्य सर्व दिशाओं में विचरने और उनके पीछे देवोंको जाते
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[४९] एवं दिकपालोंको उनका सेवक होते भी बताया गया है। यह सब कथन एक जैन तीर्थकरके जीवन कथनके बिल्कुल ही समान है; निनकी भक्ति और सेवा देव-देवेन्द्र करते हैं । उनके समोशरणके साथ अनेक देव रहते और दिक्पाल विविध रीतिसे सेवा कार्य करते हैं । दश पर्ययमें व्रात्यके राजाओं और गृहस्थोंके पास जाने
और भिक्षा पाने तथा ग्रहस्थ उनको कैसे पड़गावें इस सबका उल्लेख है । यह जैन यतियो और तीर्थंकरोंके सम्बन्धमें ठीक है। परन्तु तीर्थंकरों और सामान्य केवलियोंके लिये केवली पद पानेके बाद यह बातें संभवित नहीं होती। अथर्ववेदमें किसी नियमित रूपमें यह कथन नहीं है बल्कि सामान्य रीतिसे अपनी सुविधानुसार उसका लेखक इन सब बातोंको निर्दिष्ट करता मालूम होता है । व्रात्यको आहारदान देनेके फलरूप पुण्य और सम्पत्तिको पाना भी बतलाया गया है और यह भी जैन दृष्टिके अनुकूल है । इन सब बातोंके देखनेसे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अथर्ववेदमें जिन महाव्रात्यका वर्णन है वह कोई जैन तीर्थंकर हैं और बहुत करके वह स्वयं भगवान ऋषमदेवजी ही हैं। अंगरिसने उनका चित्रण इस ढंगसे किया है कि वह वैदिक देवता प्रगट होने लगें । इस प्रकारके चित्रणसे उसका बड़ा लाभ यह था कि वह जैनधर्मके महत्त्वको कम कर सका था। मुसलमानोंके प्रकर्षके समय हिन्दू मतमें मूर्तिपूजाका खंडन इसी कारण हुआ था कि मुसलमानोंका' प्रभाव हिन्दुओंपर न पड़े। इस प्रकार इस कथनसे अब यह बिल्कुल प्रमाणित है कि
जैनधर्म वैदिक कालमें मौजूद था, जैसे
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[१०] प्राचीनता प्रकट करनेकी हम पूर्व पृष्ठोंमें भी बतला आये हैं और आवश्यकता। वह उस समय "व्रात्य" नामसे परिचित
था। सिंध प्रान्तके मोहन जोडेरो नामक स्थानसे जो गत वर्षों में ई० पूर्व करीब तीन चार हजार वर्षोकी चीजें मिली है, वे भारतीय असुर सभ्यताकी द्योतक मानी गई हैं। उनमें ऐसी मुद्रायें भी मिली हैं, जिनपर पद्मासन मूर्ति अकित है। विद्वान इन सिक्कोंको बौद्ध अनुमान करते है; किन्तु जब वौद्धधर्मकी उत्पत्ति ई० पूर्व छठी शताव्दिमें मानी जाती और बौद्धोंमें मूर्ति प्रथा ईस्वीसन्के प्रारम्भिक कालमें प्रचलित हुई कही जती है, तब उक्त मुद्रा बौद्ध न होचर जैन होना चाहिये। उसका जैन होना अन्यथा भी सभवित है । 'विष्णु पुराण' से यह स्पष्ट ही है कि असुर लोगों में जैनधर्म का प्रचार होगया था। और उधर जैन शास्त्रोसे कलतक सिन्ध प्रान्तमें कई एक तीर्थ होनेका वर्णन मिलता है; मिनका भान पता तक नहीं है। अस्तु, उक्त मुद्राका जैन होना भी जनधर्मके प्राचीन अस्तित्वका समर्थक है। अतएव भगवान पार्श्वनाथको जैनधर्मका संस्थापक मानना नितान्त भ्रातिपूर्ण है, किन्तु संभव है कि यहागर कोई पाठक महोदय जैनधर्मकी प्राचीनताको प्रगट करनेवाले, हमारे अब तक कथनको अनावश्यक खयाल करें और वह कहें कि किसी धर्मकी प्राचीनता उसकी अच्छाईमें कारण मृत नहीं होसक्ती । वेशक टनका कहना किसी हद तक ठीक है परन्तु हमारे उक्त प्रयासको अनावश्यक बताना हमारे प्रनि ने अन्याय ही है परन्तु साथ ही उपके लिखे जानेके उद्देश्यमे अनभिज्ञताका द्योतक भी है।
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मावश्यक्ता ही आविष्कारकी जननी मानी गई है । जैनधर्मके संत्रघमें विद्वानोके अयथार्थ उल्लेखोंने ही हमें बाध्य किया है कि हन जैनधर्मकी प्राचीनताको स्पष्ट करदें । साहित्यके लिये यह गौरवकी बात है कि वह नितान्त स्वच्छ, निर्भ्रान्त और यथार्थ हो । इस हेतु साहित्य हितके नाते भी हमारा यह प्रयास अनावश्यक नहीं है । तिसपर जैनधर्मकी यह बहु प्राचीनता उसके महत्वको बढ़ानेवाली ही है । वेशक उसके सिद्धांत और आचार विचार उसकी खूबी प्रगट करते ही हैं, परन्तु वह आर्योंका सर्व प्राचीनमत है, यह भी उसके लिये कुछ कम गौरव या महत्वकी बात नहीं है । अस्तु;
राजा विश्वसेन ।
अब यह बिलकुल स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथनी न तो जैनधर्मके संस्थापक थे और न वे कोई काल्पनिक पुरुष थे । प्रत्युत वे ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दिमें हुये एक ऐतिहासिक महापुरुष थे । इस अवस्थामें इन अनुपम महापुरुष के गौरदमय जीवनचरित्रका दिग्दर्शन कर लेना समुचित और आवश्यक है । यह हम पहले ही बतला चुके है कि इन अनुपन तीर्थकरका जीवन वृत्तांत जैन ग्रन्थोंमें मिलता है और यह क्षत्रिय राजकुमार ये । प्रस्तुत पुस्तकको पढ़ने से पाठकों को स्वयं मालूम होजायगा कि चे इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री राजा विश्वसेन अथवा अत्रसेन और उनकी रानी ब्रह्मादेवीके सुपुत्र थे और उनका जन्म बनारस में हुआ था । ब्राह्मण ग्रन्थोमें उपरोक्त नामका कोई राजा नहीं मिलता है । हां, अश्वसेन नामक एक नागवंशी राजा का पता ब्राह्मण साहित्य में
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[१२] चलता है। परन्तु उसे वनारसके उपरोक्त राजा अश्वसेन स्वीकार कर लेना जग कठिन है; क्योंकि वह नागवगी हैं। इतनेपर भी जैन शास्त्रोंमें राजा अश्वमेनको उग्रवशी बतलाना इस बातको सम्भव भर देता है कि वह नागवंशी हों, क्योंकि प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान बता दिया गया है कि 'उग्र का मम्बन्ध 'नागों की 'उख नामक जातिसे प्रगट होता है । जो हो, ब्राह्मण ग्रन्थोंके अतिरिक्त बौडग्रन्थोसे भी इसी नामके समान एक रानाका पता चलता है। दीवनमायके परिशिष्टमें मात राजानोंका नामोल्लेख है और उन्हें 'भरत' कहा गया है। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि वह अयोध्याके राजा भरतके वंशन अर्थात इन्वाक्शी थे । इन राजाओंमें एक वासभू (विश्वभु) नाक भी है । इम नामकी साहव्यता विश्वसेन ।न्ति यह नहीं बताया गया है कि वह कहा जा ये अतएव सभव है कि यह वनारसके रामा विश्वसेन हों। सारांशत. भगवान पार्श्वनाथ और उनके पिताका अस्तित्व भारतीय साहित्यमें मिलता है। भगवान वनाथके जीवन सम्बन्धमें रचे गए साहित्यपर
यदि हम दृष्टि डालें, तो हमें कहना भगवान पार्श्वनाथजी होगा कि वह आजकल भारतेतर सासंबंधी माहत्य। हित्यमें भी उपलब्ध है। अमेरिकाले
बारटीमोर विश्व विद्यालय के संस्कृत प्रोफेम. श्री रघन्टूमफील्डने श्री भावदेवसरि छत 'पावचरितका
कत्रि - हिन्दी फ इन्टिया भाग 1 पृ० १५८ । २-पूर्व सर १० १७४ ।
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अंग्रेजी अनुवाद अपनी विस्तृत भूमिका और टिप्पणियों सहित प्रकट किया है । यह " Life and Stories of Jaina Saviour Parshvanatha " नाम से सर्वत्र प्रचलित है । दूसरा उल्लेखनीय ग्रन्थ जर्मन भाषा में " Der Jainismus " नामक है । इसके रचयिता बरलिन विश्वविद्यालय के प्रख्यात् विद्वान् प्रा० डॉ० हेल्मुथ वॉन ग्लासेनाप्प हैं । आपने जैनधर्मका परिचय लिखते हुये, भगवान पार्श्वनाथजी के जीवनपर भी प्रकाश डाला है । इनके अतिरिक्त विदेशो में प्रकट हुई जैनधर्म सम्बंधी पुस्तकों में इनका उल्लेख सामान्य रूपसे भले ही हो, पर विशेष रूपसे नहीं है । इधर भारतीय साहित्य में भगवान् पार्श्वनाथनीके सम्बन्धमें दिगम्बर और श्वेतावर जैनोंके साहित्य ग्रन्थ हैं | श्वेताम्बर जैन अपने कल्पसूत्र आदि ग्रन्थोको मौर्यकालीन श्री भद्रबाहु स्वामीकी यथावत् रचना मानते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं जंचता । प्रत्युत यह कहना पडेगा कि यह क्षमाश्रमणके समय या उनसे कुछ पहलेकी रचनायें हैं; जब कि यह लिपिबद्ध हुई थी । अस्तुः अबतक हमारे ज्ञानमें इस विषयके निम्न ग्रन्थ आये हैं:
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दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थ |
१. प्रथमानुयोग - ५००० मध्यम पद ( अर्धमागधी ) महावीरस्वामी द्वारा प्रतिपादित ( अप्राप्य ) |
२. पार्श्वनाथ चरित - श्री वादिराजसूरि प्रणीत् (८६९ ई०) यह माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें मूल संस्कृत और जैन सि०प्र० संस्था कलकत्ता द्वारा हिन्दी अनुवाद सहित प्रकट हो चुका है ।
३. पार्श्वनाथपुराण - श्रीसकलकीर्ति आचार्यकृत (सं० १४९५ )
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[५४] मूल संस्कृत और हिन्दी टीका स० । मुद्रित अप्राप्य है । प्रसिद्ध जैन भंडारोंमें ह० लि० मिलता है।
४. पार्श्वनाथपुराण-(मूल सं०) भ० चन्द्रकीर्ति ग्रथित (सं० १६५४) ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन वंबई और जैन मंदिर इटावा आदिमें प्राप्त है।
५. पार्थाभ्युदय काव्य-श्री जिनसेनाचार्य (६५८-६७२ ई०) मूल और संस्कृत टीका सहित बंबईसे मुद्रित होचुका है।
६. उत्तरपुराण-श्री गुणभद्राचार्य (७४२ ई०) मूल संस्कृत और हिन्दी अनुवाद सहित इन्दौरसे प्रकट होचुका है।
७. पार्श्वपुराण-(सं०) वादिचंद्र प्रणीत ऐलक पन्नालाल सर.. स्वती भवनकी चतुर्थ वार्षिक रिपोर्टके ट० ९ (ग्रन्थसूची) पर इसका उल्लेख है । (सं० १६८३)
८. उत्तरपुराण-प्राकृत (अपभ्रंश) में श्री पुष्पदत कविद्वारा प्रणीत (९६५ ई.)।
९. पार्श्वपुराण-प्रा० (अपभ्रंश) पद्मकीर्ति विरचित । समय अज्ञात । इसकी एक प्रति सं० १४७३ फाल्गुण बढी ९ वुद्धवारकी लिपि की हुई कारआके भंडारमें है।
१०. पार्श्वनाथपुराण-छदोवड हिन्दी-कविवर भूधरदासजी कृत । (सं० १७८९) वंबईसे मुद्रित हुआ है।
११. उत्तरपुराण-छंदोबद्ध हिन्दी कवि खुगालचदकत । (सं० १७९९)।
१२. पार्श्वनीवन कवित्त-(हिन्दी) अलीगंज (एटा) के जैन मंदिरके एक गुटकामें अपूर्ण लिखे हुए हैं।
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[ ५५ ]
१३. भगवान पार्श्वनाथ-हिदीमें मास्टर छोटेलाल द्वारा अनुवादित (मुद्रित)।
१४. हरिवंशपुराण-(हिन्दी) जिनसेनाचार्यके मूल ग्रन्थका हिंदी अनुवाद कलकत्तेकी जैन संस्था द्वारा प्रगट हुआ है । इसमें भी अन्य तीर्थकरोंके साथ पार्श्वचरित लिखा हुआ है।
१५. पार्श्वनाथपुराण-कनडीमे पार्श्व पंडित ग्रथित (१२०५ ई०) आराके जैन सिद्धांत भवनकी ग्रन्थसूचीमें भी एक कनड़ी पार्श्वपुराणका उल्लेख है। मालूम नहीं कि वह यही पुराण है।
१६. पार्श्वनिर्वाण काव्य-(सं०) वादिराज कवि प्रणीत और चारुकीर्ति कृत टीका । ( देखो दि० जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ ट० ९ और २५ )।
१७. चिंतामणि पार्श्वनाथकल्प-(सं०) धर्मघोषकृत (उपरोक्त ग्रन्थ पृ० १३)।
१८. पार्श्वनाथ भगवान-बंगला भाषामें श्रीयुत हरिसत्य भट्टाचार्य एम० ए० द्वारा 'जिनवाणी' पत्रिकामें प्रकाशित ।
१९. तीथेकर चरित्रं-(मराठी) तात्या नेमिनाथ पांगलरूत।
२०. नागेंद्र कथा-पुण्याश्नव कथाकोप-व्र० नेमिदत्त विरचित (सं०)।
२१. चामुण्डरायपुराण-श्री चामुण्डरायकृत (१० शताब्दि)
२२. लार्ड पार्श्वनाथ-अंग्रेजीमे मि० हरिसत्य भट्टाचार्य कत । 'जैनमित्रमंडल, दिल्ली' द्वारा प्रकाशित ।
श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थः-- १. करपसूत्र-श्रीभद्रबाहुप्रणीत (अर्धमागधी) (S. B. E.)
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[१६] २. पार्श्वनाथचरित्र-(सं०) श्री उदयवीर गणि (सं० १९०२) ३. पार्श्वनाथचरित्र-(सं०) श्री माणिक्यचंद्र (सं० १२७६) १. पार्श्वनाथकाव्य-(स०) श्रीपद्मसुन्दरकत । ५. पार्श्वनाथचरित्र-(सं०) श्रीभावदेवसुरि । ६. शत्रुञ्जयमाहात्म्य-(सं०)के पहलेके ९७ श्लोकोंमें । ७. उत्तराव्ययनमुत्र वृत्ति-(सं०) श्रीलक्ष्मीवल्लभक्त ।
८. पार्श्वनाथचरित्र-(प्रा०) देवभद्रसूरि (सं० ११६८)बीकानेर ग्रन्थ सूची (G. O S) पृ० ४७।। '. ९. चतुर्विंशतिजिनचरितन्-(सं०, अमरचद्रसुरि (पूर्व०४०६९)
१०. मगसीपार्श्वनाथ-मानविनयकृत ऐ० प० स० भवन, वम्बई )।
११. त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र-श्रीहेमचंद्राचार्यरत । _इन ग्रन्थोंके अतिरिक्त दोनों संप्रदायोंमें भगवान पार्श्वनाथजीके सम्बंधमें अनेक स्तोत्र और पूजा ग्रन्थ भी प्रचलित हैं। इनमेंसे दिगम्बर संप्रदायके विशेष उल्लेखनीय स्तोत्र और पूजा अन्य निम्नप्रकार हैं.
१. कल्याणमंदिरस्तोत्र-श्री कुमुदचंद्रकृत । २. पार्श्वनाथस्तोत्रं-पद्मप्रमदेव विरचित । ३. चिंतामणिपाश्वनाथस्तोत्र-प्राकृत भाषामें । ४. पार्श्वनाथस्तोत्र सटीक-पद्मनदीस्त । ५. पाश्र्वनाथस्तोत्र-(सं०) विद्यानन्दीस्वामीकृत । ६. पार्श्वनाथ अष्टक-आराके सिद्धांत भवनकी सूचीमें है। ७. पार्श्वपूना-श्रीवृन्दावननी, मनरंगलालनी प्रमृतिकत (हिंदी)
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__ [५७ } ८. कलिकुण्ड पार्श्वनाथपूजा-संस्कृतमें हैं। ९. पार्श्वयज्ञ-देशभक्त पं० अर्जुनलालजी सेठी प्रणीत् ।
श्वेतांबर संप्रदायके कतिपय स्तोत्र निम्नप्रकार हैं, किन्तु उनके कोई पूना ग्रन्थ है यह विदित नहीं है:
१. गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवन-(सं०) ऐ० प० दि जैन भवन सूची वर्ष १ ४० ७९ ।
२. पार्श्वनाथस्तोत्रं-(सं०) पूर्व० वर्ष २ १० १७. ३. पार्श्वस्तोत्रम्-(प्रा०) जैसलमेरकी सूची ४० ६५ ।
उपरोक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त अलीगंज (एटा)के श्रीशांतिनाथ दि. जैन मंदिरके भण्डारमें एक गुटका सं० १६०८ भाद्र वदी १३का लिखा हुआ मौजूद है। उसमे भगवान पार्श्वनाथके विषयमें निम्नप्रकार ६२ बातें कहीं गई हैं:
श्री पार्श्वनाथ जिन ६२ स्थान कथयंतिः
१. श्री पार्श्वनाथ नाम, २. प्राणत विमानात् , ३. नगरी चाणारसी, ४. पिता अश्वसेन राजा, ५. माता वाम्मादेवी, ६. गर्भ वैसाख वदी २, ७. जन्म पौष वदी ११, ८. नक्षत्र विशाखा, ९. शरीर हरितवर्ण, १०. उच्चत्त हस्त ९, ११. आव वरिष १००, १२. कुमारकाल ३०, १३. राज्यकाल||०, १४. अधिक पूर्वाग।।०, १५. तप पौष वदी ११, १६. तपकाल वरिष ७०, १७. हीन पूर्वाग||०, १४. छमस्थ मास ४, १९. केवल चैत्र वदी ४, २०. केवल वेला पूर्वान्हे, २१. केवलकाल पूर्वाणि, २२. पूर्वागानि।।०, २३. वरिष ६९, २४. मास ८, २५. दिन।।०, २६. समवशरण जो० १, २७. गणधर १०, २८. सर्वसंघ १६०००, २९
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[१८]
पूर्वघर ३५०, ३०. सिप्य १०९०० ३१. अवधिज्ञानी १४४, ३२. केवलज्ञानी १०००, ३३. मन पर्यय ज्ञानी ७५०, ३४.. वैक्रियक १०००, ३५. वादिन् ६००, ३६. उग्रवंश, ३७. राजा सहतप, ३००, ३८. राजा सहमोक्ष ३६, ३९. सिद्धपेत्र सम्मेदगिरि, ४०. लांछन धरणेन्द्र, ४१. जिनांतर वर्षे २५०, ४२. हीन ॥०, ४३. अनुबंधकेवली ३, ४४, संततकेवली ॥३, ४५. अर्जिका ३८०००, ४६. श्रावक १०००००, ४७. श्राविका ३०००००, ४८. जती सिद्धगति ६२००, ४९. अनुत्तरगत ८८००, ५०. सौधर्म अनुत्तरगत १०००, ९१. वृक्षनाम घव'लसर, ५२. वृक्षउच्च घ० १०८, ५३. पारणादिन ३ पाष, ५४.. नगरी द्वारा वहपुरी, १९. दानपति धनदत्तु, १६. चरु गोपीरं, ५७. रत्नवृष्टि १८. नक्ष घरणेंद्र, ५९. जक्षणी पद्मावती, ६०. मोक्ष श्रावण शु. ७, ६१. मोक्षासन बैठो, ६२. योगव्यान मास १ । "
इस प्रकारका यह साहित्य है जिसमें भगवान पार्श्वनाथजीकी जीवन घटनायें संकलित हैं । इन एवं अन्य श्रोतोके आधारसे ही हमने भी प्रस्तुत ग्रंथकी रचना की है । इस साहाय्यके लिये हम इन सब ग्रन्थकारोंके अतीव कृतज्ञ हैं । किंतु यहां पर यह देख लेना भी समुचित है कि क्या इन सब मन्थोंमें एक समान ही कथन है अथवा उसमें कुछ अंतर भी है । यह तो मानना पड़ेगा कि भगवानका जीवन चरित्र एक ही रूपका रहा होगा। उनके जीवनकी एक ही घटना
चरित्र ग्रंथोंमें परस्पर अन्तर क्यों है ?
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[ ५९ ]
दूसरे रूपमें मिल नही सक्ती । और इसलिये उनके जीवनचरित्र सम्बन्धमें जो भी ग्रंथ उपलब्ध हों, उनमें कोई भी अन्तर नहीं होना चाहिए । किंतु बात दरअसल यूं नहीं है । इन सारे ग्रन्थों में एक दूसरेसे विभिन्नता मौजूद है । और यह विभिन्नता केवल रचनाभेदकी नही है, प्रत्युत जीवन घटनाओं की है । दिगंबर और श्वेतांबर सम्प्रदाय के ग्रन्थोंमे आम्नाय भेदके अनुकूल विपरीतता रहना प्राकृत सुसंगत है; परन्तु स्वयं दिगंबर संप्रदाय के ग्रन्थोंमें भी न्यून रूपमें यही बात देखनेको मिलती है। बेशक उनमें जीवन घटनाओं में अन्तर नही है; परन्तु विवरण में है । लेकिन प्रश्न यह है ऐसा क्यो है ? इसके उत्तर में हम स्वयं कुछ न कहकर प्रसिद्ध विद्वान् स्व० पं० टोडरमलजीके निम्न शब्दोंको उद्धृत कर देना पर्याप्त समझते हैं
"ऐसे विरोध लिये कथन कालदोषसे भये हैं । इस काल विषै प्रत्यक्षज्ञानी व बहुश्रुतीनिका तो अभाव भया और स्तोकबुद्धि ग्रन्थ करने के अधिकारी भये, तिनको भ्रमसे कोई अर्थ अन्यथा भासा तिसको तैसा लिखा अथवा इम काल विषै कई जैनमत बिषै भी कषायी भये हैं । कोई कारण पाय अन्यथा कथन उन्होंने मिलाये हैं । इसलिये जैनशास्त्रोंके विषै विरोध भासने लगा । सो जहा विरोध भासे तहां इतना करना कि इस कथनवाला बहुतप्रामाणिक है या इस कथनवाला बहुत प्रामाणिक ऐसा विचार - कर बड़े आचार्यादिकनिकरि कहा कथन प्रमाण करना । इत्यादि" - मोक्षमार्ग प्रकाशक अधि० ८ । अतएव काल महाराजकी कृपासे प्रत्येक ग्रंथकार ने जिस
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६.
भाधारसे जो बात ठीक समझी, उसको दिगम्बर शास्त्रोंमें प्रगट कर दी। उनके लिये और कोई सामान्य अन्तर है। उपाय शेष न था । यह हम भी पहले स्वी
कार कर चुके हैं कि आजकलके अल्पज्ञ मानवोंके लिये यह संभव नहीं है कि वह पुरातनकालमें हुये महापुरुषों के जीवनचरित्र यथाविधि ठीक लिख सकें। जो कुछ उपलब साहित्य और अनुमान प्रमाणसे उचित प्रतीत होगा वह उसीको लिख देंगे। किन्तु इसके यह भी अर्थ नहीं है कि जिनवाणी पूर्वापर विरोधित है । यह किसी तरह भी संभव नहीं है । जैन सिद्धान्त अथवा दर्शन ग्रंथ बड़ी होशियारीके साथ सम्माल कर सखे गये हैं। यही कारण है कि उनमें किंचित भी अन्तर नहीं पड़ा है । जो जैन सिद्धान्त भगवान महावीरजीके समय एवं उनसे पहले जनधर्ममें स्वीकृत थे, वही आन भी जैनधर्ममें मोजूद हैं। यह हमारा कोरा कयन ही नहीं है। प्रत्युत जैनग्रथोका आभ्यन्तर स्वरूप और बौद्धादि ग्रन्थोंकी साक्षी इसमें प्रमाणभृत है । इसके लिये हमारा " भगवान महावीर और म० बुद्ध " नामक ग्रथ देखना चाहिये । अस्तु, जैनसिद्धान्तके अक्षुण्ण रहने हुये भी, यद्यपि उसमें भी विकृति लानेके प्रयत्न हुये थे जिसके फलरूप श्वेताम्बरादि माम्नाय निर्घन्य संघमें भी मौजूद हैं, जैनपुराण ग्रंथोंमें भेद मौजूद है । यह क्यों और कैसे है यह ऊपर बताया ही जाचुका है । अतएव यहाँपर हम पहिले दि. जन मंप्रदायके 'पार्श्वचरितों' में परस्पर भेदको देखनेका प्रयत्न करेंगे। सचमुच यह प्रमेद कुछ विशेष नहीं है । इससे भगवानके जीवन चरित्रमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है. यह सामान्य
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है औ उपेक्षा करने योग्य है । किन्तु इसपर भी उसको प्रगट कर देना साहित्यिक स्पष्टता के लिये आवश्यक है । अतएव उस ओर दृष्टि डालने पर हमें पहले ही भगवान् पार्श्वनाथनीके प्रथम भवांतर वर्णनमें अन्तर मिलता है । श्री गुणभद्राचार्य, सकलकीर्ति, 1 चंद्रकीर्ति, (१।११५ - ११७) और भूधरदास (१ - १०२) कृत ग्रन्थोंमें कमठके भाई मरुभूतिको उसकी खबर किसी राह चलते भीलसे पाने का क्रि नहीं है; परन्तु वादिराजसूरिजी के ग्रन्थ में (सर्ग २ श्लो० ६३-६४ ) यह विशेषता है । श्री जिनसेनजी के 'पाश्वभ्युदय काव्य ' में पूर्वभवों का उल्लेख वर्तमान रूपमें है । अगाड़ी अरविदगज के मुनि समागमका उल्लेख प्रायः सबमें मिलता है; परंतु वादिगजसुरजीके ग्रन्थमें उन मुनिगजका नाम 'स्वयंप्रभ" और उनके आगमन की सूचना मालीद्वारा राजापर पहुंचानेका विशेष उल्लेख है । (म० २ श्लो० १०२) मरुभूतिकी मृत्यु उपरांत सलकीवन में हाथी उत्पन्न होनेका उल्लेख भी सबमें है; कितु वादिराजसूरिजी के ग्रथमें यहां भी विशेष रूपमें उस हाथी के माता पिताका नाम वर्नरी और पृथ्वीघोष लिखा है (स० २ श्लो० ३८-३९ ) फर राना अरविंदके मुनि होजानेपर, उन्हें एक वैश्यसंघके साथ नार्थीको वन्दना निमित्त जाते हुये और सल्लकी वनमें श शगुन आद श्रावकोंको उपदेश देते, इस ग्रन्थमें लिखा है । (स० ३ श्लो० ६१ - ६५) किन्तु सकलकीर्तिजी (२/१६१७), गुणभद्राचार्यजी (७३|१४) चंद्रकीर्तिनी ( २४/२ ) के ग्रन्थों में उन्ह सघ सहित श्री सम्मेद शिखरजीकी यात्राके लिये जाते लिखा है । उत्तरपुराण (७३/२४), सकलकीर्तिजीके पार्श्व
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[६२] चरित (२।६३) में वज्रघोष गजराजको सहबार स्वर्गमें स्वयंप्रभ देव होते लिखा है, किंतु वादिराजसूरिने उसे महाशुक्र स्वर्गमें शशिप्रभदेव लिखा है । (३।१०८) इन्होने लोकोत्तमपुरके राजाका नाम विद्युद्वेग और उसके पुत्रका नाम रश्मिवेग लिखा है (४१२७); परंतु उत्तरपुराण (७३।२४-२५), सकलकीर्तिनी (२।१०), चंद्रकीर्तिजी (२।१३०) और भूघरदासनी (२१६९-७१)ने राजाका नाम विद्युत्गति और पुत्रका नाम अग्निवेग बताया है । चन्द्रकीर्तिजीने पिताकी आज्ञानुसार अग्निवेगका किमी विद्याधरसे संग्रामकरनेका भी उल्लेख किया है। (६१४) वादिरानमूरिनीने विजया रानीके सवको विजय करनेवाला दोहला होने लिखा है। (४१२-१४) उत्तरपुराणमें न दोहला है और न स्वप्नोंका जिक्र है (७३।३१-३२)। किन्तु शेप सबमें स्वप्न देखनेका उल्लेख है। वादिरानजीके ग्रन्थमें वचनाभि चक्रवर्तीको सुखा वृक्ष देखकर विरक्त होते और मकर मुनिके पास जाने लिखा है ( ८1७२-७३ ) किन्तु उत्तापुराण (७३-३४), सकलकीर्तिनी (६/३), चन्द्रकीर्तिनी ( ६१२-४ )
और मृघग्दापनी (३।७४)ने उनको खेमकर मुनिका उपदेश सुनकर विरक्त होते बनाया है। अगाडी सक्कलकीर्तिनी (५१९४), चंद्रकीर्तिनी (६८८-९०) और भृधरदासनीने (३३१०७) वजनाभि मुनिको वनमें रहने हुये कुरङ्ग भील द्वारा उपमर्गीस्त होते लिखा है । परन्तु पार्श्वचरित (८,८०)में वनके स्थानपर विपुलाचल पर्वत बताया है और उत्तरपुराणमें (७३।३८) वन और पर्वत किसीना भी उल्लेख नहीं है । अगाडी वादिराजमुरिजी राजा आनंदको निनयज्ञ (जिनेन्द्र पूना) करते और मुनि आगमन हुआ बतलाते हैं।
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(९/१ - ३) उनने मंत्रीकी प्रेरणाका उल्लेख नहीं किया है और न मुनिवरका नाम बताया है । किन्तु उत्तरपुराण ( ७३ | ४४ - ४५ ), सकलकीर्तिनी (७१३९-४१), चंद्रकीर्ति ( ६४९ - ९० ) और भूधरदासजी (४।१८ - २४ ) ने स्वामिहित मंत्री की प्रेरणासे आनंद राजाको जिनयज्ञ रचते और विपुलमती मुनिराजको आते लिखा है । उत्तरपुराण (७३/५८-६०) सकलकीर्ति और भूधरदासजी (४/६०) -ने राजा आनंदके समय से सूर्य पूजाका प्रचार हुआ लिखा है। किंतु - वादिराजसूरिजी के ग्रन्थ में (स०९ ) और चंद्रकीर्तिजी के चरित (६/८१ - ८८ ) में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । वादिराजजीने राजा आनदको सफेद बाल देखकर निधिगुप्त मुनिराजके समीप -दीक्षा लेते लिखा है । ( ९/३४-३८ ) किंतु चंद्रकीर्तिजीने यद्यपि सफेद बाल देखनेकी बात लिखी है । परन्तु मुनिका नाम सागरदत्त लिखा है । ( ६ / ९३ व १२४ ) और सकलकीर्तिजीने मुनिका नाम समुद्रदत्त बतलाया है ( ८/२६), यही नाम उत्तरपुराण में भी है । (७३/६१) भूधरदासजीने सागरदत्त लिखा है। नाम अगाड़ी वादिराजसूरिजीने भगवान के पिताका नाम विश्वसेन (९/६९ ) और माता ब्रह्मदत्ता (९/७८) बताई है, परन्तु उनने इनके कुलवंशका उल्लेख नही किया है । उतरपुराण में राजा-रानीका नाम क्रमशः विश्वसेन और ब्रह्मादेवी (७३/७४) लिखा है, तथा उनका वंश उग्र (७३ / ९५) और गोत्र काश्यप ७३/७४) बताग है । सकलकीर्तिजी, चंद्रकीर्तिनी और भूधरदासजीने काव्यपगोत्र और वंश इक्ष्वाकू लिखा है । परन्तु भूवन्दासजीके अतिरिक्त उनने राजाका नाम विश्वसेन बताया है । भवरामजी उन्हें लवसेन
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[६४] वतलाते है। (५।६५) हरिवंशपुराणमें भी यही नाम है (H०५६७), सकलकीर्तिनी रानीका नाम ब्राह्मी (१०१४१) और चंद्रकीर्तिनी ब्रह्मा ( १५१) बतलाते हैं। किंतु हरिवंशपुराणमें उनका नाम वर्मा लिखा है । (ए० ५६७) भूघरदासजी उन्हें वामादेवीके नामसे लिखते हैं । (५/७१) पार्वाभ्युदय काव्यमें उनका उग्रवंश लिखा है (इलो० २) किन्तु आदिपुगण (अ १६)में आदिवंश इक्ष्वाकसे ही शेप वंशोकी उत्पत्ति लिखी है। शायद इसी कारण भगवानको किन्हीं आचार्योंने उग्रवशी और किन्हींने इच्वाक्वंशी लिखा है । वादिराजसुरिजीने भगवानली गभ तिथि नहीं लिखी है। शेष सब ग्रंथोंमें वैशास्त्र कृष्ण द्वितीया विशाखा नक्षत्र (निशात्यये) लिखी हुई है । वादिराजमूरिनी जन्मादि किसी भी तिथिका उल्लेख नहीं करते है, किन्तु और सब ग्रॅथ उनका उल्लेख करते हैं । वादिराजमूरिजी 'भगवानने आठ वर्षकी अवस्थामें अणुव्रत धारण किये थे इसका भी उल्लेख नहीं करते है ! उत्तरपुराण और हरिवंशपुराणमें भी यह उल्लेख नहीं है। वादिराजजीने भगवानके पिता द्वारा उनसे विवाह करनेके लिये अनुरोध किया था, उसका उल्लेख महीपाल साधुसे मिलनेका बाद किया है और उससे ही उन्हें वैराग्यकी प्राप्ति होते लिखी है (११११-१४) परन्तु उसमें अयोध्याके राजा जयसेन द्वारा भेट भेननेका निक नहीं है। उत्तरपुराणमें ( ७३ १२०) जयसेनका उल्लेख है। परन्तु उसमें भी राजा विश्वसेनका भगवानसे विवाह करने के लिए कहनेका निकर नहीं है। शेष हरिवंशपुराणको छोड़कर सब ग्रन्थोमें यह उल्लेख है । बादिराजमुरिके चरित्र में ज्योतिषीदेवका नाम भृतानद और शेष
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[ ६९- ।
ग्रंथोंमें संवर है। इस ग्रंथमें भगवान के दीक्षावृक्षका भी नाम नही लिखा हुआ है । हरिवशपुराण में उपका नाम धव है | (ट० ५६७) सकलकीर्तिमी और भूधरदासजीने उसे बडका पेड बतलाया है । उत्तरपुराण और चन्द्रकीर्ति कृत चरित्रमें केवल शिलाका उल्लेख है । (चंद्रकांत शिलातले ) । हरिवंश में दीक्षावन अश्वनके स्थानपर मनोरम वन है । तीनसौ राजाओ के साथ दीक्षित होना भी वादिराजजी और गुणभद्राचार्यजीने नही लिखा है । शेष सबने लिखा है । जिनसेनाचार्य ने उनकी सख्या ६०६ बताई है (८७५-७६) पार्श्वभगवान पारणा के लिए गुल्मखेटपुर में गए थे, यह बात उत्तरपुराण (७३ | १३२) वादिराजसूरिचरित (१९४५) सकलकीर्तिपुराण, चंद्रकीर्तिचरित् (१२।१० ) और भूघरदासजी ( ८1३) ने स्वीकार की है, किन्तु हरिवंशपुराण में यह काम्याकृतनगर बताया गया है ( ट ० १६९) दातारका नाम सकलकीर्तिजी और भूवरदासजी ने ब्रह्मदत्त लिखा है, परन्तु वादिराजजीने धर्मोदय (११/४ ), और गुणभद्राचार्यने ( ७३ | १३३), जिनसेनाचार्य ( पृ० १६९) और चंद्रकीर्तिजी (१२/१३) ने धन्य राजा लिखा है । केवलज्ञानकी तिथि अन्य ग्रन्थोंमें चैत्र कृष्णा चतुर्दशी लिखी हैं; परन्तु हरिवंश पुराणमें चैत्र वदी चौथको दोपहर के पहले केवलज्ञान हुआ लिखा है । ( पृ० १६९ ) उत्तरपुराण सकलकीर्तिकृत पुराण, चन्द्रकी र्तिकृत चरित और भूधरदास प्रथितपुराण में १६००० साधुओं की संख्या इस तरह बताई हैं:
●
(१) दश गणधर, (२) ३५० पूर्वधारी, (३) १०९०० शिक्षक - साधु, (४) १४०० अवधिज्ञानी, (५) १००० केवलज्ञानी,
"
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[६९ (६) १००० विक्रियाधारी, (७) ७५० मनःपर्ययज्ञानी, (८) ६०० वादी। ___हरिवंशपुराणमें इनकी संख्या निम्न प्रकार लिखी है और चादिराजमूरिने लिखी नहीं है:
(१) १० गणधर, (२) ३५० वादी, (३) १०९०. शिक्षक, ४ १४ ० ० अवधिज्ञानी, (५) १००० केवलज्ञानी. (६) १००० विक्रियाधारी, (७) ७५० विपुलमती (८) ६०० वादी । हरिवशपुगणमें आर्यिका ३८०००, श्रावक एक लाख और तीन लाख श्राविकायें लिखी हैं। उत्तरपुराण, सकलकीर्तिकत पुराण, चन्द्रकीर्तिकृत चरित और भूधरदासनी प्रणीत पुराणमें श्रावक और श्राविकाओं की संख्या हरिवंशपुराणके समान लिखी हैं; परन्तु आर्यिकाओं की ख्या भूघरदासजीके अतिरिक्त सबने ३६००० लिखी है। भूधरदासनीने २६००० वतलाई है। उत्तरपुराण, सकलकीर्ति, चन्द्रकीर्ति और भूवरदामनीके ग्रन्थोंमें भगवानको मोक्ष लाभ प्रतिमायोगले प्रातःकाल हुआ लिखा है; किन्तु हरिवंशपुराणमें कायोत्सर्गरूपसे सायंकालको हआ बतलाया है। भूघरदासनी ३६ मुनीश्वरों के साथ मोक्ष गये बतलाते हैं; जिनसेनाचार्य इनकी संख्या ९३६ लिखते हैं । हरिवंशपुराणमें भगवानके कुल ६०२०० शिष्योको मोक्ष गया लिखा है और उनके बाद तीन केवलज्ञानियों का होना बतलाया है। इस तरहपर सक्षेपमें दिगम्बर ग्रन्थोंका परस्पर भेद निर्दिष्ट किया गया है । यह विशेष नहीं है । साधारण है और इसलिए कुछ भी नहीं है । श्वेतांबर, संप्रदायके ग्रंथोंके - समान वह नहीं है । श्वेतांबा समदायके मथों में परस्पर एक दूप
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[६७] रेसे बहुत विरोध है । जो बातें उनके प्राचीन ग्रंथोंमें नहीं हैं, वह अर्वाचीन ग्रन्थों में हैं । किन्तु दिगम्बर शास्त्रोंमें ऐसी बात नहीं है। उनमें प्राचीन घटनाक्रममें किंचित भी भेद नहीं मिलता है। वे ग्रथों में सर्व प्राचीन कल्पसूत्र हैं; और उसमें भगवानके विवाह करने का उल्लेख बिलकुल नहीं है, परन्तु किन्हीं दिगम्बर जैन शास्त्रोंसे भी उपरांतके रचे हए श्वे शास्त्रों में भगवान के विवाह करनेका उल्लेख है । यह संभवतः श्वे. दि के पारस्परिक सांप्रदायिक विद्वेषके परिणाम स्वरूप है । अस्तु; जो हो यहांपर श्वेताबरोंके ग्रन्थोंमें जो परस्पर भेद है उसको भी प्रगट कर देना अनुचित न होगा। कल्पसूत्रमें (१४९-१६९) विवाहके अतिरिक्त भगवानके
पूर्वभवोंका भी उल्लेख नहीं है । उसमें श्वेताम्बर शास्त्रोंमें कमठ और नागरान 'धरण' (धरणेन्द्र) परस्पर विशेष का भी निकर कहीं नहीं है । शेष माता अन्तर है। पिता, जन्म, नगर, आयु आदिमें अन्य
चरित्रोंमें समानता है। किन्तु भावदेवसूरिनीके चरित्र और कल्पसूत्रमें जो उनके शिष्योंका वर्णन दिया है, उसमें विशेष अन्तर है। कल्पसूत्रमें आठ गण और आठ गणधर(१) आर्यघोष, (२) शुभ, (३) वशिष्ठ, (४) ब्रह्मचारिण, (६) सौम्य, (६) श्रीधर, (७) वीरभद्र, (८) और यशस लिखे हैं। भावदेवसूरिने दश गणधर-(१) आर्यदत्त, (२) आर्यघोष, (३) वशिष्ठ, (४) ब्रह्मनामक, (५) सोम, (६) श्रीधर, (७) वारिषेण, (८) भद्रयशम, (९) जय, (१०) और विनय बताये हैं । (६॥
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[ ६८ ] १३५०-१३६०) क्ल्ग्सूत्रमें आर्यदत्तकी संरक्षता में १६००० श्रमण, पुष्पकला आर्थिक की प्रमुखतामें २८००० आर्यिकायें. १६४००० श्रावक सौर ३२७००० श्राविकायें बतलाये हैं । भावदेव रके ग्रन्थ में यह सख्या इस रूप में देखने को नहीं मिली है । शत्रुञ्जय माहात्म्य (१४११ - ९७ ) में भी पूर्वभवोंका वर्णन नहीं है । उसमें प्राणतकल्पसे भगवानका चरित्र प्रारम्भ दिया गया है। इसमें कमठी शत्रुता का उल्लेख संक्षेप में है । (१४-४२, दशभत्रागतिः क्ठासुर ), दिव हका उल्लेख इसमें भी है, परन्तु इसमे पार्श्वनाथ जी की पत्नी प्रभावतीको प्रसेनजितके स्थानपर नरवर्मनकी पुत्री लिखा है । प्रसेनजित नरवर्मनका पुत्र है । भावदेवसु रेजीने प्रभावतीको प्रसेनजिकी पुत्री लिखा है ( ५ | १४६ . किन्तु चौहादि ग्रन्थोंसे प्रगट हैं कि प्रमेनजित मबुद्ध के समकालीन थे ।' इस अवस्थामें न इ और न उनके पिना भगवान पार्श्वनाथजी के समय में पहुंच सक्ते है । इस कारण उनका यह कथन नि पार प्रतीत होता है कि भगवान पार्श्वनाथजीका विवाह हुआ था । उनके कल्ण्मूत्रादि प्राचीन ग्रंथोंमें इसका कोई उल्लेख नहीं है, यह हम पहले ही कह चुके हैं । किंतु इनके उपान्तके ग्रन्थोंमें पूर्वभव वर्गन आदिके विशेष उल्लेख संभवतः दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थोंके आधारपर इस ढंग से लिखे गए होगे कि वह स्वतंत्र और यथार्थ प्रतीत हो । अतएव निम्न में दि० और ० ग्रन्थोमें जो परस्पर भेद है उसको देख लेना भी आदव्यक है ।
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० के मावदेवमूरिकृत पार्श्वचरितसे ही हम इस प्रभेदका १ - क्षत्रिय क्लेन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया, पृ० १२८–६२९ ।
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[६९]
निरीक्षण करते हैं। पहले मरुमूतिभवमें दिगंबर और श्वेतांवर विश्वभूतिके साधु हो स्वर्गवासी होनेपर शास्त्राम परस्पर भेद। कमठ और मरुभूतिको विशेष शोक करते
और हरिश्चद्र नामक साधुसे प्रतिबो घेत होनेका जो उल्लेख भावदेवसुरिने किया है वह दिगम्बर शास्त्रोंमें नहीं है। फिर उनने मरुभूतिकी स्त्री वसुन्धराको कामसे जर्नस्ति
और कमठके साथ उसके गुप्त प्रेमको मरुभूति भेष बदलकर जान लेने तथा राजासे उसे दंडित कराने इत्यादिक बातें कही हैं वह भी दिगंबर शास्त्रोंमें नहीं हैं । दिगम्बरशास्त्रोंमें वसुन्धरा पहले शीलचान ही बतलाई गई है और मरुभूतिको भ्रातृप्रेममें संलग्न तथा रानाका कमठके अन्यायके लिए उसे दंड देनेपर मरुभूतिका उसे क्षमा करने आदिकी प्रार्थना करते वतलाया गया है । दि० शास्त्र में राजा अरिविन्द और मरुभूतिक एक सग्रामपर जाने का विशेष उल्लेख है। राजा अरिविन्दके मुनि हो जानेपर श्वेतांबराचार्य उन्हें सागरदत्त श्रेष्टी आदिको जैनधर्मी बनाते और उनके साथ जाते हुये हाथीका उनपर आक्रमण करते लिखते हैं; परन्तु दि० शास्त्र तीर्थयात्रापर जानेका उल्लेख करते हैं। दिगम्बर शास्त्र अग्निवेगन्ना जन्म स्थान पुष्कलावती देशका लोकोत्तरपुर नगर और उसकी मातान्न नाम बिद्युत्माला बतलाते हैं, परन्तु श्वे० शास्त्र में तिलकानगर और तिलकावती अथवा कनकतिलका माता बताई गई है। इनमें अग्निबेगका नाम किरणवेग है। वह अपने पुत्र हिमगिरिको राज्य दे मुनि हमा दि० शास्त्र बताते हैं। श्वे० कहते हैं कि उसके पुत्रका नान किरणतेनस था और वह मुनि हो वैताब्यपर्वतपर एक मूर्ति के सहारे
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तपस्या करता रहा। श्वेतांबराचार्य अगाडी बजनाभिको जन्मसे मिथ्यात्वी और साधु लोकचंद्र द्वारा सम्यक्त्वी लाभ करते बतलाते हैं । वह उसके पुत्रका नाम शक्रायुध कहते है। दिगम्बर शास्त्र उनको जन्मसे जैनी बतलाते और उनके पुत्र का नामोल्लेख नहीं करते हैं । वजनाभिका जन्मस्थान श्वेतांवर शुभंकरा नगरी वतलाते और उनकी माताका नाम लामीवती और स्त्री विजया बताते हैं। दि० शास्त्रोंमें जन्मस्थान अपर विदेहके पद्मदेशका अश्वपुर और उनकी माता व पत्नीके नाम क्रमश विजया और शुभद्रा प्रगट करते है । श्वेताम्बर शास्त्र कुरगक भीलको ज्वलन पर्वतमें रहते बताते है । दिगम्बर शास्त्रोंमें ज्वलन पर्वतका कोई उल्लेख नहीं है। वजनाभिकी कुरग भीलके हाथसे मृत्यु हुई बताकर श्वे० शास्त्र उसे ललिताग स्वगमें देव होते और वहांसे चयकर सुरपुरके राजा वज्रबाहुकी पत्नी सुदर्शनाके गर्भमें आते लिखते हैं। इनकी कोखसे, जन्म पाकर वह उसे स्वर्णबाहु नामक चक्रवर्ती राजा होते लिखते है किंतु दिगम्बर शास्त्रोंमें वचनाभिको चक्रवर्ती बताया गया है । इस भवमें तो मरुभूतिका जीव मध्यम ग्रैवेयिकसे चयकर आनन्द नामक महामण्डलीक राजा हुआ था, यह दिगंवर शास्त्र कहते है । किंतु दोनों सम्प्रदायके ग्रथोंमें इनके पिताका नाम बत्रबाहु ही है । दिगम्बर शास्त्र इनको अयोध्याका राजा बताते है और इनकी रानीका नाम प्रभाकरी लिखते है। श्वे. शास्त्र यह भी कहते है कि स्वर्णबाहुको एक दफे उनका घोड़ा ले भागा और वह साधुओंके एक आश्रममें पहुंचे। वहां रत्नपुरके विद्याधर रानाकी कन्या पद्मापर वह आसक्त हुये और उसे ले भागे । इस पद्माके सम्बंधियोंकी सहायतासे वह
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[ १] चक्रवर्ती राना हुये बताये गये है। पद्मा हरणकी कथा बहुत कुछ संस्कृतके शकुन्तला नाटककी वार्तासे मिलती जुलती है । दिगम्बर शास्त्रोंमें यह कुछ भी उल्लेख नहीं है। इसके स्थान पर उनमें आनन्द राजाको पूजा करते और उनके सूर्यविमानस्थ मदिरोंकी पूना करनेसे 'सुर्य पूना' का प्रारम्भ होता लिखा है । आनन्दके मुनि होनेपर कमठके जीव शेरने उनकी जीवनलीला समाप्त कर दी थी। वे भौतिक शरीर छोड़कर आनत स्वर्गमें देव हुये । श्वे. शास्त्र स्वर्णवाहुके मुनि होने और शेर द्वारा मारे जानेको तो स्वीकार करते हैं, परन्तु उन्हें महाप्रभा विमानमें देव होते लिखते हैं। यहांसे चयकर यह जीव इक्ष्वाक्वंशी राजा अश्वसेन और रानी वामाके यहां बनारसमें श्री पार्श्वनामक राजकुमार होते हैं, यह बात दोनों संप्रदायके शास्त्र स्वीकार करते हैं। किन्तु श्वे. शास्त्र में जो उनका पार्श्व नाम इस कारण पड़ा बताया है कि उनकी माताने अपने 'पार्श्व' (बगल में एक सर्पको देखा था, दिगंबर शास्त्रोंके कथनसे प्रतिकूल है। उनमें इन्द्रने भगवानका चमकता हुआ पार्श्व देखकर उनका नाम पार्श्व रक्खा था, यह लिखा है । दि. शास्त्र उनके विवाहकी वार्तासे भी सहमत नहीं हैं। श्वे. शास्त्रमें कमठके जीवको नर्कसे निकलकर रोर नामक ब्राह्मणका कठ नामका पुत्र होते बतलाया है। पर दिगबर शास्त्र कहते हैं कि कमठका. जीव नर्कमेंसे निकलकर संसारमें किचित रुलकर महीपालपुरकाः राजा महीपाल हुआ, जो भगवान पार्श्वनाथका इस भवमें नाना था। इसप्रकार पार्श्वनीके अंतिम संसारी जीवनमें कमठसे उनका सम्बंध पुनः उनके प्रथम भव जैसा होजाता है। आखिरमें दोनों
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संप्रदायके शास्त्र कमठ जीवको पंचाग्नि तपता हुआ साधु और उससे भगवान पार्श्वका समागम लिखते हैं। वे शास्त्र सपको पाताल लोकमें धारण नामक राजा और कमठ जीवको मेघमालिन असुर होता लिखते हैं । दि० शास्त्र सर्पको धणेन्द्र और कमठ जीवको संवर नामक ज्योतिषीदेव हुआ बतलाते है । दोनों समदाय भगवानको तीस वर्ष की अवस्थामें दीक्षा धारण करते प्रगट करते हैं। क्तुि वे. शास्त्रोंमें दीक्षावृक्ष अशोक है और दि. शास्त्रों में वह बड़का पेड़ बताया गया है । उसी तरह उनके दीक्षा लेनेका कारण भी दोनों मानायोके ग्रंथों में विभिन्न है | दिगम्बर शास्त्र छमत्यावस्थामें उन्हें मौन धारण किए हुए बताते हैं; परंतु भावदेवसूरके चरितमें उन्हें तब भी उपदेश देते लिखा है । यह बात उनके आचारागसूत्रके कयनसे भी गधित है, जिसमें तीर्थकर भगवानको इम ढगामें मौनवृत गृहण किए हुए विचरते लिखा है। उपरांत उवेताम्बराचार्य असुग्द्वारा भगवानपर उपसर्ग हुआ बतलाते हैं और उसके अन्तमें उसे भगवानकी शरणमें आया कहते हैं । किन्तु ढि० गास्त्र समोगरणमें उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई बतलाते है। उपसर्ग होनेके बाद वह काशी पहुंचे थे, यह बे० कहते हैं। परन्तु दिगवर शास्त्रोंमें यह घटना स्वयं कागोमें हुई बताई गई है। मोक्ष पानेपर भगवान्के निर्वाण स्थानपर देवेन्द्रने रत्नजटित म्ता बनाया था, यह भी श्वे० शास्त्र कहते हैं । दिगंबर ग्रन्थों में शायद कोई ऐसा उल्लेख नहीं है । कल्पसूत्र में गर्मतिथि चैत्रमा ४ समय अर्धरात्रि लिखी है। दि. शास्त्रमें यह वैशाखरण २ समय अर्धरात्रि बताई गई है । हां,
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[३]
दोनो संप्रदायके ब्रन्थोंमें भगवान्के पांचोंकल्याणकोंको विशाखा नक्षत्र में घटित हुआ बतलाया गया है। जन्मतिथि भी दि. शास्त्रमें वे के पौषकृष्ण १ के स्थानपर पोपकृष्ण एकादशी है । हां, दीक्षातिथि दोनों संप्रदायोमें एक मानी गई है । पालकीका नाम कल्पसूत्रमें 'विशाला' और दि० शास्त्र में 'दिमला' है । दीक्षा समय दि० शास्त्र भगवानको दिगंबर मुनि हुआ बतलाते है, परन्तु श्वे. शास्त्र उन्हें देवदूष्य वस्त्र धारण करते हुये लिखते हैं; यद्यपि उनका यह कथन नितार है, क्योकि पहले तो उन्हींके शास्त्रोमें साधुकी सर्वोच्चदशा नग्न वताई है और उसका अभ्यास तीर्थंकरोंने किया, ऐसा लिखा है । तिसपर इसके अतिरिक्त बौद्ध और वैदिक मतोंके ग्रंथोंसे भी भगवान महावीरसे पहले के जैन साधुओका भेष नग्न ही प्रमाणित होता है। वेदिककालके जैन यति अथवा ज्येष्ठ व्रात्य नग्न होते थे, यह हम किचित् ऊपर देख ही चुके हैं । अस्तु; वे के इस कथनपर सहसा विश्वास नहीं किया जासक्ता । अगाडी दि. शास्त्र भगवान् की छद्मस्थावस्था ४ माप्त और केवलज्ञान प्राप्तिकी तिथि चैत्ररूण चतुर्दशी कहते हैं । श्वे. यह अवधि ८३ दिनकी
और उक्त तिथि चत्र कृष्ण चतुर्थी बतलाते हैं । दिगंबर शास्त्रमें गण और गणधर दश बताये गए हैं, जैसे भावदेवमूरिने भी बताये हैं, परन्तु कल्पसूत्र में दे ८ ही हैं। मुनियोंकी संख्या दिगम्बर शास्त्रोंमें भी १६००० बताई गई है, परन्तु आर्यिकाओंकी संख्या श्वे०से विपरीत उनमें ३६००० है । श्रावक भी एकलाख और । श्राविका तीनलाख बताये गए है । सम्मेदशिखरसे मुक्त हुए दि
-भगवान महावीरं और म० बुद्ध पृ० ६४-६५ ।
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[ 19.8]
शास्त्र भी स्वीकार करते है, परन्तु उनका कथन है कि भगवान्ने एक मासका योग साधन किया था और श्रावन सुदी ७ को ३६ मुनीश्वरोंके साथ मुक्तिलाभ किया था । कल्पसूत्र में उन्हें श्रावण शुक्ला को ८३ व्यक्तियों सहित निर्वाणपद पाते लिखा है । इस प्रकार दोनों आम्नायके शास्त्रो में भगवान् पाश्वंकी जीवनी में परस्पर भेद है । श्वेताम्बरोंके अर्वाचीन ग्रंथों, जैसे भावदेवसूरिके चरित में जो पूर्वभव वर्णन है, वह संभवतः दिगम्बर शास्त्रोंसे लिया गया है क्योकि उसमें कुछ विशेष अन्तर नहीं है और वह वर्णन उनके प्राचीन ग्रन्थोमें नहीं मिलता है । तिसपर भावदेवरि जो दिगंबरानायके अनुपार दश गणधर बतलाते है, वह भी इसी आधारका सूचक है | परन्तु इसको निर्णयात्मक रूपसे स्वीकार करना जरा कठिन है । किन्तु अनुमान खे० कथनको दिगम्बर शास्त्रोंका ऋणी बतलाता है। यह भी ध्यान रहे कि भावदेवसूरि आदिके पाचरित दिगम्बरों के पार्श्वचरित आदिसे उपरातकी रचना है । अस्तु; भगवान पार्श्वनाथजीके पूर्वभव वर्णनमें जिस प्रकार मरुभूति और कमठके भवसे परस्पर दो जीवोंमें दशमें भवतक शत्रुता चली आई बतलाई गई है, वह जीवोंके कषायभावोकी तीव्रता और उसके कटुकफलकी द्योतक है और
भारतीय साहित्य में
ऐसी अन्य कथायें ।
"भारतीय साहित्यमें ऐसे ही अन्य उल्लेख
।
भी मिलते हैं । चित्त और सम्भूतकी कथा इसी तरह दो जीवोंका जन्मान्तरतक एक दूसरेका सहायक प्रकट करती है ।' सनत्कुमारकी
१ - त्रह्मदत्तकथा - वाइना जर्नल ऑफ ओरियन्टल स्टडीज, भा० ५ व ६
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[ ७५ ] कथा तो बिल्कुल पार्श्वनाथजीके पूर्वभववर्णनके ढंगकी है। उसमें भी वरभावकी मुख्यता है। यही हाल प्रद्युम्न सूरिकी समगदित्य फथाका है। जिसमें राजकुमार गुणसेन और ब्राह्मण अग्निशमन्के पारम्परिक विद्वेपका खाता दिग्दर्शन कराया गया है। बौद्धोके 'धम्मपद में (२९१) भी एक कथा इसी जन्मजन्मांतरमें वैरभावकी द्योतक है। इसी प्रकारकी एक कथा 'कथाकोष मे दो ब्राह्मण भाइयोकी दी हुई है। जिप्तमे एक भाईने लोभके वशीभूत हो दूसरे भाईके प्राण लेनेकी ठानी थी। आखिर पाच भवोंतक यह वैर चलता रहा था । सारांशतः इस ढंगकी कथायें भारतीय साहित्यमें बहुतायतसे मिलती है। परंतु हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि मरुभूति और कमठ जैसी पार्श्वकथासे सुन्दर और अनुपम कथा शायद अन्यत्र नहीं है । इसके लिए हम 'पार्वाभ्युदय काव्य' के टीकाकार ये गिराट पंडिताचार्यके इस श्लोकको उपस्थित किये विना नहीं रहेंगे:
'श्री पाश्चात्साधुतः साधुः कमठात्खलतः खलः । पाभ्युदयतः काव्यं न च कचिदपीष्यते ॥ १७॥"
___ अर्थात-'श्री पार्श्वनाथसे बढ़कर कोई साधु, कमठसे बढ़कर कोई दुष्ट और पार्थाभ्युदयसे बढ़कर कोई काव्य नही दिखलाई देता है।' निष्पक्ष विहानके लिये इसमें कुछ भी ‘अतिशयोक्ति नहीं है । यहांपर स्थान और अवसर नहीं है कि हम पाश्चोभ्युदय जैसे अनुपम साहित्यग्रंथोंका रसास्वादन अपने पाठकोंको करा सकें।
१-कथाकोष, पृ० ३१-लाइफ एण्ड स्टोरीज आफै पार्श्वनाथ, भू० पृ. १३॥
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[७६] . किन्तु उपरोल्लिखित विवरणसे पाठक यह न समझ लें, कि
ईसाकी ५वीं या ६ठी शताब्दिके पहले जैन पुराण थ प्राचीन- कोई जैनग्रन्थ भगवान पार्श्वनाथनीके कालसे उपलब्ध है। दिव्य चरित्रको प्रकाशमे लानेके लिए
रचा ही न गया था। यह बात नहीं है, क्योंकि भगवान महावीरस्वामीकी दिव्यध्वनिसे प्रगट हुए और श्री इन्द्रभू त गौतमगणधर द्वारा ग्रथित प्रथमानुयोगका अस्तित्व ईसासे पूर्वका प्रथम शताव्दि तक रहा था, और उसको लुप्त होता हुआ देखकर ही पूर्वाचार्योने उस समयके उपलब्ध अंशसे ग्रन्थोंको रचकर उन्हें लिपिबद्ध करना प्रारभ कर दिया था। उसके पहले आगम ग्रथ ऋषियोंकी स्मृति में सुरक्षित रहते थे, यह हम पहले बलला चुके हैं । अतएव इस आधारसे बने हुये प्राचीन -पुराण ग्रथोके अस्तित्वका पता हमें श्री जिनसेनाचार्यजीके कथनसे चलता है । वे लिखते है:
" नमः पुराणकारेभ्यो यद्वक्राब्जे सरस्वती । येषामन्यकवित्वस्य मूत्रपातायित वचः ॥ ४१ ॥ धर्मसूत्रानुगा हृद्या यस्य वाङ्मणयोऽमलाः। कथालङ्कारतां भेजुः काणभिक्षुर्जयत्यसौ ॥५१॥"
यहां पहले श्लोक द्वारा प्राचीन पुराणकारोंको नमस्कार किया है, जिनके वचनोंके आधारसे दूसरोंने ग्रंथ बनाये है और दूसरेमें काणभिक्षु नामक कविकी प्रशसा की है, जिसने कोई कथा ग्रन्थ बनाया था। इतना ही क्यों ? श्री जिनसेनाचार्यजीके पहले एक महापुराण गद्यमें श्री कवि परमेश्वर द्वारा रचा हुआ मौजूद
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[७७ ]
__ था, निममें २५ तीर्थकर और अवशेष शलाका पुरुषोंके चरित्र वर्णित थे। श्री निनसेनाचार्य इस बानको स्पष्ट प्रकट करते हैं:
'कविपरमेश्वरनिगदितगद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम । ।
सकलछन्दोलकतिलक्ष्यं मूक्ष्मार्थगृढपदरचनम् ॥' ___ अतएव इन उच्छेखोसे यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य प्रणीत उपरोक्त चरित्र ग्रन्योके अतिरिक्त प्राचीनकालमें और भी ऐसे पुराण ग्रंथ मौजूद थे जिनमें श्री पार्श्वनाथजीका चरित्र वर्णित था। फितु साम्प्रदायिक विद्वेष और कालमहाराजकी कृपासे वह आज उलञ्च नहीं है। साथ ही यहापर हम यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक सम
झते हैं कि पार्श्वचरित्र में जो कमठ जीवके कमठ जीवका वैर यथार्थ वैरभावका वर्णन है, वह यथार्थ है । है-रहस्यपूर्ण अलंकार केवल कवियोने अपने काव्यग्रन्थोंको . नहीं है। सुललित बनानेके लिये इसका अविष्कार
नही किया था । दिगम्बर जैन संप्रदायके प्राचीनसे प्राचीन ग्रन्थमें इस विषयका उल्लेख मौजूद है। कमठके जीव आरने भगवान पर उपप्तर्ग किया था और उसके अंतमें भगवानको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। यह बात जैनसंप्रदायमें एक स्पष्ट घटनाके तौरपर प्रख्यात है। इतना ही क्यों? प्रत्युत भगवान पार्श्वनाथनीकी जितनी भी प्रतिमायें मिलती हैं; वह सर्पफणयुक्त मिलती हैं। और वे इस घटनाकी प्रगट साक्षी हैं। वह फणमण्डल बहुधा सात अथवा नौ फणोंका होता है, परन्तु सौ फणावाली प्रतिमायें भी मिली हैं। उडीसा और मथुराकी
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[ ७८]
'प्राचीन प्रतिमायें भी इमी रूपकी हैं. किंवा विवध स्तोत्रों में इस “घटनाका उल्लेख किया हुआ मिलता है। विक्रमकी दूमर्ग शतादिके दिगम्बर जैनाचार्य श्रीसमन्तभद्रस्वामी इस घटनाका उल्लेख निम्नप्रचार करते हैं:'बृहत्फणामण्डलमण्डपेन य स्फुरत्तडिसिङ्गरुचोपर्मिणाम् । जुगृह नागो धरणो धराधर विरागसन्ध्यातडिढम्बुदो यथा ।।
इमी तरह श्री सिद्धसेन दिवाकर प्रणीत कल्याणमंदिर स्तोत्रमें भी यही उल्लेख मौजूद है: यथा:'यस्य स्वयं मुरगुरुगरिमाम्बुराशेः, स्तोत्रं मुविस्तृतमतिर्नविभु
विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतोस्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये।। 'प्रारभारसम्मृतनभांसि रजांसि रोपादुत्यापितानि कमटेन शठेन
यानि । छायापि तैस्तत्र न नाथ हता हनाशो ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं
दुरात्मा ।। ३१ ।' सोमचंद्रकी कठमहोदधि (ब्वे)में भी इस घटनाका उल्लेख है। अतएव इस घटनामें संशय करना वृथा है। जन समाजमें भगवान पार्श्वनाथके सम्बन्धमें कई पवित्रस्थान
तीर्थरूपमें माने जाते हैं। सम्मेदशिखर पार्श्वनाथनी सम्बन्धी तो निर्माणस्थान होने के कारण वहुप्रख्यात् तीर्थस्थान। है; परन्तु इसके अतिरिक्त और स्थान भी
तीर्थरूपमें पूजे जाते हैं । बनारस गर्भ जन्म और केवलज्ञान स्थानरूपमें प्रसिद्ध है। किन्तु दिगम्बर संप्र- ' दायमें न नाम महिच्छत्रको किस भाषारसे केवलज्ञान स्थान माना
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माता है ? हमारे ख्यालसे वहांपर एक नागराजने भगवानकी विनय और भक्ति की थी और उनकी पवित्र स्मृतिमें एक मंदिर
और स्वर्णलेपयुक्त प्रतिबिंब वनवाई थी, उसीके उपलक्षमें यह स्थान पूज्य माना जाने लगा है । पार्श्वनाथनीके सम्बन्धमें शास्त्र इसके अतिरिक्त और कोई उल्लेख नहीं करते हैं। कलिकुण्ड अथवा कलिकुण्ड पार्श्वनाथ नामक तीर्थ भी दोनों संप्रदायोंमें मान्य है । यहांपर करकण्डु महाराजाने अनेक जिनमंदिर और रत्नमई पार्श्वप्रतिमा ननवाये थे, यह दिगम्बर शास्त्रोका कथन है । इसके अतिरिक्त श्वेतांबर संप्रदायमे कुकुटेश्वर, स्तंमनक, मयुग, शंखपुर, नागहद, लाटहद और स्वर्णगिरि नामक स्थान पार्श्वनाथनीके सम्पर्कसे पवित्र हये तीर्थ माने जाते हैं। दिगंबर संप्रदायमें भी उपरोक्त के अलावा श्री खण्डगिरि उदयगिरि, राजगृही (विपुला चल पवत), खजुराहा, अतिशयक्षेत्र कुरगमा (झांसी), वालावेट अतिशयक्षेत्र, ग्वालियर, भातकुली ( अमरावती), अतरीक्ष पार्श्वनाथ (सिर पुर), कुडलपुर, कुकुटेश्वर, (इन्दौर), द्रोणागिरि, नैनागिरि, मुक्तागिरि, बनोलिया अतिशयक्षेत्र, फालोदी पार्श्वनाथ, चौबलेश्वर अतिशयक्षेत्र, मक्सी पार्श्वनाथ, श्री विघ्नेश्वर पार्श्वनाथ, कचनेर अतिशयक्षेत्र, तेरपुर (धाराशिव), बाबानगर अतिशयक्षेत्र, अमीजरा पार्श्वनाथ अतिशयक्षेत्र, श्रीक्षेत्र तिरुमलै, मूडबद्री, श्रवणबेलगोला इत्यादि स्थानोंसे भगवान पार्श्वनाथनीका विशेष सम्बध माना जाता है । इस प्रकार प्रकट है कि प्राचीनकालसे ही भगवान पार्श्वनाथजीके पवित्र स्मारकमें अनेक स्थान पवित्र माने जाने लगे थे और अनेक चैत्य, मंदिर, विहार व गुफायें भी बन गये थे।
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अन्तमें हमें प्रस्तुत पुस्तक विषयमें कुछ अधिक नहीं... कहना है । इसमें जो कुछ है वह पाठI कोके सामने है | वेशक उसमें नवीनता
प्रस्तुत ग्रन्थ ।
1
शायद ही कुछ हो पुरातन भाव और चरित्रको ही इसमें स्थान दिया गया है । हा. ऐतिहासिक रीतिसे विवेचना करनेका ढंग उल्लेखनीय है । इसे हमारी समाज के कृतिपय विद्वान शायद पसंद भी नहीं करेंगे । परतु सत्य की खोजके लिये यह ऐतिहासिक परमात्रक है । इमी ऐतिहासिक ढंग प्रसंग में जो बातें हमने श्वेतांवराद सप्रदायोके विषयों कहीं है, वह भी केवल सत्य खोजके भावो लेकर लिखी गई है। इसमें विवश ऐसी परिस्थिति होती है. जिसे एक इतिहास लेखक मेटने और सर्वप्रिय बनाने में असमर्थ रहता है | इससे हमारा भाव किसीका दिल दुखानेका नहीं है और न उनकी मान्यताओको हेय प्रगट करनेका है। इसके साथ ही जो इसमें जैन प्रन्थोंमें उल्लेखित स्थानोंको वद्यामंभव आजकी दुनिया में खोज निकालनेका प्रयत्न किया गया है, वह अनोखा है और इम विषयका प्रथम प्रयास है । आना है, विद्वज्जन इमपर निष्पक्ष हो विचार करेंगे और उचित सम्मति द्वारा अनुग्रहीत करेंगे | भगवान पार्श्वनाथजी के पवित्र जीवन चरित्रको प्रकट करनेवाले इस ग्रन्थको मैं लिख सका हूं यह केवल धर्मका ही प्रभाव है । वरन मुझ जैसे अल्पज्ञकी क्या सामर्थ्य थी जो इस गहन विषयमें अपनी अयोग्य लेखनीका प्रवेश करा सक्ता ! अरू. जय, प्रभु, पार्श्वकी जय !
पार्श्वनि० दिवस २४५४ ] -
विनीत - कामताप्रसाद जैन |
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श्री पार्श्वनाथाय नम
.
भगवान पार्श्वनाथ
पुरोहित विश्वभूति ! " जरा मौतकी लघु बहिन, यामें संशै नाहि । तौभी सुहित न चिंत, बड़ी भूल जगमांहिं॥"
विश्वभूति-प्रिये, इस असार संसारमें भ्रमते अनादिकाल होगया' विषयतृष्णाको बुझानेके लिये अनेकानेक प्रयत्न किये! पांचों इन्द्रियोंके विषयसुखमें तल्लीन रहकर युगसे बिता दिये ! स्वर्गों के सुख भी भोगे, चक्रवर्तियोंकी अपूर्व सम्पत्तिका भी उपभोग किया! परन्तु इस विषयतृष्णाकी तृप्ति नहीं हुई ! सचे सुखका आस्वाद नहीं मिला। इस भव-वनमे भटकते हुए सौभाग्यसे यह मनुष्यजन्म और उत्तम कुल मिल गया; सो भी यूंही इन्ही विषयवासनाओको भोगते हुए-भोगोपभोगकी मरीचिकामे पड़े हुये विता दिया ! आज यह देख प्रिये ! यह सफेद बाल मानो मुझे सचेत करनेको ही नजर आगया है !
अनूदरि-वाह ! एक सफेद बालको देखकर प्रिय, क्यो इतने यभीत होते हो? माना कि ससार असार है-उसमें कुछ भी सार ही! लेकिन प्यारे! इसी संसारमे रहकर ही आप अपने उद्देश्यको
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२] भगवान पार्श्वनाथ । पा सकेंगे । इसलिए इसे असार न समझिये ! इसमें सार है और वह वेशक यही है कि मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थीका सावन भली भांति करले ! अभी आप पहलेके तीनों पुरुषाअॅका उपार्जन तो अच्छीतरह कर लीजिये ! फिर भले ही मोक्षके उद्यममे लगिये ! संसारसे डरिये नहीं-डरनेका काम नहीं-कर्तव्यको पहिचानिये और उसमेंके सारको गृहण कीजिये : बस प्रिय ! अभी अपने इस विचारको जरा रहने दीजिए।
विश्व०-हां प्रिये : नेरा कहना तो ठीक है, परन्तु देख, इस गरीरका कुछ भरोसा नहीं ! यह बिजलीकी तरह, पानीके बुदबुदेके समान नष्ट होनेवाला है। आयुर्म न जाने का पूर्ण होनावे ! फिर यहां तो यमके दूत यह सफेद बाल आही गए हैं । तिमपर देखो, जैसे तुम कहती हो वैसे ही सही, हमने पहलेके तीन पुरुषार्थीका साधन प्राय. कर ही लिया है। ब्रह्मचर्याश्रममें रहकर विद्याध्ययन करते किचित् धर्मोपार्जन भी कर लिया और गृहस्थाश्रममें तुम सरीखी ज्ञानवान प्रियतमाको पाकर उसका भी पूरा लाभ उठा लिया है। अपने कृपालु महाराज राजा अरविड़की उपासे मंत्रिपद पर रहने हुए अर्थ सचय करनेमें भी भाग्य अपने साथ रहा है और फिर कमठ और मरुभूति युवा होही चुके-उनका विवाह भी हो चुका-अवतो बम मोलमार्गको सावन करना ही शेष रहा :
अनु०-ठीक है-ठीक है-अब देरी चाहेकी। पूरे बाबानी वन गये हो ! अबतो गृहस्थाश्रममें कुछ करना घरना ही नहीं रहा ! काठको करुगा और मनमुनिको विसुन्दरी दिलादी : वस चलो छुट्टी हुई ! एक सफेद बाल भी आगया-मानो मौतनका
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पुरोहित विश्वभूति |
[ ३ संदेशा ही ले आया ! मोक्ष- सुंदरी मन वसी है ! अच्छा है, जाओ! लेकिन उसे पाना कुछ हंसी ठठ्ठा नहीं है । इसलिए मैं तो यही कहूंगी कि अभी कुछ दिनों और घरमें रहकर संयमी जीवन व्यतीत करने का अभ्यास करलो ! जिनदीक्षा ग्रहण करना दुर्बर कठिन मार्ग में पग बढ़ाना है, सो विचार लीजिए ।
विश्व० - प्रिये ! मैं देखता हूं, तुम मोहके गहरे भ्रम में पड़ी हुई हो। तुम्हारे ममता भाव मुझे छोडना नहीं चाहते ! संसारी जीवकी ऐसी ही भ्रमालु बुद्धि है । इसी कारण वह संसार में अनेकों दुःख उठाता है | चाहता है, बालूको पेलकर तेल निकालना ! लेकिन क्या यह साध्य है ?
अनु०-नहीं साहब, यह कुछ भी साध्य नहीं है ! सारी दुनिया बेवकूफ है, गार्हस्थ्य जीवनमें रहना बुरा काम है । जाइये, मैं नहीं रोकती - आप बाबाजी बन जाइये और सारी दुनियांको बना लीजिये। मेरी बला से - तब ही कुछ पतेकी मालूम पड़ेगी ! मेरा कहना तो मूर्खोका बकवाद समझते हो, पर जब दुनियां जो संसारमे रहकर आनंद उठा रही है आपको टकासा जवाब देदेगी तब होश लाइयेगा ! विश्व० - अरे, इसमें कौनसी बात बुरे माननेकी है । मैं तो खुद कहता जाता हूं कि संसारके लोग भ्रममे पड़े हुये हैं । जैसे कुत्ता हड्डीको चूस २ कर अपने मुंहको लहूलुहान कर लेता है, वैसे ही यह ससारी प्राणी दुनियांकी मौज शौकमे फंसा हुआ अपना सत्यानाश करता है । सुख पानेकी लालसासे खाना पीना मौज उड़ाना आवश्यक समझता है, परन्तु वास्तवमे इस मार्ग से वह कभी भी सच्चे मुखको नही पाता ' कुतेकी तरह अपनी ही
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४] भगवान पार्श्वनाथ । देहके खूनसे सुखी होना मानता है और फिर अपनी भ्रम बुद्धिपर पछताता है । इसलिये प्रिये, विवेकी पुरुषोका यही कर्तव्य है कि इस अमूल्य जीवनको सार्थक बनानेके लिये धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थीका समुचित सेवन कर चुकनेपर-बुढापेका इन्तजार न करके-जब ही सभव हो तब ही निवृत्ति मार्गकी शरणमें आकर शाश्वत सुख पानेका उद्यम करें। फिर देखो, मेरे लिये तो यमका दूत आ ही पहुचा है । अब भी मैं अगर इस नर देहका उचित उपयोग न करूं, तो मुझसा मूर्ख कौन होगा। अगाध सागरमे रत्न गुमाकर फिर उसे पानेकी मैं कैसे आशा करूं ?
अनु०-हां, साहव, न कीजिये । लेकिन यह तो बताइये, मेरा क्या कीनियेगा ?
विश्व०-मोहका पर्दा अभीतक तुम्हारी बुद्धिपरसे हटा नहीं है। पर प्यारी, जरा विवेकसे काम लो ! देखो पति-पत्नी एक गृहस्थी रूपी रथके दो पहिये हैं जो रथको बराबर चलने देते है !
इन दोनो पहियोका एकसा और मजबूत होना ठीक है । पुरुषकी __ तरह स्त्रीको भी ज्ञानवान और आदर्श चरित्र होना दाम्पत्य सुखको
सफल वनाना है । सौभाग्यसे हम-तुम दोनों ही इतने सुयोग्य निकले कि गृहस्थीरूपी रथको प्राय मजिलपर पहुंचा ही चुके है। गृहस्थीकी सबसे बडी अभिलाषा यही होती है-न्याय अन्यायः मनुष्य सब इसीके लिये करता है कि औलाद हो और मै उसका
बढ़चढ़के विवाह कर दू, जिससे वशका नाम चलता रहे । हमारी __ तुम्हारी यह अभिलाषा पूर्ण हो चुकी है। इसलिये अपने परभवको
सुधारना अब हम दोनोंको इष्ट होना चाहिये । मैं तुम्हें इस अव
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पुरोहित विश्वभूति ।
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स्थामें तकलीफ नहीं दूंगा । तुम्हारी आत्माका हित होगा वही उपाय करूंगा । तुम चाहो तो आनन्दसे पुत्रोके, साथ, रहो और धर्म ध्यान करो ! अगर मेरे बिना यह घर फीका जंचने लगे तो दिगंबर गुरुके चरणोंके प्रसादसे आत्मकल्याण करनेका मार्ग ग्रहण कर लो ! देखो राजकुमारी राजुलने तो कुमार अवस्था में ही आर्थिकाके व्रत धारण किये थे और दुद्धर तपश्चरण करके स्त्री लिंग छेदकर स्वर्गौमे देवोके अपूर्व सुखोका उपभोग किया था ! सो अब जैसी तुम्हारी इच्छा हो ।
'
अनृदरि पतिदेव के इन मार्मिक वचनोंको सुनकर चुप होगई ! उसकी बुद्धि में ऊहापोहात्मक विचारोकी आंधी आगई ! जान गई कि मनुष्यका नरजन्म सफल बनानेके लिये मोक्षसाधनका उपाय करना परमोपादेय कर्तव्य है ! इसी कारण वह पतिदेव के निश्चयमें और अधिक बाधा डालने की हिम्मत न कर सकी ।
"
प्रिय पाठकगण, यह आजसे बहुत पुराने जमानेकी बात है । इतिहास उसके आलोक में अभी पहुंच नहीं पाया है ! पर है यह इसी भरतक्षेत्र की बात ! इसी भरतक्षेत्र के आर्यखडमें सुरम्य देशके मनोहर नगर पोदनपुर में यह घटना घटित हुई थी । यह पोदनपुर बड़ा ही समृद्धशाली नगर शास्त्रोंमें बतलाया गया है । यहा जैनधर्मकी गति भी विशेष बताई गई है। यहांके राजा परम नीतिवान नृप अरिविद थे। इन्हीं राजाके वयोवृद्ध मंत्री पुरोहित विश्वभूति था । अनूदर इनकी पत्नी थी । वृद्धावस्थाको निकट आया जानकर इस विवेकी नर - रत्नने आत्मध्यान करना इष्ट जाना था ! इसी अनुरूप अपनी पत्नीको समझा बुझाकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण करनेकी
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६]
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ठान ली थी। सच है जिसके मनपर वैराग्यका गहरा और पक्का रंग चढ़ जाता है, उसपर और कोई रंग अपना असर नही कर पाता है । भारतका यह पुरातन नियम रहा है कि वृद्धावस्थाको पहुंचते र ही लोग आत्महितचिन्तनासे वनोवास स्वीकार कर लेते थे । दुनियांकी झंझटोसे छूटकर - व्याधियोकी पोटको फेंककर वे स्वावलम्बी धीरवीर पुरुष अकेले ही सर्वत्र सिहवृत्तिसे विचरते हुये अपना कल्याण करते और अनेकों जीवोंको सुमार्ग पर लगाते थे | भटकते हुमको रास्ता बतानेवाले वेही थे ! दुखियोंके दुख निवारन करने'वाले और जगतका उपकार करनेवाले वेही महापुरुष थे । देव और दानवकी उपासना एकसाथ नही हो सक्ती - धर्म और धनका उपार्जन साथही साथ कर लेना असंभव है । इसीलिये आत्महितु और परोपकारी पुरुष सासारिक मायाकी ममताको पैरोंसे ठुकरा देते और प्राकृतरूपमें सिंहवृत्तिसे नरजन्मके परमोच्च उद्देश्यको सफल बनाते है । आज संसार में ऐसे परमोपकारी महापुरुषोका प्राय. अभाव है परंतु सौभाग्य से भारत में अब भी उंगलियोंपर गिनने लायक ऐसे नररत्न मिलते हैं । बस, इसी आदर्श नियमका पालन करनेका निश्चय राजमंत्री विश्वभूतिने कर लिया था। वह राजा अरविदके पास पहुचे और अपने दोनों पुत्रो कमठ और मरुभृतिको उनकी शरण में छोड़ आये | इसतरह गृहस्थीके उत्तरदायित्वसे निवटकर सुगुरुकी साखिसे वह जिन चारित्रको पालने लगे । परम उत्तम क्षमाका पालन करते, दुद्धर परी पहोंको सहते, ग्रामग्राममें विचरते वह अपना और परका कल्याण करने लगे । इस लोकमें पूज्य पुरुष होगये ' सचमुच निर्वृतिमार्ग ही रंकसे राव बनानेका द्वार है !
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कमठ और मरुभूति । ( २ )
कमठ और मरुभूति !
" जैसी करनी आचरे, तैसो ही फल होय ।
लागै कोय ॥ "
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इन्द्रायनकी वेलिकै, आंव न कमट - हाय ! मै कहा जाऊं, कैसे इस जलते हुए दिलको शाति दिलाउं ? विसुन्दरीकी वांकी चितवनने गजब ढा दिया है । एक ही निगाहमे मृगनयनी मेरे हृदय के ह्क २ कर गई है । न उठते चैन है और न बैठते आराम है, खाना पीना सब हराम है ! अबतो उसी सुन्दरीकी याद रह २ कर मारे डाल रही है | क्या करू मै उस मनमोहिनी मूरतको कैसे पाऊ ? मेरे कहने मे वह आती नही । जब देखो तब धर्मकी बातें बघारती है । लेकिन कुछ भी हो, मेरा जीवन तो उसके बिना नहीं सक्ता | मित्र कलहंस ही शायद इस जलते जीको सान्त्वना दिलानेका कुछ उपाय बतलाये । पर हाय । उसे मै कहां द्वंद्व । प्यारी विसुन्दरीकी याद तो मुझे कुछ भी नहीं करने देती । उसकी भोली भाली सुडौल सुदर सूरत मेरे नेत्रो के अगाड़ी हर समय नाचती रहती है । हाय ! विसुन्दरी !
किसी तरह भी टिक
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कलहंस - मित्र कमठ ! आज उदास कैसे पड़े हुए हो? तुम्हें अपने तनमनकी कुछ भी सुध-बुध नही है । कहो, क्या भांग पी ली है ? .
कमठ - अहा कलहस, खूब आये ! भाई, भांग क्या पीलीऐसी भांग पी है जैसी शायद ही कोई पीताहो पर क्या बताऊँ ? बताये बिना काम भी तो नही चलेगा !
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भगवान पार्श्वनाथ । कलहंस-अरे, मालूम पड़ता है किसी व्याधिने आकर आपको घेर लिया है। बस, मुझसे परहेज न कीजिये। अपना हाल निसकोच हो कहिये जिससे औषधोपचारकी व्यवस्था की जाय ! मित्रोंका कार्य ही यह है कि वे काम पड़े पर एक दूसरेके काम आवें ! आपकी मुरझानी सूरतने मुझे पहले ही खटकेमें डाल दिया था । कहिये, क्या हाल है ?
कमठ-मुझे शारीरिक व्याधि तो कुछ ऐसी है नहीं और न .मानसिक ही ! पर है वह ऐसी ही कुछ । कैसे कहूं सग्वे, मेरा हृदय तो इठा जा रहा है।
कलहंस-आरिवर कुछ कहोगे भी-क्या वजह है क्यों हृदयमें गेठा पडा है ?
कमठ-हा, भाई कहूगा, तुम्हारे बिना मेरी रक्षाका उपाय और कौन करेगा ? लेकिन तुम्हें करना जरूर होगा।
कलहंस-इसके कहनेकी भी कोई जरूरत है। मित्रताके नाते आपको सुख पहुचाना मेरा कर्तव्य है ।वम, आप अपनी व्याधिका कारण बतलागे।
क्मठ-क्या कह कलइस' कहते हृत्य लगाता है पर कामकी ज्यथा मुझे उस समय दारण दुख दे रही है । प्यारी विसुन्दरीके रुप-सुराका पान करने से ही यह व्यथा दूर होगी ।..
परम-लि, लि. तुम्हारी बुद्धि कहां गई है ? लघु भ्राताकी पत्नी पुत्रीयन् होती है, उमीपर तुमने अपनी नियत बिगाडी है। या, मगर है। म दुहिको छोरो। कोई सुन पायेगा तो तुम्हारे लिये मुदिमानेो म्यान नहीं रहेगा। पग्दागका माथ बहन
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कमठ और मरुभूति । [९. बुरा होता है, इसका सेवन करके किसने सुख उठाया है, जो तुम उससे उठाना चाहते हो ? रावणसे महाबली और पराक्रमीको इसी पापने मिट्टीमें मिला दिया । इसलिए मेरा कहना मानो इस दुर्बुद्विको छोड़ो । अपने कुत्सितभावोंको शोध डालो, उनका समुचित प्रायश्चित ले लो !
कमठ-हाय! हाय ! तुम भी मेरी बातको टालनेके लिये बहाने बना रहे हो । धर्मकी आड लेकर एक पथ दो काज साध रहे हो। चाहते हो न मुझसे बिगाड हो और न मरुभूतिसे शिष्टाचार टूटे, पर कहीं ऐसा होसक्ता है ? धर्म कर्म सब देख लिए जायगे, अमी तो जीवनके लाले पड़े हुए है । जीवन रहेगा तो धर्म-कर्म सब कुछ कर लगा | प्यारे मित्र, जीवन रहे ऐसा उपाय करो । कैसे भी विसुन्दरीको मेरे पास ला दो!
कलहंस-हाय ! कामने तुम्हारी बुद्धिको बिल्कुल नष्टकर दिया है। कविका निम्न छद तुम पर सोलह आने चरितार्थ होरहा है कि -
"पिता नीर परसै नहीं, दूर रहै रवि यार । ता अंबुजमे मूढ़ अलि, उरझि मरे अविचार ।। सों ही कुविसनरत पुरुष, होय अवस अविवेक । हित अनहित सोचै नहीं, हियै विसनकी टेक ॥"
तुम्हें पाप-कर्मका भय नहीं है; कार्य-अकार्यकी सुध नहीं है। लोक लानकी परवा नही है। विषयांध होकर अपनी आत्माका चोर पतन कर रहे हो और चाहते हो उस पापमे मुझे भी शामिल करना । पर सखे, जरा विवेकसे काम लो-होश संभालो ! छोटे भाईकी स्त्रीको भृष्ट करके क्या तुम सुखी हो सकोगे ? भाई मरु
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१०] भगवान पार्श्वनाथ । भूति जब तुम्हारी काली करतृतको जानेगा तो कितना दुखी होगा। कितना भोलाभाला, धर्मात्मा और आज्ञाकारी वह तुम्हारा भाई है। फिर राज्यका भी जरा भय करो | यह मत समझो कि तुम्हारे इस दुष्कर्मको कोई जान नहीं पायगा । यह वात नहीं है । राजाके कानोतक यह खबर पहुंची तो फिर तुम्हारी क्या दशा होगी, यह सोचो । बस, कहना मानो । विसुन्दरीका ध्यान छोड़ो !
कमठके मित्र कलहंसने उसको हर तरहसे समझाया-ऊंच नीच सब कुछ सुझाया पर उसकी समझमें कुछ न आया । सच है जिसका भविष्य दुखद होता है उसको कितना ही कोई सन्मार्गको सुझाए पर यह सब अरण्यरोदनवत होता है । कामीपुरुषको हेबाहेयका कुछ ध्यान नहीं रहता । वह अपने कुत्सित प्रेममें अंधा होजाता है। कमठका भी यही हाल था। कविवर भूधरदासजी भी इस विषयमें यही कहते है:
“यों कलहंस अनेक विध, दई सीख मुखदैन । ते सब कमठ कुसीलमति, भये विफल हितवैन । आयुद्दीन नरको जथा, औषधि लगे न लेस । त्योही रागी पुरुष प्रति. च्या धरम-उपदेश ।।" ___ मंत्री-पुरोहित विश्वभृतिका ही ज्येष्टपुत्र यह कमठ था। बचपनसे ही इसका स्वभाव कुटिल रहा था। यह मतिका हेठा था । टसके विपरीत इसका छोटा भाई मरुभूति बिल्कुल सरलबमावी था । एक ही कोखसे जन्मे हुये यह दोनों विष और अमृततुल्य थे, यही एक अनोखी बात है। '
रानमत्री विश्वमूतिके दीक्षा गृहण कर जानेके बाद कमठ
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कमठ और मरुभूति। [११ और मरुभृति आनन्दसे रह रहे थे कि अचानक राजा अरविदने अपने शत्रु राना वज़वीरनपर चढ़ाई कर दी थी। दलबल सहित दोनों राजा रणक्षेत्रमे पाए और घोर सग्राम होने लगा था। मरभूति भी राजाके साथ रणक्षेत्रमे गया था । इधर कमठकी बन आई । वह निरंकुश हो प्रनाको तरह २ के कष्ट देने लगा। इसी बीचमें उसकी कुदृष्टि मरुभृतिकी स्त्री सती विसुन्दरी पर पड़ गई थी और वह कामातुर हो उसको पानेके उपाय करने लगा था, यह पाठकगण ऊपर पढ़ चुके है । अस्तुः
कलहसने जब देखा कि कमठ विसुन्दरी विना विह्वल होरहा है: तब वह भी न्यायमार्गसे फिसल पडा! कमतिके फंदेमें पडकर वह धोखेसे कमठके बीमार होनेका बहाना बताकर विसुन्दरीको उसके पास लिवा लाया । विचारी अनान वनिता इसके प्रपचको क्या जाने ? वह सरल स्वभावसे वहां चली आई। कमठको अब भी लज्जा न आई । पापीने उसके शीलको भंग किया और दुर्गतिमें अपना वास बनाया।
इतनेमे राजा अरविंद अपने शत्रुको परास्त करके सानन्द अपने नगरको लौटे । नगरमे पहुंचनेपर उनको कमठकी सब काली करतूतें मालूम पड़ गई । सचमुच कमठके पापोंका घडा भर गया था-बस, उसके फूटनेकी ही देरी थी। वह भी दिन आ गया। राजाने उसे देशनिकालेका दंड देना निश्चित कर लिया ! सरलस्वाभावी मरुभूतिने भाईके प्रेमसे विह्वल होकर एकवार उसे क्षमा करनेके लिए भी कहा; पर राजाने अनीति मार्गको रोकनेके लिए कमठको दण्ड देना ही निश्चित रक्खा ! । । ।
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१२] । भगवान पार्श्वनाथ ।
राज आज्ञाके अनुसार कमठका काला मुंह करके गधेपर “चढ़ाया गया और वह देशसे निकाल दिया गया। कुशीलवान “कमठ महा दुःखी हुआ पर उसे अपनी करनीका फल मिल गया। “याप किसकी रियायत करता है ? बिलखता हुआ वह 'भूताचल पर्वतके पास पहुचा। वहां तापस लोगोंका आश्रम था, हठयोगमें लीन वे लोग अधोमुख लटककर, धुंआ पान करके, ऐसी ही क्रियाओसे कायक्लेश सहन कर रहे थे । कमठने उनके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली और वह भी अपनी कायाको तपाने लगा।
इधर विचारे मरुभूतिको अपने ज्येष्ठ भ्राताकी इस दुर्दशापर -बहुत दुःख हुआ और सहसा वह उसको भुला न सका । जब उसे यह मालूम हुआ कि कमठ अमुक तापसोंके निकट तपश्चरण तप रहा है, तब उसने उनके निकट जाना आवश्यक समझा। राजाने कमठके खल स्वभावके कारण उसके पास जानेके लिए मरुभूतिको मना भी किया परन्तु भाईके मोहसे प्रेरा वह वहां पहुच ही गया । कमठको देखते ही उसका भ्रातृप्रेम उमड़ आया ! वह चट उसके पैरोंपर गिर पडा और उससे हरतरहसे क्षमायाचना करने लगा। इस सरलताका कमठके वक्र हृदयपर उल्टा ही प्रभाव पड़ा । वह क्रोधमें कापने लगा और क्रूर कोपके आवेशमें उसने एक शिला उठाकर मरुभूतिके सिरमें दे मारी। मरुभूतिके लिये वह काफी थी। आर्तध्यानने मरुभूतिको आ घेरा। उसके प्राणपखेरू उस नश्वर शरीरको छोड चल बसे । वह अन्त समय खोटे परिणामोंसे मरकर सल्लकी वनमें वज्रघोष नामक वनहाथी हआ । परिमामोंकी वक्रताके कारण ही उसे पशुयोनिमे जन्म लेना पड़ा।
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कमठ और मरुभूति । [१३ मनुष्यों के विचारों अथवा परिणामोंका बड़ा गहरा संबंध उनकी भलाई-बुराईसे लगा हुआ है। अच्छे विचार होंगे, तो परिणाम भी अच्छे होंगे और परिणाम अथवा मनके अच्छे होनेपर ही वचन और कार्य अच्छे हो सकेंगे, , किन्तु इसके विपरीत बुरे विचारो और परिणामोसे बुरे कार्य होगे जिनका फल भी बुस होगा। इस वैज्ञानिक नियमका ही शिकार बिचारा मरुभूति बन गया । अन्तिम स्वांसमें उसने हलाहल विष चख लिया, जिससे वह पहले चौकन्ना रहता था। अस्तु ।
दूसरी ओर कमठको भी अपने बुरे कार्यका दुष्परिणाम शीघ्र ही चखना पड़ा।
तापसियोंने उसके इस हिसक कर्मसे चिढकर उसे अपने आश्रमसे निकाल बाहर कर दिया। वह दुष्ट वहांसे निकलकर भीलोमे जाकर मिला और चोरी करनेका पेशा उसने गृहण कर लिया । आखिर इसतरह पापकी , पोट बांधकर वह भी मरा और मरकर कुर्कट सर्प हुआ । उसके बुरे विचार और बुरे कार्य उसकी आत्माको पशुयोनिमे भी बुरी अवस्थामें ले गये। जैसा उसने बोया वैसा पाया।
सचमुच जीवोको अपने२ कर्मोका फल भुगतना ही होता है। जो जैसी करनी करता है वैसी ही उसकी गति होती है। मरुभूतिने भी आर्तरूप विचारोके कारण पशुयोनिके दुःखमें अपनेको पटक लिया । क्रोधके आवेशमे सगे भाइयोंमें गहरी दुश्मनी पड़ गई, जो जन्म जन्मान्तरोतक न छूटी यह पाठक अगाडी देखेंगे । अतएद क्रोधके वशीभूत होकर प्राणियोको वैर बांधना उचित नहीं है।
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१४] भगवान पार्श्वनाथ । . किन्तु पाठकगण, शायद आप विस्मयमे होगे कि इन विश्वभूति, मरुभूति, और कमठका सम्बन्ध भगवान पार्श्वनाथसे क्या ? भगवान पार्श्वनाथ तो जैनधर्ममे माने गए चौवीस तीर्थकरोंमेंसे तेईसवें तीर्थंकर थे । उनका इन लोगोंसे क्या सरोकार ? किन्तु पाठकगण, धैर्य रखिये | जरा ध्यान दीजिये, जितने भी भारतीय दर्शन एवं यूनान आदि देशोके जो प्राचीन धर्म थे, उनमे परलोक
और संसार परिभ्रमण अर्थात् आवागमन सिद्धान्त स्वीकार किया हुआ मिलता हैं । जैनधर्ममें भी इन सिद्धान्तोको स्वीकार किया गया है। इसी अनुरूप वह प्रत्येक आत्माको संसारमे अनादिकालसे चक्कर लगाते और अपने कर्मोके अनुसार दुःख सुख भुगतते मानता है । जैन पुराणोमें जिन महापुरुषोंके दिव्य चरित्र वर्णित किये गये हैं; वहा उनके पहलेके भवोंका भी वर्णन दिया हुआ है। इसी तरह जैन पुराणों में भगवान पार्श्वनाथके पहलेके नौ भवोंका वर्णन बतलाया गया है । इन नौ भवोंका प्रारंभ मरुभूतिके जीवनसे होता है । मरुभूतिका जीव ही उन्नति करते २ दसवें भवमें भगवान पार्श्वनाथ होनाता है । इस कारण यहांपर मरुभूति और कमठके वर्णनमें हम भगवान पार्श्वनाथके प्रथम मव वर्णनका दिग्दशन करते है । इन दोनों भाइयोंका सवन्ध अन्त तक एक दूसरेसे इसी तरहका रहेगा । यह परिणामोंकी विचित्रता और कर्मोके अचूक फलका दृश्य है !
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राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। [१५
राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। "ज्यों माचन-कोदों परभाव, जाय जथारथ दिष्टि स्वभाव । समझै पुरुष और की और, त्योंही जगजीवनकी दौर ॥"
सल्लकी वनमें घोर हाहाकार मचा हुआ है। कोई किसी ओर भागा जारहा है, कोई किसी ओर झाड़ियोमे घुमकर प्राण बचा रहा है; और कोई भयके कारण बुरी तरह चिल्ला रहा है । चारो ओर कोलाहल मचा हुआ है, मानो साक्षात् प्रलय ही आनकर उपस्थित होगई है। वह देखो वजघोष हाथी, जिसके गण्डस्थलसे मद झर रहा है, मदमाता होकर यहां ठहरे हुए इस यात्री-संघ पर टूट पड़ा है । कुपित हुआ ऐसे त्रास देरहा है कि सबको प्राणोंके लाले पडे हुये है। वह मानो इस संघको यह शिक्षा देरहा है कि 'दूसरेकी जीवनचर्यामे बाधा डालना ठीक नहीं। मैं आनन्दसे अपनी हथनियोंके साथ इस वनमें आनन्दक्रीडा किया करता था, तुमने बीचमे आकर यह क्या अड़गा डाल दिया। लो, इसका फल चाखो ।' मत्त हाथी रोषवान हुआ इसतरह बुरीतरह हिंसाकर्म रत होरहा था।
परन्तु जरा नजर बढ़ाइये । यह हाथी अपनी विद्युद्गतिसे क्यों शिथिल होता जारहा है । अरे, यह तो अपनी क्रूरता भी छोड़ता जा रहा है, शांति इसके निकट आती जा रही है । क्या कारण है कि यह यहां इन मौनी साधुके सामने चुपचाप खड़ा होकर एकटक उनकी ओर निहार रहा है ? साधु महाराजका दिव्य शरीर है। उनके उरस्थलमें श्रीवत्सका लक्षण सोह रहा है,
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१६] भगवान पार्श्वनाथ । तपश्चरणके कारण शरीर कश हो चुका है; पर आत्मतेनका प्रभाव उनके सुन्दर मुखपर छागया है कि मानो सूर्य ही उग रहा है । वन हस्ती भी इस दिव्य पुरुषके सामने अवाक् होरहा । अपने दुष्कर्मको बिल्कुल ही भूल गया ! आत्मतेजका प्रभाव ही ऐसा होता है ।
___आजकल आत्मवादको प्रगति प्राय शिथिल होगई है। - इसी कारण लोगोको आत्माकी अनन्तशक्तिमे बहुत कम विश्वास
है । भौतिकवादके झिलमिले प्रकाशने ही उनकी आखें चुधिया दीं है, परन्तु अब जमाना पलटता जा रहा है। लोग फिरसे आत्मवाढके महत्वको समझते जा रहे है और आत्माकी अनन्तशक्तिमे विश्वास करने लगे है। सचमुच आत्माकी अमोघ अनन्तशक्तिके समक्ष कोई भी कार्य कठिन नहीं है। फिर भला, अगर वनहाथी वजघोष मुनिके अलौकिक आत्मरूपके सामने नतमस्तक होजावे तो कौनसे आश्चर्यकी बात है ? वह जमाना तो आत्मवाटके प्रचंड अभ्युदयका था । मनुप्योंमे ही क्या, बल्कि पशुओं तकमे आत्म प्रभाव अण्ना असर किये हुए था । इसी कारण पुण्य भावनाओने वातावरणको विशेष धर्ममय बना दिया था, जिससे उस समयके प्राणी भी हर बातमे आजसे विशेष उन्नतिगाली थे । उनका मानसिक ज्ञान वृव ही बढ़ा चढ़ा था। यहांतक कि पूर्वभवकी स्मृति पशुओ तकको होजाती थी । वाघोप हाधीको भी मुनिके उरस्थल पर श्रीवत्सका चिन्ह देखकर अपने पूर्वभवका स्मरण होआया था।
पाठको, यह दिव्य साधु राजा अरविंद ही थे। सल्लकी वनमें यह रानपि रूपमें विगनमान थे । मल्मृतिकी मृत्युके उपरान्त यह एक रोज बादलोंकी उथलपयल देख रहे थे, कि देखते ही देखते
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राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। [१७ उनमेंका एक सुन्दर दृश्य आंखोंसे ओझल होगया । राजाको यह देखकर दुनियांकी सब चीजें अथिर जचने लगी। क्षणभंगुर जीवनको आत्म-कल्याणमें लगाना उन्होने इष्ट जाना। वह परम दिगंबर मुनि होगये । बारह प्रकारका घोर तपश्चरण तपने लगे । आत्मध्यानमें सदैव तल्लीन रहने लगे। उनके ज्ञानकी भी वृद्धि होने लगी। इसी अवस्थामें वे अरविदराजर्षि श्री सम्मेदशिखरजीकी वंदना हेतु संघ सहित जारहे थे, सो सल्लकी वनमे आकर ठहरे हुये थे। इसी समय उस मरुभूतिके जीव हाथीने इनपर आक्रमण किया था।
जिसका भला होना होता है, उसको वैसा ही समागम मिलता है । विल्लीके भाग्यसे छीका टूट पड़ता है । वज्रघोष हाथीके सुदिन थे कि उसे इन पूज्य रानर्षिके दर्शन होगए । हाथी विनयवान होकर इनके समक्ष खड़ा होगया। अपने पूर्वभवका सम्बन्ध याद करते ही उसने अपना शीश राजर्षिके चरणोमे नवां दिया ! सबका हित चाहनेवाले उन राजर्षिने इसकी आत्माके कल्याण हेतु उत्तम उपदेश दिया-बतलाया कि हिसा करने-दूसरेके प्राणोंको तकलीफ पहुंचानेसे दुर्गतिका वास मिलता है, क्योकि हिसा जीवोको दुःखकारक है । कोई भी जीव तकलीफ नहीं उठाना चाहता, इसलिए दूसरोंको कष्ट पहुंचानेके लिए पहले स्वयं अपने आप तकलीफ उठानी पड़ती है। फिर कही उसका अनिष्ट हो पाता है । इस. कारण यह हिंसा पापका घर है । इसका त्याग करना ही श्रेष्ठननोका कार्य है। क्रोधके बगीभूत होकर वन-हस्तीने अनेको जीवोंके प्राणोको कष्ट पहुंचाकर वृथा ही अघकी पोट अपने सिरपर धरली! - इसी हिसाहस, आर्मभाव, अपनी आत्माको हननेके कारण यही
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१८ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
मरुभूति ब्राह्मण पशुकी योनिमें आन पडा ।
राजर्षि मार्मिक उपदेशने हाथी के हृदयको पलट दिया । पशु पर्यायके दुखोंसे छूटने के लिए उसने सम्यग्दर्शन पूर्वक अणुव्रतोंको धारण कर लिया । धर्म भावना उसके हृदय में जागृत हो गई । राजर्षि तो अपने मार्ग गए और वह हस्ती धर्मध्यान में दिन विताने लगा। एक पशुके ऐसे धर्मकार्यपर अवश्य हो जीको सहसा विश्वास नहीं होता; किन्तु इममे अचरज करने की कोई बात नहीं है । पशुओं में भी बुद्धि होती है । वह स्वभावतः आवश्यक्ताके अनुसार यथोचित मात्रा में प्रगट होती है । उनके प्रति यदि प्रेमका व्यवहार किया जाय और उनकी पशुताको दूर करके उनकी बुद्धिको जागृत कर दिया जाय, तो वह अवश्य ऐसेर कार्य करने लगेंगे कि जिनको देखकर आश्चर्य होगा । आज भी ऐसे २ शिक्षित बैल और बकरे देखे गए हैं कि जो अपने खुरोसे गुणा करके खास अदमियोंके जेत्रोंमें रक्खे हुए रुपयोंकी संख्या बता देते है और जिस किसीने कोई चीज चुराई हो तो उसके पास जाकर खडे होजाते है । सरकसों के खेलोंको सब कोई जानता है, साधारणत कुत्तोंकी स्वामिभक्ति, किसी चीज का पता लगानेकी बुद्धि और सिखाने पर मनुष्यों की महायता करनेके प्रयत्न प्रतिदिन देखे जाते है। ये ऐसे उदाहरण हैं जो हमे पशुओं द्वारा उस मनोवृत्तिको प्राप्त करनेकी बातपर विश्वाम करनेके लिए बाव्य करते हैं, जिससे हाथी आदि पंचेन्द्रि सेनी जीव धर्माराधन करनेकी योग्यता पा लेते हैं । अस्तु,
हाथी विविध रीतिले धर्मश अभ्यास करने लगा । त्रस जीवोंजी वह नृल कर भी विराधना नहीं करता था । समताभावको
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राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। [१९ हृदयमे रखकर वह इन्द्रियोंका निग्रह करने लगा। यहांतक कि गिरे हुये सूखे पत्तों आदिको खाकर पेट भरने लगा और धूपसे. तपे हुये प्रामुक जलको धोकर प्यास बुझाने लगा। जिन हथिनियोंके पीछे वह मतवाला बना फिरता था, उनकी तरफ अब वह निहारता भी नहीं था। हरतरहके कष्ट चुपचाप सहन करलेता था-दुर्ध्यानको कभी पास फटकने नहीं देता था। इसप्रकार संयमी जीवन व्यतीत करता वह कृषतन होगया। पचमपरमेष्ठीका ध्यान वह निसिवासर करता रहा। एक रोज हत्भाग्यसे क्या हुआ कि वह वेगवती नदीमें पानी पीने गया था, वहांपर दलदलमें फस गया। बाहर निकलना बिल्कुल मुहाल होगया। इस तरह असमर्थता निहारकर हाथीने सन्यास ग्रहण करना उचित समझा। वह समाधि धारणकर वहां वैसाका वैसा ही स्थित खड़ा रहा। प्रबल पुण्यप्रकृतिके प्रभावसे निपट र्दुबुद्धियोंको भी सन्मार्गके दर्शन होजाते हैं और वह उसपर चलने में हर्ष मनाते है, इसमे आश्चर्य करनेकी कुछ बात नहीं!
हाथी बिचारा सन्यास साधन किये हुये वहा खड़ा ही था, कि इतनेमें पूर्वमवके कमठका जीव, जो मरकर इसी वनमें कुर्कुट हुआ था, इधर आ निकला। हाथिको देखते ही उसे अपने पहले जन्मकी बातें याद आगईं। क्रोधसे वह तिलमिला गया। झटसे उसने मरुभूतिके जीव उस सयमी हाथीको डस लिया ! शुभभावोसे देह त्यागकर भगवान पार्श्वनाथके दूसरे भवका जीव यह हाथी सहस्रार नामक बारहवें स्वर्गमें बडी ऋद्धिको धारण करनेवाला देव हुआ। और कमठका जीव-यह सर्प मरकर पापोके कारण पांचवे नर्कमें पहुंचा ! यहां अपनी २ करनीका फल प्रत्यक्ष है।
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___२०] भगवान पार्श्वनाथ ।
जेनशास्त्रोंमे तीर्थकर पद मनुष्य भवका मोश दनी गाना गया है और उसका अधिकारी हराक प्राणी होमक्ता है, यदि यह दहां बताये गये नियमों का पूर्ण पालन अपने जन्मान्तगमें करले। वह नियम इस तरह बताए गए है -- - (१) दर्शनविशुद्धि-सम्यग्दर्शन, आत्मश्रद्धानकी विशुद्धता प्राप्त करना।
(२) विनयसम्पन्नता - मुक्ति प्राप्तिके साधनो अर्थात् रत्नत्रयके प्रति और उनके प्रति जो उमका अभ्याम कररहे है विनय करना।
(३) गील व्रतेप्वातचार-अतीचाररहित अर्थात् निर्दोष रूपसे पाच व्रतोंका पालन और कपायोका पूर्ण दमन करना । . (४) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग-सम्यग्नानकी सलग्नतामें -स्वाघ्यायमे अविरत दत्त'चत्त रहना ।
(५) संवेग-मसारसे विरक्तता और धर्म प्रेम रखना। (६) शक्ततस्त्याग-यथाशक्ति त्यागभावका अभ्यास करना। (७) शक्तितम्तप-शक्ति परिमाण तपको धारण करना । १८) माधुपमाध-साधुओकी सेवासुश्रूषा और रक्षा करना ।
(९) यावृत्य करना-सवे प्राणियों खासकर धर्मात्माओंकी यावृत्य करना।
(१०) अद्भक्ति - अहंत भगवानकी भक्ति करना । (११) आचार्यभक्ति-आचार्य परमेष्ठीकी उपासना करना । (१२) बहुश्रुतभक्ति-उपाध्याय परमेष्टीकी भक्ति करना । (१३) प्रवचन भक्ति-शास्त्रोकी विनय करना ।
(४) पावश्य काप रहाणि-पडावश्यकोके पालनमे शिथिल न होना।
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राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। [२१ ' (१५) मार्गप्रभावना-मोक्षमार्ग अर्थात् जैनधर्मकी प्रभावना करना; और
(१६) प्रवचनवत्सलत्व-मोक्षमार्गरत साधर्मी भाइयोंके प्रति वात्सल्यभाव रखना।
इन्हीं सोलह नियमोंका पूर्ण पालन मरुभूतिकी आत्माने अपने नौ जन्मान्तरोंमें करलिया था, जिसके ही प्रभावसे वह परमोच्च तीर्थकरपदको पहुंचा था-साक्षात् परमात्मा भगवान पार्श्वनाथ हुआ था। बात यह है कि इसलोकमें एक सूक्ष्म पुद्गल वर्गणायें भरी पड़ी हैं, जो जीवात्माके शुभाशुभ मन, वचन, काय क्रियाके अनुसार उसमें आकर्षित होती रहती हैं । जीवात्माका सम्बन्ध इस पुद्गलसे अनादिकालसे है और वह निरतर मन, वचन, कायकी शुभाशुभ क्रियाके अनुसार बढ़ता रहता है। उस समयतक यह क्रम जारी रहता है जबतक जीवात्मा जो, स्वभावमें चैतन्यमई है, इस पौगलिक सम्बन्धसे अपना पीछा नहीं छुड़ा लेता है। इस सनातन नियमका खुलासा परिचय पाठकगण अगाड़ी पायेंगे, परन्तु यहांपर यह ध्यानमें रख लेना उचित है कि इसी नियमके बल मरुभूतिका जीव अपने अशुभ मन, वचन, काय योगके परिणाम स्वरूप दुर्गतिमें गया और पशु हुआ था किंतु उसी अवस्थासे धर्मका आराधन जन्मान्तरोंमें करते रहनेसे वह उत्तरोत्तर उन्नति करता गया और आखिर वह इस योग्य बन गया कि पौगलिक संसर्गका बिल्कुल अन्त कर “सका ! इससे कर्मसिद्धान्तका प्रभाव स्पष्ट होजाता है। अस्तु । - सहस्रार स्वर्गके स्वयंप्रम विमानमें मरुभूतिका जीव जो । आगामी चलकर जगतपूज्य २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथजी हुआ था, कह
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२२] भगवान पार्श्वनाथ ।। शशिप्रभ नामक देव हुआ। अवधिज्ञानके बल उस देवने अपने पूर्व भवमे किये गये व्रतोका माहात्म्य जान लिया । सो यहां भी वह खूब ही मन लगाकर भगवद्भजन करने लगा। महामेरु, नंदीसुर आदि पूज्यस्थानोंमें जाकर वह बडे भावसे जिन भगवानकी पूजनअर्चन करता था। सोलहसागर तक वह स्वर्गाके सुखोका उपभोग करता हुआ विशेष रीतिसे पुण्य संचय करता रहा। अंतमें वहांसे चयकर वह देव जंबूद्वीप पूर्व विदेहके पुष्कलावती देशके उन्नतशैल विजयापर बसे हुये विशाल नगर लोकोत्तमपुरके राजा भृपाल और रानी विद्युत्मालाके अग्निवेग नामक सुन्दर राजकुमार हुआ । - राजकुमार अग्निवेग बडा ही सौभाग्यशाली, सोमप्रकृति, प्रवीण और सफल शुभ लक्षणोका धारी था। पूर्वसंयोगसे इस भवमें भी उसकी भक्ति श्री देवाधिदेव निनदेवके चरणोंमें कम नहीं हुई थी। पुण्यात्मा जीवोको धर्म हरजगह सहाई होता है । राजकुमार मग्निवेग सबके लिए सुखका ही कारण थे। युवा होनेपर इन्होंने राज्यसंपदाका उपभोग किया । एकरोज इनका समागम एक स्वपरहितकारी साधु महाराजसे होगया। इन्होंने उनकी विशेष भक्ति की और उनका उपदेश सुनकर इनके हृदयमें वैराग्यकी लहर उमड़ आई-यह मुनि होगये । ____राजर्षि अग्निवेग तिलतुष मात्र परिग्रहतकका त्याग करके परम तपोंको तप रहे थे कि अचानक पूर्वसंयोगसे अपने मरुभूतिके पूर्वभवमें बांधे हुये वैरके कारण कमठका जीव नर्कसे निकल करके. जो फिर अजगर सर्प हुआ था, इनके पास आ धमका ! हिमगिर 'गुफामें अवस्थित इन धीरवीर मुनिराजको इसने फिर डस लिया।
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चक्रवर्ती वज्रनामि और कुरंग भील । [ २३
इस तरह इनका यह चौथा भव भी आपसी वैरका बदला चुकानेसे खाली न गया ! मुनिराजने समभावसे प्राण विसर्जन किये, इस लिये वह तो सोलहवें स्वर्ग में पहलेसे भी ज्यादा भोगोंके अधिकारी हुये, और कमठका जीव वह अजगर पापदोषके वशीभूत होकर छठे नर्कमे जाकर पड़ा, जहा दारुण दुःख भुगतने पड़ते हैं । तीव्र वैर बांधने के परिणाम से उसे वारम्बार घोर यातनाओंका कष्ट सहन करना पड़ता रहा ! सचमुच क्रूर परिणामोकी तीव्रता भव भवमें दुखदाई है ! जीवका यदि कोई सहाई और सुखकारी है तो वह एक धर्म ही है । कवि भी उसके पालन करनेका उपदेश देते हैं:
-
आदि अन्त जिस घर्मसौ सुखी होय सब जीव । ताको तन मन वचन करि, रे नर सेव सदीव ॥”
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(8) चक्रवर्ती वज्रनाभि और कुरंग भील !
"(
बीज राखि फल भोगवैं, ज्यों किसान जग मांहि । सोंची नृप सुख करें, धर्म बिसारै नांहि ॥ "
आजकलके लोगोंको संसार के एक कोने का भी पूरा ज्ञान नहीं है । पाश्चात्य देशो के अन्वेषकों और विद्यावारिधियोने जिन स्थानों और जिन बातोंकी खोज कर ली है, वह अभी न कुछके बराबर हैं । नित नये प्रदेश और नई २ बातें लोगोके अगाड़ी माती हैं । परन्तु भारतके पूर्व इतिहासको देखते हुये हम उनमें कुछ भी नवीनता नहीं पाते हैं । भौगोलिक सिद्धान्तोमे भी अब पश्चिम भारत के सिद्धान्तोंको माननेके लिये तैयार होता जारहा है । ऐसे
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२४] । भगवान पार्श्वनाथ । ऐसे विद्वान् भी अगाड़ी आ रहे हैं जो सप्रमाण पृथ्वीको स्थिर बतलाने लगे है । सारांश यह कि इस जमानेमें जो उन्नति हुई है, वह अपनी पराकाष्ठाको नहीं पहुंची है । बल्कि जैन ग्रंथोंके वर्णनको ध्यानमें रखकर हम कह सक्त है कि अभी सेरमे पौनी भी नहीं कनी है । अतएव उन्नतिकी इस नन्हीं अवस्थामें यदि पहिले जैसी बातो और देशोंका पता हमे न चले और हम उन्हें अचंभे जैसा मान लें, तो उसमें विस्मय ही कौनमा है ? यह हमारी संकुचित बुद्धिका ही दोष है ! अस्तु, यहांपर इस कथामें विस्मय करनेकी कोई आवश्यक्ता नही है ।
मरुभृतिका जीव जो अच्युत स्वर्गमें देव हुआ था, वह वहां अपने सुखी दिन प्राय पूरे कर चुका । पाठकगण, उसके लिये स्वर्गसुखोंको छोडना अनिवार्य होगया। वहामे चयकर वह वनवीर नामक भूपालके यहा बड़ा भाग्यवान पुत्र हुआ। यह राना पद्मदेशके अस्त्रपुर नगरके अधिपति थे। जम्बूद्वीपके मध्यभागमें अवस्थित मेरु पर्वतके पश्चिम भागमे एक अपरविदेह नामक क्षेत्र बताया गया है । यह बडा ही पुण्यशाली क्षेत्र है। यहाके जीवोंके लिये मोक्षका द्वार सदा ही खुला रहता है । यहा जैन मुनियोंका प्रभाव चहुओर फैला मिलता है । अहिंसा धर्मकी शरणमें सब ही जीव आनन्दमे काल यापन करते है। इसी क्षेत्रमे अस्वपुर नगर था।
राना वजवीर बडे नीतिनिपुण जिनरानभक्त राजा थे । उनकी पटरानी विनया बडी ही मुलक्षणा और सुकुमारी थी । एकदा पुर्वपृन्यवशात गनीने मोते हुये रातके पिछले पहरमें पाच शुभ बम देये। पहले मेल्पवंत देखा, फिर कममे सूर्य, चंद्र, विमान
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चक्रवर्ती वज्रनाभि और कुरंग भील । [ २५
और सजल सरोवर देखे । प्रातः होते ही वह अपने प्रियतम राजा वज्रवीर के पास पहुंची और बड़ी विनयसे रातके स्वप्नोका सब हाल उनसे कह सुनाया । राजा इन स्वप्नोंका हाल सुनकर बहुत खुश हुआ । उसने रानी से कहा कि तेरे एक प्रधान पुत्र होगा । स्वप्नों का यह उत्तम फल सुनकर रानीको भी बड़ा हर्ष हुआ । नियत समय पर भाग्यवान पुत्रका जन्म हुआ; जिसका नाम इन्होंने वज्रनाभि रक्खा और यह जीव अच्युत स्वर्गका देव ही था । यह भगवान पार्श्वनाथका छट्टा पूर्वभव समझना चाहिए ।
क्रमकर राजपुत्र वज्रनाभि युवावस्थाको प्राप्त हुये । इस अवस्थाको पहुंचते २ इन्होने शस्त्र - शास्त्र आदि विद्याओमें पूर्ण निपुणता प्राप्त कर ली थी। आजकल के रईसोकी भांति इनके पिताने इनका वालपनमे विवाह करके ही इन्हें विद्या और स्वास्थ्यहीन नही बना दिया था बल्कि यह जब सब तरहसे निष्णात होगये थे, तब इनका विवाह संस्कार राजाने कराया था । विवाह
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होनेपर यह अपनी सुन्दर रानियोके साथ मनमाने भोग भोगने लगे । अन्तमें राज्यभार इनको प्राप्त हुआ और यह बड़ी कुशलता पूर्वक राज्यप्रबंध करने लगे थे ।
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वज्रनाभि नीतिपूर्वक राज्य कर रहे थे, कि इनको समाचार मिले कि राजाके आयुधगृहमे चक्ररत्न उत्पन्न होगया है । यह सुनकर इनको - बडा हर्ष हुआ और यह छहों खंड पृथ्वीको विजय करके धर्मराज्य स्थापित करनेके लिये घरसे निकल पड़े । लोकके पाणियोंकी हित चिन्तनासे वह व्यग्र हो उठे और धर्मचक्रका माहात्म्य वह चहुंओर फैलाने लगे । जैनशास्त्रोके अनुसार चक्र
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२६] भगवान पार्श्वनाथ । वर्तियोंके लिये अपूर्व सामिग्रीका प्राप्त करना और सार्वभौमिक सम्राट् होना अनिवार्य है। इमी अनुरूप राजा वचनाभि भी छह खंडकी विनय करके चक्रवर्ती पदको प्राप्त हुये । सार्वभौमिक सम्राट् होगए । प्रवल पुण्यसे अहट सम्पदा और भोगोपभोगकी सामिग्रीका समागम इनको हुआ था। जिन राजाओंको इनने परास्त किया था, प्राय. उन सबने ही इनकी बहुत कुछ नजर भेंट की थी तथा अपनी सुकुमारी कन्याओंका पाणिग्रहण भी इनके साथ कर दिया था। इन राजाओंमें बत्तीस हजार म्लेच्छ राना भी थे। इनकी कन्यायोंके साथ भी राजा वचनामिने विवाह किया था उस समय विवाह सम्बंध करना एक नियत परिधिमें संकुचित नहीं था बल्कि वह बहुत ही विस्तृत था। यहां तक कि उच्चकुली मनुष्योंकि लिए शूद्र और म्लेच्छों तकमें विवाह सम्बध करना मना नहीं था, जैसे कि सम्राटू बचनाभिके उदाहरणसे प्रकट है ।
इस तरह सार्वभौमिक सम्राटपदको पाकर राजा वचनामि सानन्द राज्य कर रहे थे । वह अपने विस्तृत राज्यकी समुचित रीतिसे व्यवस्था रखते थे, परन्तु इतना होते हुए भी वह अपने धर्मको नहीं भूले हये थे। अर्थ और कामकी वेदीपर धर्मकी बलि नहीं चढ़ा चुके थे, जैसे कि आजकल होरहा है। योही सुखसागरमें रमण करते हुए सम्राट् वचनाभि कालयापन कर रहे थे, कि एक रोज शुभ कर्मके संयोगसे क्षेमंकर नामक मुनि महाराजका समागम हो गया। भक्तिभावसे सम्राट्ने उनकी वन्दना की और मन लगाकर उनका सर्व हितकारी उपदेश सुना। मुनि महाराजका उपदेश इतना मार्मिक था कि उसने वजनाभि सम्राट्का हृदय फेर दिया। वह
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चक्रवर्ती बज्रनाभि और कुरंग भील। [२७ अपने विशद साम्राज्य और अतुल संपदाको कौडीके मोल बराबर समझने लगे। छयानवे हजार सुन्दरसे सुन्दर रानियां भी उनके दिलको अपनी ओर आकर्षित न कर सकी। पूरा वैराग्य उनके दिलमें छा गया, सारा संसार उनको असार दीखने लगा। राजभोग भोगते जहां सार ही सार नजर आता था, वहां अब उन्हें कुछ , भी सार न दिखाई पड़ता था । लौ लगी थी शाश्वत सुख पानेकी इसलिए उनकी भ्रमबुद्धि उसी तरह भाग गई जिस तरह सूरजके निकलते ही अंधकार भाग जाता है । वस्तुओका असली स्वरूप उनकी नजरमे आ गया। वे विचारने लगे:
' इस ससार महावन भीतर, भ्रमते ओर न आवे । जामन मरन जग दो दाझ्यो, जीव महादुख पावे ॥ कव ही जाय नरकथिति भुजै, छेदन भेदन भारी । कव ही पशु परजाय धरै तह, वध बधन भयकारी ॥ सुरगतिमे पर सपति देखै, गग उदय दुख होई । मानुप जोनि अनेक विपतिमय, सर्व सुखी नही होई ॥" " मोह उदय यह जीव अग्यानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरो, सो सब कचन माने ॥ मै चक्री पद पाय निरतर, भोगे भोग घनेरे । तोभी तनिक भये नहीं पूरन भोग मनोरथ मेरे ॥ सम्यग्दरसन ग्यान चरन तप, ये जियके हितकारी ।
ये ही सार, असार और सब, यह चक्री चित धारी ॥"-पार्श्वपुराण
चितमें दृढ़ता धारण करके सम्राट्ने अपने पुत्रको राज्य भार सौंपा और आप अनेक राजाओंके साथ निःशल्य होकर मुनि हो गये। गुरु चरणोंके निकट जैनमुनिके पंच व्रतोंको धारण कर लिया। अपनी अलौकिक विभूतिका जरा भी मोह नहीं किया। कानी
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__ २८ ] . भगवान पार्श्वनाथ । कौड़ीकी तरह उसे नि संकोच भावसे पैरोंसे ठुकरा दिया और घोर तपश्चरण करने लगे। सदा आत्मध्यानमें लीन रहने लगे। अपने मनुष्य जन्मको सफल बनाने लगे। ___एक रोज राजर्षि वजनाभि कायोत्सर्ग एक वनमें विराजमान थे, कि इनके पूर्वभवका वैरी मठका जीव वहां आपहुंचा | कमठका जीव अजगर जो मरकर छठे नर्कमें गया था वह वहांसे निकल कर किसी पुण्य संयोगसे नर जन्ममें तो आया. पर कुरंग नामक हिसक भील हुआ। सचमुच जीवोंके किये हुये शुभाशुम कर्म अपना प्रभाव स्वत ही उचित समय पर दिखाते है | भगवान पार्श्वनाथनीके इन पूर्वभवोंके वर्णनसे कर्मके विचित्र परिणामका खासा दिग्दर्शन होनाता है । वर-बंधके कारण यह कुरंग भील राजर्षिको देखते ही आगबबूला होगया। राजर्षि तो शत्रुमित्रमें समभावको धारण किए हुए थे। उनके निकट उसके कोपका कुछ भी प्रभाव नहीं था. परन्तु यह नीच काहेको माननेवाला था। धनुष-बाण हाथमें लिये हुये था । चटसे वाण धनुपपर चढ़ा लिया और भरताकत खींचकर योगासीन मुनिराजके मार दिया ! मुनिराजने इस दुःखदशामें भी धर्मव्यानको त्यागा नहीं बल्कि उपसर्ग आय जानकार उनने विगेप रीतिमे आत्मममाधिमें दृष्टिको लीन क दिया । इम उत्तम दगामें उनके प्राणपखेरू निकलकर मध्यम ग्रेवे. यक विमानमें पहुंचे। वहां चे अहमिन्द्र हुये और विशेष रीतिसे आनन्दमुख भोगने लगे।
पहले वहा पहचकर उत्पाद से जसे उठने ही वह भ्रममें पड़ गए कि यहा मैं कैसे आगया ? यह कौन स्थान है ? इतनेमें ही
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आनन्दकुमार। [२९ अपने अवधिनान के बलमे अपने पूर्वभवका सब संबंध जान लिया!' पुण्य प्रभावका यह प्रत्यक्ष उदाहरण देखकर वह फिर भी जिनेन्द्र भगवानकी पूजन अर्चनामें तल्लीन होगया ! यहां उत्पन्न होने के कुछ काल बाद ही वह यौवन अवस्थाको प्राप्त होगया और आनंदमे अनेक तीथों में जानाकर जिनेन्द्र भगवानकी वन्दना, स्तुति आदि रहे भावोसे करने लगा। धर्मतरुको खूब अच्छी तरह सीचने लगा।
इधर वह भील हिमाकर्ममे रत रहा, मुनिराजकी हत्या करने सदृश महापापके वशीभूत हो वह रुद्रध्यानसे मरा और मरकर सर्व आतम नमें जाकर पहा । वहांपर वह नानाप्रकारके अनेकानेक महा दुख भुगतने लगा-अधर्मका कटफल उसे यहा चखना पड़ा। सचमुच दहियोंके आधीन हआ जीव वृथा ही दु.खी होता है। विषयलम्पटी कमठ अपने घोर पापकी बदोलत बराबर दुःख ही. उठाता फिरा ! अतएव.
'विकविक विषयकपायमल, ये बैरी जगमाहि । ये ही मोहित जीवको, अवसि नरक ले जाहि ॥ धर्म पदारथ वन्य जग, जा पटतर कछु नाहि । दुर्गनिवास वायके, धरै सुरग शिव माहि ॥"
आनन्दकुमार । "जिनपूजाकी भावना, सब दुखहरन उपाय। करते जो फल संपजै, सो वरन्यौ किम जाय ॥"
वसन्त ऋतु अपनी मनमोहक मुस्कान चारोतरफ छोड रही था। वनलतायें और दिशा-विदिशायें फूले अंग नही समाती थी।
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भगवान पार्श्वनाथ सुन्दर सुहावना समय था । कामीजनोके लिये मानो अनङ्गराजने केलिके लिए साक्षात् नन्दनवन ही इस भूतलपर रच दिया था। परन्तु धर्मात्मा सज्जन इस समय भी पुण्योपार्जन करना नहीं भूले थे। नंदीश्वर व्रतका महोत्सव बड़े उत्साहसे इन दिनो किया जाता है।
कौगलदेशके अयोध्या सदृश उत्तम नगरमें इक्ष्वाक्वशी महाराज वन्त्रवाह राज्याधिकारी थे। प्रभाकरी नामकी इनके शीलगुणभरी रानी थी। दोनों ही राजपुरुष जैनधर्मके दृढ श्रद्धानी थे। मरुभूतिका जीव अहिमद्र ग्रैवेविकसे चयकर इन्हीं राजदम्पतिके यहा सर्वसुखकारी आनन्दकुमार नामक राजकुमार हुआ था। युवा होनेपर इस सुन्दर रानकुमारका अनेक राजकन्याओंके साथ विवाह हुमा था, और फिर यह अपने पिताके पदको प्राप्त हुआ था !
जेन शास्त्रोंमें राजाओंके आठ भेद बतलाये हैं; अर्थात् पहले जमानेमे आठ प्रकारके राजा होते थे, यह जैन शास्त्रोंके वर्णनसे प्रकट है। उनमें बतलाया है कि जो कोटिग्रामका अधिपति होता है, वह राजा कहलाता है। पांचसौ राना जिसको गीश नमावें वह अधिराजा बतलाया गया है । तथापि एक हजार राजा जिसकी आनमाने वह राजा महाराजा कहलाता है । दो हजार नृप जिसके आधीन हों उसे अर्घ मण्डलीक समझना चाहिये और चार हजार राना जिमकी शरण आ वह राजा मडलीक कहलाता है । आठ हजार भृप जिसकी आजाको गिर घरते हों, वह नृप महामंडलीक माना जाता है। मोलह हजार गनाओं को अपने आधीन रखनेवाला गना अर्धचक्री बतलाया गया है और बत्तीस हजार रामा जिसका लोहा मानते हों वह चक्रवर्ती राना कहलाता है। इनमेंसे महामंड
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आनन्दकुमार । [३१ लीक पद पर राजा आनन्दकुमार आसीन थे।
इसतरह महामंडलीक राजा आनन्दकुमार आनंदसे कालयापन कर रहे थे कि बसतोत्सवका समागम हुआ । राजमंत्री स्वामिहितने अपने विवेकभरे वचनोसे राजाका मन वनक्रीडा करनेके स्थानपर जिनभवनमें नन्दीश्वर विधानका परम उत्सव करनेकी
ओर फेर दिया ! बड़े उत्साहसे पूजन होने लगा । राजा भी बड़े हर्षसे जिनेन्द्रभगवानकी पूजा करनेके लिये वहा पहुंचा और बड़े भक्तिभाव और शात चित्तसे उसने भगवानकी पूजा की । आकुलताका नाम नही-धीरजसे विधिपूर्वक पूना हुई। राजाका मनरूपी भ्रमर जिनराजके पादकमलोमें मुग्ध होगया । भक्तवत्सल जीव जिनेन्द्रप्रभुके समक्ष अपने द्वैतभावको भूलकर एकमेक होनाते हैं। जिनेन्द्रपूनामे स्वामी और चाकरका सम्बंध नहीं है । वहां जो पूजक है सो पुज्य है, यही भाव प्रधान रहता है। न याचना हैन प्रार्थना है- निराक हृदयसे प्रभुके आत्मीक गुणोमें "अरे; जो वे हैं सो मै हूं" की ध्वनिमे लीन होजाना है-यही जैनपूजा है। . राजा भी ऐसी पूजा करनेको उद्यमशील हुआ था, परन्तु उसके हृदयमे सशय उठ खडा हुआ । सौभाग्यसे विपुलमती नामक मुनिराज भी वहां वदनार्थ आए थे, उनके निकट जाकर राजाने अपने सशयका समाधान करना चाहा । काकी निवृति करना ही उत्तम है-उसको दवाना सम्यक्त्वमें बट्टा लगाना है-सच्चे श्रद्धानको मलिन करना है । स्वतंत्र विचारो द्वारा प्रत्येक विषयका स्पष्टीकरण करना श्रद्धानको निर्मल और गाढ़ बनाना है। स्वतंत्र विचारोंसे डरनेकी कोई बात नहीं-स्वाधीन रीतिसे तात्विक चर्चा करना परम
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३२] भगवान पार्श्वनाथ । उपादेय है । उसको मेटना अश्रद्धानको जन्म देना है । अज्ञानांधकारको मेटनेके लिए विवेकमयी स्वतंत्र विचाररूपी सूर्य ही साम
र्थ्यवान है। राजा आनन्दकुमारने स्वतंत्ररीतिसे विचार किया कि पाषाणकी मूर्ति किस तरह हमे पुण्यकी प्राप्ति करा सक्ती है? इसीसे उनको इस बातका अवसर मिला कि वह देवपूजाका सच्चा स्वरूप मुनिरानसे जानकर अपने सम्यक्त्वको दृढ़ करलें। यदि वे चुपचाप रूढ़िवत भगवदपुजन करके चले आते, तो उनका अज्ञान दूर न होता! इसलिए स्वाधीन रीतिसे तत्वोका विवेचन करना बुरा नहीं है-पर वहां सबी अन्वेषक बुद्धिका होना जरूरी है, इस बातका ध्यान अवश्य रखना चाहिए ।
मुनिराजने राजाका समाधान कर दिया, बतला दिया कि जीवके शुभाशुम भाव कारण पाकर उत्पन्न होते है और उससे ही. पुण्य, पाप बंध होना है। जिस तरह स्फटिक पाषाणमें कुसुम वर्णका ढक लगानेसे उमकी द्युति अरुणश्याम होनाती है। उसी तरह जीवकी बात है । उपमें शुमाशुभ भावकर्मके अनुपार अंतर पड़ जाता है । इघर जिन प्रतिमा शुभ भाव उत्पन्न करने का कारण है ही ! क्यों के श्री जितेन्द्र भगवानकी वीतराग मुद्रा निरखिकर उन भगवान के दिव्य जीवनका स्मरण ही पुनकको आता है। और पुण्यात्मा महापुरुषों के पवित्र जीवनोका स्मरण हो आना भावोंको शुम रूप करनेके लिये अवश्य ही कार्यकारी होता है | इसलिए इस शुभभावके उत्पन्न होनेसे जिनदेवका पूनन पुण्यबंधका कारण है। देसे अवश्य ही जिनेन्द्र भगवानकी मूर्ति जड़ पापाग है-रामहेपने रहित, अमल और मुख दुखकी दाता नहीं है । वह दर्पण
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आनन्दकुमार । वत है: ममा दर्पणमें मुह देखोगे वैसा दिखाई पड़ेगा। इसी तरह निसभावसे जिन भगवानकी प्रतिमाका अवलोकन किया जायगा उसी भावरूप पुण्य-पापका बध पूजक होगा। पुण्य पाप जीवके निजभावोके आधीन है। जिस तरह एक सुन्दर वेश्याके मृत देह
सो देखकर विषयलम्पटी जीव तो पछताता है कि हाय ! यह जिन्दा न हुई जो में इसका उपभोग करता । एक कुत्ता मनमे कुढ़ता है कि इसे जला ही क्यो दिया गया, वैसे ही छोड़ देते तो मै भक्षण कर लेता और विवेकी पुरुप उसको देखकर विचारते है कि हाय ! यह कितनी अभागी थी कि इस मनुष्य-तनको पाकर भी इसने इसका सदुपयोग नहीं किया। वृथा ही विषयभोगोंमें नष्ट कर दिया। इसी तरह जिनविम्बको देखकर अपनी२ रुचियोके अनुसार लोग उसके दर्शन करते है । वेश्याका निर्जीव शरीर तीन जीवोंको तीन विभिन्न प्रकारके भाव उत्पन्न करनेमे कारणभूत बनगया, यह विलक्षण शक्ति उसमे कहासे आगई ? वह तो जड़ था-उसमें प्रभाव डालने की कोई ताकत शेष नहीं रही थी फिर भी उसके दर्शनने तरहरके विचार तीन प्राणियोके हृदयमें उत्पन्न कर दिये । यह प्रसंग मिल जानेसे जीवोके परिणामोके बदल जानेका प्रत्यक्ष प्रमाण है ! इसलिए जिन प्रतिमासे विराग करनेकी कोई जरूरत नहीं । दृढ़ श्रद्धा रखकर यदि हम उनका आधार लेकर उन तीर्थंकर भगवानके दिव्यगुणोका चितवन करेंगे जो अपने ही सद्प्रयत्नोसे जगतपूज्य बन गए है तो अवश्य ही हमे जिनप्रतिमा पूजनसे पुण्यकी प्राप्ति होगी। इसमे संशय नहीं है।
आज प्रत्यक्षमे अग्रेजोको देखिये, कोई भी उनको मूर्तिपूजक
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३४] भगवान पार्श्वनाथ । नहीं कह सक्ता, किन्तु वह अपने महापुरुषोके प्रतिविम्ब देशविदेशोंमें आदरणीय न्यानोंपर बनाते है और उनको विनय करते हैं। लन्दनके ट्राफलगर स्वायरमें एडमिरल नेलमन साहबक्री पापाण-मूर्ति खडी हुई है । अंग्रेज लोग प्रतिवर्ष एक नियत दिवस वहां उत्सव मनाते हैं और मूर्तिपर फूल हार आदि चढ़ाते हैं। इतने पर भी उनका यह कय ' मूर्तिपूजा के रूपने नहीं गिना जासक्ता क्यो के उनको उस पत्थरकी मृर्तिसे कुछ सरोकार नहीं है सरोकार है तो सिर्फ इतना कि वह उसके निमित्तने अपनी कृतज्ञता और भक्तिको प्रदर्जित करते हुये अपनेमें एडमिरल नेसलनके वीर भावोतो भर लेने हैं। अंग्रेजोंको जो आज ममुद्रोंपर सबसे दड़ा चढ़ा अधिकार प्रात है, वह एडमिरल नेलमनके हो कारण है। नेलपनने तो एक ही जल-संग्राममें अग्रेनोंकने विनयल भी दिलाई थीः किन्नु उनकी मूर्तिने अंग्रेजोंमें लाखो नेलसन पैदा कर दिये हैं। सत जो मूर्तिका आदर करते हैं. वह आदर्गमावसे करते हैं। इसी तरह नियोंकी पूना है। वह मूर्तिपूजा न होकर आदर्गपूजा है । जैनग्रो पाषाण भादमें देवकी करसना करके पुजा करनेका खुल. निषेध है । मूर्तिका सहारा लेकर उपासक घोरवीर और लगतोद्धारक नीकरोंके अपूर्व जुगों से अपने आन्तावोंको अलंकृत करता है । जैनमुनामें दीनता और याचनाको न्यान प्राप्त नहीं है। वहांतो कमजताज्ञारन और आत्नानुभवतो नुख्यता प्राप्त है। अत: जिनपूजामें आनन्नकुमारकी तरह नका ना वृया है । अस्तु
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आनन्दकुमार। [३५ राजा आनन्दकुमार विपुलमती मुनिराजके मुखारविन्दसे जिन पूजाके महत्वको सुनकर दृढ़ श्रद्धानी होगया और उसने उन मुनिराजसे तीनो लोकके जैन मंदिरोका भी वर्णन सुना। वह प्रतिदिवस सर्वही स्थानोके जिन चैत्योंको परोक्ष नमस्कार करने लगा। सूर्यदेवके विमान में भी जिनचैत्य उसे बताए गए थे, सो वह सांझसवेरे छत्तपर चढ़कर सूर्यकी ओर लक्ष्य करके वहांके जिनचैत्योको अर्घ चढ़ाया करता था। राजाकी इस क्रियाको देखकर साधारण जनता भी वैसी ही क्रिया करने लगी। कहते है तबहीसे 'भानु उपासक ' लोगोका संप्रदाय उत्पन्न होगया, सूर्यदेवकी पूजा होने लगी, सूर्यमंदिर बनने लगे। इन सूर्यमंदिरोका पता जबतब भारतके प्राचीन खण्डहरोंसे होजाता है । काश्मीरमे एक सुन्दर सुर्यमंदिर अब भी भग्न दशामे अवशेष है। .
इस प्रकार बड़े भावसे जिनपूजा करता हुआ राजा आनन्दकुमार राज्यप्रबध कररहा था कि अचानक इसकी दृष्टिमें एक सफेद बाल आगया । सफेद बालने उसे बिल्कुल सफेद ही बना दिया ! वह संसारसे विरक्त होगया-अपने ज्येष्ठ पुत्रको राज्यभार सौपकर उसने सागरदत्त मुनिराजके समीप जिनदीक्षा ग्रहण करली ! पंचमहाव्रतोको धारण करके वह भव्य जीव विशेष रीतिसे बाह्याभ्यंतर तपश्चरण करने लगा। विविध प्रकारके परीषहोको समभावसे सहन करने लगा । वह राजर्षि शास्त्राभ्यासमें उत्तचित्त रहते, निर्मल भावोसे दशलक्षण धर्म और सोलहकारण भावनाओका चितवन करते थे । इन भवतारण सोलहकारण भावनाओके भानेसे आपके त्रिलोकपूज्य तीर्थकर कर्मका बंध बंधगया । उन्हें अनेक प्रकारकी
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३६] भगवान पार्श्वनाथ । ऋद्धियोकी प्राप्ति हो गई । त्यागभावमे अपूर्व शक्ति है, मनुप्यको स्वाधीन वनानेवाला यही एक मार्ग है। ___ राजर्षि आनंदकुमार एक रोज क्षीर नामक वनमे वैराग्यलीन खडे हुये थे। मेरुके समान वह अचल थे, आत्मसमाधिमे लीन वह टससे मस नहीं होते थे। इसी समय एक भयंकर केहरी उनपर आ टा। अपने पजेके एक थपेडेमे ही वह धीरवीर मुनिराजके कंठको नोच ले गया ! और फिर अन्य शरीरके अवयवोंको खाने लगा ! इस प्रचंड उपसर्गमे भी वे महागभीर राजर्षि अविचल रहे। उन्होने अपनी अन्तर्दृष्टि और भी गहरी चढ़ा दी। वह यह भी न जान सके कि कोई उन्हें कुछ कष्ट पहुंचा रहा है । वह दृढ़ श्रद्धानी थे कि आत्मा अजर-अमर है, गरीर उसके रहनेका एक झोपडा है। मग्ण होनेपर भी उसका कुछ विगडता नहीं इसलिए शरीरके नष्ट होनेने राग-विराग करनेकी उनको जरूरत ही न थी। माजकलो मत्यान्वेषी भी इसी तत्वको पहुंच चुके हैं। प्रमिड वैज्ञानिक मर ओलीवर लॅॉनने यह स्पष्ट प्रकट कर दिया है कि मृत्युके उपरात भी नीव रहता है। मृत्युमे भय करनेका कोई कारण नहीं, (देखो हिन्दुस्थानरिव्य)। राजर्षि सानन्दकमार तो उम सत्यके प्रत्यक्ष दर्गन करचुके थे । फिर भला वह किसतरह मिहन्त उपसंगमे विचलित होने वह अपने आत्मव्यानमें निश्चल रहे और इन शुभ परिणामोंमे उम नश्वर गरीरको छोडकर आनत नामक म्बर्ग, देवेन्द्रोमे पूच इन्द्र हुये '
यह रेगेमिंद जिमने इतने कर भावसे राजर्पिपर आक्रमण किया था, मित य झम्टी जीवा और कोई नहीं था। न हन्स
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आनन्दकुमार |
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भोगकर वह इसी वनमें सिह हुआ था । अपने कमठ और मरु
भूति भवके बधे हुए वैरको वह यहां भी नही भुला सका ! राजर्षिको देखते ही उसे अपना पूर्वभव याद आगया और फिर जो उसने अधम कर्म किया, वह पाठक पढ़ ही चुके है । नीच केहरी इस अघके वशीभूत होकर पचम नर्कमे जाकर पड़ा ! शुभाशुभ कर्मो का फल प्रत्यक्ष है । शुभ कर्मोकर एक जीव तो उन्नति करता हुआ पूज्यपदको प्राप्त हो चुका और दूसरा अपनी आत्माका पतन करता हुआ नर्कवास में ही पड़ा रहा । यह अपनी करनीका फल है ।
।
आनन्दकुमार राजर्षि मरुभूतिके ही जीव थे और यही स्वर्गलोकसे आकर अपने दसवें भवमें त्रिजगपूज्य भगवान पार्श्वनाथ हुये थे । देवलोकमे इन्होने अपूर्व सुखोका उपभोग किया था । इस तरह भगवानके पूर्व नौ भवोका दिग्दर्शन है । इससे यह स्पष्ट है कि भगवानने उन सब आवश्यक्ताओंकी पूर्ति कर ली थी, जो तीर्थकर जन्म पानेके लिए आवश्यक होतीं हैं । एक तुच्छ जीव भी निरंतर इन आवश्यक्ताओकी पूर्ति कर लेनेसे रकसे राव हो सक्ता है, यह भी इस विवरणसे स्पष्ट है । कर्मसिद्धांत का कार्यकारी प्रभाव यहां दृष्टव्य है । अस्तु, अब अगाड़ी भगवान पार्श्वनाथके जन्मोत्सव संबंध में कुछ कहने के पहले हम यहांपर उस जमानेकी परिस्थितिपर भी एक दृष्टि डाल लेंगे, जिससे उस समयका चातावरण कैसा था, यह मालूम हो जायगा ।
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भगवान पार्श्वनाथ |
उस समयकी सुदशा !
"कौशाम्यां धनमित्राख्य- धनदत्ताढ्यो मुद्रा | वाणिज्येन वणिक्पुत्रा निर्गता राजगेहकम ॥ " - आराधना कथाकोप | कौशाम्बीसे राजगृहको जाते हुये मार्गमें एक गहन बन पड़ता था । जिस समयका हम वर्णन लिख रहे हैं अर्थात् आजसे करीब पौनेतीन हजार वर्ष पहले जब कि भगवान पार्श्वनाथका सर्व सुखकरी जन्म होनेवाला था, तब इस भारतवर्षमे माजलकी तरह रेलगाडिया देश के इस छोरसे उस छोर तक दौड़ती नहीं फिरतीं थी, लोग इसतरह निडर होकर यात्रा नहीं कर सके थे कि जैसे अव करते है । अंग्रेजी राज्यके स्थापित होने के पहले तक प्रायः यही दशा यहां मौजूद थी परन्तु इसके अर्थ यह नहीं है कि प्राचीन भारतमे शासक लोग यात्रियोकी रक्षाका प्रबंध नहीं करते थे और यह बात भी नहीं है कि पहले यहां कोई शीघ्रगामी रथ आढि यात्रा- वाहन थे ही नहीं । प्रत्युत हमको स्पष्ट मालूम है कि जनसाधारणकी यात्रा निष्कटक बनानेके लिए स्वयं राजा लोग वनमें जाकर डाकुओ और वटमारोंको पकड़नेका प्रयत्न करते थे । तथापि अग्निरथ और वायुयान जैसे शीघ्रगामी सवारियां भी थी, परन्तु यह निश्चित नहीं है कि वे सर्वसाधारणको प्राय. मिल सक्ती हों ।
१
ऐसे ही समय में घनमित्र, धनदत्त आदि बहुतसे सेठोके पुत्र व्यापार के लिए कौशाम्बीसे चलकर राजगृहकी ओर रवाना हुये थे,
१. डी साम्स ऑफ टी वेदरेन (थेरगाया) - अंगुलिमाल ।
३८ ]
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उस समयकी सुदशा।
यह बात हमे जैनग्रन्थ 'आराधनाकथाकोष' में बताई गई है। सेठ लोग अपना व्यापारका सामान गाडियोंपर लादे चले जारहे थे । रास्ते में गहन वन पडता था, उसीमे होकर यह लोग गुजर रहे थे कि अचानक इनपर एक डाकुओका दल टूट पड़ा और देखते ही देखते उन्होने इनके माल असबाबको लूट लिया । यह वेचारे ज्यों त्यो अपनी जान बचाकर वहासे भागे । डाकुओके हाथ खूब धन आया, धन पाकर उन सबकी नियत बिगडी । सच है इस लक्ष्मीका ललच बडा बुरा है। भाई-भाई और पिता-पुत्र में इसीकी बदौलत शत्रुता बढ़ती देखी जाती है। इन डाकुओका भी यही हाल हुआ, सब परस्परमें यही चाहने लगे कि साराका सारा धन उसे ही मिले
और किसीके पल्ले कुछ न पडे । इस बदनियतको अगाडी रखकर वे एक दूसरेके प्राण अपहरण करनेकी कोशिष करने लगे । रातको जब वे लोग खानेको बैठे तो एकने भोजनमे विष मिला दिया; जिसके खानेसे सब मर गए। यहां तक कि भ्रममे पड़कर वह भी मर गया जिसने कि स्वयं विष मिलाया था, किन्तु इतनेपर भी उनमें एक बच गया । यह था एक सागरदत्त नामक वैश्यपुत्र ! दुराचारके वश पड़ा हुआ यह इन डाकुओके साथ रहता था, परन्तु इसके पहलेसे ही रातको भोजन न करनेकी प्रतिज्ञा थी, इसी कारण वह डाकुओकी घातसे बाल बाल बच गया। सचमुच यह चचल सम्पत्ति मनुष्योके प्राणोकी साक्षात् दुश्मन है और धर्म परम मित्र है । डाकूलोग धनके मोहमे मरे, पर धर्म प्रतिज्ञाको निभानेवाला सेठ पुत्र बच गया । धन और धर्मका ठीकस्वरूप यहां स्पष्ट है !
१. आराधनाकथाकोष भाग २ पृष्ठ ११२ ।
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४० ]
भगवान पार्श्वनाथ |
1
इस प्राचीन कथासे उस समयके भारतकी दशाका परिचय मिलता है | यहाके व्यापारी विशेष धनसम्पन्न और उद्यमी थे । वे दूर २ देशोंमे व्यापार करने जाया करते थे । तथापि इसके अतिरिक्त इस कथासे यह भी स्पष्ट है कि उस समय भी जैनसिद्धातोका प्रचार विशेष था । रात्रिभोजनका त्याग जनीके बच्चे २को होता है । इस कथामे भी इस नियमका महत्व प्रगट किया गया है । सचमुच जैनधर्म बौद्धधर्मके स्थापित होनेके बहुत पहलेसे भारतवर्ष में चला आरहा था; जैसे कि हम अगाडी देखेंगे । यद्यपि यह बात आज सर्वमान्य है ।
उक्त जैनकथाके कथन की पुष्टि अन्य श्रोतोसे भी होती है । बौद्धोंके यहां भी एक कथामे विदेहको व्यापारका केन्द्र बताया गया है । वहा श्रावस्ती से विदेहको व्यापार निमित्त जाने हुये वनके मध्य एक व्यापारीकी गाडीका पहिया टूट जानेका उल्लेख है । प्राच्यविद्या विशारद स्व ० डॉ० हीस डेविड्स अपनी स्वतंत्र खोज द्वारा इस ओर विशेष प्रकाश डाल चुके हैं और उम सनय व्यापारकी अभिवृद्धिका जिकर करते हुये वे व्यापार के मुख्य मार्गोको इस प्रकार बतलाते हैं
3
Amy
(१) एक मार्ग तो उत्तरसे दक्षिण-पश्चिम की ओरको थाः जो श्रावस्ती से बहुत करके महाराष्ट्रकी राजधानी प्रतिष्ठान ( पेंडत ) तक गया था। इसमें व्यापारके मुख्यनगर दक्षिणकी ओरसे माहिस्सति, उज्जैनी, गोनद्ध, विदिशा, कौशाम्बी और साकेत पड़ते थे ।
१- अ हिस्ट्री ऑफ इन्डिया (तृतीयावृत्ति) पृ० ३१ । २-दी न्मिइन बुद्धिम इन्डिया पृ० १०६ । ३ - बुद्धिस्ट इन्डिया पृ० १०३ ॥
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उस समय की सुदशा ।
[ ४१
(२) दूसरा मार्ग उत्तर से दक्षिण पूर्व की ओरको था । यह श्रावस्ती से राजगृहको गया था । श्रावस्ती से चलकर इसपर मुख्य नगर सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, हत्थिगाम, भन्डगाम, वैशाली, पाटलीपुत्र और नालन्दा पड़ते थे । यह मार्ग शायद गया तक चला गया था और वहां पर यह एक अन्य मार्ग जो समुद्रतटसे आया था, उससे मिलगया था । यह मार्ग संभवत: ताम्रलिप्तिसे बनारस के लिये था ।
(३) तीसरा मार्ग पूर्व से पश्चिमको था । यह मुख्य मार्ग था और प्रायः बड़ी नदियोके किनारे २ गया था । इन नदियोंमें नावें किराये पर चलती थी । सेहजति, कौशाम्बी, चम्पा आदि सर्व ही मुख्य नगर इस मार्गमें आते थे ।
इस तरह ये व्यापारके विशेष प्रख्यात् मार्ग उस समय के थे । इनमे महाराष्ट्र तक ही सम्बन्ध बतलाया गया है । दक्षिण भारत के विषय में कुछ नही कहा गया है । पुरातत्वविदोका मत है कि उस जमाने में उत्तरभारतवालोको दक्षिणभारत के विषय में बहुत कम ज्ञान था - वे उसको 'दक्षिणपथ' कहकर छुट्टी पा लेने थे परन्तु जैनशास्त्र में हमे इस व्याख्याके विपरीत दर्शन होते है । वहा प्राचीनकालसे दक्षिण भारतका सम्बन्ध जैनधर्मसे बतलाया गया है । भगवान ऋषभदेवके पुत्र बाहुबलि दक्षिण भारत के ही राजा थे इस अपेक्षा जैनधर्मका अस्तित्व वहां वेदोके रचे नानेके पहले प्रतिभाषित होता है, क्योकि हिन्दुओके भागवनमें (अ० ५, ४-५-६ ) ऋषभदेवको आठवा और वामनको चारहवा अवतार पो १ - आदिपुराण पर्व ३४-३७ और धीर प
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४२ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
बतलाया है और वामनका उल्लेख वेदोंमे है । इस दृष्टिसे भगवान ऋषभदेवका अस्तित्व वेदोके पहलेका सिद्ध होता है । इन्हीं ऋषभदेव द्वारा इस युगमे पहले २ जैनधर्मका प्रचार हुआ था। अतएव जैनधर्मका प्रारम्भ भारतके एक गहरे इतिहासातीत कालमे होता है और इस अपेक्षा दक्षिण भारतका परिचय भी जैन शास्त्रोमें तबहीसे कराया गया है ।
भगवान् नेमिनाथनीके तीर्थमे हुये कामदेव नागकुमारकी कथामे भी हमको दक्षिण भारतका पता चलता है । यह उल्लेख भगवान् पार्श्वनाथ से भी पहलेका है | वहां कहा गया है कि पांडुदेशमे दक्षिणमथुराके राजा मेघवाहन रानी जयलक्ष्मीकी पुत्री श्रीमतीने प्रतिज्ञा की है कि जो कोई मुझे नृत्य करनेमे मृदंग वजाकर प्रसन्न करेगा, वही मेरा पति होगा । श्रीमतीकी प्रतिज्ञा सुनकर नागकुमारने दक्षिणमथुराको प्रस्थान किया था । मथुरा में पहुंचकर नृत्य समयमें श्रीमतीको मृदंग बजाकर प्रसन्न किया और अन्तमे उसके साथ विवाह करके वे सुखसे वही रहने लगे थे । यहासे नागकुमार समुद्रके मध्य अवस्थित तोपावलि द्वीपमें गए थे और वहांसे कांचीपुर नगरमें पहुंचकर वहाके राजा श्रीवर्माकी कन्यासे पाणिग्रहण किया था । काचीपुरसे कलिगदेशके दंतपुर नगरमें पहुंचे और फिर वे ऊड देशको गए थे । इस तरह वह दक्षिण भारत देशों में परिचित रीतिसे विचर रहे थे, यद्यपि वे स्वयं चम्पानगरके निवासी थे ।
१
इसी प्रकार 'चारुदत्त' की कथासे भी उस समयके भारतके १ - पुण्याश्रव कथाकोप पृ० १७५ | २ - पूर्व पृ० १७७
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उस समयकी सुदशा ।
[ ४३
व्यापारकी अभिवृद्धि और दक्षिणभारतका दिग्दर्शन स्पष्टरीतिसे होता है । कहा गया है कि जब चारुदत्तने अपना सब घन वेश्याको खिला दिया, तब वह अपने मामा के साथ धन लेकर चम्पासे उलूखदेश के उशिरावर्त नामक शहर मे पहुंचा था । यहांसे कपास खरीदकर वह ताम्रलिप्त नगरको संभवतः उपर्युल्लिखित दूसरे मार्ग से गया था । रास्ते में भयकर वनीमें आग लग जाने से इनकी सारी कपास नष्ट होगई थी । वहांसे यह पवनद्वीपको गए थे, परन्तु लौटते समय दुर्भाग्य से इनका जहाज नष्ट होगया और यह समुद्रके किनारे लगकर किसी तरह राजगृह पहुंचे। वहां एक उज्जैनीका वणिक्पुत्र इनको मिला था जिसने सिहलद्वीप में व्यापार निमित्त जाकर धन नष्ट कर आनेवाली अपनी दुःखभरी कहानी कही थी । यहांसे यह दोनों व्यक्ति रत्नद्वीपको धन कमानेके लिए चल पड़े थे । यहां इनको जैन मुनिका समागम हुआ था । यह सिहलद्वीप और रत्नद्वीप विद्वानोने लका बतलाये है । सिहल और रत्नद्वीप उसीके नाम थे । इस प्रकार इस कथा में भी दक्षिण भारतके लम्बे छोरतक व्यापारियों के जानेका उल्लेख हमें मिलता है ।
यह संभव है कि साधारण पाठक उपरोक्त जैन कथाओके कथनपर सहसा विश्वास न करे, परन्तु इसके लिए हम अन्य श्रोतों से भी इस बातको प्रमाणित करेंगे कि दक्षिणभारत मे जैनधर्मका अस्तित्व बहुत पहलेसे रहा है और जैनोको वहाका परिचय भी उतना ही पुराना है । प्रोफेसर एम० आर० रामास्वामी अय्यगरने राजावली कथेका विशेष अध्ययन किया है और उसके कथनको उन्होंने सत्य १ - आराधना कथाकोप भाग २ पृ० ८२-८६ ।
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४४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
2
भी पाया है । उसमे भी लिखा है कि विशाखमुनि (ईसा पूर्व तीसरी शताव्डि) ने चोल पाण्ड्य आदि देशोंमें विहार करके वहापर स्थित जैन चेत्योंकी वढना की थी और उपदेश दिया था । इसपर उक्त प्रोफेसर लिखते है कि इससे यह प्रकट है कि भद्रबाहु अर्थात् ईसा से पूर्व २९७ के बहुत पहले से ही जनलोग गहन दक्षिणमें आन बसे थे ।' और अगाडी चलकर आप बौद्धों के महावश नामक ग्रंथके आधार से कहते है कि लंका के राजा पान्डुगाभयने जब अपनी राजधानी ईसा से पूर्व करीव ४३७में अनुरद्धपुर बनाई थी तो वहां एक निगन्ध (जैन) उपासक 'गिरि' का भी गृह था और राजाने निगन्ध कुम्बन्धके लिए भी एक मंदिर बनवाना था। इससे लकामें जैन धर्मका अस्तित्व ईसा पूर्व पाचवी शताब्दिमें प्रो० साहब बतलाते है और इसके साथ ही दक्षिण भारत में भी, परन्तु यह समय इससे भी कुछ अधिक होना चाहिए क्योंकि इससमय ही यदि जैन लोग इन देशो में आए होते तो एक विदेशी राजा उनके प्रति इतना ध्यान नहीं देता । वह वहापर उसके बहुत पहले पहुचे होगे तत्र ही उनका प्रभाव वहा पर इतना जमा होगा कि वहाके राजाका भी ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ था । तिप्तपर इतना तो म्पष्ट ही है कि इन देशोंमें बसने के बहुत पहलेसे जनोका आना जाना यहा अवश्य होता रहा होगा, जैसे कि उपरोक्त जैन कथाओ से प्रकट है । चौद्धोंकि 'महावंश' से भी प्राचीन ग्रन्थ 'दीपवंग' में भी यह और
१- स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म भाग १ पृ० ३२ | २-मद्दात्रश पृ० ४९ । ३-स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म भाग १ पृ० ३३ !
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उस समयकी सुदशा। [४५ लिखा हुआ है कि वह जैन विहार जो लंकामे हुये पहलेके इक्कीस राजाओंके समयसे मौजूद था, राजा वत्तागामिनी (ई०से पूर्व ३८१०) द्वारा नष्ट कर दिया गया था। यह राजा नैनोसे रुष्ट होगया
और उसने उनके विहारको उजड़वा दिया । (दीपवंश १९-१४) इस उल्लेखसे लकासे जैनधर्मका प्राचीन सम्बंध प्रगट होता है । अत___ एव उपरोक्त कथाओंको हम विश्वसनीय पाते हैं।
इसप्रकार उस समयके भारतवर्षका व्यापार उन्नतशील अवस्थामें था । यहाके व्यापारी दूर दूर तक व्यापार करने जाते थे। जैन कथाओमें अनेको जैन वणिकोका जहाजद्वारा विदेशोंमें जाकर व्यापार करनेके उल्लेख मिलते हैं । ' पुरातत्वविदोने भी इस बातको स्वीकार किया है कि ईसासे पूर्व आठवीं शताव्दिसे भारत
और मेडेट्रेनियन समुद्रके देशोके मध्य व्यापार होता था । ' यह व्यापार आजकलके व्यापारियो जैसी कोरी दलाली अथवा धोखेबाजी नही थी। तबके व्यापारी आनसे कही इमानदार और संतोपी थे। वे भारतीय शिल्पको उन्नत करना अपना फर्ज समझते थे। कलतक इस देशका शिल्प भुवनविख्यात था। यही नहीं कि यह व्यापारी विदेशोमें जाकर केवल अपनी अर्थसिद्धिका ही ध्यान रखते हों, प्रत्युत हमें यह भी मालूम है कि इनके द्वारा भारतीय सभ्यताका प्रचार दूर२ देशों तक हुआ था। इस तरह यहांका व्यापार भगवान पार्श्वनाथके जन्म समय अपनी उन्नत दशामे था और यह
१-आराधना कथाकोप, पुण्याश्रव आदि ग्रन्थ । २-देखो पचानन मित्राकी ‘प्री-हिस्टॉरिकल इन्डिया' पृष्ठ ३३ । ३-भारत-भारती पृ० __ १०६-१०७ । ४-देखो 'प्री-हिस्टॉरिकल इन्डिया' पृ. २७-३३ ।
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४६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
मानी हुई बात है कि जिस देशका व्यापार अभिवृद्धिपर होगा वह देश अवश्य ही सम्पत्तिशाली होता है । इसी अनुरूप भारतकी आर्थिक अवस्था भी उस समय बहुत ऊंचे दर्जेकी थी। आजकलकी तरह वह दरिद्र नहीं था ।
भगवान पार्श्वनाथ से कुछ पहले जो जैनशास्त्रोमे बताए गए अतिम चक्रवर्ती सम्राट् ब्रह्मदत्त होगए थे, उनकी विभृतिका जो वर्णन जैन शास्त्रोमे दिया गया है, उससे भी यहांकी समृद्धशाली दशाका परिचय मिलता है । चक्रवर्ती सम्राट्की सम्पत्ति जैनशास्त्रों में इस तरह बतलाई गई है - उनकी सेनामें चौरासी लाख मदोद्धत हाथी, अठारह करोड़ तीक्ष्णवेगके धारक घोडे, चौरासी लाख सुदर रथ, और चौरासी करोड पयादे लिखे गए हैं । उनके आधीन बत्तीस हजार देश और छ्यानवें करोड गाव आदि बताए गए हैं। बत्तीस हजार राजा चक्रवर्तीकी सेवा करते है । इसी तरह और भी अनेक प्रकारकी उनकी सपदा बताई गई है । यह सब ही सम्राट् ब्रह्मदत्तके यहा मौजूद थी । इससे उस समयके विशेष सपत्तिशाली भारतवर्ष के स्पष्ट दर्शन होते है ।
इस तरह की सुखसम्पन्न दिशामें यहाके निवासियोंके दैनिक जीवन भी बडे सुखसे व्यतीत होते थे । आनन्दके साथ वह पेट भरकर बेफिकरीसे अपने परलोक साधनकी 'धुनमे रहते थे, परन्तु far वित्र लोगोंक प्रावल्याने वे बहुधा उनको पृजकर अथवा और तरहसे किया पूर्ति करके अपने कर्तव्यकी इतिश्री समझ लेते थे । शेष जीवनभर वह मजेदार सासारिक रंगरलिया किया करते थे । यातक कि ब्राह्मण ऋषि एवं अन्य परिव्राजक साधु आदि स्त्री
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उस समयकी सुदशा। [४७ संसर्गको बुरा नही समझते थे; जैसे कि हम अगाड़ी देखगे । सचमुच ब्रह्मचर्यकी महत्ता लोगोके दिलसे कम हो चली थी। इसके साथ ही लोगोंको अपनी जाति और कुलका बडा घमण्ड था। विप्रोंके प्राबल्यसे इतर वर्गों के लोगोंके मनुष्यके प्रारंभिक हक भी अपहरण कर लिये गये थे।
जैन शास्त्रोंके कथानक भी इन बातोकी पुष्टि करते हैं। सम्रा श्रेणिकके पुत्र अभयकुमारके पूर्वभव बतलाते हुए इस जातिमदका खुला विरोध ग्रन्थकारको करना पड़ा है। उस समय भी जैनी मौजूद थे, यद्यपि यह अवश्य था कि, उनमे भी समयानुसार शिथिलता प्रवेश कर गई थी। परन्तु वह अपने सम्यक्त्व-आप्त, आगम, पदार्थके स्वरूपके समझनेसे च्युत नहीं हुए थे, यह बात कुमार अभयके पूर्वभव कथनके निम्न अशसे स्पष्ट है। भगवान महावीरके समवशरणमे पूज्य गणधर इन्द्रभूति गौतमने इस सम्बधमे कहा थाः
पूर्व भवमे तू (अभयकुमार) एक ब्राह्मणका पुत्र था और वेद पढ़नेके लिये देश विदेशमें फिर रहा था। इसी भ्रमणमें तेरा साथ एक जैनी पथिकसे होगया था। देवमूढ़ता आदिको उसके सहवाससे तूने छोड़ दिया था । “तदनंतर वह जैनी उसकी जातिमूढ़ता ' दूर करनेके लिए कहने लगा कि गोमांस भक्षण तथा वेश्यादि सेवन, न करने योग्योंका सेवन करनेसे व्यक्ति क्षणभरमे पतित हो जाता है । इसके सिवाय इस शरीरमें वर्ण वा आकारसे कुछ भेद भी दिखाई नहीं पडता और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योंमे शूद्रोंसे भी
१-हमाग 'भगवान महावीर और म० बुद्ध' पृ. ४३ । २-उत्तरपुराग पृ० ६१५ ।
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४८] भगवान पार्श्वनाथ । गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है । इसलिए मनुप्रोमें गाय और घोड़ेके समान जातिका किया हुआ कुछ भेट नहीं है। यदि आलतिमें कुछ भेद हो तो जातिमें भी कुछ भेद कल्पना किया जामक्ता है ॥४९०-४९२॥ जिनकी जाति, गोत्र, कर्म आदि शुक्लध्यानके कारण है वे उत्तम तीन वर्ष कहलाते है और बाकी सब द्र कहलाते है ॥४९३॥ ... इस प्रकारके वचनों द्वारा उस श्रावकने जाति मृढता भी दूर की ।" (पं० लालारामजी द्वारा अनुवादित व प्रकाशित "उत्तरपुराण" पृष्ट ६२६-६२७)
इससे स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथके समयमें जाति मृढ़तामें पड़े हुये लोग ब्राह्मणपने और क्षत्रियपने आदिके नशेमे चूर थे। उनके इस मिथ्याशृद्धानको दूर करनेका प्रयत्न जेनी विद्वान किया करते थे । आजकल भी जातिमूटता भारतमे बढी हुई है। भारतीय नीच वर्णके मनुष्योंको मनुष्य तक नहीं समझते । उनको घृणाकी दृष्टि से देखते है । हत्माग्यसे आनके जैनी भी इसी प्रवृत्तिमे वहे जा रहे है । वह अपने प्राचीन पुरुषोंकी भाति भारतीयोकी इस जातिमूढताको मेटने में अग्रसर नहीं है । सचमुच प्राकृत रीतिसे ही
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१-तस्य पाखण्डिमौट्य च युक्तिभिः म निराकृत ।
गोमास भक्षणागम्यगमार्थ पतिते क्षणात् ॥ ४९० ॥ वर्णाकृत्यादि मेदाना देहेस्मिनच दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्रोद्यगर्भाधान प्रवर्तनात् ॥ ४९१ ।। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणा गवाश्ववत् । आकृति गृहणात्तस्मादन्यया परिकल्पते ॥ ४९२ ॥ जाति गोत्रादि कर्माणि शुक्रयानस्य हेतव. । येपुतेस्युत्नयो वर्ण शेपा अवाप्रकीर्तिता ॥४९॥इति गुणभट्टाचार्य ।।
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उस समयकी सुदशा। [४१ * जातिका मद करना वृथा है। ब्राह्मण जैसे उत्तम वर्णमे जन्म लेकर
भी अपने नीच आचार द्वारा एक व्यक्ति महापतित और नीच होता हुआ देखा जाता है । तथापि एक नीचवर्ण उच्चवर्णके साथ सम्बन्ध करके अपने आचरण सुधारता भी इसलोकमे दिखाई पड़ता है । यही बात एक अन्य जैनाचार्य स्पष्ट प्रकट करते हैं। अतएव जातिका घमण्ड किस विरतेपर किया जाय ! उप्त प्राचीनकालमें जातिमदका भूत लोगोंके सिरसे उतारनेका प्रयत्न नी करते थे
और उस समय भी यह मद लोगोको खूब चढ़ा हुआ था, यह बात जैन ग्रन्थोंके उक्त उद्धरणसे स्पष्ट है । ऐतिहासिक दृष्टिसे भी यह कथन सत्यको लिये हुए प्रगट होता है । म० बुडके समयका जो विवरण हमको मिलता है, उससे कुछ विभिन्न दशा कुछ वर्षों पहले नही होसक्ती है और वास्तवमे जो सामाजिक दशा म० बुद्धके समयमे बताई गई है वह, जरूर ही उस अवस्थाको क्रम १-एकोदूरात्यजतिमदिरा ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्र स्वयमहमितिस्नातिनित्यंतथैन । द्वावप्येतोयुगपदुदरानिर्गतौशूद्रिकाया शूद्रोसाक्षादपि
च चरतो जातिभेद भ्रमेण ॥ १ ॥३॥ -श्री अमितगतिः वर्तमानकालके दिग्गज विद्वान् स्याद्वादकेसरी, न्याय वाचस्पति स्व० पं. गोपालदासजी वरैयाने भी शास्त्राधारोसे यही मत प्रगट किया है । वे अपने एक लेखमें, जो 'जैनहितषी' भा० ७ अक ६ (वीर नि. सं० २४३७ ) में प्रगट हुआ है स्पट लिखते हैं कि, "ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णोके वनस्पतिभोजी आर्य मुनि धर्म तथा मोनके अधिकारी है म्लेच्छ और शब्द नहीं है . परन्तु म्लेच्छों और शूद्रोंके लिये भी सर्वमा मार्ग वन्द नहीं है । क्योंकि त्रस जीवोंकी सक्ल्पी हिंगासे आजीविकाका त्याग करनेसे कुछ कालमें म्लेन्छ आर्य होसत्ता है और शूद्रकी आजीविकाके परिवर्तनसे गद द्विज होसत्ता है । दयादि ।"
त्याहादकेसरी
अपने एक लेल याने भी
वैश्य इच्छ और अ। क्योंकि बस जय होता
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५०] भगवान पार्श्वनाथ ।। क्रमकर ही पहुची होगी। क्राति एकदम उठ खड़ी नहीं होती। जब मामाजिक अत्याचार चर्मसीमाको पहुंच जाता है, तब ही वहां क्रांतियां प्रगट होने लगती हैं । म० वुद्धके समयमें एक सामाजिक क्राति ही उपस्थित थी। इसलिए भगवान पार्श्वनाथके समयमें सामानिक अत्याचारोकी भरमार होना प्राकृत संगत है।
स्व०मि० दीसडेबेडिस साने वौद्धकालीन सामाजिक व्यवस्थापर प्रकाश डालते हुए लिखा था कि " ऊपरके तीनवर्ण मूलमें प्रायः एक हो रहे थे; क्योकि विप्र और क्षत्रियपुत्र एक तरहसे तीसरे वैश्य वर्णमेंके वह व्यक्ति थे जिन्होंने अपनेको सामाजिक वातावरणमें उच्चपद पर पहुचा दिया था। और यद्यपि जाहिरा यह कार्य कठिन था, तो भी यह संभव था कि ऐसे परिवर्तन होवें। साधारण स्थितिक मनुप्य गजपुत्र बन जाते थे और दोनो ही ब्राह्मण हो जाते थे। ग्रंथोमें इस प्रकारके अनेक उदाहरण मिलते हैं। सुतग ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं-स्वयं विप्रोंके क्रियाकाण्डके ग्रंथोमें-कि जिनमें हरप्रकारकी मामाजिक परिम्यतिके स्त्री पुरुषोंका परम्पर पाणिग्रहण हुआ हो । यह संवघ केवल उच्चवर्णी पुरुष और नीच न्यायोंके ही नहीं है, बल्कि विलकुल बरअक्स इसके अर्थात् नीच पुरष और उच्चवर्णी स्त्रीके विवाह संबंवके भी हैं।''
वान्तवम विवाह क्षत्र भी उस समय इतना सीमित नहीं था जितना कि थान वह सकीर्ण बना लिया गया है। आन तो अपनी
जानिमें भी नहीं, बल्कि वश्य जातिके भी नन्हें नन्हें टुकड़ोंमें ही र बटर दिया गया है। आज यदि कोई जनी अपने ही
-देनी बुदिस्ट टन्टिया पृट ....!
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उस समयकी सुदशा ।
[ ५१ समान अन्य साधर्मी और सजातीय अर्थात् वैश्यसे विवाह सम्बंध कर लेता है तो उसके इस कृत्यको कोई २ लोग बुरी निगाह से देखते हैं; परन्तु उस समय यह बात नही थी । विवाह क्षेत्र अपनी ही जाति या अपने ही साधर्मी भाइयोंमें ही नियमित नही था बल्कि शूदों और म्लेच्छों की कन्याओंसे भी विवाह किये जाते थे । तथापि ऐसे Į विवाहोंको करनेवाले लोग कभी भी नीची निगाहसे नही देखे जाते थे । सचमुच वे इतने पूज्य माने गए हैं कि आज भी हम उनके गुणगान शास्त्रोंमें सुनते हैं । इसलिए उस समय जातिका अभिमान विवाह करने में बाधक नहीं था । इसका यही कारण था कि उस समयके प्रधान मतावलम्बी विप्रोंने ब्रह्मचर्यपर विशेष जोर नहीं दिया था; जैसे कि हम अगाड़ी देखेंगे । हिन्दू और जैन ग्रन्थोके निम्न उदाहरण भी हमारी उक्त व्याख्या और विवाह क्षेत्रकी विशालताको प्रगट कर देते हैं ।
"मनुस्मृतिके ९ वें अध्यायमें दो श्लोक निम्नप्रकार पाये जाते हैं--- — अक्षमाला वसिष्ठेन सयुक्ताऽधमयोनिजा ।
शारङ्गी मन्दपालेन जगामाभ्यर्हणीयताम् ॥ एताश्चन्याश्च लोकेऽस्मिन्न पकृष्टप्रसूतय. । उत्कर्ष योषित प्राप्ता स्वेर्भट गुणै शुभे ॥ २४ ॥
" इन श्लोकोमे यह बतलाया गया है कि अधम योनिसे उत्पन्न हुई - निःकृष्ट (अछूत) जातिकी अक्षमाला नामकी स्त्री वशिष्ठ ऋषिसे और शारगी नामकी स्त्री मन्दपाल ऋषिके साथ विवाहित होनेपर पूज्यताको प्राप्त हुई । इनके सिवाय और भी दूसरी कितनी ही हीन जातियोंकी स्त्रियां उच्च जातियो के पुरुषो के साथ विवाहित होनेपर अपने २ भर्तारके शुभ गुणोके द्वारा इस लोकमे उत्कर्षको
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६२] भगवान पार्श्वनाथ । प्राप्त हुई और उन दूसरी स्त्रियोंके उदाहरणमें टीकाकार कुल्लूकभट्टजीने 'अन्याश्च सत्यवत्यादयो' इत्यादि रूपसे सत्यवतीके नामका उल्लेख किया है। यह सत्यवती हिन्दू शास्त्रोके अनुसार एक धींवरकीकैवर्त्य अथवा अन्त्वनकी कन्या थी। इसकी कुमारावस्थामें पाराशर ऋपिने इमसे भोग किया और उससे व्यासजी उत्पन्न हुए जो कानीन कहलाते हैं। वादको यह भीष्मके पिता राजा शान्तनुसे व्याही गई और इस विवाहसे विचित्रवीर्य नामका पुत्र उत्पन्न हुआ जिसे राजगद्दी मिली और जिसका विवाह राजा काशीराजकी पुत्रियोंसे हुआ। विचित्रवीर्यके मरनेपर उसकी विधवा स्त्रियोंसे व्यासजीने अपनी माता सत्यवतीकी अनुमतिसे भोग किया और पाण्डु तथा धृतराष्ट्र नामके पुत्र पैदा किये जिनसे पाण्डवों आदिकी उत्पत्ति हुई। .. एक और नमूना 'ययातिराजाका उगना ब्राह्मण (शुक्राचार्य) की देवयानी' कन्यासे विवाहका भी है । यथा -
तेपा यानि पत्राना विजिल वसुधानिमा । देवयानिमुगना सुता भार्गमवाय सः ॥
महामा० हरि० अ० ३० वा । "इसी विवाहमे 'यदु' पुत्रका होना भी माना गया है, जिससे बटुवंश चली ।" इस तरह पर हिन्दु शास्त्रों में हीन जातियों और शुद्रा स्त्रियों तकमे विवाह संबन्ध करनेके अनेकों उदाहरण मिलते. हैं; जो हमारे उपरोक्त कयनको स्पष्ट कर देते हैं। साथ ही जनशास्त्रोंने भी विवाह क्षेत्रकी विगालता बतानेवाले अनेकों उदाहरण मिलते हैं। यहा हम उनमें से केवल उनका ही उल्लेख करेंगे जो भग
१ विधान प्राम।
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उस समयकी सुदशा। वान पार्श्वनाथके समय अथवा उनसे पहलेके हैं। पहले ही तेईसर्वे तीर्थकर श्री नेमनाथजीके समयके वसुदेवनीको ले लीजिये। यह वसुदेवजी स्वयं क्षत्री थे, परन्तु इनने विश्वदेव नामक ब्राह्मणकी क्षत्रिय स्त्रीसे उत्पन्न सोमश्री नामक कन्यासे विवाह किया था। इसका उल्लेख श्री जिनसेनाचार्य प्रणित 'हरिवंशपुराण (२३३ सर्ग) मे इन श्लोकोंमें किया गया है:
"अन्वयेतत्तु जातेय क्षत्रियाया मुकन्यका । सोमश्रीरिति विख्याता विश्वदेव द्विजन्मिन ॥४९॥ कराल ब्रह्मदत्तेन मुनिना दिव्यचक्षुषा । वेदेजेतुः समादिष्टा महत सहचारिणी ॥ ५० ॥ इति श्रुत्वा तदाधीत्य सर्वान्वेदान्यदृत्तमा ।
जित्वा सोमश्रिय श्रीमानुपयेमे विधानतः ॥ ५१ ॥"
दूसरा उदाहरण श्रीकृष्णके भाई गजकुमारका है। श्रीकृष्णने इनका विवाह क्षत्रियराजाओंकी कन्याओंके अतिरिक्त सोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्री सोमासे भी किया था। इस घटनाका उल्लेख श्री जिनसेनाचार्य और ब्रह्मचारी जिनदास दोनोके ही हरिवंशपुराणमें मिलता है । ब्र० जिनदासजीके हरिवंशपुराणमें इस संबन्धका श्लोक यह है:
" मनोहरतरा कन्या सोमगर्माग्रजन्म ।
सोमाख्या वृत्तवाश्चक्री क्षत्रियाणा तथा परा ॥ ३४-२६॥" तीसरा उदाहरण ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीका है जो भगवान पार्श्वनाथके कुछ ही पहले हो गुजरे थे। इनकी ज्यानवे हजार रानियोंमेंसे अठारह हजार म्लेच्छकन्यायें भी थी। प्रत्येक चक्रवर्तीके
१. केम्ब्रिज हिस्ट्र आफ इन्डिया भाग १ पृ० १८० ।
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६४] भगवान पार्श्वनाथ । नियमानुसार ऐसी ही रानियां होती है। इसी समयके प्रसिद्ध राना नागकुमारका पहला विवाह एक वेश्याकी पुत्रियोंसे हुवा था। अस्तु:
जैन शास्त्रोके इन उदाहरणोसे भगवान पार्श्वनाथके जन्मकालमे जो सामाजिक उदारता इस भारत भूपर फैल रही थी और जो यहांपर विवाह करनेकी स्वतंत्रता थी, वह स्पष्ट प्रकट है। हत्भाग्यसे आज हम अपने प्राचीन पुरुषोंके जीवनचरित्रोसे अनभिज्ञ होकर अपने इतरवर्णी भाइयोको मनुष्य ही नहीं समझते हैं। हमारा सामाजिक जीवन बिल्कुल हेय और निकम्मा होगया है । पर भगवान पार्श्वनाथके समय यह वात नहीं थी: यद्यपि उस समय भी विप्रोंको अपने ब्राह्मणपनेका झुठा अभिमान था और अन्य लोगोंके धार्मिक अधिकार अझटमें पड़े हुये थेः जिनकी रक्षा करनेको ही मानो भगवान पार्श्वनाथका जन्म हुआ था।
इस प्रकार उस समयके एक तरहसे उदार सामाजिक जगतमें लोग अपने जीवन यापन कर रहे थे, परन्तु उनकी आत्मायें धार्मिक वातावरणके अप्राकृत रूपसे छटपटा रहीं थीं। उनको उस समयके धार्मिक नियमो और मान्यताओंसे वहत कम संतोष मिलता था, जिस कारण प्राय नए२ मंतव्य प्रगट होते जाते थे, जैसे कि हम अगाड़ी देखेंगे । सामाजिक जीवनके मुख्य अंग विवाह-प्रणालीके नियम उदार और आदर्श होनेपर भी लोगोंको ऊंच नीचका भेद अखर रहा था । वे विप्रोंके हाथके कठपुतले बना रहना ठीक नही समझते थे और स्वयं ही अपनी धार्मिक जिज्ञासाकी पूर्ति करनेके लिये शास्त्रोंका पठन पाठन करना और धार्मिक सिद्धांतोंपर
५. पार्श्वपुराण पृ. २७ । ' नागकुमार चरित्र पृ० १९ ।
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उस समयकी मुदशा। [५५ । गवेषणानय विवाद करना आवश्यक समझते थे । यही कारण है , कि भगवान पानायके उपरांत उस अशातिने एक क्रातिका रूप
धारण कर लिया था और उस समय हर प्रकारकी स्थितिके हजारो मनुभ्य-पुरुष और स्त्री समान रूपमे गृह त्यागकर सैद्धांतिक विवाद क्षेत्रम द पडने थे । ससारभरमें यह ममय अनोखा और अपूर्व था । भगवान पार्श्वनाथके उपदेशने उनको इतना साहस दे दिया था कि वे अपनेर मन्तव्योकी स्पष्ट रीतिसे घोषणा करने लगे थे। इसीलिए हमे बतलाया गया है कि उस ममय ये साधु लोग वर्षाऋतुको छोड़कर बाकी वर्षभर देगमें भ्रमण करके सैद्धातिक शास्त्रार्थ और वादमे समय व्यतीत करते थे। म० बुद्धने साधुओंके इस वादको वही हुई मात्राको, जितने कि एक 'अति' का रूप धारण कर लिया था, खुला विरोध किया था और सेद्धांतिक शास्त्रार्थको मनुष्य जन्मके उद्देश्यकी प्राप्तिमें बाधक माना था।
सेद्धान्तिक विवेचनाके इस बढ़ते हुए जमाने में संस्कृतकी उन्नति प्राय नही हुई थी; क्योकि इस समय तो धार्मिकक्षेत्रमे अपनी निज्ञासाओ अथवा सिद्धान्तोको लेकर एक मामूली ग्रामीण तक भी अगाड़ी आता था और वह स्वभावतः अपने मन्तव्योको उसी भाषामे प्रगट करता था जो वह अपने घरमें रोजमर्रा बोलता था। यही कारण है कि उस समयके प्रख्यात् मतप्रवर्तकोको अपने सिद्धान्तशास्त्रोंको उन प्राकृत भाषाओमें रचना पड़ा था, जो उनके धर्मके मुख्य स्थानोंमें प्रचलित थीं। इसी अनुरूप म० बुद्धने पाली
१-बुद्रिस्ट इन्डिया पृ. २४७ । २-हिस्टॉरीकल ग्लीनिजास पृ० ९ । 2-सुत्तनिपात (SBE) ८३० ।
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५६] भगवान पार्श्वनाथ। प्रारुतमें अपना उपदेश दिया था। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर स्वामीके गणघरोंने अईमागधी प्राकृतमें उनकी द्वादशांग वाणीकी रचना की थी तथापि मक्खालिगोशालके ग्रन्थोंकी भाषा एक अन्य ही प्राकृत थी। सचमुच उस समयको सर्वसाधारण लोगोकी दैनिक बोलाचालकी भाषा जिसको कि हरकोई सुगमताके साथ समझता था और जो पश्चिममे कुरुदेशसे लेकर पूर्व में मगध तक, उत्तरमें नेपालको तराईमे श्रावस्ती और कुशीनारा तक और दक्षिणमे एक ओरको उज्जैन तक वोली जाती थी, अवश्य ही सस्कृत नहीं थी। साहित्यक (elas-1cal) सस्कृतका जन्म भी शायद उस समय नहीं हुआ था। सुतरा एक तरहसे तक्षशिलासे लेकर चम्पा तक कोई भी संस्कृत नहीं बोलता था। केवल प्रारुन भाषाओकी ही प्रधानताथी, जोकि आजतक जैनधर्म और बौद्ध धर्मकी मुख्य भाषायें है।
उस समय जब कि भगवान पार्श्वनाथका जन्म होनेवाला था तब मनुप्योंमें केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही भेद थे। इनके अनेकानेक प्रभेद दिखाई नहीं पडते थे. जैसे कि आज एक एक वर्ण अथवा जाति अनेक उपजातियोमें घटी हुई दिखाई पड़ती है। उस समयके लोग इन चार वर्णोको संभाले हुए थे, परन्तु विप्रोंके जातिमदसे इनमें जो परिवर्तन उपरान्तको होने लगे थे, उनका दिग्दर्शन हम कर ही चुके है। वास्तवमें अपनी आजीविकाको बदल कर हरकोई अपना वर्ण परिवर्तन भी करसक्ता था। उस समयके लोग अपने दैनिक जीवन में नाम सज्ञा भी विविध
1-आजीविन्म भाग 1 पृ० ८.१२-बुद्धिस्ट इन्डिया पृ० १५ । 3-पत्र पुस्तक पृ० २११ ।
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उस समयकी सुदशा। [५७ रीतिसे रखते थे। बौद्धकालीन समयमें बिविध रीतिसे किसी व्यक्तिका नामोल्लेख भी होता था। स्वर्गीय मि० द्वीस डेविड्स इसके आठ भेद इस तरह बतलाते हैं:
"१-उपनाम-जो किसी व्यक्तिगत खासियतको लक्ष्य कर व्यवहारमें लाया जाता था। जैसे 'लम्बकण्ण' (लम्बे कानोंवाला) 'कूटदन्त' (निकले हुए दांतवाला), 'ओट्टाद्ध' (खरगोश जैसे होठोंवाला), 'अनाथ पिण्डक' (अनाथोंका मित्र), 'दारुपिट्टिक' (काठका कमण्डल रखनेवाला) इन सबका उपयोग मित्रभाव और बिलकुल छूटके साथ होता था । इस तरहके नाम इतने मिलते हैं कि हरकिसीका एक उपनाम होता था ऐसा भान होता है ।
"२- व्यक्तिगत नाम-जिसको पालीमे मूलनाम कहा गया है। इसमे किसी व्यक्तिगत ख सियतसे सम्बन्ध नहीं होता था। यह वैसा ही था जैसे आजकल हम सबके नाम होते हैं। इन नामोंमें कोई २ बड़े कठिन और विकत है, परन्तु शेष ऐसे हैं जिनके शुभ अर्थ लगाना सुगम है। उदाहरणके तौरपर देखिए 'तिस्स' यह इसी नामके भाग्यशाली तारेकी अपेक्षा है और भी देवदत्त, भद्दिय, नंद, आनन्द, अभय आदि उल्लेखित किए जासक्ते हैं।
"३-गोत्रका नाम-जिसको हम खानदानी अथवा इग्रेजीमें “सरनेम' ( Surname) कह सक्ते हैं। जैसे उपमन्न, कण्हायन, मोग्गलान, कस्सप, कोन्डण्ण, वासेट, वेस्सायन, भारद्वाज, वक्खायन।
"४-वंशका नाम-जो पालीमें 'कुलनाम' कहा गया है, जैसे सक, कालाम, बुलि, कोलिय, लिच्छवि, वजि, मल्ल आदि ।
"५-माताका नाम-जिप्तके साथ ‘पुत्त' लगा दिया जाता
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५८]
भगवान पार्श्वनाथ ।
भगवान था, जैसे सारीपुत्त, वैदेहीपुत्त ( अजातशत्रु मगधाधिपका दूसरा नाम), मौदिकपुत्त (-उपक), गोधिपुत्त (=देवदत्त)। परन्तु माता
और पिता अपने प्रख्यात् पुत्रकी अपेक्षा किसी नामसे परिचित प्रायः नहीं हए हैं। यदि किसीका पत्र प्रसिद्ध हआ भी तो उसके माता-पिता 'अमकके माता-पिताके रूपमें कहे गए हैं। तथापि पिताके नाम अपेक्षा भी पुत्रका नाम कभी नहीं रक्खा गया है । माताका नाम भी उसका खाप्त मूल नाम नहीं होता है, बल्कि वह उसके वंश या कुलका नाम होता है
"६-समाजमें प्रतिष्ठित पदकी अपेक्षा पड़ा हुआ नामअथवा सम्बोधित व्यक्तिके कर्मानुसार नाम । ऐसे नाम ब्राह्मण, गहपति, महाराज, आदि हैं।
"७-शिष्टाचार या विनयरूप सम्बोधन-जिसका सम्बंध संबोधित व्यक्तिसे तनिक भी नहीं हों, जैसेभन्ते, आवुसो, अय्ये आदि। ___"८-अन्ततः साधारण नाम-जो किसी व्यक्तिके सम्बोधन करने में व्यवहृत नहीं होता है, बल्कि मूल या गोत्रके नामके साथ जोड़ दिया अथवा अगाड़ी लिखा जाता है, जिससे उसी नामके एकसे अधिक मनुष्योका बोध होसके..... इन नामोंको किस ढंगसे कब व्यवहृत करना चाहिये, इसके लिए बतलाया गया है कि वरावर वालोंमें, जब उनमें मित्रताकी पूरी छूट न हो, उपनाम या मूल नामा व्यवहारमें लाना अशिष्ट समझा जाता था। वुद्ध ब्राह्मणोंको 'ब्राह्मण' नामसे उल्लेख करते हैं । परन्तु वह ही अन्य साधुओको 'परिवानक' न कहकर उनके गोत्र नामसे पुकारते हैं। सच्चक निगन्य (जैनी)को वह उसके गोत्र 'अग्गि वेस्सायन' के नामसे
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उस समयकी सुदशा। [५९ सम्बोधित करते हैं । गोत्र नामसे उल्लेख करनेकी प्रथा प्रायः बहु प्रचलित थी, परन्तु निगन्थों (जैन मुनियो)के निकट उसकी मनाई थी । (जेकोबी, 'जैनसूत्र' भाग २ पृष्ठ ३०५) वे अपने संघको ही गोत्र कहते थे । ( पूर्व ३२१-३२७ ) और जाहिरा किसी अन्य संघका अस्तित्व मानना सासारिक समझते थे । बुद्ध अपने सघके लोगोको मूल नामसे ही पुकारते थे । वस्तुतः उस समय' गोत्र नाम अन्य मूल नाम आदि सबसे विशेष गौरवशाली समझा जाता था।" +
यदि हम जैनशास्त्रोमे खोज करके देखें तो अवश्य ही उनमें भी सम्बोधनके उपरोक्त भेदोका परिचय अवश्य ही प्राप्त होजाता है । उदाहरणके तौरपर देखिये 'रक्तमुख' 'श्याममुख' आदि रूपसे 'उपनाम' का व्यवहार 'पद्मपुराण' में हुआ मिलता है । व्यक्तिगत नाम तो अनेको मिलते हैं-ऋषभ. भरत आदि यही मूल नाम है। गोत्र नामका व्यवहार भी जैन शास्त्रोमे होता हुआ मिलता है, जसे भगवान पार्श्वनाथ अपने गोत्रकी अपेक्षा 'काश्यपीय' इन्द्रभूति गणधर 'गौतम' और सुधर्माचार्य 'अग्निवैश्यायन' कहलाते थे । वश नामकी अपेक्षा स्वयं भगवान महावीर 'ज्ञातृपुत्र' के नामसे परिचित हुये थे । माताके नामसे भी विशेष व्यक्तियोकी प्रख्याति जनशास्त्रोमे की गई है, जैसे देरानन्दन (गांतिनाथ), वामेंय (पार्श्व नाथ) इत्यादि । समाज में प्रतिष्ठित पदकी अपेक्षा किसीका उल्लेख करना प्रायः बहु प्रचलित है। उत्तरपुराणमें अभयकुमारके पूर्वभव वर्णनमें ब्राह्मणपुत्र का उल्लेख इसी तरह हुआ है। शिष्टाचारके
'डायोलॉग्स ऑफ बुद्ध' मे महालि सुत्तकी भूमिका पृ० १९३-१९६ ।
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६०] भगवान पार्श्वनाथ । शब्दोका प्रयोग सदा सर्वदा होता रहा है । जैनशास्त्रोमें भी इसके अनेको उदाहरण मिल सक्ते है । यही दशा साधारण नामकी है । सारांशत जैन शास्त्रोंसे भी हमें उस समयकी दशाके खासे दर्शन होजाते है।
अब देखना यह रहा कि उस समयकी राजनैतिक दशा क्या थी ? इसके साथ ही 'धार्मिक परिस्थिति' का परिचय पाना भी जरूरी है, परन्तु हम उसका दिग्दर्शन एक स्वतंत्र परिच्छेदमें अगाडी करेंगे । अस्तु, यहापर केवल राजनेतिक अवस्थापर एक नजर और डालना बाकी है। जैन पुराणोंपर जब हम दृष्टि डालते हैं तो उस समय सर्वथा स्वाधीन सम्राटोंका अस्तित्व पाते हैं। -सार्वभौमिक सम्राट् ब्रह्मदत्त भगवान पार्श्वनाथके जन्मसे कुछ पहले यहा मौजूद थे। किंतु ऐसा मालूम होता है कि उनकी मृत्युके साथ ही देशमें उच्छवलताका दौरदौरा होगया था। छोटे छोटे राज्य स्वाधीन बन बैठे थे और विदेशी लोग भी आनकर जहां -तहा अपना अधिकार जमा लेने लगे थे। इस तरहकी राज्य व्यव-स्थामें ऐसे भी उल्लेख मिलते है जिनसे यह घोषित होता है कि जनता खास अवसरोपर स्वय एक योग्य व्यक्तिको अपना राजा चुन लेती थी। यह उपरान्तके प्रजसत्तात्मक राज्य जैसे लिच्छवि, मल्ल आदिका पूर्वरूप कहा जाय तो कुछ अनुचित नहीं है । जैन
१ उत्तरपुराण पृ० ५६४ और कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इन्डिया भाग १ पृ० १८० । • उपगन्तके नागकुमारचरित और करकण्डु चरित्र आदि ग्रयोके पढनेसे यही दशा प्रकट होती है । अनेक छोटे२ राज्य दिखाई पड़ते हैं और विद्याधरोंको आनकर यहापर राज्य करते बतलाया गया है। ३ दनपुरकी प्रजाने करकण्डुको अपनागना चुना था । करकण्डुचरित देखो।
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उस समयकी सुदशा ।
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दृष्टिसे जो यह हालत राज्यकीय क्षेत्र मे मिलती है, वह अन्यथा भी सिद्ध है । प्राचीनतम भारतीय मान्यता इस पक्ष मे है कि पहले एकव्यक्तिको जनता राजाके रूपमें चुन लेती थी और वह जनता के हित के लिये राज्य करता था । हिन्दुओ के महाभारतमे गना वेण और टयुकी कथासे यही प्रकट होता है ।" स्वयं ऋग्वेद मे 'समिति' और 'परिषद' शब्दोका उल्लेख मिलता है, जिसमें स्पष्ट है कि प्रजासत्तात्मक राज्यकी नीव वैदिककालमें ही पड़ चुकी थी ।' यद्यि मानना पड़ता है कि उस समयकी प्रजा स्वाधीन राजाओंके ही आधीन थी | जाहिरा ऋग्वेद में ऐसा कोई उल्लेख स्पष्ट रीतिसे नहीं है कि जिससे किसी अन्य प्रकारकी राज्य व्यवस्था अस्तित्त्व प्रमाणित होसके । ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर ' राजन् ' रूपमे एक नृपका उल्लेख मिलता है और यह राज्य प्रणाली अवश्य वशपरम्परामें क्रमशः चली आरही थी । राजा होना तब राजाओ का मौरूसी हक था, किन्तु वह पूर्ण स्वाधीन भी नहीं थे कि मनमाने अत्याचार कर सके, क्योकि ऐसा करनेमे उनके मार्ग समिति या सभा सदस्य आड़े आते थे । इस कारण यह मानना ही पडताहै कि प्रजासत्तात्मक राज्यके वीज भारतमें ऋग्वेद के जमाने से ही वो दिये गये थे । जैन शास्त्र भी सर्व प्रथम राजाओका साधारण जनतामेसे चुना जाना ही बतलाते हैं । अतएव इनमे कोई आश्चर्य नहीं, यदि भगवान पार्श्वनाथजी के समयमे भी दोनो -रहके राज्योंका अस्तित्त्व किसी न किसी रूप में मौजूद हो ।
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१. महाभारत शातिपर्व ६०१ ९४ । २. समक्षत्री ट्राइव्स ऑफ एन्शियेनृ इडिया पृ० ९९ | १ कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इन्डिया भाग १ पृ० ९४ । ४. आदिपुराण अ० १६।२४१-२७५ ।
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भगवान पार्श्वनाथ । बौद्ध साहित्यपर जब दृष्टि डाली जाती है तो वहांपर म० बुद्धके पहलेसे सोलह राज्योका अस्तित्त्व भारतवर्ष में मिलता है। बेशक म० बुद्धके जीवनकालमें भी इन सोलह राज्योंका और इनके साथ अन्य प्रजासत्तात्मक राजाओका अस्तित्व मिलता हैपरन्तु ऐसी बहुतसी बातें हैं जो इन सोलह राज्योंका अस्तित्व म० बुद्धसे पहलेका प्रमाणित करती है । म बुद्धके जीवनमें कौशलका अधिकार काशीपर होगया था; अङ्गपर मगधाधिपने अधिकार जमा लिया था और अस्सक लोग संभवत. अवन्तीके आधीन होगये थे, कितु उपरोक्त सोलह राज्योमें ये तीनो ही देश स्वाधीन लिखे गये हैं। इसीलिए इनका अस्तित्व बौद्ध धर्मकी उत्पत्तिके पहलेसे मानना ही ठीक है । यह वात दीघनिकाय (२-२३५) और महावस्तु (३ ॥ २०८-२०९)के उल्लेखोंसे मी प्रमाणित हैजिनमें बौद्ध धर्मके पहले केवल सात मुख्य देशों अर्थात् (१) कलिग, (२) अस्सक, (३) अवन्ती. (४) सौवीर, (५) विदेह, (६) अङ्ग और (७) कागीका नामोल्लेख है । इसमें भी कलिङ्गके साथ अस्सक, अङ्ग
और काशीका उल्लेख स्वतंत्र रूपमे है । इस अवस्थामें कहना होगा कि भगवान पार्श्वनाथजीके समयसे ही सोलहराज्योका अस्तित्व भारतमें मौजूद था।
इस प्रकारकी राजव्यवस्थाके दर्शन हमे भगवान पार्श्वनाथके समयमें होते है और उस समयकी सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितिका दिग्दर्शन करके आइए पाठकगण, एक नजर तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति पर भी डाल लें।
१ कम्बिज हिस्ट्री ऑफ इन्डिया भाग १ पृ० १७ ।
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति ।
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति ! " कश्चिद्विप्रसुतो वेदाभ्यास हेतोः परिभ्रमन । देशांतराणि पाखंडिदेवतातीर्थजातिभिः || ४६६ ॥ लोकेन च विमुह्याकुलीभूतस्तत्प्रशंसन । तदाचारितमत्त्युच्चैरनुतिष्ठन्नयेच्छया || ४६७ || "
- उत्तरपुराण । एक मनुष्य आकुल व्याकुल हुआ दृष्टि पड रहा है । कपिरोमा बेलके पत्ते अब भी उसके हाथमें है । वह रह रहकर अपने सारे शरीरको खुजालता है । खुजलीके मारे वह घबड़ाया हुआ है । देखने में सुडौल - सौम्य - युवा है । उसका उन्नत भाल चन्दन चर्चित है । सचमुच ही वह एक ब्राह्मण पुत्र है, परन्तु इसतरह यह बावला क्यों बन रहा है ? कपिरोमा बेलके पत्ते इसके हाथमें क्यों है ? रहरहकर अपनी देहको वह क्यो खुजला रहा है और खिजाई हुई दृष्टिसे वह अपने साथीकी ओर क्यो घूर रहा है ?
इन सब प्रश्नोका ठीक उत्तर पानेके लिये, पाठकगण जरा भगवान महावीरजीके समवशरणके दृश्यका अनुभव कीजिए । अनुपम गंधकुटीमें सर्वज्ञ भगवान अंतरीक्ष विराजमान थे । मृर्त, भविष्यत्, वर्तमानका चराचर ज्ञान उनको हस्तामलकवत् दर्शता था । सामने रक्खे हुये दर्पणमें ज्यो प्रतिबिम्ध साफ दिखाई पड़ता है उसी तरह परमहितू - रागद्वेष रहित - वीतराग भगवान के ज्ञानरूपी दर्पण में तीनो लोकका त्रिकालवर्ती विम्ब स्पष्ट नजर पड़ रहा था ! कोई बात ऐसी न थी जो वहां शेष रही हो । उन
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६४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
परमयोगी - साक्षात् परमात्माके निकट सब जीव मोदभावको धारण किये हुये बैठे थे । देव, मनुष्य, तिथेच सत्र ही वहांपर तिष्ठे भगवानके उपदेशको सुनकर अपना आत्मकल्याण कर रहे थे । भगवान के मुख्य शिष्य-प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम एवं अन्य मुनिराज और आर्यिकाएँ भी वहां विराजमान थे । मनुष्योंके कोठेमें उस समयके प्रख्यात् सम्राट् श्रेणिक विम्वसार भी बैठे हुये थे । उनके निकट उनका विद्वान् और यशस्वी पुत्र अभयकुमार बैठा हुआ था ।
यही सुंदर राजकुमार विनम्र हो खड़ा होगया है - परमगुरुको नमस्कार करके दोनो करोंको जोडे हुये निवेदन कर रहा है । वह अपने पूर्वभवोंको जाननेका इच्छुक है । यागंभीर गणधर महाराज भी इसके अनुग्रहको न टाल सके । वे भगवान महावीरकी दिव्यवाणी के अनुरूप कहने लगे कि " इससे तीसरे भवमें तू भव्य होकर भी बुद्धिहीन था । व किमी ब्राह्मणका पुत्र था और वेद पढ़नेके लिए अनेक देशोंने इधर उधर घूमता फिरता था । पाखंडमृता, देवता, तीर्थमृता और जातिमृतासे सबको विमोहित पर बहुत ही याकुलित होना था तथा उन्हीं की प्रशंसा के लिये उन्हीं कामोंको अच्छी तरह करता था । किसी एक समय वह दूसरी जगह जा रहा था । उसके नागमें कोई जैनी पथिक भी जा रहा था । नामें पत्रके पास एक भूतोका निवासस्थान पेड था | उसके समीप जा और उसे अपना देव समझकर बड़ी भक्ति उस ब्रह्मपुत्रने उपने प्रदक्षिणा दी और प्रज्ञान दिया । उसकी इस नेटा देख हमने लगा । तथा उसकी
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति ।
[ ६५ अवज्ञा करने के लिए उस वृक्षके कुछ पत्ते तोड़कर मींडकर अपने परकी धूलसे लगा लिये और उस ब्राह्मणसे कहा कि देख, तेरा देव जैनियोका अनिष्ट करने में बिल्कुल समर्थ नही है । इसके उत्तर में उस ब्राह्मणने कहा कि अच्छा ऐसा ही सही, इसमें हानि ही क्या है ? मैं भी तेरे देवका तिरस्कार कर सकता हू | इस विषय में तु मेरा गुरु ही सही ! इसतरह कहकर वे दोनो एक देशमे जा पहुंचे। वहां पर कपिरोमा नामकी वेलके बहुतसे वृक्ष थे । उन्हें देखकर वह श्रावक कहने लगा कि देखो यह हमारा देव है और यह कहकर उसने वडी भक्ति से प्रदक्षिणा दी और नमस्कार कर अलग खड़ा होगया । वह ब्राह्मण पहले से क्रोध करही रहा था, इसलिए उसने भी हाथ से उसके पत्ते तोड़े और मसलकर सब जगह, लगा दिये, परन्तु वे खुजली करनेवाले पत्ते थे इसलिये लगाते ही उसे असह्य खुजलीकी बाधा होने लगी तथा वह डर गया और श्रावकसे कहने लगा कि इसमें अवश्य ही तेरा देव है । तब हंसता हुआ श्रावक कहने लगा कि इस ससारमे जीवोको सुखदुखका देनेवाला पहिले किये हुये कर्मोंके सिवाय और कुछ नहीं है - कर्म ही इसके मूलकारण है । इसलिये तप, दान, आदि सत्कार्यों द्वारा तू अपना कल्याण करनेके लिए प्रयत्न कर और इस प्रकार की देवमृदताको कि देवता ही सब करते है निकाल फेंक । वादको वह फिर कहने लगा कि जो मनुष्य पुण्यवान हैं उनके देवलोग स्वयं आकर सहायक होजाते है । पुण्यरूपी कणके रहते हुये देव कुछ हानि नही कर सक्ते । इस प्रकार समझाकर अनुक्रम से उसकी देवमूढता दूर की । "
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१ - श्री गुणाभद्राचार्य प्रणीत ' उत्तरपुराण" का प० लालाराम कृन हिन्दी
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पाठ
६.] भगवान पार्श्वनाथ ।
पाठकगण, जिस व्यक्ति के विषयमें हम प्रारम्ममें कितने ही प्रश्न कर आए हैं, उसका सम्बन्ध गणधर भगवान द्वारा बतलाई गई उक्त घटनासे है। भगवान महावीरस्वामीके समयके अभयकुमारका जीव ही अपने पहले के तीसरे भवमें ब्राह्मणपुत्र था। उसीका उल्लेख हम ऊपर कर याए है। अमयकुमारका यह तीसरा मव भगवान पाश्चनाथके जन्मकालसे पहले हुआ समझना चाहियेः क्योंकि ब्राह्मणभवसे वह स्वर्ग गया था और स्वर्गसे आकर अभयकुमार हुआ था । इस प्रकार अभयकुमारके उपरोक्त पूर्वभव वर्णनमें हमें भग
अनुवादने । मूल भोक परिन्छेहरे प्रारभमें दिये हुओंगे छोडकर इस प्रकार हैं
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [६७ वान पार्श्वनाथके समय, बल्कि उसके पहलेसे स्थित धार्मिक वातावरणके दर्शन होते है। इसी महत्वको दृष्टिकोण करके यह कथा यहांपर दी गई है। इस कथाके अबतकके वर्णनसे यह स्पष्ट है कि उस समय देवमूढ़ता, तीर्थमूढ़ता आदिका विशेष प्रचार था। दूसरे शब्दोमें ब्राह्मण लोगोका प्रावल्य अधिक था । देवमूढता यहांतक बढी हुई थी कि लोग भूत, यक्षादिका वास पेडोपर मानकर उनकी पूजा करते थे, उनको अपना देव मानते थे । यही कारण है कि उक्त कथामें श्रावकके कपिरोमा वेलको अपना देव बतानेपर ब्राझ'णपुत्रने कुछ भी आगापीछा न सोचा और उसके कहनेपर विश्वास कर लिया ! साथ ही वेदानुयायियोंने जो देव-ईश्वरको सुखदुखका दाता घोषित किया था, उसका भी इस समय प्रचार था, यह भी इस कथासे स्पष्ट है।
सभव है कतिपय पाठकगण, जैन कथाके उक्त विवरणको विश्वासभरे नेत्रोसे न देखें, उनके लिये हम अन्य श्रोतोंसे जेनकथाके विवरणकी स्पष्टवादिताको प्रकट करेंगे । बौद्ध श्रोतोका अध्ययन करके स्व० मि० बीस डेविड्म इसी निष्कर्षको पहुंचे थे कि बुद्धके समयमें पहलेसे चली आई हुई पेडोंकी पूजा भी प्रचलित थी। उन्ही पेडोंके नामके चैत्य आदि भी बने हुये थे। एक अन्य विद्वान् भगवान महावीर और म० बुद्धके समयकी धार्मिक स्थितिके विषयमे लिखते हुए लिखते हैं कि “पहले यहां एक प्राकृ
१-बुद्धिस्ट इन्डिया और 'डॉयलॉग्स ऑफ दी बुद्ध' भाग २ पृ० ११० फुटनोट तथा मि० आर० पी० चन्दाकी मेडीविल स्कल्पचर इन इंस्टन, इन्डिया, Cal Univ. Journal (Arts), Vol. III.
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भगवान पार्श्वनाथ । तिक धर्म था जो बादमें हिन्दूधर्म या ब्राह्मण धर्मके नामसे ज्ञात हुआ । इस धर्ममें बहुत प्राचीन मनुप्योकी मानतायें. पित्रजनोंकी पूजा, क्रियाकाड, प्रचलित पौराणिक वाद आदि गर्मित थे । यह बिल्कुल ही प्रकृति (Nature) की पूनाका धर्म था । और जबतक मनुप्य चुपचाप प्राचीन रीतियोंको मानते हुए रहे तबतक इस वातकी क्रिप्तीको फिकर ही न हुई कि सैद्धान्तिक मन्तव्य किसके क्या हैं ? "' इसतरह इससे भी यह बात प्रकट है कि पहले यहां वृक्ष जल आदि प्राकृतिक वस्तुओं की पूजा भी प्रचलित थी। परन्तु तत्र यहां क्या केवल यही एक धर्म था, इसके लिए इस उक्त विद्वानके कथनको नजरमें रखते हुए हम अगाडी विवेचन करेंगे। यहांपर उपरोक्त जन कथाके शेष भागको देखकर हम उस समयके धार्मिक वातावरणके जो और दर्शन होने है, वह देख लेना उचित सगझते हैं।
उक्त जन कथामे अगाड़ी कहा गया है कि " वह श्रावक उस ब्राह्मणके साथ गगानदीके किनारे गया । भूख लगनेपर उस नदीके जलको मणिगगा नामका उत्तम तीर्थ समझकर स्नान किया और इसतरह तीर्थमूढताका काम किया। तदनतर जब वह ब्राह्मण खानेकी इच्छा करने लगा तब आवकने पहले खाकर उस बचे हुये उच्छिष्ट भोजनमे गगानदीका वही पानी मिलाकर उस ब्राह्मणको दिया और हित बतलाने के लिये कहा कि गगाका जल मिलजानेसे यह भोजन पवित्र है इसे खाओ। उसे देखकर वह ब्राह्मण कहने लगा कि तेरा उच्छिष्ट भोजन मे कसे खाऊ, तब उस श्रावकने
१-दी हिन्दी ऑफ प्री-बुद्धिस्टिक इन्टियन फिलासफी पृ० १६५
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [६९ कहा कि न जो इसतरह कह रहा है सो तुझे क्या मालम नहीं है कि इममें गंगाका जल मिला हुमा है। यदि यह गगाजल इस भोजनके उच्छिष्ट दोषको भी दूर नहीं कर सक्ता तो फिर इन तीर्थोके जलसे पापरूपी मल किसतरह दूर होसक्ता है । इसलिये तु अपने मृद चित्तसे इन निर्मल विचारोको निकाल दे। यदि जलसे ही बुरी वासनाओके पाप दूर होजाय तो फिर तप दान आदि अनुष्ठानोंका करना व्यर्थ ही होजायगा | सबलोग जलसे ही पाप दूर कर लिया करें क्योकि जल सब जगह सुलभ रीतिसे मिलता है । मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कपाय इससे पापकर्मोका बंध होता है और सम्यक्त्व ज्ञान. चारित्र तपसे पुण्य कर्मोका वध होता है । तथा अंतमे इन्हीं चागेसे मोक्ष होती है । इसलिये अब तृ श्री जिनेन्द्रदेवका मत स्वीकार कर," इसप्रकार श्रावकने कहा।
उस श्रावकका यह उपदेश सुनकर उस ब्राह्मणने तीर्थमूढ़ता भी छोड़ दी। इसके बाद वहीपर एक, तपस्वी पांच अग्नियोके मध्यमें बैठकर दुःस्सह तप कर रहा था। जलती हुई अग्निमे छहों प्रकारके जीवोंका निरंतर घात होरहा था और वह प्रत्यक्ष जान पड़ता था । उस श्रावकने उस तपस्वीको माननेकी पाखडि मूढता भी बड़ी युक्तियोसे दूर की। इसके बाद वह श्रावक फिर कहने लगा 'कि इस वटवृक्षपर कुवेर रहता है, ऐसी बातोंपर श्रद्धान रखकर राजालोग भी उसके योग्य आचरण करने लग जाते हैं अर्थात् पूजने लग जाते हैं। क्या वे जानते नही कि लोकका यह बड़ा भारी प्रसिद्ध हुआ मार्ग छोड़ा नहीं जा सकता' इत्यादि ऐसे लोकप्रसिद्ध बचनोको कभी ग्रहण नही करना चाहिए क्योंकि ऐसे
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७२] भगवान पार्श्वनाथ ।। हमें यथार्थताको लिए हुए प्रकट होती है | जब हम देखते हैं कि भगवान महावीर अथवा म० बुद्धके जन्मकालमें बहुतसे यक्षमंदिर आदि मौजूद थे । वैशालीके आसपास ऐसे कितने ही चैत्यमदिर थे । यह चत्य चापाल, सप्ताम्रक, बहुपुत्र, गौतम, कपिनह्य, मर्कटहृढ़तीर आदि नामसे विख्यात थे। बौद्ध लेखक बुद्धघोष अपनी 'महापरिनिव्वाण सुत्तन्तकी टीकामें 'चत्यानि'को 'यनचेत्यानि' रूपमें बतलाते हैं । और 'सारन्ददचेत्य के विषयमें कहते हैं, जहा कि बुद्धने धर्मोपदेश दिया था, कि 'यह वह विहार था जो यक्ष सारन्दरके पुराने मदिरके उजडे स्थानर बनाया गया था। इसतरह उस समय यक्षादिकी पूजाका प्रचलित होना भी स्पष्ट व्यक्त है। लिच्छवि क्षत्रिय राजकुमारोंके इननी मान्यता थी, यह भी प्रकट है। अब रही बात हेतुबादने आप्तको मिद्धि करनेकी मो यह भी बौद्ध शास्त्रोंसे प्रमाणित है कि उस समय ऐसे माधुलोग विद्यमान थे जो हेत्वादसे अपने मन्तव्योंकी सिद्धि करते थे और वर्ष मरमें अधिक दिन बाद करने में ही विताते थे। इसप्रकार उप
लिखितजन याद्वारा जो भगवान पार्श्वनाथके समयके धार्मिक वातावरणका परिचय हमें मिलता है, वह प्राय ठीक हो विदित होता है और हमें उस समयकी वार्मिक पगिम्यतिके करीव२ स्पष्ट दगंन होमाने हैं। हम धार्मिक स्थिनिका दर्शन करते हुए आइए
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [७३ पाठकगण इससे पूर्वकी धार्मिक दशाका भी परिचय प्राप्त करलें जिससे इसका और भी स्पष्ट दृश्य प्रगट होजाय और पूर्वोल्लिखित विद्वानके वर्णनक्रमका दिग्दर्शन प्राप्त होजाय ।।
डॉ० वेनीमाधव बालआने अपनी 'ए हिस्ट्री आफ प्री-बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी' नामक पुस्तकमें हमे भारतके धार्मिक विकाशका अच्छा दिग्दर्शन कराया है। आपने पहले ही वेदोके ऋषियोंको प्राकृत-धर्म (Natural) निरूपण करनेवाला वतलाया है और आपकी दृष्टिकोणसे वह प्रायः ठीक है। परन्तु यदि हम वेदोके मंत्रोको शव्दार्थमे ग्रहण न करें और उन्हें अलकृत भाषाके आत्मा संबधी राग ही मानें, तो भी उनका अर्थ और अधिक स्पष्टतःसे ठोक बैठ जाता है । यह वैदिक ऋषिगण 'कवि' नामसे परिचित मी हुए हैं। तथापि यह भी स्पष्ट है कि प्राचीन भारतमें अलकृत भाषाका व्यवहार होता था। और हिन्दुओके वेद उस भाषासे अलग किसी दूसरी भाषामें नहीं लिखे गये है। इस दशामें उनको शब्दार्थमे ग्रहण करना कुछ ठीक नहीं जंचता है । जैन शालोमें यह स्वीकार किया गया है कि स्वयं भगवान ऋषभदेवके ममयसे ही पाखण्डमतोकी उत्पत्ति मारीचि द्वारा होगई थी। और इधर वेद भी इस बातको स्वीकार करते हैं कि उनके
१-ऋग्वेद १११६४, १०।१२९.४ । २-हिन्दी विश्वकोष भाग १ 'पृष्ठ ३०-६७ । ३-मि० एयग्ने अपनी “दी परमानेन्ट हिस्ट्री आफै भारतवर्ष में यही व्यक्त किया है तथापि वि०वा. प० चम्पतरायजीने 'असहमतसगम' आदि ग्रथोंमें यही प्रकट किया है । स्वय हिन्दू ऋषि 'आत्मरामायण' के कर्त्ताने भी इस व्याख्याको स्पष्ट कर दिया है। ये ग्रंथ देखना चाहिए। ४-आदिपुराण पर्व १८-15-२० । ३-२१७ । - ।
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__७४] भगवान पार्श्वनाथ । साथ २ उनका विरोधी मत भी कोई मौजूद था। अतएव वेदोंको शब्दार्थमें ग्रहण करके और फिर उनसे ही उपरान्त जैन, बौद्ध आदि धर्मोकी उत्पत्ति मानना कुछ ठीक नहीं जंचता है । जबकि जनधर्म हिन्दूधर्मके समान ही प्राचीनतम धर्म होनेका दावा करता है, निमका समर्थन हिन्दूओंके पुराण ग्रंथ भी करते हैं। 'तिसपर स्वयं ऋग्वेदमें जो 'प्रजापति परमेटिन्' के मन्तव्योंका विवेचन किया गया है, उनसे इम विषयकी पुष्टि होती प्रतीत होती है, यदि हम उन्हें शब्दार्थमें ग्रहण न करें। परमेष्टिनकी मान्यता
घरूप (Dynamistic) और संगयात्मक (Sceptic) कही गई है। इसी तरह भगवान महावीरके धर्मको भी द्वैधरूप (Dynamistic) और स्याहादात्मक कहा है जो परमेष्टिनकी मान्यतासे मादृश्यता रखता है । तिसपर स्वयं 'परमेष्टिन् मन ही खास जैनियोंका है । जैनधर्मके पुज्य देव-अरहंत. सिद्ध, आचार्य. उपाव्याय, मावु-पंच ‘परमेष्टी' के नामसे विख्यात हैं । इतर धर्मोमें इम शनका व्यवहार इस तरहसे क्रिया हुआ प्राय. नहीं ही मिलन है । इस कारण संभव है कि जैनधर्मके सिद्धान्तको व्यक्त करनेके लिए अथवा उसी ढंगको बतानेके वास्ते 'प्रजापति परमेष्टी के मंत्रों मनावेग ऋग्वेदमें किया गया है । 'प्रजापति शडसे यदि न्यवं भगवान ऋपमदेवका अभिप्राय हो तोमी कुल आश्चर्य नहीं है. क्योंकि मयुगके प्रारम्भमें प्रनाकी सृष्टि करने और उसकी रक्षाके उपाय बताने की अपेक्षा वे 'प्रजापति नानसे मी उल्लिखित हुए है।
1- 010-भागवत ५। ८,५३, तथा विष्णुपुगन ५० १०८।:-T, हिल्टी लॉग ग्री-अद्विस्टिक इन्टियन फ्लिॉपफी १०१५। - पट । -जिनसहनान ७.२ ओ..।
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [७५ इसतरह जाहिरा हमें इन मंत्रोंसे जैनधर्मका संबंध झलक जाता है।
अब जरा इनके मंत्रोंको भावार्थमें ग्रहण करके देख लीजिए कि वह क्या बतलाते हैं ? इनके मन्तव्य ऋग्वेद मंत्र १०।१२९ मे दिये हुये हैं । पर हम यहांपर मि० बारुआके उल्लेखोके अनुसार विचार करेंगे। सबसे ही पहले परमेष्टिन्ने जो · सिद्धान्त ' ( Philosophy ) का स्वरूप बतलाया है, वह दृष्टव्य है । वे कहते हैं कि 'सिद्धान्त कवियोंकी आभ्यन्तरिक खोजका परिणाम है जो वे सत्तात्मक और असत्तात्मक वस्तुओंके पारस्परिक सम्बन्धको अपने विचार द्वारा जाननेके लिये करते हैं।" जैनधर्ममें भी सिद्धान्तके स्वरूपको ऐसे ही स्वीकार किया गया है। वहां सिद्धान्तकी उत्पत्ति ऋषभदेव द्वारा ध्यानमग्न होकर विचार-तारतम्यकी परमोच्च सीमामे-केवली दशामें पहुंच करके होने का उल्लेख है। वहां सिद्धान्तको किसी परोक्ष ईश्वर आदिकी कृति नहीं मानी है, बल्कि यही कहा है कि मनुष्य जब ध्यानद्वारा अपनी विचार-दृष्टिको बिल्कुल निर्मल बना लेता है तब उसके द्वारा सैद्धान्तिक विवेचन प्राकृतरूपमें होता है। परमेष्टिनका भी भाव यही है; यद्यपि वह पूर्ण स्पष्ट नहीं है।
प्रजापति परमेष्टिनके समयमें कहा गया है कि दो तरहके.
1-प्री-बुद्धिस्टिक इन्ड० फिला० पृष्ट ६-" Prajapati Farmesthin seems to speak of philosophy as search carried on by the Poets within their herit 102 discovering in the light of their thoughi the relation of existing things to the non-evatent. (hig. X. 192, 4 सतोवघृन असति ).
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७६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
मत प्रचलित थे । एकका कहना था कि 'व्यक्ति' (Being) की उत्पत्ति ‘अ–व्यक्ति' (Non - Being ) में से हुई है । दूसरा कहता 'था कि 'व्यक्ति' (Being) व्यक्तिमें से ही उत्पन्न होसक्ता है । इन दोनोंके वीचमे प्रजापतिने मध्यका मार्ग ग्रहण किया था, यह कहा गया । उनके निकट 'मुख्य वस्तु' का समावेश न व्यक्तिमें था और न अव्यक्ति में | ( For him the original matter comes neither under the definition of Being nol that of non-B ing ) प्रजापतिने समझानेके लिए पानी (सलिल) को मुख्य माना था । उनका कहना था कि पानीसे ही सब वस्तुए बनी है, सब सत्तात्मक वस्तुओकी मूल द्रव्य पानी है। इसके अगाडी उन्होंने और कुछ न बतलाया और इसी अपेक्षा उनका मत संशयात्मक माना गया है । उनके निकट गहन - गंभीर पानी ही सब कुछ था और वह भी क्या था ? वह एक वस्तु थी जो स्वास रहित पर अपने ही स्वभावमें स्वासपूर्ण थी । ( आनीदवात स्वघयातढ एकम्, तस्माद्धान्यन् न पर किञ्चन नास " ) * वह अमूर्ति भी थी । (ऋग्वेद १०।१२९, ९) अंधकार ( तमस) मी था और इस तमस - अधकार में पहले 'पानी' अपने अव्यक्तरूप ( अप्रतम् ) मे छुपा हुआ था । पानी ही वह था जो सत्तामें था । (सर्वम इद | ) " पानी यहापर सिवाय आत्मद्रव्यके और कुछ न था । संसारमें आत्माको 'पानी' के नामसे सज्ञित करना ठीक भी
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१-१ हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्ध० इन्ड० फिटा० पृष्ठ १२ । २ - पूर्व प्रमाण । ३. पूर्व पृ० १२ ४ पूर्व पृ० १३ - “ Water was that one thing, bic athless, breathed by its own nature. ५ - पूर्व पृष्ठ १३॥
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [७७ क्योंकि पानी एक मिश्रितरूप है और संसारमे आत्मा भी अज्ञानसे वेष्टित संयुक्तावस्थामें है यद्यपि मूलमे वह अपने स्वभाव कर ही जीवित है अर्थात् अपने स्वभावसे वह अब भी च्युत नहीं हुआ है । और अमूर्तीक ही है । वही अपना सप्तार अपने आप बनाता है इस कारण सब वस्तुओका तो भी वही है । इसप्रकार प्रजापति परमेष्ठिन्के मन्तव्यको हम भावार्थरूपमें प्राय जैनधर्मके समान हो पाते है । वल्कि जिनसेनाचार्यजी कृत 'जिनसहस्रनाम' मे भग. वान ऋषभदेवका स्मरण 'सलिलात्मक" रूपसे किया हुआ मिलता है।' यह भी 'सलिल' के अर्थ 'आत्मा' की पुष्टि करता है, क्योकि ऋषभदेव परमात्मा रूपमें ग्रहण किये गये है और परमात्माः . एव आत्मामे मूलमे कछ अन्तर नहीं है । अस्तु
प्रजापतिने पुद्गल (Intter ) और मुख्य शक्ति-आत्मा (Iolise pomon) में यहांपर कोई भेद भी न बताया, इसका कारण यही है कि वह पहले ही आत्माको 'पानी' मानकर इस । भेदको प्रकट कर चुके थे। 'व्यक्ति' उनके निकट 'पर्याय' ही थी। 'पानी' अर्थात आत्माकी पर्याय-पलटन उसमे गरमाई (तपस) के कारण होती थी। यह गरमाई जैनदृष्टिसे 'विभाव' कही जासक्ती ह जिससे 'काम'की उत्पत्ति होना ठीक ही है। काम ही साप्तारिक परिवर्तनमें मुख्य माना गया है, जो मनसे ही जायमान (मनसो रेत.) था। यह मन अन्तत 'सूर्य' बतलाया गया है। जो संसारमे प्रथमअमा, स्व-विज्ञान और प्रत्यक्ष संसारमें व्यक्तिरूप है। जैनधर्ममें
पाय धारण करनेमे मुख्य कारण कामादि जनित इन्द्रियलिप्सा .१-जिनसहश्रनाम अ० ३ श्लोक ५। २-ए हिस्टी० पृ० १३ । -पूर्व पृष्ठ १४ । ४-पूर्व प्रमाण । ५-पूर्वप्रमाण ।
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ही मानी गई है और मन एक अलग पदार्थ माना गया है जिसका खास सम्बध आत्मासे है । उसको अन्ततः सूर्यरूप कहना कुछ गलत नहीं है, क्योकि सूर्य आत्माकी शुद्ध दशाका द्योतक है । स्वय ऋग्वेदमे उसे अमरपनेका स्वामी (अम्रितत्वप्येशानो १०९०,३ ) कहा गया है । इस तरह प्रजापति परमेष्ठिन्के नामसे जो सिद्धान्त ऋग्वेदमे दिये गये है वह जैनधर्मसे सादृश्यता रखते है तथापि पहले बताये हुए नामके भेदको दृष्टिमें रखते हुये यह कहना कुछ अत्युक्ति पूर्ण न होगा कि इन मंत्रों में वेद ऋषियोंने भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित जैनधर्मका किञ्चित् विवेचन किया है । इसलिये भारत में प्रारभसे एक प्राकृत धर्म जो उपरान्त ब्राह्मण धर्म कहलाया केवल उसका ही अस्तित्व बतलाना ठीक नहीं है । इस ए१ अन्य श्रोतोंसे यह प्रमाणित है कि भारत में जैनधर्मका अस्तित्व वेदोंसे भी पहले का है ।
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [७९ डॉ० सा० ने वेदोंकेबाद ऐतरेय, तैत्तिरीय आदि बाह्मण दर्शनोका समय आता हुआ बताया है । यह काल महीदास ऐतरेयसे याज्ञचलय तक माना है । इम कालमे सैद्धान्तिक विवेचनाका केन्द्र 'ब्रह्मऋषि देशसे हटकर 'मध्यदेश मे आ गया था, जो हिमालय
और विन्ध्या पर्वतोके बीचका स्थल था। यह परिवर्तन कमकर हुआ ही खयाल किया जा सक्ता है । इस कालमे धर्मकी विशुद्धता जाती रही और पुराण-क्रियाकाण्ड आदिका समावेश हो चला था । ललित कविताका स्थान शुष्क गद्यने ले लिया था। इस समयके तत्वान्वेिषिकोके समक्ष यही प्रश्न था कि" मै ब्रह्ममें कबलान हो सकता हूं।" और इसी लिए योगकी प्रधानता भी इस जमानमें विशेष रही थी। जैन शास्त्रोमे भी भगवान शीतलनाथक समय तक अविच्छन्न रूपसे धर्मका उद्योत बने रहनेका उल्लेख है । उसी समयसे ब्राह्मणोमें लोभकी मात्रा बढनेका उल्लेख किया गया है और बतलाया गया है कि उन्होने नए शास्त्रोकी रचना ना की थी। इसकेबाद मुनिसव्रतनाथ भगवानके समय वेदोंमें
शुयज्ञको आयोजना की गई थी, यह बतलाया है। सचमुच मन शास्त्रोंकी यह कमव्यवस्था ऐतिहासिक अनुसन्धानसे प्रायः हुत कुछ ठीक बैठ जाती है। ऊपर जो वेदोंके बाद कलिकालमें क्रयाकाण्ड आदिका बहना बतलाया है वह जैन शास्त्रके वर्णनके हुत कुछ अनुकूल है। इस अवस्थामे जैन शास्त्रोका यह कथन
विश्वसनीय सिद्ध होता है कि जैनधर्म भी एक प्राचीन कालसे --ए हिस्ट्री ऑफ प्री-वद्धि, इन्ड० फिना० पृष्ठ ३९ । २-उत्तरपण पृष्ठ १०० । ३-पूर्व पृष्ठ ३५१-३६० ।
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स्वयं ब्राह्मणोकी उत्पत्ति पहले से बराबर चला आ रहा था । यह व्याख्या अन्यथा भी प्रमाणित है, यह पुनः बतलाना वृथा है ।
इस कालका प्रारंभ महीदास ऐतरेयसे किया गया है जो स्पष्टत ऐतरेय दर्शनके मूल संस्थापक कहे जा सक्ते है | छान्दोग्य उपनिषद्मे इनकी उमर ११६ वर्षकी बतलाई गई है । और यह ब्राह्मण ही थे। इनकी माका नाम इतरा था । इसी कारण इनका दर्शन ऐतरेय कहलाया था । इनके सैद्धान्तिक विवेचन के स्पष्ट दर्शन प्राय कहीं नहीं होते है । तो भो इनने लोकमें पांच द्रव्यजल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश - माने थे, इन्ही से व्यक्तिकर अस्तित्व माना गया है ! सृष्टिके कार्य आदिका मूल कारण इनने परमात्माको ही माना था । ( ऐतरेय आरण्यक १ | ३ | ४ | ९) आत्मा का संबंध परमात्मासे ही बतलाया था । एक स्थानपर वह उसे शरीर से अलग नहीं बतलाते है परन्तु अन्यत्र प्राणोकी स्वाधीनता स्वीकार करते है । (ऐतरेय अरण्यक, २ । ३ । १ । १ और २ | १ । ८ । १२-१३) इन्होंने मनुष्यके शारीरिक अवयवोका वर्णन खासी रीति से किया था और अमली जीवनके लिए विवाह और - संतान का होना जरूरी समझा था । (ऐत ० आर० १ । ३ । ४ १ १२ - १३ ) पुत्रहीन पुरुषका जीवन ही, उनकी नजरोमें कुछ नहीं था । ( नापुत्रस्य लोको स्तिति ) इस प्रकार मट्टीदात ऐतरेयका मत था । इनके बाद मुख्य ब्राह्मण ऋषि गार्गायण माने गये है । इन्होंने कहा था कि ' जो ब्राह्मण है वही मै हूं । ' ( कौषीतकिं १ - ए हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्र० इन्ट० फिल्म० पृष्ठ ५१-९६ ।
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। उपनिषद ११६ ) और ब्राह्मण इनके निकट 'सत् था।' इनके उपरान्त प्रतरदनकी गणना की गई है। यह कागीके राजा दिवोदासके पुत्र थे । इन्होंने संयमी जीवन वितानेके लिए आंतरिक अग्निहोत्र (आन्तरम् अग्निहोत्रम् ) का विधान किया था । यह वैदिक यज्ञवादा एक तरहसे सुधार ही था । प्रज्ञात्मा (Poy nitive Soul) के मूल प्राणको इन्होने ससारका पोपक, सबोका स्वामी. शरीर रहित
और अमर बतलाया था: इसलिए वह सांसारिक पुण्य-पापसे रहित था । (कोपीतकि उप० ३१९)। किसी भी व्यक्तिके किसी कार्यसे 'उसके जीवनको हानि नहीं पहुंचती है, माता, पिताके मार डालनेसे भी कुछ नहीं बिगड़ता है; न कुछ हानि चोरीसे या एक ब्राह्मणके मारनेसे होती है। यदि वह कोई पप करता है तौभी चेहरेसे प्रकाश नहीं जाता है । (को० ३०३।९) इस तरह उनकी शिक्षामें जाहिरा पुण्य - पापका लोप ही था। इनके इस सिद्धांतका विशेष आन्दोलन नचिकेत, पूरणकस्सप, पकुढकच्चायन और भगवदगीताके रचयिता द्वारा हुआ था ।'
प्रतरदनके पश्चात् उद्दालक आरुणीके हाथोसे ब्राह्मण मतमें एक उलटफेर ला उपस्थित की गई थी। उहालक अरुण ब्राह्मणका पुत्र और वेतकेतुका पिता था। इनका मत 'मन्थ' नामसे ज्ञात था, जिसमें विवाहका करना मुख्य था। जैन राजवानिकमे मान्थनिकोंकी गणना क्रियावादियोंमें की गई है । श्वेतांवरियो के सूत्रकृताइमें भी (१।१।११७-९) इनके मतका उल्लेख है। इनको ज्ञानकी पिपासा उत्कट थी। इनका सैद्धान्तिक विवेचन प्राय महीदास जैमा ही था। इन्होंने
१- पूर्व पृष्ठ १११-१२ ।
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पुद्गलका उल्लेख 'देवता' के रूपमें किया था तथापि पुद्गलाणुओका मिलना और विघटना भी स्वीकार किया था।' ____ उपरान्त वरुण द्वारा तेतरीय मतका प्रारंभ हुआ था। उद्दालकने अग्नि, जल और पृथ्वी तीन ही द्रव्य माने थे, परन्तु वरुणके निकट वह आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी थे। ब्रह्मको ही इनने मुख्य और सर्वका प्रेरक माना था । तथापि वही उनके निकट अन्तिम ध्येय भी था जिममें स्थाई आनन्द का उपभोग था । आत्माकी क्रियाशीलताके विषय में उनकी सराश्यता महीदाससे थी। मनुप्यके प्रत्येक कार्यमे आनन्दको ही इनने मुख्य माना था । मानुषिक आनन्दका प्रारम रमना इन्द्रियसे करके वह उसका अन्त ध्यानावस्थामे करते है। इसमे स्त्री, पुत्र, धन, सम्पत्ति आदिको भी गिन लेते है। यह भी उनके निकट आनन्दके कारण है।
वरुणके उपरान्त बालाकि और अजातशत्रु उल्लेखनीय है। बालाकि एक ब्राह्मण और याज्ञवल्स्यका समकालीन था । अजातशत्रु राजपुत्र थे और विदेहके राजा जनकके समयमे हुए थे। राजा जनक फिलासफरोंके प्रेमी व सरक्षक थे और राजा अजातशत्रु स्वय फिलासफर थे । बालाकि और अजातशत्रुमें शास्त्रार्थ हुआ था । मुख्य विषय आत्माका स्वरूप और जगत् एव मनुप्यमें उसका स्थान निर्णय करना था। वालाकि सूर्यमे आत्माका व्यान करना उचित समझता था, पर अजातशत्रु उसे प्रकृति (Nature) का एक अग ही मानता था।
१-ए हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्० इन्द० फिला० पृष्ट १२४-१.२ । २-पूर्व प्रमाण पृ० १.३-१५० । ३-पूर्व० पृ० १५१-१५२ ।
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [८३ इनके साथ ही याज्ञवल्क्यकी प्रधानता रही थी। कहा जाता है कि यह बौद्धकालसे बहुत ज्यादा पहले नहीं हुये थे । इनका 'नेति नेति' धर्म विख्यात् है । इन्हीके कारण राजा जनकका नाम चिरस्थाई होगया है। याज्ञवल्क्यके निकट आत्म काम (Self-love) ही मुख्य था । इसहीको उनने शेष कामो (Love) का उद्गमस्थान माना था। इसका प्रारंभ अपने आत्म-रक्षाके भावसे होकर परमात्माके प्रेममें अंतको पहुंचता है । दाम्पत्य प्रेम, सतानप्रेम, धन, पशु, जाति, देवता, धर्म आदि प्रेम सब ही विविध अशोमें आत्म-काम (Self-love) ही हैं । इनका संबंध भी परमात्मासे है क्योंकि जब.... हम अपने व्यक्तित्वसे प्रेम करेंगे तो परमात्मासे भी करेंगे, यह उनका कहना था । इसी लिए उन्होने इच्छा ( Desiring ) को बुरा न माना था-फिर चाहे पुत्रो-सम्पति या ब्राह्मणकी ही वाञ्छ। क्यों न की जाय ! इसतरह इनने भी प्राचीन वैदिक मार्गका एक तरहसे समर्थन करना ही ठीक माना था । त्याग अवस्थामें भी स्त्री, पुत्र, धन, सम्पत्ति आदि उपभोगकी वस्तुओको बुरा नहीं बतलाया था। सचमुच उपरान्तके इन ऋषियों द्वारा यद्यपि वेदोंके विरुद्ध भी आवाज उठाई गई थी, परन्तु वे उसके मूलभावके खिलाफ नहीं गए थे। आत्म-ज्ञानको विविध रीतियोंसे प्राप्त करनेका प्रयत्न इनमें जारी होगया था। परिणाम इसका यह हुआ कि अन्ततः वेद और वैदिक क्रियाकाण्डको लोग बिल्कुल ही हेय दृष्टिसे देखने लगे । उनको अविद्या और नीचे दर्जेका ज्ञान समझने लगे। पर यह सब हुआ तब ही जब जैन तीर्थंकरो-श्रमधा
१-पूर्व० पू० १५३-१८० । २-पूर्व० पृ० १९३ ।
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८४] भगवान पार्श्वनाथ। धर्मके प्रणेता साक्षात् जीवित परमात्माओंने इन वैदिक ऋषियोके सिद्धान्तोंके विरुद्ध समय समयपर नितान्त वस्तुस्वभावमय धर्मका निरूपण किया था । अवश्य ही आधुनिक विद्वान् इस व्याख्यासे
सहसा सहमत नही होते है, पर यह हम देख ही चुके है कि 'स्वय वेदोमें ही वेदविरोवियोका अस्तित्व बतलाया गया है । ये वेदविरोधी अवश्य ही जैन श्रमण थे।
याज्ञवल्क्यके सिद्धातोने वैदिक धर्ममें उपरात ईश्वरवादको उत्तेजना दी । इसमे ब्राह्मणोंका पुराना ही अद्धान था, परन्तु याज्ञवलयके सिद्धांतोंने इसके लिये नया क्षेत्र ही सिरज दिया। वृहद आरण्यक उपनिषदके प्रथम अध्यायमें इस मतका निरूपण किया हुआ मिलता है । 'पुरुष-विधि-ब्राह्मण 'के कर्ता आसुरी अनुमान किए गए हैं । आसुरो ही इस जागृतिमें मुख्य व्यक्ति थे । बौद्ध शास्त्रोंमे आसुरीका उल्लेख मिलता है । वहा इनके बारेमे कहा गया है कि सूर्यको ही इन्होने प्रथमजन्मा माना था और वही इनके निकट 'ब्रह्मा, महाब्रह्मा, अभिभृ , सर्वशक्तिमान् , सर्वज्ञ, शासक, ईश्वर, कर्ता, निर्माता, श्रेष्ट, संजिता, वर्तमान और भविष्यन्का पिता था।' उसके मनमे इच्छा होते ही मनशक्तिसे (मनोपनिधि ) उसने सृष्टि रच दी थी। यही भाव 'पुरुष-विध-ब्राह्मण' मे दिया हुआ है। यही आसुरी संभवत निरीश्वर सांख्यमतके उपदेशक हैं। श्वेताम्बर जेनग्रन्थके अनुसार वह भगवान ऋपभदेवके समयके मरीचि नामक भृष्ट जनमुनि और--साख्यमतके प्रणेताके शिष्य
१-त्पमत्र पृ० ८३ । २-ए हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्ध० इन्ट० फिला० १० २११-१८।
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति ।
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कपिलके अनुयायी थे | कपिलको आसुरी अपना गुरु मानते थे और उनसे ही 'षष्टि-तंत्र' नामक मान्य सांख्य ग्रन्थ रचा था । (देखो आवश्यक बृ० नियुक्ति गा० ३५० - ४३९) किंतु 'आदिपुराणजी' में कपिलको मारीचिका शिष्य नहीं लिखा है । वहा 'त्रिदंडी मार्ग' निकालने का उल्लेख है ( ० ५३७ ) । जो हो, इससे यह प्रकट है कि आसुरीका सम्बन्ध अवश्य ही सांख्यदर्शन से था किन्तु हमारा अभिप्राय यहापर इन वैदिक ऋपियोंके सिद्धातोपर विवेचना करनेका नही है और न हमारे पास इतना स्थान ही है कि हम उनकी विवेचना यहा कर सकें । यहां मात्र वैदिक धर्मके विकाश क्रमपर प्रकाश डालना इष्ट है, जिससे भगवान पार्श्वनाथके समयके धार्मिक वातावरणका स्पष्ट रङ्ग-ढंग मालूम हो सके । वैसे जैनशास्त्रोंमें इन वैदिक मान्यताओकी स्पष्ट आलोचना मौजूद ही है । अस्तु ! हमें अपने उद्देश्यानुसार केवल इन वैदिक ऋषियोके सैद्धांतिक इतिहास क्रमपर एक सामान्य दृष्टि डाल लेना ही उचित है ।
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आसुरीका अस्तित्व संभवतः भगवान नेमिनाथके तीर्थमें रहा होगा और इन्हीके धर्मोपदेशसे यह प्रभावित हुआ होगा, यही कारण है कि वह हमारे लिये आत्मा या परमात्माको प्राप्त करना अन्य कार्योंसे सुगम समझता है (God or soul is nearer to us than anything else: dearer than a son, dearer than wealth, dearer than all the rest ) और पुत्र, सम्पत्ति 'एव अन्य सब वस्तुओंसे प्रिय बतलाता है । जहां पहले पुत्रकी प्रधानता रही थी, वहां वह अब आत्माको ला उपस्थित करता है । पर साथ ही वह अन्य कर्तव्योंको पालन करना भी जरूरी खयाल -
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८६] भगवान पार्श्वनाथ । करता है जो उसके निकट सिर्फ तीन ये है; (१) ब्राह्मण, (२) कन, (३) और ससार । अपने पुरखाओंके सामाजिक, नैतिक और आत्मीक कार्योको करना भी वह उचित बतलाता है । इन कर्तव्योकी पूर्ति करनेको वह तीन लोक-देव, पितृ और नृलोक निर्दिष्ट __ करता है । नृलोककी प्राप्ति केवल पुत्र द्वारा ही उसने मानी है। - इस तरह वह भी प्राचीन मान्यता स्त्री और पुत्रकी प्रधानताको
छोड़ नहीं सका है। देव और पितृलोकका लाभ क्रमशः ज्ञान और __ यज्ञ द्वारा उसने बतलाया है। सामाजिक जीवनके सम्बन्धमें बह ___ कहता है कि मूलमें मनुष्योंमे कोई जातीय भेद विद्यमान नहीं थे
परंतु उपरान्त सामाजिक बढ़वारी और भलाईके लिहानसे जातीय भेद स्थापित किये गये थे। जैनदृष्टि भी कुछ२ इसी तरहकी है। भोगमृमिके जमाने में वह भी मनुष्योंमें कोई भेदभाव नहीं बतलाते हैं परन्तु कर्तव्य युगके आनेपर आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेवने चार वर्ण या जातियां स्थापित की थीं, यह कहते हैकिन्तु जैनधर्ममे जातियोकी उच्चता आदिपर उतना अभिमान नहीं माना गया है. जितना कि हिंदू ऋषियोंके निकट रहा है। जैनदृष्टिसे जातिमद एक दूषण है पर आसुरी इन जातीय भेदोंको आवश्यक मानता था । भविष्य जन्मके अद्धानको भी वह मुख्यता देता था ।
इस प्रकार वैदिक धर्ममे प्रारम्भसे ही गृहस्थकी तरह साधुको भी नियमित रीतिसे सांसारिक भोगोपभोगका आस्वाद लेना बुरा नहीं माना गया था। स्वयं वेदोंमें ही संतानको मनुष्यका मुक्तिदाता बतलाया गया था। (प्रजाति अमृतम्) उनके निकट अमरपनेको प्राप्त करना केवल
१-पूर्व पृ० २१८-२२॥
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [८७ विवाह द्वारा संभव था । विवाह विना वे मनुष्यका 'मिट्टीमें मिलना
और गारत होना' मानते थे। ऐतरीय और तैतरीय कालमें भी इस मान्यताकी प्रधानता रही थी। सब ही वेदानुयायियोके निकट,(१) वैदिक साहित्यका अध्ययन करना, (२) वैदिक रीतिरिवाजोंका पूर्ण पालन करना, (३) पारम्परीण धर्ममें किचित् उन्नति करना, (४) देवताओ
और पित्रोंकी पूजा करना एवं (५) विवाह करना मुख्य कार्य रहे हैं। यज्ञ करने, पंचाग्नि तपने और विवाह करनेपर वे भगवान् पार्श्वनाथके समय तक जोर देते रहे थे। यद्यपि आसुरीने भगवान् नेमिनाथके उपदेशके प्रभावानुसार इस श्रद्धानमें किंचित फेरफार भी किया था, परन्तु वह भी मूलभावसे विचलित नही हुआ था। सारांश यह कि वेदानुयायी ऋषियोंने गृहस्थ जीवनका नियमित उपभोग करना बुरा नहीं माना था और हठयोगको भी बेढब बढ़ाया था। ब्रह्मचर्यसे तो वह बुरी तरह भयभीत थे। ब्राह्मण ऋषि बौद्धायन और वशिष्ठने स्पष्ट कहा था कि पुत्र द्वारा मनुष्य संसारपर विजय पाता है; पौत्रसे अमरत्व लाभ करता है और प्रपौत्रको पाकर परमोच स्वर्गको प्राप्त करता है। इसी लिए एक ब्राह्मणका जन्म तीन प्रकारके ऋणोसे लदा हुआ होता बतलाया गया है। अर्थात् छात्रावस्थाका ऋण तो उसे ऋवियोको देना होता है: यज्ञोको करके देवताओंके ऋणसे वह उऋण होता है और एक पुत्र द्वारा वह ससृति (Annes) को संतोषित करता है।
जैनोके 'उत्तरपुराण'मे भी वैदिक ऋषियों के इस धर्म विकाश १-पूर्व० पृ० २४९ , २-पूर्व पृ० २४६ । ३-ए हिस्ट्रीऑफ प्रीबुद्ध० इन्ड फिला० पृ० २४७ । ४-वौद्धायन २१९/१518, वशिष्ट १७१५.
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८८ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
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सम्बन्धी क्रम किञ्चित् दर्शन हमें मिलने है, यह हम ऊपर कह चुके हैं। सचमुच वहा पहले यही कहा गया है कि यद्यपि स्वयं भगवान ऋषभदेव के समयमें ही मरीचि द्वारा पाखंड मतकी उत्पत्ति होगई थी परन्तु धर्मकी विच्छित्ति भगवान शीतलनाथ तक प्राय नहीं हुई थी । हां, इन शीतलनाथ तीर्थकरके अंतिम समय में आकर अवश्य ही जैनधर्मका नाम होगया था और भूतिशर्मा ब्राह्मणके पुत्र सुडगालयनने मिथ्यागात्रोकी रचनाकर पृथ्वी, सुवर्णका दान देना सर्व साधारणके लिए आवश्यक चतलाया था ।" उपरान्त श्रेयांसनाथ भगवान द्वारा जैनधर्मका उद्योत पुन होगया था परन्तु भगवान सुनिसुव्रतनायके तीर्थकालमे जाकर अहिमा धर्मके विरुद्ध पुनः ऊधम मचा था । राजा दनुके राजत्वकालमें पर्वन आदिने हिसाजनक यज्ञोंकी आदिष्कृति की थी । 'अर्ज' शव्दके अर्थ ' शालि वान्य' के स्थानपर इनने 'बकरा' मानकर पशुओका होमना वेढोक्त बतलाया था और फिर नरमेधतक रच दिया था । * परन्तु इसके पहले अरनाथ तीर्थंकर के समय में ब्राह्मण माधु स्त्री सहित रहने लगे थे, यह भी बतलाया गया है । अयोध्या के राजा सहस्रबाहु का शतुविद की स्त्री श्रीमतीसे उत्पन्न जमदग्नि द्वारा इस प्रथाका जन्म हुआ था। यहांपर इस वेदवाक्यका उल्लेख जैनगास्त्रमें किया गया है कि पुत्र विना मनुष्यकी गति नहीं होती है । (अपुत्रस्यगतिर्नास्तीत्यार्प किं न त्वया श्रुत) जमदग्निने अपने मामा पारत देशके राजाकी छोटी पुत्रीसे विवाह किया था, जिससे इनके दो पुत्र इन्द्रराम और खेतराम हुये ये । सहस्रबाहुने
१–उत्तरपुराण पृष्ठ १०० । २- पूर्व० पृष्ठ ३३९-३५१ ।
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___ तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [८९ जब इनकी कामधेनु गाय जमदग्निको मारकर छीन ली थी तब इन्होंने क्षत्री वंशको नष्ट करनेका प्रयत्न किया था। शांडिल्य ऋषिने सहस्रबाहुकी एक रानी चित्रमतीको सुबन्धु नामक निर्ग्रन्थ मुनिके पास रख दिया था, जिसके गर्भसे सभौम चक्रवर्तीका जन्म हुआ था । इन्हीं सुभौमने अपने वंशके वैरी परशुराम-जमदग्निके । दोनों पुत्रोको नष्ट किया था। भगवान मुनिसुव्रतनाथके तीर्थमें ही रामचन्द्र आदि हये थे और फिलासफरोके आश्रयदाता जनक भी इस कालमे मौजूद थे। जनकने पशु यज्ञका विचार किया था, परन्तु वह विद्याधरो, जिनमे रावण मुख्य था, से भयभीत थे जो पशु यज्ञके खिलाफ और सम्यग्दृष्टी थे। जनकके मत्री अतिशय-मतिने इसका विरोध भी किया था । अन्ततः राम-लक्ष्मणकी मदद राना जनकने ली थी। उपरान्त गौतम, जठरकौशिक, पिप्पलाद आदिका भी उल्लेख इस पुराणमें है । इस तरह जैन शास्त्रोसे भी वदिक धर्मके विकाशक्रमका पता चल जाता है। __अतएव यहांतकके इस सब वर्णनसे हम भगवान पार्श्वनाथजीके जन्मकालके समय जो धार्मिक वातावरण इस भारतवर्ष में हो रहा था उसके खासे दर्शन पा लेते है । देख लेते है कि ब्राह्मण ऋषियोकी प्रधानतासे पशयज्ञ, हठयोग और गृहस्थ दशामय साधु जावन बहु प्रचलित थे। ब्रह्मचर्यका प्रायः अभाव था । तथापि दवताओकी पूजा और पुरखाओकी रीतियोंके पालन करनेके भादसे देवमूढ़ता और तीर्थ महता आदि भी फैल रहे थे । वातावरण एसा दूषित होगया था कि प्राकृत उसको सुधारनेकी आवश्यक्ता
१-पूर्व० पृ० २९२-३०० । २-पूर्व०१ १०-१४०-३६४ ।
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भगवान पार्श्वनाथ |
थी । अवश्य ही इस समय भगवान नेमनाथजीके तीर्थके जैन मुनि भी यद्यपि जैनधर्मका प्रचार कर रहे थे और जैनी भी मौजूद मेः परन्तु वैदिक मतके सामने उनका महत्व बहुत कम था । अस्तुः अब आइये पाठकगण काशी और उसके राजाका परिचय प्राप्त कर लें जहां भगवान पार्श्वनाथका जन्म हुआ था ।
( 6 )
बनारस और राजा विश्वसेन ।
“ भरतखंड छहखंड समेत, धनुषाकार विराजत खेत । तामे सब सुख धर्म निवास, कासी देश कुशल जनवास ॥३२॥' गांव वेट पुर पट्टन जहां, धन-कन भरे वसै बहु तहां । निवसे नागर जैनी लोय, दया धर्म पालै सव कोय ||३३||
- पार्श्वपुराण | महा रमणीक देश था । ऊचे पर्वत, सलिल सरितायें और कलकल निनादपूर्ण झरने वहांके दृश्यको बडा ही मनमोहक बना रहे थे । उसके मध्यके बडेर गहन वन पथिकजनोको भयभीत करनेवाले थे परन्तु वही मुनिजनोंके लिये ध्यानके अपूर्व स्थान थे । वहांकी गिरिकन्दरायें और नदीतट मुनिजनो निवाससे पवित्र बन चुके थे । साथ ही थोड़ी २ दूरके फासलेपर स्थित ग्राम और नगर वैसे ही वहां गोभ रहे थे जैसे आकाशमे तारागण चमकते नजर आते हैं । उन नगरों और ग्रामोंके वीचमें जैनमंदिरोकी उन्नत शिखरें ध्वजादि सहित दूरसे ही दिखतीं ऐसी मालूम पड़ती थीं मानों वे भव्यजनोंको त्रिलोकवन्दनीय वीतराग
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बनारस और राजा विश्वसेन। [९१ भगवानके पूजन-भजन करनेके लिये आह्वानकर्ता ही हों। प्रजाजन भी वहांके बड़े ही दयालु, सद्धर्मरत और व्यसनोंसे विरक्त थे। वह नियमित रीतिसे अपने धर्मका पालन करते थे और सुमतिसे रहते थे। इसी कारण उनमें धन-सम्पत्तिकी प्रचुरता थी। उनका गोधन अपूर्व था। श्रावकजन सबही प्रकार अपने धर्मका. योंमें व्यस्त थे। उनकी भव्यता ऐसी थी कि अमरेश भी वहां जन्म लेनेको तृष्णाभरे नेत्रोंसे विकल होते थे।
वस्तुत यह देश इस भारतवर्षमें ही था और यह आजसे करीब पौनेतीनहजार वर्ष पहले 'काशीदेश' के नामसे विख्यात था। इसकी राजधानी वाराणसी नगरी थी; जो बहुत ही प्राचीन कालसे भारतीय इतिहासमें प्रख्यात् रही है। जैनशास्त्रोंमे उस
१-'पार्श्वपुराण' में वही कहा गया है, यथा.-'अपुनीत सब ही विध देस । जहा जनम चाहें अमरेश' इसके अतिरिक्त सकलकीर्ति आचार्यके 'पार्श्वचरित' में भी इसका विशद विवरण मिलता है। श्री चद्रकीयाचार्य प्रणीत 'पार्श्वचरितमें इसका उल्लेख इन शब्दोंमें किया गया है:
' अथास्ति भारत क्षेत्र द्वीपे जम्बुद्रुमाकिते । गगासिन्धुसुवैद्य तो पटषक्षीजत भूतले ॥ २ ॥ तन्मध्ये विषयो वर्षः कागाख्यो विपवापक । जनाना च चकास्तिस्म विडवितसुरालयः ॥ ३ ॥ यत्राजस्त्र प्रमोदिन्यो निरीत्यवग्रहे वसत् । अज्ञपचसद्वान्ये प्रजा स्वर्ग्रता इव ॥४॥ कुर्कुये त्यात मामः कासारैर्विक चौप्तले गस्यटै सीमभिनित्य यश्च कास्ति समततः ॥५॥ प्रत्यग्र कुसुर्मामौदैयः सदामोदयत्वल, दिश. समतत कर्तुस्वभृव सार्थकामिव ॥६॥ विभ्राणे महदुदडापि छत्र विसदा । यप्रदेशावभु पृगद्रुमभृ पाइवोन्नते ॥७॥ सपाक्ष वरत्यर्थ सतत्यै कामसेवन । परलोका क्रियासक्ता . यत्र निर्व्यसना जनाः ॥८॥ सदागमेषु विश्राम. पथिका स्फोटयितश्रमा । यत्राद्धानं प्रभन्यते गृहाजिर विभमदा ॥ ९॥ इत्याटि
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___ ९२] भगवान पार्श्वनाथ।
समय इसे बड़ा ही भव्य नगर बतलाया गया है | उसकी समानताका और कोई नगर उस समय धरातलपर नहीं था। वह तीथकर भगवानका जन्मस्थान था और अपूर्व था । उसके देखते साथ ही मनुप्योकी तो वात क्या स्वर्गलोकके देवोंके मन भी मोहित होजाते थे। वह प्राचीनकालसे ही तीर्थराजके रूपमें तब भीप्रसिद्धि पा चुना था। श्री पार्श्वनाथनीके बहुत पहले हुये तीर्थकर श्री सुपार्श्वनाथनी इस नगरीको पहले ही अपने जन्मसे पवित्र कर चुके थे। इनसे भी पहले यहां जनधर्मका मांतिदायक प्रकाश फैल चुका था । यही नहीं इस नगरका जन्म ही स्वयं जैनियोके प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेवकी आज्ञासे हुआ था और यहांके सर्व प्रथम राजा अकपन नामक इवामुवंशीय महान क्षत्री थे, यह जैनियोंकी मान्यता है, और इस पवित्र तीर्थरानका विशद वर्णन जेन शास्त्रोमें खूब ही मिलता है। भगवान पार्श्वनाथके समय इसकी विशालता प्रकट करनेको जैन कवियोंके पास पर्याप्त शन ही नहीं थे । उनको यही कहना पड़ा था कि'शोभा जाकी कद्री न जाय, नाम लेन ग्लना शुचि गय।"
आजका बनारस ही यह पवित्र धाम है । आज भी उसकी जो प्रख्याति है वह उसके पूर्व गौरवकी प्रत्यक्ष सानी है। जैनशास्त्रोंमें कहा गया है कि इस अवसर्पिणी कालके तीन साल जब गुजर चुके थे और चौथा प्रारम्भ हुआ ही था तब वहापर सभ्यताकी मुष्टि भगवान ऋषभदेव हाग हुई थी। ऋपमदेवके पहले
-चौदोंने भी बनारसको प्राचीनकालसे पियोंश स्थान बदलाया था। -उनग्गा पृष्ट ११३-आदिपुगा पर्व ११२८-१९०.६२४१-२७५।
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बनारस और राजा विश्वसेन । [९३ तीन कालोमें यहा भोगभूमिकी प्रवृत्ति थी, जिसमें युगल दम्पतिके उत्पन्न होने ही उनके माता-पिता देहावसान कर जाते थे और वे दम्पति युवावस्थाको प्राप्त होकर उस समयके अलौकिक कल्पवृक्षोसे भोगोपभोगकी मनमानी सामग्री प्राप्त करके सांसारिक आनन्दमें मग्न रहते थे। उनको आजीविका आदिकी कुछ भी फिकर नही थी, परन्तु ज्यो२ समय बीतता गया त्यों२ उन कल्पवृक्षोका ह्रास होता गया और अन्तत ऋषभदेवके समयमे ऐसा अवसर आ गया कि लोगोको परिश्रम करके अपने पुरुषार्थके बल जीवन यापन करनेके लिये मजबूर होना पड़ा। इसी समय ऋषभदेवने सब प्रकारके असि, मसि, कृषि आदि कर्म जनताको सिखाये थे और उनके वर्णादि. स्थापित करके दैनिक जीवन शातिमय व्यतीत करनेके उपाय बतलाये थे और इसी समय इन्ही विधाता ऋषभदेवकी आज्ञासे इद्रने विविध देशो एव नगरोकी रचना की थी।
जैनधर्ममें कालके उत्सप्पिणी और अवसर्पिणी दो भेद करके इनमे प्रत्येकको छह कालोमे विभक्त किया है। उत्सर्पिणी कालमें प्रत्येक वस्तुकी क्रमशः उन्नति होती जाती है और अवसर्पिणीमें हास होते२ एकदम सबकी हानि होजाती है । अवसर्पिणीके छट्टे कालके अन्तमे एक प्रलयसी उपस्थित होती है, जिसमे कतिपय बड़े भाग्यवान जीव ही गिरि कंदराओंमें छिपकर अपने प्राण बचा लेते है। यही लोग उत्सर्पिणीके छटे कालके प्रारम्भ होनेपर गुप्तस्थानोसे निकल कर ससार क्रम प्रारम्भ करते हैं । उत्सर्पिणीके कालोकी गिनती अवसर्पिणीसे बरअक्स छटे कालसे प्रारम्भ होती है । इस प्रकारके क्रमसे इस ससारका अनादि निधनपना जैनशास्त्रोंमे निदिष्ट
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___९४] भगवान पार्श्वनाथ । किया गया है। भगवान पार्श्वनाथ इस अवसर्पिणीकेचौये कालके अतिम समयमेहये थे। आजकल इसीका पंचमकाल जो देखकर पूर्ण है व्यतीत हो रहा है । इसी अवसर्पिणीके अथवा कर्मयुगके प्रारंभिक दिनोमें काशी और वाराणसीकी सृष्टि हुई थी। आज वाराणसी
और जागी केवल बनारस नगरके ही नाम है. परन्तु प्राचीन कालमें काशी एक प्रख्यात जनपद था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। ___पाणिनिके व्याकरणके अनुसार 'वर' और 'अनस' शब्दसे वाराणसीकी उत्पत्ति हुई वतलाई जाती है । अर्थात वर माने सर्वोत्तम
और अनस माने पानी- जिसका सम्बध बनारसका गंगातटपर जव स्थित होना है। ब्राह्मण लोग इस नामको 'वल्णऔर 'बसि' नामक झरनाओंकी अपेक्षा निीत करते हैं। ग्रीक (यूनानी) लोगोंको भी बनारसका किचिन परिचय था । उनका प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता टोलमी (Ptolemy) काशीको 'कस्सिडिया' (Cassidia) नामसे उल्लेख करता है। उनके अनुसार पहले काशीकी राजधानी भी इसी नामकी थी। उपरान्त प्राचीन काशी नगरका विध्वंश जब बच्छू लोगों (Bacchus) द्वारा होमया था, जसे कि योनिसियस पेरीगेटस (Dronrsius Periogetes) बतलाता है, तब प्राचीन नगरके ध्वंशावशेषोसे किंचित हटकर वाराणसी वसाई गई थी। ग्रीक लोग वाराणसीको 'ओरनिस' (Aornus) अथवा 'अवरनस' (Arernus ) नामसे परिचित करते हैं। मुगल लोगोंने इसीका नाम बनारस रक्खा था।
१. आदिपुराण पर्व ३ ० १४-२३९; पर्व ९३४-८८ । __ . • बुद्धिस्ट इन्डिया पृष्ठ २३।३ एशियाटिक रिनचेंज भाग ३ प ६६२।।
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बनारस और राजा विश्वसेन। [९५ ब्राह्मणोंके 'शङ्करप्रार्दुभाव' में वाराणसीके राजा दिवोदासका उल्लेख है। उसमें कहा गया है कि 'पद्मकल्प' नामक कालके मध्य समयमें ऐसा अकाल पड़ा कि संसारके अधिकांश मनुष्य अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे। यहांतक कि स्वयं ब्रह्माको इस तबाई पर बडा दुःस्व .. हुआ। उस समय रिपुञ्जय नामक राजा कुश द्वीपके पश्चिम भागमें राज्य करता था । उससे भी अपनी प्रजाकी दुर्दशा देखी न गई । और वह अपने शेष दिन व्यतीत करनेके लिये काशीमें आगया। ब्रह्माने रिपुज्जयको सारे संसारका राज्य देदिया और काशी उसकी राजधानी बनादी तथापि उसे इधर उधर भटकती फिरती त्रसित मनुष्यजातिको एकत्रित करने और उसको उचित स्थानोंपर बसा-1 नेकी आज्ञा दी। साथ ही उसका नाम दिवोदास रख दिया।राजा इस उत्तरदायित्वको स्वीकार करनेमें पहले तो आनाकानी करने लगा, पर इन शर्तोपर उसने यह भार ग्रहण कर लिया कि जो भी प्रसिद्धि उसे प्राप्त हो वह ठेठ उसीकी हो और कोई भी देवता उसकी राजधानी में न रहने पावे । हठात् ब्रह्माने यह शर्ते मंजूर कर ली; और म्वयं महादेव अपने प्रियस्थान काशीको छोडकर गगाके मुहानेपर मंडरा-रिके ऊपर जा विराजे । दिवोदासका राज्य विशेष बलपूर्वक प्रारम्भ हुआ, जिससे देवताओके भी कान खड़े होगए। इसने सूर्य औ चन्द्रको सिहासन च्युतकर दिया
और अन्योको उनके स्थानपर नियत किया। साथ ही एक अग्निका, किला भी बनाया परन्तु काशीकी प्रजा उसके पुण्यमई राज्यमें बड़ी सुखी थी। देवत ही उसके ईर्षालु थे और महादेव अपने प्रिय स्थानको लौटनेके लिए छटपटा रहे थे। उन्होने देवताओको राना
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९६ ] भगवान पार्श्वनाथ । देवोदासको डिगानेके लिए उकसाया । चौसठ योगिनी और बारह आदित्य इस प्रयासमें असफल हये। आखिर महादेवके भेजे गनेशनी एक ज्योतिषिके स्वरूपम आए। वनायिकियोंकी सहायतासे उन्होंने काशीकी प्रजाकी रुचि बदलना प्रारम्भ की और उनको होनेवाले तीन अवतारोंके लिए तैयार किया। । पहले ही विष्णु 'जिन' के स्वरूपमे आये, जिन्होने वेदोमें बताए हुए यज्ञो, प्रार्थनाओं, तीर्थयात्राओ और क्रियाकाडोंका विरोध किया और बतलाया कि सत्य धर्म किसी जीवित प्राणीको न मारनेमें ही है । इनकी सहगामिनी (Consort) जयादेवीने इस नये धर्मका प्रचार अपनी जातिमें किया। कागीके निवासी संशयमें पड़ गये । इनके बाद महादेव अहन या महिमनके रूपमें अपनी पत्नी महामान्यके साथ आए । महामान्यके अनेको पुरुष स्त्री सेवक थे।
इन्होने 'जिन' प्रणीत सिद्धातोका समर्थन किया और अपनेको ब्रह्मा , और विष्णुसे वह चढ़कर बतलाया। स्वय 'जिन' ने यह बात स्वीकार
की। फिर दोनोंने ही मिलकर सारे ससारका भ्रमण और अपने सिद्धातोको फैलानेका उद्योग किया । आखिरको ब्रह्मासे भी न रहा गया और वह 'बुद्ध' के रूपमें आ अवतीर्ण हुए। इनकी सहगामिनी 'विज्ञ थी। इन्होने भी अपने पूर्वके दो अवतारोके अनुसार उपदेश दिया और ब्राह्मणकी स्थितिसे राजाको बरगलाना शुरू कर दिया । दिवोदासने वडी रुचिसे इनका उपदेश सुना । परिणामत उसे अपने राज्यसे हाथ धोने पड़े। महादेव खुशीर काशी लौट आए। दिवोदासने गोमतीके किनारे एक दूसरा नगर बसाया। महादेवनीने काशीके लोगोंको समझानेके प्रयत्न किये, परन्तु सत्र
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बनारस और राजा विश्वसेन । [९७ वृथा ही। इसलिए उन्होंने 'शङ्कराचार्य'का रूप धारण किया और लोगोंको वेद समझाना शुरू किये। इन्होंने जैनोंके मंदिरोंका विध्वंश किया, उनके शास्त्रोंको जलाया और उन सबको तलवारके घाट उतारा जो इनके मार्गमें आड़े आए।' __इसतरह यह ब्राह्मणोकी गढ़ी हुई राजा दिवोदासकी कथा है । यद्यपि यह एक कथा ही है, पर इसका आधार ऐतिहासिक सत्य होना संभवित है। हमें मालूम है कि जैनियोके २३ वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथको ही आजकल बहुतसे लोग जैनधर्मका संस्थापक ख्याल करते है; परन्तु, वास्तवमे जैनधर्मका अस्तित्व इनसे भी पहलेका प्रमाणित हुआ है, यह प्रकट है। उपरोक्त कथामें भी कुछ ऐसा ही प्रयत्न किया गया मालूम होता है। ब्राह्मण ग्रन्थकार भगवान पार्श्वनाथ, महावीरस्वामी और महात्मा बुद्धका वर्णन यहां एक साथ करते प्रतीत होते हैं और आपसी द्वेषके कारण जैनधर्मके प्राचीन इतिहासका उल्लेख करना भी आवश्यक नहीं समझते हैं। साथ ही वह जैनधर्म और बौद्धधर्मको एक ही बतलाते हैं । इसका कारण इन दोनोंका अहिंसामई वेदविरुद्ध उपदेश देना ही कहा जासक्ता है; यद्यपि जैनधर्म और बौद्धधर्म दोनों ही अलग २ धर्म है यह प्रकट है। , ब्राह्मण कथाकारका अभिप्राय 'जिन' शब्दसे भगवान पार्श्वनाथसे ही है, *यह इसीसे प्रकट है कि वह उनके जन्मस्थान
१-एशियाटिक रिसर्चेज भाग ३ पृष्ट १९१-१९४ । २-देखो हमारा 'भगवान महावीर और म० बुद्ध' नामक प्रथ। *'आईने अकवरी की जनकी वंशावलीमें हिन्दुओके अनुसार 'जिन' का काल ईनासे पूर्व ९५० लिया
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९८ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
बनारसको अपनी कथाका मुख्य स्थान बतलाता है तथापि जिन और अर्हन्का मिलकर संसार में उपदेश देनेका उल्लेख भी इसी भावका समर्थक है, क्योकि भगवान पार्श्वनाथ और महावीरस्वामीका धर्म कही अलग २ नहीं रहा था । तिसपर कतिपय विद्वान् तो भगवान पार्श्वनाथ मुख्य शिष्योंका महावीरस्वामीके संवमें सम्मि लिस होना, स्पष्ट उल्लेखों के द्वारा बतलाते हैं।' वस्तुत: यह है भी ठीक, क्योकि एक तीर्थकरके निर्वाण उपरान्त दूमरे तीर्थंकरके उत्पन्न होने तक पहले तीर्थंकरका शासनकाल जैनगास्त्रों मे बतलाया गया है । इसके उपरान्त नये तीर्थंकरका शामनकाल व्याप्त होजाता है और पूर्व तीर्थकरके अनुयायी नये तीर्थकर की शरण में स्वभावत 'पहुंचते है । उदाहरण रूपमें भगवान महावीरके पहले तक भगवान पार्श्वनाथका शासन चल रहा था, परन्तु महावीरस्वामी के तीर्थंकर होनेपर उनका शासन चल निकला | तीर्थकरों के उपदेशमें भी कोई अन्तर प्राय नहीं होता है । इसी कारण पूर्वागामो तीर्थकरके अनुयायी नवीन तीर्थंकरकी शरण में आते जरा भी नहीं हिचकते है प्रत्युत वह तो बड़ी भारी उत्सुकता से नवीन तीर्थंकर के आगमनकी बाट जोहते हैं, क्योंकि पहले तीर्थंकरको दिव्यध्वनिसे वह आगामी होनेवाले तीर्थंकरका विवरण जान लेते है । अतएव है और
या २५७ वर्ष जीवित रहा कहा है । ( Asiatick Researches, Vol IX. p. 209) उनसे भी 'जिन' से भाव भगवान पार्श्वनानजीका ही निकलता है, क्योकि ईस्वी ९०० में उन्हीं
सनि प्रमाणित है |
देवकी भूमिग।
CO
(S. B. E ) भूमिका, कारपेट उत्तरायान
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बनारस और राजा विश्वसेन [९९ इसी अपेक्षा ब्राह्मण कथाकार उपरोक्त उल्लेख करता है तथा कहता है कि अर्हन ने भी वैसा ही उपदेश दिया था। भगवान महावीरका शासन उनके समयसे चला आरहा है और इनके अनुयायियोको ब्राह्मणोंने 'आर्हत्' नामसे निर्दिष्ट किया है, यह भी स्पष्ट है, इस अपेक्षा महतसे अभिप्राय उक्त कथामे भगवान महावीरसे ही है । बुद्ध शब्दका व्यवहार वह म० बुद्धको लक्ष्य करके करता प्रतीत होता है, यही कारण है कि वह उनको भी जिन और अर्हन्के साथ २ संसारभरमें भ्रमण करता और उपदेश देता नहीं बतलाता है। यहां वह बिल्कुल ही ऐतिहासिक वार्ता कह रहा है, क्योंकि हमे मालूम है कि बौद्धधर्मका विकाश भारतके बाहिर सम्राट अशोकके पहले नहीं हुआ था । ' अईत् ' को ब्राह्मण कथाकार ‘महिमन' या 'महामान्य' नामसे उल्लिखित करता है । 'जिनसहस्रनाम' में हमें 'एक ऐसा ही नाम तीर्थंकर भगवानका मिल जाता है । इसकारण हम इस शब्दको भी जैन तीर्थकरके लिये व्यवहृत हुआ पाते हैं। सहगामिनी जो उक्त कथामें बतलाई गई है वह तीर्थंकरोंकी शासन देवता है; क्योकि नागोद राज्यके पटैनीदेवीके जैनमदिरमे जो नैन देवियोकी मूर्तियां और उनके नाम लिखे हैं उनमें जया और महामनुसी नामक देवियां भी हैं। (देखो मध्यभारत प्राचीन जैनस्मारक ट० १२३)। ब्राह्मण कथाकार भी जया और महामान्यको
जैन तीर्थंकरोंकी सहगामिनी बतलाता है। अस्तु; उपरान्त जो है जैनधर्मका विशेष प्रकाश होनेपर उसका नाश शङ्कराचार्य द्वारा
१-ए० हिस्ट्री ऑफ प्री० इन्डि. फिला० पृट ३७७ । २-'महामुनिमहामौनी' इत्यादि छटा अधाय देखिये ।
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२००] भगवान पार्श्वनाथ । होते बतलाया गया है, वह भी ऐतिहासिक सत्य है। इसतरह ब्राह्मणोंके बनारस अधिपति दिवोदासका वर्णन है, जिसका सम्बन्ध भगवान पार्श्वनाथसे प्रकट होता है। उससे भी भगवानका जन्मस्थान बनारस सिद्ध होता है और यह भी स्पष्ट होजाता है कि उस समय वह अवश्य ही ससारभरमें सर्वोत्तम नगर था कि ब्रह्माने उसे ही संसारभरके राज्यत्री राजधानी नियत की, तथापि यह भी प्रक्ट है कि वहांसे ब्राह्मणधर्मका प्रभुत्व हट गया था और जैनधर्मकी प्रधानता थी।
सचमुच ब्राह्मण कालमें उत्तरीय भारतके कुरु, पाञ्चाल, कौशल, शागी और विदेह ही विख्यात राज्य थे। इनमें से कुरु
और पाञ्चालोंकी तथा दूसरी ओर कौशल, जागी और विदेहोंनी सापसमें मित्रता थी। कुरु-पाञ्चालों और शेष तीनों राज्यों पारम्परिक सम्बन्ध कटुता लिए था। उपरान्त बौद्धकालमें काली बज्जियन संघमें सम्मिलित थी. यह बात हमें 'कल्पमृत्र'के क्यनसे विदित होती है । उसमें कहा गया है कि जिस रातको भगवान सहावीर निर्वाण लाभ कर सिड, बुद्ध मुक्त हुए उस रात्रिको कानी कौगलके अठारह संयुक्त राना, नौ लिच्छवि. और नौ नलिकोने अमावसके रोज दीपोत्सव मनाया था।
बौढोका सम्बन्ध भी बनारससे बहुत कुछ न्हा है। उनके शास्त्रोंमें भी इसका वर्णन व निलता है। स्वयं मा बुद्धने बौद्धधर्मका नींवारोपण यहींसे किया था। संयुद्ध होनेपर
१-बलिक एडमिनिस्ट्रेशन इन एननियन्ट इन्टिया पृ. .-." २-न्यन्त्र (S B. E Tol IXII.) पृ० २६६ ।
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, बनारस और राजा विश्वसेन। [१०? वह सीधे यहीं आये थे और यहांपर जो उनके पहले साथी तपस्या कर रहे थे उनको अपने मतमें दीक्षित किया था। यह घटना भगवान पार्श्वनाथके निर्वाण होनेके उपरांतकी है। वैसे इससे पहलेके भी उल्लेख बौद्धशास्त्रोंमें हैं; जहां वे म० बुद्धके पूर्वभवोंका जिक्र करते हुये बनारसका सम्बन्ध प्रगट करते हैं। शाक्यवंशकी उत्पत्तिमें भी काशीका सम्बन्ध उनके 'महावस्तु' नामक शास्त्रमें बतलाया गया है, तथापि कोल्यिवंशके विषयमे भी ऐसा ही उल्लेख उनके शास्त्रोंमें है। 'सुमंगलाविलासिनी' (ए० २६०-२६२) में लिखा हुआ है कि राजा ओक्काककी बड़ी पुत्रीको कुष्टरोग हो गया । उसके भाई इस संक्रामक रोगसे भयभीत हुये। उन्होने अपनी वहिनको लेजाकर एक गहन वनमें कैद कर दिया। उधर बनारसके राजा रामको भी कुष्टरोग होगया। वह घरको छोड़कर उसी वनमें भटकने लगा । अकस्मात् वनवृक्षोके फल खानेसे उसका रोग नष्ट होगया। इसी बीचमें उसने ओकाककी पुत्रीको पा लिया । उसे भी उसने उस वनवृक्षके फल खिलाकर अच्छा कर लिया और उसको अपनी पत्नी बना लिया । राजाने उसी वनमें एक कोल वृक्षको हटाकर नगर बसा लिया और उसीमे रहने लगा। अन्ततः वह नगर कोलनगर कहलाने लगा और उसकी सन्तान 'कोल्यि' नामसे प्रसिद्ध हुई। परन्तु उनके 'महावस्तु ' में इससे विभिन्न एक अन्यकथा इस वंशकी उत्पत्तिमें दी हुई है। अस्तु; इतना प्रगट है कि काशी में भी कोई राम नामक राजा होचुके हैं। जैनियोंके
१-देखो 'भगवान महावीर और नबुद्ध' पृ० ७७ । २-सम क्षत्रिय ट्राइव्स ऑफ एनशियेन्ट इन्डिया पृ० १५१-१७५। ३-पूर्व पुस्तक पृ० २०६। ४-पूर्व० पृ० २०७ ।
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१०४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
एक अन्य जातक में कौशलके राजा दव्वसेन द्वारा काशीके एक राजाके पकडे जानेका उल्लेख है । दव्यसेनने राजाको हथकड़ीबेड़ी डलवा कैद कर दिया था, परन्तु वह अपने ध्यानके बल ऊपर आकाशमें बैठे नजर आए। यह देखकर दव्वसेनने उनसे क्षमा प्रार्थना की और उनका राज्य उन्हें वापिस दे दिया ।' एक दूसरे जातक में लिखा है कि कौशलके राजकुमार ढीघावुने काशीके राजाको वनमे सोता पाकर पकड़ लिया । इम रामाने यद्यपि दीघाचुके माता-पिताको तलवारके घाट उतारा था, पर इसने उसको मारा नहींः प्रत्युत जरा ही धमकाकर उसे मुक्त कर दिया । इनपर राजाने उसे अपनी पुत्री परणा दी और उसका राज्य उसे वापस दे दिया | सारांशत' इन जातक कथाओंसे काशी - कौशलका पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट प्रगट है। जैन शास्त्र के इस कथनसे कि रामचन्द्रजी कौगलाधीश दुगरथकी आज्ञासे काम में राज्य करने लगे थे, यह स्पष्ट होजाता है कि अवश्य ही एक समय काशीपर कौनलका अधिकार था । फिर श्री ऋषभनाथजीके कागी कौशलाधिप सम्राट् भरतके आधीन थी, पार्श्वनाथ के समय में उनमें आपस में मित्रता थी और वे स्वतंत्र थे, यह प्रकट होता है; क्योंकि अयोध्या के राजा जयसेनका पार्श्वभगवानको मित्रवत् भेंट भेजनेका उल्लेख जैनशास्त्रोंमें मिलता है ।" इस प्रकार काशी और कौशलका पारस्परिक सम्बन्ध उस जमाने में था ।
तीर्थकाल में भी
परन्तु भगवान
१ - जातक भाग ३ पृ० २०२ १ २ - जातक भाग ३ पृ० १३९१४० 1 ३–उत्तरपुगण पृ० ३६९ | ४- आदिपुराण पर्व २६-६३ ।
- पार्श्वपुराण ( वाई ) पृ०
११४ |
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बनारस और राजा विश्वसेन । [१०५ काशीके योद्धा बड़े वीर और बलवान होते थे यह 'सतपथ ब्राह्मण' के एक कथनसे प्रमाणित है । वहां राजा जनकके दरबारमें याज्ञवल्क्य एवं अन्य ऋषियोके मध्यवर्ती संवादमें गार्गी यह कहती है कि मै उसी तरह केवल दो प्रश्न पूछूगी जिस तरह काशी अथवा विदेहोंके योद्धा अपने तरकसको संभालने हुए धनुषपर शत्रु भेदी दुफला बाण चढ़ाकर संग्रामके लिए उद्यमी होते हैं। इन वीर योद्धाओंसे परिपूर्ण काशीका राज्य भगवान पार्श्वनाथके समय अवश्य ही विशेष प्रख्यात था। मद्रदेश (पंजाब) के मद्रवंशीय क्षत्रियोसे भी इस राज्यका प्राचीन सम्बन्ध था और नागवंशी राजा भी यहांके राजाको अण्ने नागभवनमें बड़े आदरसे लेगये थे।
भगवान पार्श्वनाथके समय काशी और उमकी राजधानी वाराणसी बहुत ही विख्यात् थे, यह हम देख चुके हैं । वाराणसीमें बड़े२ ऊचे भव्य जिनमंदिर और सुन्दर कई कई खनके राजमहल अपूर्व शोभा देते थे। वहाके वानार सर्व प्रकारकी वस्तुओंसे परि. पूर्ण थे। जौहरी लोग करोड़ो रुपयोंका व्यापार प्रतिदिवस किया करते थे। स्त्री और पुरुष भी बड़े ही शिष्ट और धर्मवत्सल थे। इप्ती कारण वहां हरकोई सुखी सुखी कालयापन करता था। किसीको सहसा यही नहीं मालूम होता था कि संसारमें दुःख भी कोई वस्तु है। उन लोगोंके पुण्य-प्रभावसे नगर भी खूब उन्नतिको प्राप्त था और राजा भी उन्हें न्यायनिपुण, बुद्धिमान और प्रजाहितैषी
-सम क्षत्रिय ट्राइव्म इन एशि० इन्डिया पृ० १३६। २-पूर्व पुस्तक प० २२३ । ३-पूर्व पृष्ठ २४१ । ४-लाला लाजपतगय अपने 'भारतवर्षके इतिहास' (भाग १ पृ. ११६) पर लिखते है कि इंसासे . पूर्व ८०० से भारतमें ७-८ खनके मकान बनने लगे थे ।
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१०६] भगवान पार्श्वनाथ । मिल गये थे। धर्मके साम्राज्यमे भला कमी किस बातकी रह सक्ती है ! वहां तो स्वय त्रिलोकपूज्य तीर्थकर भगवानका शुभागमन हुआ था ! क्षेत्रके भाग्य खुल गये थे ' उसका नाम दुनियाके कोने में फैल गया था । सो भी तवहीके लिये नहीं बल्कि अनन्तकालके लिये आज भी भारतीय काशीधाममा नामोच्चारण करके अपनेको वन्य समझते हैं।
ईसवीसन् ६२९ और ६४४के मध्यवर्ती समयमें इस देशका पर्यटन करने ह्यूनत्सांग नामक एक चीन देशका यात्री आया था। सारे भारतका उसने परिभ्रमण किया था और पवित्र काशीराजके भी उसने दर्शन किये थे। इस पावन-स्थानको उसने उस समय तीन मील लम्बा और एक मील चौड़ा गंगाके पश्चिम तटपर स्थित बतलाया था।
इस मव्य नगरमे उस समय राजा विश्वसेन राज्य करते थे। यह इक्ष्वाकवंगीय काश्यप गोत्री महान् क्षत्री थे। वडे ही धीरवीर और गंभीर प्रजापालक नृप थे। वलवान, सुंदर सौम्य शरीरके धारक दूसरे कामदेव ही जान पड़ते थे। जैनाचार्य इनके विषयमे कहते हैं कि ---
“तत्पतिर्विश्वसेनाख्योप्यभूद्विश्वगुणकभृः । काश्यपाख्यसुगोत्रस्थ इन्वाकुवशखा शुमान् ॥३६॥ सशशी चकलाधारस्तेजम्बी भानुमानिव । प्रभुदिइवाभीष्ट फलद कल्पगाखिवत् ॥ ३७ । जिनेन्द्रपादमसत्तो गुरुसेवापरायण ।
धर्माधार सदाचारी रूपेण जितमन्मथ ॥ ३८ म १-कनिंघम, जारागफी ऑफ ऐन्शियेण्ट इन्डिया 'नया' पृ. ४९९ ।
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बनारस और राजा विश्वसेन ।
दात्ताभोक्ता विचारज्ञो नीतिमार्गगवर्तक. । गुणी प्रजाप्रियो दक्ष ज्ञानत्रयविभूषितः ॥ ३९ ॥"x बहाके राजा विश्वसेन सचमुच चंद्रमाके समान कलाघर थे और उनका तेज सूर्यके समान था । वह कल्पवृक्षोंकी तरह सबको संतृष्ट करनेवाले थे। जिनेन्द्र भगवान के चरण-कमलो मे परम आसक्त थे । भगवान नेमिनाथके पवित्र तीर्थमे विचरते हुये सर्व हितैषी, तिलतुषमात्र परिग्रह रहित परमविवेकी निर्ग्रथ गुरुओकी वह सदा सेवा किया करते थे । मुनिराजोंको विधिपूर्वक पड़गाह कर भक्ति से गद्गद होकर वह राजा पुण्यके द्वार आहारदानको दिया करते थे । उन सद्गुरुओं के वचनामृतका पान तृषित चातककी भांति वह नित्य ही करते था । धर्माचरण और सदाचारके पालनमे वह कोई को कसर उठा न रखते थे । कामदेवको लजानेवाले रूपको धारण किये हुये वह दान देनेके लिये दाता थे । भोगोपभोगकी सामिग्रीका उपभोग करनेके लिए भोक्ता थे और राज्यरक्षाका समुचित प्रबंध करने के लिये विचारज्ञ थे । फिर भला ऐसे धर्मवत्सल नृपका प्रवर्तन नीतिमार्ग में होना स्वाभाविक ही था । वह गुणी था - प्रजाप्रिय था और पूर्ण दक्ष था । और तो और मति, श्रुति और अवधि इन तीन ज्ञानोसे } विभूषित था । इसलिये वह साधारण मनुष्योंसे कुछ विशेष था !. इन प्रजावत्सल महाराज विश्वसेनकी पट्टरानीका नाम ब्रह्मदत्ता था | वह महीपालपुर के राजा महीपालकी पुत्री थी। जैसे ही राजा विश्वसेन रूप और गुणोंमें अद्वितीय थे वैसी ही वह उनकी प्रिय अर्द्धांगिनी थीं । उनको पाकर राजाके निकट 'सोनेमें सुगंधि' की
[ १०७
श्री सकलकीर्ति आचार्य विरचित 'पार्श्वचरित' सर्ग १० लो० ३६-३९.
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१०८] भगवान पार्श्वनाथ । उक्ति चरितार्थ हुई थी। वह रानी महा भीलवान और गुणोंकी खान थी। जिस तरह वह अपने सौन्दर्यमें एक थी वैसे ही वह विद्या और कलाओंमें परमप्रवीण थी। नृप विश्वसेनके चंचल मनको वह अपने रूप और गुणोसे स्थिर करने में चतुर थी। उनकी नहिमाका वर्णन जैन कविके निन्न पद्योंद्वारा करना ही पर्याप्त है:"नखसित सहज नुहागिनि नार, तीन लोक तियतिलक निगार : नरल मुलन्छन नंदिन देह, भाषा मधुर भारती चंद्र ।। रंभा रति जिम आगे दीन, गेहिनिल्प लग छवि छीन । इन्द्रव इमि दी सोय, गविति आगे दीपक लोय ॥ जनन हग्य बढ़ावन एन सावित्र-चन्द्र वहिका जन ! नरल सार गुनमनिकी खानि, नीलमन्पदाकी निधि जानि ॥ सबनताकी अवधि अनृप, कला मुविकी नीनारप । नान लेन अघ तज मनीप, मना-उत्प-मुक्तारल-नी ॥ त्रिभुवननाथ रनकी मही, बुधिवल नहिना जाय न कहीं । वहुविध दम्पति नपति जोग, मैं पुनीत पुन्य फल भोग -
इन ललना-ललाम महाराणी ब्रह्मदत्ताकी सगतिमें महाराज विश्वसेन आनन्दसे काल्यापन कर रहे थे। समुचित रीतिसे 'प्रजाका पालन करते थे और धर्माचरण एवं शास्त्रमनन द्वारा आत्म कल्याण करते थे। बनारसकी प्रना भी उनकी छत्रछायामें परम सुखी थी। श्रावोंके पडावश्यक कौन उस नगरीमें सूव पालन होता था । अहिसाधर्मका प्रभाव वहां ओर व्याप्त था। सोनेके कलशोंसे मंडित अपूर्व कारीगरीके जिनमंदिरोंमें प्रतिदिवस मात्मरूपकी सुध दिलानेवाली, चंचल मनको सर्वज्ञ भगवानके गुणोंमें अनुरक्त करनेवाली एवं महापुरुषोंकी नीतिकृतज्ञता ज्ञापनकी मर्या
- कविवर मृघग्दास कृत "पाशेषगरी पृ० ८३ ।
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भगवानका शुभ अवतार ! [ १०९ ढाको बतलानेवाली - स्वर्ग और मोक्षका साक्षात् कारण जिनपूजा बड़े भक्तिभावसे होती थी ! उस समय के बनारसका सलौना दृश्य सबका ही मन हरनेवाला था । सब ही वहां आनन्दमग्न रहते थे । धर्मके प्रियकर धवल आलोकमें वहां किसी बातकी बाधा नहीं थी ! आज भी पुरातन वार्ताको प्रकट करनेवाला एक जैन मंदिर भेलूपुरामें विद्यमान है । इसप्रकार बनारस और उसके राजा विश्वसेनके दिग्दर्शन करके हम कृतार्थ होजाते हैं । अगाडी आइये, पाठकमहोदय, प्रभुके पवित्र आगमन में उनके दर्शन करलें ।
( ९ ) भगवानका शुभ अवतार !
“अन्वितान्त्रित विपातिनूतनानेकरत्नरुचिमेचकं नभः आदधौतनुभृतामभित्तिकं चित्रमेतदिति विस्मितां मतिं ।' आस्खलन्निपतदिंद्रनीलनिर्भासजालवहलांघकारिते । भातु मानुभिरभाविभावितव्योमनि कचिदकांडकुंठितैः।।" - श्री पार्श्वनाथ चरित्र |
बनारस अद्वितीय शोभाको धारण किये हुये था ! ' भावी तीर्थंकरका जन्म होनेवाला है' यह जानकर सुरगणोकी विभूतिसे उसकी शोभा और भी बढ़ गई थी । इन्द्रकी आज्ञासे कुवेर ने भगवानको महाराणी ब्रह्मदत्ता के गर्भमें आनेके छह महीने पहलेसे ही रत्नवृष्टि करना प्रारम्भ कर दी थी । इस अद्भुत वृष्टिकी चित्रविचित्र प्रभासे उस समय सारा आकाश ही रंगविरंगा होगया था । तथापि 'लगातार पडनेवाले नवीन रत्नोसे रंगविरंगा दीख पड़ने
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११०] भगवान पार्श्वनाथ । वाले आकाशने वहाके लोगोंकी बुद्धिको उस समय विस्मित कर दिया था और बिना किसी प्रकारकी रुकावटके धडाघड पडती हुई इन्द्रनीलमणियोकी कातिसे अधकारित आकागमें सूरजकी किरण असमयमे ही कुठित होगई थीं।'' कभी पमरागमणियोकी वर्षासे आकाश लाल होजाता था तो कभी सुवर्ण वर्षासे पीला ही पीला नजर आता था । सचमुच रत्न आदि निधियोंकी उस समय इतनी वर्षा हुई थी कि उनको ग्रहण करनेवालोकी तृष्णा भी सकुचा गई थी।
___ इन्द्रकी आज्ञा पाकर छप्पन दिक्कुमारिया भी शीघ्र ही बनारसमें आई थी। विशाल और उन्नत रानमवनमें प्रवेश करके उनने रानी ब्रह्मदत्ताके दर्शन पाके अपनेको कृतार्थ माना था। उस अनुपम रूपवान् रानीकी वन्दना करके वे देवियां उसकी सेवा करने लगीं। 'कोई तो महाराणीका उवटन करने लगी, जिसके कारण वह विश्वसेनकी प्रियतमा अमृतमयी सरीखी सुशोभित होने लगी
और कोई उसे सुन्दर अलंकार एव चन्दनहार पहनाने लगी जिससे उस रानीका मुख ताराओसे वेष्टित चद्रबिम्ब जैसा सुन्दर दिखने लगा।२ कभी वे देविया उसके मनको अलौकिक नाच नाचकर मुग्व करतीं तो कभी मनोहर रागोको अलाप कर उसे प्रसन्न कर देती ।' यह दिन उन महारानीके लिये बड़े ही मनोरम थे। उनकी सेवामें ये सुर-कन्यायें सदा उपस्थित रहती थीं। महारानी भी सदैव प्रप्तन्न-चित्त रहा करती थीं और धर्माराधनमें दत्तचित्त रहती थीं।
'महाराज विश्वसेन भी इस विभूतिको देखकर बडे ही प्रसन्न होते थे। - • I वास्तवमें धर्मकी महिमा ही अपार है । पुण्य प्रभावसे अलौ
4-पावचरित (कलकत्ता) पृ० ३४२ । २-पूर्व० पृ० ३४०-३४१ ।
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भगवानका शुभ अवतार !
किक बातें भी धर्मात्माके निकट अपनी अलौकिकता खो बैठती हैं। तीनो लोकोंमें कोई ऐसी वस्तु नही है जो धर्मसे बढ़कर हो और उसकी आराधनासे वह मिल न सके ! और न ऐसा कोई कार्य है जो धर्म-प्रभावसे सुगम न होजाय । भौतिकवादके वर्तमानकालमें रहते हुये साधारण मनुष्योंके लिये अवश्य ही यह सब आश्चर्य भरी बातें हैं, परन्तु जिसे आत्माकी अनन्त शक्तिमें विश्वास है, उसके लिये यहां विस्मयको कोई स्थान ही शेष नहीं है । देव भी कोई विशेष पुण्यवान जीव है, यह आज पाश्चात्य भौतिकवादी भी स्वीकार करने लगे है । ब्राह्मण और बौद्धग्रन्थ भी प्राचीनकालमे यहां देवोंके आगमनका वर्णन करते मिलते है। इस दशामे जैनशास्त्रोंके उक्त कथनमें विस्मय करना वृथा ही है । अस्तु !
एकदा राजदरबार लगा हुआ था । मंत्री, सेनापति, रानकर्मचारी और सब ही दरबारी अपने२ स्थानपर बैठे हुये थे । राजा विश्वसेन भी राज्यसिहासन पर विराजमान थे, राज्यछत्र लगा हुआ था, चवर ढोले जारहे थे। इसी समय अन्तःपुरवाले मार्गकी
ओरसे जय-जयकारका घोष सुनाई दिया। देखते ही देखते परिचारिकाओसे वेष्टित महार णी ब्रह्मदत्ता वहां आती हुई दिखलाई दी । दरबारियोंने यथोचित रीतिसे महाराणीका स्वागत किया और राजा विश्वसेनने बडे आदरसे उन्हें अपने पास आधे आसनपर बैठा लिया। सचमुच उस समय दरवारी तो ऐसे मालूम होते थे जैसे तारे हो और राजा विश्वसेन उनमे चाद सरीखे थे, तथापि महाराणी उनके बीच चंद्रिकाके अनुरूप विकसित हो रहीं थीं। इस अवसर पर सब ही लोग उत्सुकतासे महाराणीके
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११२] भगवान पार्श्वनाथ । आगमनका कारण जाननेको उत्कण्ठित हो उठे। महाराणी भी वड़े मिष्ट स्वरमें विनयके साथ शिष्ट वचनोंमें 'शत्रुओके मुकुटमणिकी आभासे चमचमाते हुए चरणकमलवाले' अपने पति राना विश्वसेनसे यो कहने लगी कि 'हे देवोके प्रिय आर्य ! आज रात्रिको जिस समय मैं सो रही थी तो उस समय रातके पिछले पहरमे मुझे हाथी, बैल, सिंह, कमल, पुप्पमाल, सूर्य, युगल, मीन, कलश आदि सोलह स्त्रम दिखाई पड़े थे, तथापि गजको मुखमें प्रवेश करता हुआ जानकर मैं रोमांचित ही होगई थी। हे आर्य ! तब ही से मुझे आपके निकट आकर इन स्वप्नोंका फल जाननेकी उत्कण्ठा लग रही थी। प्रिय ! प्रातः होते ही नित्यकी शौचादि क्रियायों और भगदजनसे निवृत होकर मैं आपकी सेवामे उपस्थित हुई है। महारान | इन स्वप्नोंका फल वतलाकर मेरे चचल मनको शांत कीजिए।'
राजा विश्वसेन अपनी प्रिय अङगिनीके मुखकमलसे यह वर्णन सुनकर बडे ही प्रसन्न हुये। उन्होंने अत्यन्त प्रियकर गन्दोंमें महाराणीके प्रश्नका उत्तर देना प्रारंभ किया और अपने दिव्य अवधिज्ञानके आधारसे उन्होंने उन सोलह स्वप्नोका उत्कष्ट फल रानीको यह बतलाया कि तेरे गर्भमें तेइसवें तीर्थकर भगवान पाचनायके जीवका अवतरण हुआ है। रानी इस फलको सुनकर बड़ी ही हर्पित हुई मानो रकको निधि ही मिल गई हो । दरबारी भी फूले अग न समाये । सत्रहीने मिलकर आनंद उदधिमें गोते लगाए !
वह वेगाख माप्तका कृष्णपक्ष था और हितीयाकी तिथि थी कि रात्रिके अवसान समयपर महाराणी ब्रह्मदत्ताने त्रिलोकवन्दनीय
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भगवानका शुभ अवतार !
श्रीजिनेन्द्र भगवानको गर्भमें धारण किया था। नक्षत्र भी विमल, - विशाखा नक्षत्र था। जैनाचार्य इस शुभ घटनाका उल्लेख यूं करते हैं
'अथ दिविजवधूपवित्रकोष्ठ जठरनिवासमुपेतमनितेंद्रम् । अवहद दयिता नृलोकभर्तु खनिरिव सारमणिं निगूढकातिम् ॥'
अर्थात्-'जिसप्रकार छिपी हुई कांतिको धारण करनेवाली उत्कृष्ट मणिको, खानि अपने उदरमें धारण करती है, उसी प्रकार
मनुष्य लोकके स्वामी रामा विश्वसेनकी प्रियतमाने आनत स्वर्गसे - आये हुए भगवान पार्श्वनाथके जीव आनतेन्द्रको छप्पन दिक्कुमाके रियों द्वारा शुद्ध किये गये अपने उदरमें धारण किया।' ( पार्श्व२ चरित पृष्ठ ३४५)। .
इसप्रकार भगवान पार्श्वनाथ आनत स्वर्गसे चयकर महार राणी ब्रह्मदत्ताके गर्भमें आगये । उनके गर्भ में आनेसे वह महाराणी
उसी तरह विशेष शोभित होने लगी जिस तरह पूर्व दिशा प्रतापी a सूर्यके उदय होनेसे मनोहर बन जाती है । भगवानके गर्भावतारका र उत्सव भी विशेष सजधनके साथ मनाया गया था। देवलोकके
इन्द्र और देवगण बनारसमें आये थे और उन्होने जिनेन्द्रका 'गर्भद कल्याणक' महोत्सव किया था, यह जैनशास्त्र प्रकट करते हैं।
महाराणी ब्रह्मदत्ता वैसे ही विशेष गुणवती और विद्वान थीं, है परन्तु भगवानको गर्भमे धारण करनेपर उनने स्त्रियोके स्वभावोचित त सब ही गुणोंको सहज ही अपनेमें उदय कर लिया । भगवानका । ऐसा दिव्य प्रभाव था कि गर्भके बढ़ते जानेपर भी महाराणी ब्रह्म, दत्ताका उदर नहीं बढ़ा था। भगवान उनके गर्भमें उसी तरह
विराजमान थे, निसतरह सरोवरमे कमल कीचड़से अलग रहता है।
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११.८] भगवान पार्श्वनाथ । यह तीर्थकर भगवानकी पुण्य प्रकृतिका प्रमाव था । पूर्व जन्मान उन्होंने किस प्रकार देवना, गुरुभक्ति, व्रताचरण आदिकी टल. प्टताले पुण्य संचय किया था. यह हम पूर्व प्रकरणों में देख चुके हैं। इन्हीं धर्मनायोंके बल एक मत्त हाथीकी गतिमें पड़ा हुला जीव आत्मोन्नति करके त्रिलोक वंदनीय परमात्मा होगया | वन गव बन गया ! हमारे लिये इससे बढ़कर और आदर्ग क्या हो सत्ता है ?
महाराणी ब्रह्मइत्ताके नौमास बडे ही आनन्दसे त्रीने । दिवकुमारिया सदा ही उनकी सेवा सुश्रूषामें उपस्थित रहतीं थीं, वे उनकी तचिके अनुसार ही विनोद क्रियायें करके उनके हृदयको प्रफुल्लित करती थी। जब वह गूढ अर्थको लिये हये श्लोकोंन जय महाराणीसे पूछती थीं और वे यथोचित उनका उत्तर देती थीं, तब सचमुच यही भासने लगता था कि महारागीकी प्रत्तर बुद्धिको गर्भस्य वालचके दिव्यज्ञानने और मी प्रकाशमान कर दिया है। इधर देवों द्वारा रत्नवृष्टि पहलेकी भांति होरही थी। जिसने देखकर महाराणीना मन सदैव प्रसन्न रहता था । नियमित समयके पूर्ण होनपर महाराणीने पौष कृष्ण एकादशीके पवित्र दिन भगवान पार्श्वनाथन 'उसी तरह जना जैसे पूर्वदिशामें सूर्यका जन्न होता है। भगवान आनंदमई जन्मसे तीनों लेकके सब ही प्राणी हर्षित होगये। एक क्षण के लिये सब ही अपने दु.खो मूल गये । नक्रम पड़े हुए दाल्ण दुख सहते नारकियोंको भी उस समय सान्त्वना मिल गई ! तीर्थकर प्रकृतिच्न प्रभाव ही अगर होता है। आचाय कहते हैं:--
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भगवानका शुभ अवतार !
'उपनतमुख सुप्रसन्नदिक्क नियमितसर्वरजः कणानुबधम् । जिनवरजनने जगत्समस्त क्षणमिव मुक्तामभूदमुक्तरागम् ॥ नवपरिमल सौरभावकृष्टभ्रमदलिमेचकितान्मरुत्पथागात् ।
[ ११५
अविरल बहला सुदुर्माणा नृपतिगृहे निपपात पुष्पवृष्टिः ॥' अर्थात- तीन लोकके नाथ भगवान जिनेन्द्रके जन्मते समय धूलिके करणोंके नियमित हो जानेपर समस्त दिशाएं निर्मल होगईं; उस समय क्षणभरके लिये समस्त जगत शांत होगया और उसके आनंदका पार न रहा । उस समय मनोहर सुगंधिसे खींचे गये जो भनभनाट करते हुये भ्रमर उनके संबंधसे चित्रविचित्र और उत्कृष्ट सुगंधिको धारण करनेवाले कल्पवृक्षोंसे जायमान पुष्पोकी वर्षा आकाशसे राजा विश्वसेनके मंदिर में होने लगी । (पार्श्वचरित ४० ३४७) ।
देवोंके सचिव इन्द्रका आसन कंपायमान होगया, कल्पवासी देवोंके विमानोंमें स्वयं घंटे बजने लगे, ज्योतिषी गृहोंमें अपने आप सिंहनाद होने लगा, व्यन्तरोंके आवासो में भेरीका शब्द अकस्मात् हो निकला और भवनवासी देवोके भवनों में शंखध्वनि होने लगी है सारांश यह कि सारे भूमडलपर प्रसन्नता की एक लहर दौड़ गई । जिस प्रकार विनातारकी तारवर्की ( Wireless Telegraphy ) द्वारा एक विद्युत लहर वातावरणमे व्याप्त होकर निर्दिष्ट स्थानोके कलपुर्जोको चलायमान कर देती है, उसी प्रकार श्री तीर्थंकर भगवान के जन्मसे एक ऐसी आनंदभरी विद्युत लहर सारे संसार में फैल गई कि स्वयं सर्वत्र हर्ष ही हर्ष छागया ! प्राकृत रूपमें ऐसी घटना घटित होना अनिवार्य थी ।
देवोंने जब उक्त घटनाओंके वल श्री तीर्थंकर भगवानका
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११६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
कल्याणकारी जन्म हुआ जाना, तो वे वनारसकी ओर चल दिये । बडी सजधजके साथ सौधर्मेन्द्र भी आया एवं और सब देव भी आये । सवोने मिलकर बड़ा भारी आनंदोत्सव मनाया । आखिर सौधर्मेन्द्रकी आज्ञा से शचीने महाराणी ब्रह्मदत्ताको निद्राके वशीभूत कर दिया और एक मायामई वालक उनके पास लिटाकर वह बालक भगवानको इनके पास ले आई । इन्द्र अनुपम बालकको देखते ही गढ़द होगया । उनके अपूर्व रूप लावण्यको ढो आंखों से ही देखकर वह तृप्त न हुआ बल्कि अपनी तृष्णाको मेटने के लिये उसने अनेक कृत्रिम नेत्र बनाकर बालक - भगवान के दर्शन किये और उनकी विशेष रीतिसे स्तुति की। उपरान्त भगवानका जन्माभिषेक करनेके लिये वह सुमेरुगिरि पर्वतपर लेगया । वहाके यांडुकवनमें रत्नजटित शिलापर भगवानको विराजमान किया और क्षीरसागरका निर्मल जल देवद्वारा मंगवाकर उसने भगवानका अभिषेक १००८ कलशोद्वारा किया । उस समय अद्भुत उत्साह चहुओर दृष्टि पड़ने लगा । सव ही सुरागणाएं जयजयकार करने लगीं !एक कोलाहलसा मच गया ! जैन कवि भगवानके अभिषेक संबंध कहता है कि
जा वारासो' गिरिसिखर, खट खड हो जाप । सो धारा जिन देहवे, फूलकली सम थाय ॥ अप्रमान वीरज वनी, तीर्थेवर प्रभु होय | वार्षे तिनकी सकति, उपमा लौ न कोय ॥ नीलवरन प्रभु देहपर, क्लम-नीर छवि एम । नीलाचल सिर हेमके, बादल वग्मे जेम ॥ चली के नीर्खा, उछल छटा नभ माहि
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भगवानका शुभ अवतार।
[११७
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स्वामि सग अघविन भई, क्यों नहिं ऊरध जाहि ॥ न्हौन छटा तिग्छी भई, तिन यह उपमा धार ।
दिग वनिता-मुख सोहियै, करनफूल उनहार ॥'
इस प्रकार न्हवन कर चुकनेपर इन्द्र और शचीने बड़ी विनयसे बालक भगवानकी पूजा की और फिर वह भगवानसे विनय करने लगा कि 'हे भगवन् ! आपकी कृपास्वरूप आत्महितके विना अनादिकालसे सम्बन्ध रखनेवाले प्रबल कर्मोका नाशक विवेक स्वरूप नेत्र लोगोको प्राप्त नही होसक्ता। आपकी कृपा विना वे कर्मोके नाशके लिये समर्थ नही होसक्ते।' इसी तरह बहुत देरतक विनय कर चुकनेपर सब देवलोग बनारस लौट आये ।
इन देवोंको इस प्रकार सजधजके साथ आता हुवा देखकर राजा विश्वसेनको बड़ा आश्चर्य हुआ। परन्तु इन्द्रने राजाको सब भेद बतला दिया और कहा कि नियमानुसार देवगण भगवानके गर्भ, जन्म आदि पांच कल्याणकोंपर उत्सब मनाने आते हैं, उसी अनुरूप मैने भगवानका जन्मकल्याणक उत्सव मनाया है। यह कहकर आचार्य कहते हैं कि इन्द्रने इस प्रकार भगवानका नाम रक्खा।
'अनुपमसुखधामपार्श्ववृत्त्या सकलजगद्विषय प्रभावभूम्ना । सविनयमयमुच्यता समस्तैर्भुवनगुरुवसुधेश पार्श्वनाथः ॥५७॥'
अर्थात्-ऐसा कहकर इन्द्रने, उस समय भगवान जिनेन्द्रके पार्श्व (पास) में अद्वितीय सुख और कांति दीख पड़ती थी और समस्त जगतपर उनका प्रभाव पड़ा हुआ था, इसलिये तीन लोकके स्वामी जिनेन्द्रका पवित्र नाम पार्श्वनाथ रख दिया। (पार्श्व०४० ३६२) १-विश्वसेननृपः सार्द्ध देव्या बधुजनैस्तरा ।
प्रीतिमायातिसाश्चर्यो दृष्ट्वातनाट्यमूजितं ॥ १०० ॥
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दिया
११८] भगवान पार्श्वनाथ ।
फिर इन्द्रने बालक भगवानको राजा-रानीके __ ओर उनकी वडी विनयसे पूजा की। इसपर सब देवोंने मिलकर सबके मनोको मोहनेवाला अद्भुत नाट्य रचा जिसे देखकर राजा
और रानी एवं सब ही उपस्थित भव्यगण बडे ही आनंदमन हुये। इसके बाद इन्द्र और सब देवलोग अपनेर स्थानोंको चले गये।
राजा विश्वसेनने भी पुत्रका जन्मोत्सव बड़े ही ठाठवाटसे मनाया । सारी बनारस नगरी एक छोरसे दूसरे छोरतक जगमगा उठी और चहुंओर आनंद छा गया । वढीगण मुक्त कर दिये गय याचकोको दान दिया गया और प्रजाका मान किया गया । और त्रिलोकवदनीय तीर्थंकर भगवानको अपनी गोदमें धारण करक राजा-रानी अपने भाग्यकी सराहना करने लगे। पूज्य भगवान माता पिता होनेसे बढ़कर और कौनसा पद संसारमें श्रेष्ट है ? वहा सर्वोत्कृष्ट है। अतएव हम भी यहांपर जन्मोत्सव प्रकरणमें भगवान और उनके मातापिताके निकट नतमस्तक हो लेते है।
नयतीति एव पार्श्व यो भव्यान तोहि सार्थक । अस्य चक्रुः सुरा पार्श्वनामपित्रो प्रसाक्षिक ॥ १०१॥ सर्ग २३
इति सकलकार्तिः।
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NANA
कुमारजीवन और तापस समागम। [११९
(१०) कुमारजीवन और तापस समागम ! _ 'हिमकरमुखमंबुजोपमाक्ष पुरपरि धायतबाहु तुच्छमध्यम् ।
पृथुतर विलसद्विशाल वक्षस्तरलतमाल रुचिप्रकाश रुच्यम् ॥६१ ; अतिसित रुधिर सरोजगंधि व्यपसृत धर्मजलं मलादपोढम् ।
प्रसकल शुभलक्षणोपपन्नं प्रथमक संहननं मनोज्ञ कांतिम् ॥दर कुलगिरितल भूमि संधिवन्धं श्लथपरिहास विधिक्षम जवेन । वपुरथ परमेश्वरेण बभ्रे शतमख हस्तसरोजराजबिंबम् ॥६३॥'
-पार्श्वनाथचरित्र । तीनो लोकोंको सुख दाता जिनेन्द्र पार्श्वनाथका जन्म हो गया । वे बालक भगवान शुक्ल पक्षके चन्द्रमाकी तरह धीरे२ बढ़ने लगे, शिशु अवस्थाकी कोमल मुस्कान और सरल अठखिलियोंसे माता-पिता और बंधुजनोंका मन हरने लगे, देखते २ वे अटपटे पैरोंसे चलने भी लगे। अपने प्रफुल्लित मुख और बाल्यकालीन चंचल क्रीड़ाओंसे सबको बडे ही प्रिय लगने लगे। कभी आप उझककर धायसे दूर भाग जाते, तो कभी रत्नजड़ित दीवालोंमें अपनी परछाई देखकर उसको पकड़नेको कोशिष करते । इस तरह बाललीला करते वह आठ वर्षके होगये । इस नन्हीसी उमरमें ही उनकी बुद्धि बडी कुशाग्र थी और वे नैतिक आचारकी मर्यादाका पालना करने लगे थे। जैन शास्त्र कहते है कि इसी समय आपने श्रावकोके अणुव्रतोको धारण किया था। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील १-वर्णाष्टमे स्वय देवत्रिज्ञानज्ञ सपचधा।
आददेणुनतान्येव गुणशिक्षात्रतानि च ॥ १७ ॥
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१२० ]
भगवान पार्श्वनाथ |
और परिग्रहका एकदेश - आशिक त्याग कर दिया था। वह जान वूझकर इन दुष्कर्मो प्रवत्त नहीं होते थे । ऐसे विवेकमय आचरणका अभ्यास करते हुये, वह आनन्दसे सुर- कुमारोंके साथ अनोखे खेल खेला करते थे ।
उनका शरीर जन्मसे ही मल, मूत्र, पसीना आढिसे रहित चडा ही स्वच्छ था ।' उसमेका रुधिर दूधके समान सफेद था। वह 'परमोत्कृष्ट शक्तिकर परिपूर्ण था । जैनशास्त्रोंमें उसे 'सुसमचतुरसंठान शरीर ' बतलाया गया है। उसमें स्वभावत एक प्रकारकी प्रिय सुगंधि आती थी और वह 'सहसमटोत्तर' लक्षणोंसे मडित था । सचमुच जैसे वे भगवान महापुरुष थे वैसा ही उनका सुभग शरीर था । एक जैनाचार्य उपर्युक्त श्लोकोंमें भगवान पाश्वनाथके शरीर सौन्दर्यका वर्णन यूं करते हैं:
'भगवान जिनेन्द्रका मुख चन्द्रमाके समान था । नेत्र कमलके समान थे, भुजा परिषाके समान विशाल थीं । कटिभाग पतला और वक्ष स्थल मनोहर किंतु विशाल था । एवं शरीरकी काति तमालवृक्षके समान मनोहर थी। उनका शरीर सफेद रुधिरका धारक कमलके समान सुगंधिवाला, स्वेदजल, मलमूत्रादिसे रहित, समस्त शुभ लक्षणोंका धारक, वज्जवृषभजाराच नामक उत्तम संहननसे युक्त, महामनोहर, कुलपर्वतकी भूमिके समान संघियोंका धारक और कड़ा
सप्तधा स्वर्गकर्ती निस्वयोग्यान्य पराप्यपि 1 त्रिशुद्धयान्यरतीचाराणि सागार वृषाप्तये ॥ १८ ॥
- पार्श्वचरित सर्ग १४ ।
१ - - तित्ययग तप्पियरा हलहर चकाइ वासदेवाह । परिवाम भोवमृमिय आहारो णत्थि णीहारो ॥'
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[ १२१
कुमारजीवन और तापस समागम । था एवं उसमें इन्द्रके मनोहर करकमलोकी विंव पड़ती रहती थी अर्थात् सदा उसकी सेवा इन्द्र किया करता था ।'
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इसप्रकार अपूर्व सौन्दर्य के आगार भगवान पार्श्वनाथ कुमार अवस्थाको प्राप्त हुये ! क्रमकर उनके नीलवर्णमई नौ हाथ ऊंचे शरीरमें यौवन के चिन्ह प्रकट हुये । वे भगवान शीघ्र ही युवाव-स्थाको प्राप्त होगये, किन्तु यहांपर हमे भगवानकी शिक्षा-दीक्षाके सम्बंध में कुछ अधिक विचार कर लेना चाहिये । मानवताका जो महत्व है उसे देख लेना हमे इष्ट है । मनुष्य होकर हमें अपने पूज्य तीर्थंकर भगवान के दर्शन मनुष्यरूपमें करनेकी लालसा करना -स्वाभाविक है । किन्तु हत्भाग्य से वह इतने प्राचीनकालमे हुये हैं कि जिसका इतिहास पूर्णत ज्ञात नही है और जिससे उनके विषयमें कुछ अधिक स्पष्ट रीतिसे कहा नहीं जासक्ता है। जो कुछ जैन शास्त्रों में उनके बाल्य और कौमार कालोंका विवरण मिलता है उनसे यही ज्ञात होता है कि भगवान नन्हीं आवस्था से ही धार्मिक रुचिको धारण करनेवाले और नीतिमार्गका पालन करनेवाले व्रती श्रावक थे । वह इस छोटी अवस्था में ही हमारे सामने एक अनुकरणीय आदर्शके रूपमे नजर आते हैं परन्तु यह ज्ञात नहीं है कि उनकी शिक्षा किस प्रकार हुई थी । जैन शास्त्र तो कहते हैं कि वह जन्मकाल से ही मति, श्रुति, अवधिज्ञान कर संयुक्त थे, और इस तरह वे एक पूर्वनिर्मित मूर्तिकी भांति ही हमारे अगाड़ी रक्खे गये प्रतीत होते हैं । परन्तु यदि हम विशेष पुण्य प्रकृतिके अतुल प्रभावको ध्यान में रक्खें तो इस प्रकार उनका जन्मसे ही विशिष्टज्ञानी होना कुछ 7- पार्श्वनाथ चरित पृ० ३६४ ।
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१२२] भगवान पार्श्वनाथ । असंगत प्रतीत नहीं होता। वेशक आजकलके जमानेके लिये यह एक वेढगी और अटपटी बात है। किन्तु पहलेके आत्मवादी जमानेमे इसमें कुछ भी अलौकिकता नहीं समझी जाती थी। भगवान पाश्वनाथ अवश्य ही हम आप जैसे एक मनुप्य थे, परन्तु उन्होने इस उत्कृष्टताको अपने इसी एक भवमे नहीं पाया था, बल्कि अपने पहलेके नौ भवोंसे ही वे इतनी उन्नति करते चले आरहे थे कि इस भवमे आकर उनकी आत्मा परमोच्चपदको प्राप्त हुई थी । इस विकाश क्रमको हमें नहीं भुला देना चाहिये और इसमें आश्चर्य करनेको कोई स्थान शेष नहीं रहता है । जैनशास्त्र आपके शिक्षादिके सम्म न्धमें यही कहते हैं । यथाः
'मतिश्रुतावधिनानान्येवास्य सहजान्यहो । भैरवोधिसनिः शेष तत्व विश्व शुभाशुभ ॥ ११ ॥ कलाविज्ञान चातुर्य श्रुतज्ञान महामते । विश्वार्थावगमतस्य स्वय परिणति यवौ ॥ १२ ॥
भगवान मति, श्रुति, अवधिज्ञान द्वारा जन्मसे ही विभूषित थे। कला, विज्ञान, चातुर्यतामें उनकी समानता कोई कर नहीं सक्ता था। विश्वभरकी सर्व विद्यायें आपको स्वयं प्राप्त हुई थीं। यह महापुरुषोंके लिये कोई अनोखी बात नहीं है, तिसपर भगवान पार्श्वनाथ तो उपरान्त अनुपम साक्षात परमात्मा ही हुये थे । अस्तु:
एक रोज सभा लगी हुई थी। राजकुमार पार्श्वनाथ प्रसन्न चित्त हुए अपने सखाजनोंके साथ आनन्दगोष्ठि कर रहे थे। इसी समय वनपाल-मालीने आकर रानकुमारसे वनमें किसी एक साधुके आगमन सम्बन्धी ममाचार मुनाये । राजकुमार पार्श्वनाथने अपने अवधिज्ञान (Clnirororance )से काम लिया। उन्होंने उस
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कुमारजीवन और तापस समागम । [१२३ साधुके रूपको जानकर वहां जाना ही आवश्यक समझा । सखाजनों और अंगरक्षको सहित बडे ठाठ-वाटसे वे हाथीपर सवार' होकर बनविहारके लिये निकले । विहार करते २ वही पहुंच गये जहां वह साधु आया हुआ ठहरा था । राजकुमारने देखा यह साधु उनका नाना महीपाल है, जो अपनी रानीके विरहमे व्याकुल होकर तापसी होगया है और पंचाग्नि तप रहा है। राजकुमारको उसकी इस मूढक्रियापर बड़ा तरस आया । वे सरल स्वभाव उसके पास जा खड़े हुये । तापसी यकायक पार्श्वनाथको चुपचाप अपने पास' खड़ा देखकर क्रोधके आवेशमें आगया। वह बोला-"मै ही तुम्हारा नाना हूं, और राज्यविभूतिको पैरोंसे ठुकरा कर आज कठोर तपश्चरणका अभ्यास कर रहा हूं; फिर भी तुम्हें इतना घमण्ड है कि मुझे प्रणाम करना भी तुम बुरा समझते हो । प्रणाम करनेमें तो तुम्हें शर्म ही आती है न ?" |
राजकुमार पार्श्वनाथने तापसीके इन कटु वचनोंसे जरा भी अपने चित्तको विषादयुक्त नहीं बनाया ! उन्होने सहज ही जान लिया कि वह कितना सन्यास परायण है और उत्तरमें कहा कि'अज्ञानी होकर यह हिसामय तप, हे तापस ! तुम क्यों तप रहे हो ?' इतना सुनना था कि तापप्त आग बबूला होगया! उसकी भडकी हुई क्रोधाग्निमें राजकुमारके उक्त शब्दोंने घीका ही काम किया। पूर्वभवका इनका आपसी संयोग ही ऐसा था । यह तापस कमठका ही जीव था, जो नर्कसे निकल कर अनेक कुयोनियोंमें भटककर किंचित् पूर्व पुण्य-प्रभावसे महीपालपुरका राजा हुआ था और फिर तापसका वेष धारण करके इस समय राजकुमारके प्रति रोष
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`१२४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
प्रकट करते हुए अपने पूर्व वेरको दर्शा रहा था ! चह तडप कर -चोला, "चल रहने दे | तू इस समय निरंतर होनेवाली सम्पत्ति से उन्मत्त है, अन्यथा और कोई मनुष्य मुनियोंसे ऐसे अनुचित शब्द "कैसे कह सक्ता है ?" यह कहकर वह राजकुमारसे विमुख होकर शांति होती हुई अग्निको सुलगाने के लिए एक लक्कड़ फाड़ने लगा । भगवानने उसे बीचमें ही रोक दिया और कहा 'यह अनर्थ मत करो । इस लक्कडकी खुखालमे अन्दर सर्पयुगल हैं । वह तुम्हारी कुल्हाडीके आघातसे मरणासन्न होरहे है । तुम व्यर्थमें ही उनकी हत्या किये डाल रहे हो । उन्हें आगमे मत रक्खो ।'
किन्तु भगवानके इन हितमई वाक्योंके सुनते ही वह तापस ताड़ित हाथीकी भांति गर्जने लगा । वह बोला, "हा, ससारमें तूही ब्रह्मा है, तूही विष्णु है, तूही महेश है, मानो तेरे चलाये ही दुनिया चल रही है । तुही बड़ा ज्ञानी है, जो यहां ऐसा उपदेश छाट रहा है | यहां मेरे लक्कड़ में नाग-नागिनी कहासे आये ? मैं तेरा नाना और फिर तापस-तब भी तू मेरी अवज्ञा करते नहीं
डरता है । "
आचार्य कहते हैं कि ' तपस्वीके कठोर वचन सुनकर भी त्रिलोकीनाथ भगवानको कुछ भी क्रोध न आया। वे हंसने लगे और हाथमें कुल्हाड़ी ले अधजलती लकड़ीको उनने फाड़ डाला | जलती हुई अग्निकी उप्णतासे छटपटाते हुए नाग और नागिनीको जिनेन्द्र भगवान ने बाहर निकाला और अपने अलौकिक तेजसे तपस्वीके रूपको खंडवडकर उसे क्रुद्ध कर दिया ।' (पार्श्वचरित ८० ३७१) उन नाग-नागिनीके दुखसे भगवानका कोमल हृदय बड़ा ही
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कुमारजीवन और तापस समागम ।
[ १२५ व्यथित हुआ। दयाके आगार उन सर्वहितैषी भगवान ने उस ताप - ससे कहा कि 'तुम व्यर्थ ही तपस्या करते हो । क्रोध आदि कषायोसे तुम्हारा सब पुण्य नष्ट होगया । हिंसामई काण्ड रचकर तुम तपस्या करनेका ढोग क्यों रचते हो ? क्या तुम्हारे हृदय में दया बिल्कुल नही है ? तुम्हारा यह सब तप अज्ञानतप है। कोरा कायक्लेश है, इसे भोगकर क्या लाभ उठाओगे ?'
तापस महीपाल वैसे ही कुढ़ रहा था । वह उन्मत्त पुरुषके समान कहने लगा कि 'तु बडा घमण्डी है । अकस्मात् यह सर्पयुगल इस लक्कड़ में निकल आया उसपर तू फूला नहीं समाता है । तू अपनी पूज्य माता के पिताकी अविनय कर रहा है । देख मैं तापस होकर कितनी कठिन तपस्या करता हू । पंचाग्नि तपता हूं - एक पैरसे खडे रहकर एक हाथको आकाशमे उठाकर, भूख व प्यास सब कुछ चुपचाप सह रहा हूं, सूखे पत्ते खाकर पारणा करता हूं, फिर भी तुम मेरी तपस्याको ज्ञानहीन बताते हो !'
भगवानने फिर भी उसे मधुर शब्दों में समझाया । उससे कहा - " तापस, तुम क्रुद्ध मत हो । मैं तुम्हारी भलाई के वचन कह रहा हूं। तुम्हारा तपश्चरण इतना सब होनेपर भी हिंसामय है और तुम वृथा ही कायक्लेश भोग रहे हो । जरासी भी हिंसा महादुःखका कारण है, और तुम रोज ही हिंसाकांड रचते हो, इसका पाप फल तुम्हें जरूर ही चखना होगा । 'ज्ञानहीन तपस्या चांवलकी कणिकाके भूसे के ढेर के समान है। अग्निके प्रकोपसे जब बन जलने लगता है, तब लोग रास्ता न पाकर जिस प्रकार यहां वहां भागकर अन्तमे अग्निमें ही जलकर प्राण देदेते हैं, अज्ञानी तापस ठीक
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१२६] भगवान पार्श्वनाथ । उसी तरह कायक्लेश भोगकर ससारकी अग्निमें ही जलकर मस्म हो जाते हैं।'* सम्यश्रद्धान और सम्यग्ज्ञानके विना आचार निष्फल है। मैं तुम्हारी हितकी ही कह रहा हूं, इस हिंसामई कायक्लेशको छोडो और जिनेन्द्र भगवानके बताये हुये मुक्तिमार्गका रास्ता गृहण करो।"
हत्भाग्यसे भगवानके इन हितमई वचनोका भी असर उस तापसपर कुछ भी नहीं हुआ । दुर्जन कभी भी सटुपदेशको ग्रहण करते नही देखे गये है। भगवान मिनेन्द्र अपने रानमहलमें लौट आये और आनन्दमग्न हो कालक्षेपण करने लगे। वह तापसी कायक्लेशके प्रभावसे मरकर संवर नामक भवनवासी देव हुआ।
धरणेन्द्र-पद्मावती-कृतज्ञता-ज्ञापन ।
'पद्मावती च धरणश्च कृतोपकारं । तत्कालत्जातमविध प्रणिधाय बुद्ध्वा ।। आनम्रमौलि रुचिरच्छविचचितांघ्रि। मानर्चतुः मुरतरु प्रसवैजिनेंद्रम् ।। ८७ ॥
-श्री पार्श्वचरित । बनारसके वनमें आये हुये तापस महीपालकी कृपासे एक सर्पयुगलके प्राणान्त भगवान पार्श्वनाथके समागममें हये थे, पूर्व परिच्छेदमें यह परिचय प्राप्त होचुका है। वस्तुत उन मरणासन्न सर्पयुगलको राजकुमार पार्श्वनाथने धर्मोपदेश सुनाकर सुगतिमें पघरा दिया। णमोकार मंत्रके श्रवण मात्रसे उनके परिणाम सम
- 'भगवान पार्श्वनाथ' (सागर) पृ० २७ ।
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धरणेन्द्र-पद्मावती कृतज्ञता-ज्ञापन। [१२७ 'तारूप होगये और वे समताभावोंसे प्राण विसर्जन करके इसी लोकमें भवनवासी देव हये ! अन्तिम समयमें धर्माराधन करनेका मधुर फल उनको तुरत ही मिल गया । वे पशु होकर भी उसके पुण्य प्रभावसे देवगतिको प्राप्त हुये ।
जैनशास्त्रोंमें देवगति चार प्रकारकी बतलाई गई है । स्वर्गलोकमें विमानोंमें दसनेवाले देव कल्पवासी कहे जाते हैं; सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिषपटलमें रहनेवाले देव ज्योतिषी कहलाते हैं; भूलोकमें निवास करने वाले तथापि अधोलोकके पूर्वभागमें भी किंचित वसनेवाले देव भवनवासी बतलाये गये हैं और व्यंतरदेव वे कहे गये हैं जो भूत, प्रेत आदि नामसे प्रसिद्ध हैं। इन देवोंके शरीर मनुष्योंसे विशिष्ट और सूक्ष्म तथापि विक्रिया (रूप बदलनेकी) शक्ति कर संयुक्त होते हैं । यह लोग मनुष्योंसे अधिक सुखी जीवन व्यतीत करते है। आजकल 'प्रेत-विद्या' (Spiritualism) के बल कतिपय सिद्धहस्त लोग इनमेंसे इतर जातिके-भवनवासी और व्यंतर देवोंको आह्वाहन करनेमें सफल-प्रयास होचुके हैं और उन्होंने जो अन्य देवो और देवलोकोंका हाल बतलाया है, उससे यह बात स्पष्ट होगई है कि सचमुच कोई देवगति भी संसारमे रुलते हुए जीवको सुख-दुःख भुगतनेके लिये हैं। नाग-नागिनीके जीव भवनवासी देवोंमें नागकुमार नामक देवोके इन्द्र और इन्द्राणी हुये थे। इसीलिये वे क्रमशः धरणेन्द्र और पद्मावतीके नामसे विख्यात हये हैं।'
१-जैनशास्त्रोंमें हमें कहीं भी धरणेन्द्र और पद्मावतीके सम्बन्धमें कोई स्पष्ट विवेचन नहीं मिला हैं कि वह जातिवाचक अथवा व्यक्तिगत नाम हैं, परन्तु पुराण प्रथोंमें हमें भगवान पाश्वनाथसे पहले भी इनका
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__१२८] भगवान पार्श्वनाथ ।
जब वे नाग और नागिनी धरणेन्द्र और पद्मावती होगये तो उसी समय अपने जन्मसिद्ध अवधिज्ञान (Clarroroyance) के बलसे उन्हें अपने उपकार करनेवाले राजकुमार पार्श्वनाथका ध्यान आया । 'वे शीघ्र ही बनारस आये और नम्रीभूत मुकटोंकी मनोहर कातिसे जिनके चरण पूजित है ऐसे भगवान पार्श्वनाथकी उन्होंने पूजा की ! बहुविधि पूजा करके और कृतज्ञता ज्ञापन करके वे अपने निवासस्थानको चले गये ।'
जैन शास्त्रोंमें इनका निवासस्थान पाताल अथवा नागलोक बतलाया गया है। यह स्थान जिस भूमंडलपर हम रहते हैं उस मध्यलोककी पृथ्वीके नीचे अवस्थित कहा गया है। वहापर इनके बड़े२ महल और भवन भोगोपभोगकी सुन्दर सामिग्रीसे पूर्ण यह शास्त्रोंमें लिखा हुआ है। प्रख्यात जैन ग्रन्थ श्री रानवार्तिकजीमे इसका उल्लेख इस तरह पर है:
'खरपृथ्वीभागे उपर्यधश्चैकैकयोजनसहस्रं वर्जयित्वा शेषे उल्लेख मिलता है। इससे हम इनके ये नाम जातिवाचक ही समझते हैं । उदाहरणके रूपमें सजयंत मुनि' की कथामें पद्मपुगण (पृ०५६) में दूसरे तीर्थंकर श्री अजिनाथजीके समयमें 'धरणेन्द्र' के प्रकट होनेका उल्लेख है । 'पुष्पाजलि व्रतकया' तथा 'पुण्याश्रव क्थाकोप' (पृ. २६०) में ऐसे ही 'पद्मावती' का सहायक होना पार्श्वनाथजीसे पहले वतलाया. गया है।
-पद्मावतीचरित्र-'पाताले वसिता।-श्री वृहत्पद्मावतीस्तोत्र-पातालाधिपति' श्लोक २२. हरिवगपुराण पृष्ठ ३३-'मणि और सूर्यसमान देदीप्यमान पाताललोकमें असुरकुमार नागकुमार आदि दश प्रकारके भवनवासी देव यथायोग्य अपनेर स्थानोंपर रहते है ।' २-तत्वार्थसूत्रम् (S. B. J. Vol. II) पृ० ७९.
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धरणेन्द्र पद्मावती कृतज्ञता-ज्ञापन । [१२९ नवानां कुमाराणां भवनानि भवंति ॥ १० ॥ तद्यथा अस्माजम्बूद्वीपात्तियर्गपाग सख्येयान द्वीपसमुद्रानतीत्य धरणस्य नागराजस्य चतुश्चत्वारिंशत् भवन शतसहस्राणि, षष्ठि; सामानिक सहस्राणि, त्रयस्त्रिंशत्त्रायस्त्रिशाः, तिन. परिपदः, सप्तानीकान् चत्वारो लोकपाला , षडग्रमहिष्य., 'पडात्मरक्षसहस्राण्याख्यायंते ।. .तान्येतानि नागकुमाराणां चतुरशीति भवनशतसहस्राणि । इत्यादि ।' :
खटथ्वीपर धरणेन्द्र अथवा नागराजके चवालीसलाख भवन मौजूद हैं। यह खरष्टथ्वी इस जम्बूद्वीपके असंख्यात् द्वीपसमुद्रोको व्यतीत कर जानेपर मिलती है । इनके छ हजार सामानिक देव है, तेतीस त्रायस्त्रिंशत् देव हैं, तीन परिषद (सभायें) हैं, सात सेनायें हैं, छै अग्रमहिषी (पानी) हैं और छैहजार आत्मरक्षक है । वास्तवमें जैनशास्त्रोमें प्रत्येक प्रकारके देवोके लिए दस दर्ने नियत किये हुये मिलते हैं: यथा - ।
१. इन्द्र-यह रानाकी भांति मुख्य और शासक होता है।
२. सामानिक-यह भी बलवान और शक्तिसम्पन्न होते है, परन्तु इन्द्र के समान नहीं । इन्हें पिता, गुरु आदि समझना चाहिये।
३. त्रायस्त्रिंशत्-यह मत्री, पुरोहित आदि कुल ३३ है । इसलिये इस नामसे उल्लेखमे आते है।
४. पारिषद-ममाके सदस्यगण अथवा दरबारी लोग । ५. आत्मरक्षक-यह शरीररक्षक होते हैं । ६. लोकपाल-प्रजाके सरक्षक, जैसे पुलिस ।
७. अनीक-फौज । १-जवार्तिक सटीक पृष्ठ १५४
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१३०] भगवान पार्श्वनाथ ।
८. प्रकीर्णक-प्रना।
९. अभियोग्य-वह देव जो अपनेको सवारी रूप घोडा आदि बना देते है।
१०. और किल्विपिक-सेवादल ।।
धरणेन्द्र नागकुमार देवोका इन्द्र था और शेष जो उनके सामानिक आदि थे वह ऊपर बतलाये हैं । इनके विषयमें और 'विशेष वर्णन श्री मर्थप्रकाशिकानीमें भवनवासी देवोंके साथ 'निम्नप्रकार है - , 'भवननिमें बसें हैं ताते इनकू भवनवासी कहिये है । भवनवासीनिनें असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, दीपकुमार, दिक्कुमार ऐसे दश विशेष सज्ञा नाम कर्मकरि कीनी जानना, बहुरिकोऊ श्वेतावरादिक कहैं जो देवनिकरि 'अभ्यति' कहिए युद्ध करै प्रहार करे ते असुर है ऐस कहें सो नहीं। ए कहना तो देवोंकों भवर्णवाद है, उसमे मिथ्यात्वका बघ होय है। ते सौधर्मादिकनिके देव महा प्रभावान है। इनकै उपरि हीन देव मनकरिके इ प्रतिकूल पणा नहीं विचारे हैं। जो एता विशेष है। जो चमरेन्द्र अर वैरोचन ए इन्द्र अपनी ऐश्वर्य संपदा करि परिणाममें ऐसा मद करै हैं जो हमार सौधर्म ईशान इन्द्रसौं कौनमी सपदा घट है. हम भी उनके तुल्य ही है ऐमी परिणामनिमें ईर्षा है मो अभिमानकी अधिकता ते ऐमी ईर्पा करे ही हैं । बहुरि सौधर्मादिक देवनि विशिष्ट शुभ कर्मका उदयकरि विभव है सो अरहंत धना तथा भोगानुभवन
१-नवार्यसूत्रम् अ० . मत्र ।
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धरणेन्द्र-पद्मावती-कृतज्ञता-ज्ञापन। [१३१ इत्यादिकमैं लीन हैं । इनके परकी दाराहरणादिक वैरका कारण हो नहीं तात असुर हैं। ते सुरनिकारि युद्ध नाहीं करें हैं। बहुरि समस्त देवनिकै बालयौवनादिक अवस्था नहीं पलेटे हैं। उपज्या निस महसरत मरण पर्यंत एकसी थिर अवस्था रहै हैं तातै अवस्थाकार कुमार नहीं हैं। इनिकै कुमार समान उद्धत वेष भूषा आमरण आयुष वस्त्र गमन वाहन राग क्रीड़न हैं ताः कुमार कहिये है। अब इनका भवन कहां हैं सो कहै हैं । इस जम्बूद्वीपकी दक्षिण दिशामैं असं- . ख्यात द्वीपसमुद्रनिकू व्यतीत करि रत्नप्रभा पृथ्वीका पंकभाग विर्षे असुर कुमारनिका चमर नाम इन्द्र के चौंतीस लाख भवन हैं अर चौसाठि हजार सामानिक देव हैं। तेतीस त्रायस्त्रिंशत् देव हैं। बहुरि सोम, यम, वरुण, कुबेर ए चार लोकपाल हैं । तीन सभा हैं तिनमें पहली सभामैं अठाईस हजार देव हैं। मध्यकी समामें तीस हजार, बाह्य सभामै बत्तीस हजार देव हैं । अर सात सेना हैं। महिषनिकी घोड़ेनिकी रथनिकी हाथीनिकी पयादनिकी गंधर्वनिकी नृत्यकारिणीनिकी । तिन एक एक सेनामें सात सात कक्षा हैं। पहली कक्षा चौसठि हजार देवनिकी दूनी यात दूणी, तीनी यातै पूणी ऐसे सप्त जायगा दूणी दणीकी इक्यासी लाख अठाइस हजार प्रमाण महिपनिकी सेना भई इनिकू सप्तकर गुणिए तदि पांच कोटी अडसठी लाख छिन हजार देवसातौ सेनाके भए। ऐसे ही रोचनादिक इन्द्रकै सेनाका प्रमाण जानना । इनि सात प्रकारकी सेनामैं एक एक सेनाधिपति महत्तर देव हैं, नृत्यकारिणीकी सेनामैं महत्तरी देवी है। अर प्रकीर्णक देव नगर निवासी समान प्रीतिके पात्र गसंख्याल हैं । बहुरि छप्पन हजार देवी हैं तिनमैं सोलह हजार बल्लमिका
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१३२] भगवान पार्श्वनाथ । भर पांच पट्ट देवी है । अर पट्टदेवी आठ हजार विक्रियां करे हैं। ऐसे ही वैरोचनादि इन्द्रनिकै समस्त दश भेदनिमैं भवन परिवारादिक त्रिलोकसारादि ग्रंथनितै जानना । बहुरि रत्नप्रभा पृथ्वीके पक भाग विषै असुर कुमारनिके भवन है अर नागकुमारादिक नवजातिके भवन खरभाग विष है। वहुरि कोई भवन जघन्य हैं ते तो संख्यात बोटी योजनके हैं। उत्कृष्ट भवन असंख्यात योजनके विस्ताररूप है चौकोर है । तीनसौं योजनकी ऊचाई लिए है । भवनकी भूमिसुं छाती पर्यंत तीनसे योजनकी ऊचाई है अर एक एक भवनके मध्यविषै एक योजन ऊंचा पर्वत है, तिस पर्वत ऊपरि जिनेन्द्र नंदिर है ऐम दश जातिके भवनवासीनिके सात कोटी बहत्तरी लाख भवन है । अर सात कोटी बहत्तरी लाख ही जिन चैत्यालय है। अष्ट गुणरूप ऋद्धिनिकरि सहित है । नाना मणिमय भूषणनिकरि जिनका दीप्ति संयुक्त अग है | अर दश प्रकारके चैत्यवृक्ष जिन श्रतिमाकरि विराजित है। अपने तपके प्रभावकरि सुखरूप भोग भोगते तिष्ठै है। जिनके मल, मूत्र, रुधिर, चाम, हाड मास आदिककर वनित दिव्य देह है। अन्य नागकुमार सुपर्णकुमार द्वीपकुमार इन तीनकै आहारकी इच्छा साढा बारह दिन गए होय अर साढावारा मुहर्त गए उछ्वास होय । देहकी उचाई (नागकुमारादि) नव जातिकेनिकै दश धनुप है ।" (एष्ट १७७-१८)
साथ ही श्री हरिवंशपुराणजीमे इनके सम्बन्धमें इस प्रकार वर्णन मिलता है -
'नरककी पहली रत्नप्रभा पृथ्वीके खरभाग, पंकभाग और बहुलभाग ये तीन भाग है, . पवहुलमागके दो भाग है, उनमें
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__ धरणेन्द्र-पद्मावती-कृतज्ञता ज्ञापन । । १.२३ प्रथम भागमें राक्षसोंके और दूसरेमे असुरकुमारोंके घर हैं और वे देदीप्यमान रत्नोंके बने हैं। खरभागमे अतिशय देदीप्यमान, स्वाभाविक प्रभाके धारक नागकुमार आदि नौ भवनवासियोके अनेक घर हैं।...नागकुमारोंके चौरासीलाख भवन है। .मणि और सूर्यसमान देदीप्यमान पाताल लोकमें असुरकुमार नागकुमार सुएर्णकुमार द्वीपकुमार उदधिकुमार स्तनितकुमार विद्युतकुमार दिकुमार अग्निकुमार और वायुकुमार ये दश प्रकारके देव यथायोग्य अपने अपने स्थानोंपर रहते है । (ट० ३२-३३)
इस तरह यहांतकके वर्णनसे यह स्पष्ट है कि धरणेन्द्र और उसकी मुख्य पट्टरानी पद्मावती नागकुमार देवोंके इन्द्र-इन्द्राणी थे
और वह पाताल लोकमें रहते थे। उनको नागवंशी राजा अथवा विद्याधर मनुष्य बतलाना कुछ ठीक नहीं जंचता, परन्तु यह बात विचारणीय है; इसलिये इसपर हम अगाड़ी प्रकाश डालेंगे। पाताललोक हमारी पृथ्वीके नीचे बतलाया गया है, परन्तु ऊपर जो रानवार्तिकनी व अर्थप्रकाशिकाजीके उद्धरण दिये गये हैं, उनसे यह; प्रकट होता है कि जम्बूद्वीपके असंख्यात द्वीपसमुद्रोको उलंघ जानेपर दक्षिण दिशामें खरभाग पृथ्वी मिलती है जहां धरणेन्द्रके भवन हैं तथापि जम्बूद्वीप आदिकर संयुक्त मध्यलोक जैन शास्त्रोमें थालीके समान सम माना है।' इस अपेक्षा तो धरणेन्द्रका निवासस्थान हमारी पृथ्वीके नीचे प्रमाणित नहीं होता। परन्तु शास्त्रोंमें सर्वत्र पाताललोक पृथ्वीके नीचे बतलाया गया है। ऐसी अवस्थामे उपरोक्त शास्त्रोके कथ
१. चरचाशतक पृ० ११ । २. हरिवंशपुराण पृ० ३२-३३ ।
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२३४] भगवान पार्श्वनाथ । मोको मान्यता देते हुये मध्यलोकसी एथ्वीको ढलवां मानना पड़ेमा, निससे लक्षण दिशाकी और नीचे कलते हुये खरष्टथ्वी अधोलोकमें आसक्ती है । जम्बूहोपकी नदियां नो आमने सामने इधर उधर वहतीं बतलाई गई हैं, उससे भी यही अनुमान होता है कि यह पृथ्वी बीचमे उठी हुई और किनारोंकी ओरको ढलवां है; परन्तु शास्त्रोमें इस. विषयका कोई स्पष्ट उल्लेख हमारे देखनेमें नही आया है । अतएव इस विषयमें कोई निश्चयात्मक बात नहीं कही जा सकी है। किन्तु इतना अवश्य है कि यह विषय विचारणीय है। जैन भौगोलिक मान्यताओको स्वतंत्र रीतिसे अध्ययन करके प्रमाणित करनेकी आवश्यक्ता है। जैनशास्त्रोंमें जिस स्पष्टताके साथ भौगोलिक वर्णन दिया हुआ है; उसको देखते हुए उसमें शंका करनेको जी नहीं चाहता है, परन्तु जरूरत उसको सप्रमाण प्रकाशमें लानेकी है। ___ अस्तु, यह तो स्पष्ट ही है कि धरणेन्द्रका निवासस्यान पाताल अथवा नागलोक है। दि० जैन समाजमें उसकी मूर्ति पांच फण कर युक्त और चार हाथवाली वतलाई गई है। दो हाथोंमें उनके सर्प होते हैं, तथापि अन्य दो हाथं छातीसे लगे हुये रहते हैं, जिनमें एक खुला हुआ और एक मुट्ठी बंधा हुआ होता है। इनकी सवारी कडुवेकी बतलाई गई है। इनकी अग्रमहिपी पद्मावती भी पांच फणवाले संपके छत्रसे युक्त चार हाथवाली मानी गई है। इनके दो हाथोंमें वनदंड और गदा होती है एवं अन्य दो हाथ रसी रूपमें होते हैं, निम रूपमें घरणेन्द्रके बतलाये गए हैं।
17 निगमम ट न. २७ ।
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[ १३५
धरणेन्द्र - पद्मावती - कृतज्ञता ज्ञापन | इनका आसन राजहं बतलाया गया है ।' किन्तु कहीं २ इनको तीन फणवाले छत्र से मंडित कहा गया है, यथा:
'फन तीन सुमनलीन तेंर शीस बिराजै । जिनराज तहाँ ध्यान धरे आप विराजै ॥ फनिइदने फनिकी करी जिनंद छाया ।
उपसर्ग वर्ग मेटिके आनन्द वढाया ॥ जिनशासनी हंसनी पद्मासनी माता |
भुज चार फल चारुदे पद्मावती माता ॥' यहां हंसनीके साथ इनका उल्लेख पद्मासनी रूपमें भी किया हुआ है । अन्यत्र भी यही कहा गया है और साथ ही इनको पद्मवनमें नियमित बतलाया है यथा-
·
'पद्म पद्मासनस्थे व्यपनयदुरित देवि देवेन्द्र वद्ये ॥ ६ ॥' 'मातर्पद्मनि पद्मरागरुचिरे पद्मप्रसूतानने ।
पद्म पद्मवनस्थिते परिलसत्पद्माक्ष पद्मालये ॥ पद्मामोदनि पद्मनाभिवरदे पद्मावती याहि मां । पद्मोलासन पद्मरागरुचिरे पद्मप्रसूनाचिते ॥ २७ ॥
१. पूर्व प्रमाण और करकडुचरितमे भी पद्मावती देवीको पाच फणवाला बतलाया है: यथा
" समच्चिविपृजिविज्झायइजाव । समागयदेवय पोमावयताम । समंथरलालसकोमल आणि कुणतियकाविभउन्वियभाउ ॥ विणिम्मियस्व समिद्धिखणेण सरीर इ रत्तिय सुद्धमणेण । करेहिं चउहि करतिगुल-सयोछयभिंग समुद्द मुणालु ॥ सकुडलकण्णफुरतक्वोल - सण्णडरकिंकिणि मेहलरोल । फणोफण पंचसिरेणधरंति-पसणियणिम्मल कविकरति ॥”
- सघि ७.
२. वृन्दावन विलास पृ० २१ । ३ जैन गुटका नं० ४४ आरा - बृहदू पद्मावतीस्तोत्र - पृ० २७-२८ ।
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२३६] भगवान पार्श्वनाथ ।
जनसाधारणमें भी शायद इसी अपेक्षा पद्म (कमल) पुप्पोंसे पूर्ण नदी और सरोवरोको 'पद्मावती' और 'पद्मवन' नामसे परिचित करनेकी मर्यादा प्रचलित है ।' मिश्रदेश, जहां कि भारतीयताका प्राचीन संबंध रहा है जैसे कि हम अगाड़ी देखेंगे, वहांकी नील (Nile ) नदीको लोग इसी अपेक्षा 'पद्मावती' भी कहते हैं और उसीकी दल दलमें एक 'पद्मवन' भी है। तथापि 'पद्म' देवीकी भी वहां मान्यता है। धर्मका प्रकाश करनेके लिये-जिनशासनकी विनय वैनयंती फैलानेके लिये पद्मावतीदेवी बहु प्रसिद्ध है । एक आचार्य के निम्न शब्द इसके साक्षी हैं:
मसागन्यौनिममा प्रगुणगुणयुता जीवराशि च याहि । श्रीमनेन्द्र धम्म प्रकट्यविमल देवि पद्मावती व ॥ २३ ॥ तागमानविमईनी भगवती देवी च पद्मावती ।। नाता सर्वगता त्वमेव नियत मायेति तुभ्ध नम ॥ ५ ॥
सचमुच पद्मावतीदेवी धर्मानुगगकी उमगसे भरी हुई हैं। जिसने भी जब जिनधर्मकी प्रभावना करनेके भाव प्रगट किये वहा यह देवी उसकी सहायक हुई हैं । आचार्यवर्य श्री अकलंकदेवनी जिस समय राजा हिमगीतलके दरबारमें दक्षिण भारतके काचीपुर (फन्नीवरम् ) नामक नगरमें तारादेवीके आश्रित बौद्धगुरुसे वाद करने २ विलन्त्र उठे थे, उस समय इन्हीं देवीने प्रगट होकर उनकी महायता की थी। ऐसे ही पात्रकेशरी आचार्यको भी यही देवी महायक हुई थीं। एक जन कवि इनके दिव्यरूपकी
शिवाटिक रिमन भाग : पृ० ७९ । २. पूर्व पुस्नक पृ. ६४ । : पी पना 7. ५. वृ० पद्मावतीन्नोत्र प. ११।५ करक बग्यि देनी । “गरना कपारोप भार १ पृ० ५!
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धरणेन्द्र-पद्मावती कृतज्ञता-जापन ।
[१३७
प्रशंसा निम्न पद्यो' करते हैं:--- "धर्मानुराग रंगसे उमग भरी हो. सध्या समान लाल रग अग धरी हो। जिनसत शीलवत पै तुरत खड़ी हो, मनभावती दरसावती आनद बड़ी हो ॥५॥ चरणाविंदमें हैं नूपुरादि आभरण, कटिमें है सार मेखला प्रमोदकी करन । उरमें है सुमनमाल सुमनमालकी माला, पटरग अग सगसों सोहे है विशाला ॥११ करकंजचारुभूषनसों भूरि भरा है, भवि-वृदको आनन्दकद पूरि करा है। जुग भान कान कुंडलसों जोति धरा है, शिरशीसफूल फूलसों अतूल धरा है ॥१२ मुखचदको अमद देख चद हू थभा, छवि हेर हार होरहा रभाको अचमा । हग तीन सहित लाल तिलक भाल धरै है, विकसित मुखारविंद सौं आनद भरै है।"
श्वेतांबर जेनोंके शास्त्रोमें भी धरणेंद्र और पद्मावतीको भगवान् पार्श्वनाथके शासन देवता स्वीकार किया गया है। यद्यपि कहीर धरणेन्द्रका नाम वहां 'पार्श्व' लिखा मिलता है। परन्तु श्रीभावदेवसूरिने धरणेन्द्र और पाश्व शब्दोको समान रूपमें व्यवहृत किया है।
१-वृन्दावनविलास पृ० २२-२३ । श्री बृहत्पद्मावतीस्तोत्रमें इसका उल्लेख इन श्लोकोंमें हैविस्तीर्णे पद्मपीठे कमलदलश्रिते चित्तकामागगुप्ते । लातागी श्रीसमेते प्रहसितवदने नित्यहस्ते प्रशस्ते ॥ रक्त रक्तोत्पलागी प्रबिबहसि सदा वाग्भवेकामराजे । हसारूढे त्रिनेत्रे भगवति वरदे रक्ष मा देवि पद्मे ॥ १० ॥ जिह्वाग्रे नाशिकाते हदि मनशि दशा कर्णयो भिपद्म । स्कधे कठे ललाटे शिरसि च भुजयो वृष्ट पार्श्वप्रदेशे ॥ सर्वागोंपाग सुव्यापयतिशय भुवनं दिव्यरूप सुरूप ।
ध्यायति सर्वकाल प्रणवलयुत पार्श्वनाथेति शब्दे ॥ १२ ॥ २-लाइफ एण्ड स्टोरीज ऑफ पार्श्वनाथ, फुटनोट-पृ० ११८ और पृ. १६७ और हाटऑफ जैनिज्म पृ० ३१३ । ३-भावदेवसूरिकृत श्रीपार्श्वचरित सर्ग ७ श्लो० ८२७ ..और हेमचन्द्राचार्यका अभिधान चिन्तामणि ४३ । ४-श्रीपार्श्वचरित सर्ग ६ श्लोक १९०-१९४ यहा धरणेन्द्रका ही नाम लिखा है।
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१३८]
भगवान पार्श्वनाथ । इसीलिये यह कहना होगा कि अन्ततः श्वेताम्बरोंके अनुसार सी धरणेन्द्र ही पार्श्वस्वामीके शासन देवता थे। प्रत्येक जैन तीर्थकरके शासन रक्षक एक देव और देवी बतलाये गये है। उसहीके अनुसार श्रीपार्श्वनाथजीके शासन रक्षक धरणेन्द्र और पद्मावती थे। श्रीभावदेवसूरिने धरणेन्द्र-पार्श्वका रूप इस तरह चित्रित किया है। उसे एक कृष्णवर्णका चार भुजाओंवाला यक्ष बतलाया है। मूलनाम 'पार्श्व' लिखा है । तथा केहा है कि वह सर्पका छत्र लगाये रहता था। उसका मुंह हाथी जैसा था, उसके वाहन कछुवेका था, उसके हाभोमें सर्प थेऔर वह भगवान पार्श्वका भक्त बन गया था। दिगम्बर जैनशास्त्रोंमें उसका मुख सुडौल और सुन्दर मनुष्यों जैसा बतलाया है। उसके साथ ही उन श्वेतांबराचार्य ने पद्मावतीदेवीको स्वर्णवर्णकी, विशेष शक्तिशाली, कर्कुट सर्पके आसनवाली बतलाया है। उसे सीधे दो हाथोंमें क्रमशः कमल और दड एवं अन्य दो हाथोंमें एक फल और गदा लिये कहा गया है। यहां भी दिगम्बर मान्यतासे जो अन्तर है वह प्रगट है; परन्तु मूलमें दोनों ही उसको यक्षयाक्षनी और चार हाथवाले जिन शासनके रक्षक स्वीकार करते है। जिस समय भगवान पार्श्वनाथजीपर कमठके जीवने उपसर्ग किया था, जैसे कि अगाड़ी लिखा जायगा, उस समय धरणेन्द्र पद्मावतीने आकर उनकी सहायता की थी। इसीलिये वे जैन शासन रक्षकदेव माने गये है। श्रीआचार्य वादिराजमुरि यही लिखते हैं:'पद्मावती जिनमतस्थिति मुनयतीतेनैवतत्सदसि शासनदेवतासीत् । तस्या. पतिस्तु गुणसग्रह दक्षचता यक्षो बभूव जिनशासनरक्षणज्ञ. ॥४२॥'
१-पूर्व पुस्तक मर्ग ७ शो. ८२७...। २-पूर्व पुस्तक सर्ग ७ शो० ८०८
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धरणेन्द्र-पद्मावती-कृतज्ञता-ज्ञापन। [१३९ अर्थात्-'देवी पद्मावती जिनमतकी उन्नतिकी करनेवाली थी सलिए वह शासनदेवता कही जाने लगी और गुणोंकी परीक्षामें चतुर जिनशासनकी रक्षाका भलेप्रकार जानकार धरणेन्द्र यक्ष कहा
गया।"
धरणेन्द्र और पद्मावती इस तरह यक्ष-यक्षिणी प्रमाणित होते है। दिगंबर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके शास्त्र इस बातपर एकमत है किन्तु इस हालतमे यह विरोध आकर अगाड़ी उपस्थित होता है कि यक्ष व्यन्तर जातिके देवोंका एक भेद है और धरणेन्द्र पद्मावतीको शास्त्रोंमे नागकुमारोंका इन्द्र इन्द्राणी बतलाया है, जो भवनवासी देवोंमेंसे एक है । फिर श्वेताम्बर शास्त्रकारोंने जो धरणेन्द्रको पातालका राजा और श्रीपार्श्वनाथजीका शासनदेवता पार्श्व यक्ष बतलाया है उसका भी कुछ कारण होना चाहिये । यद्यपि.
अन्ततः वहां भी धरणेन्द्र और पार्श्व यक्ष समानरूपमें व्यवहृत हुये मिलते हैं । इन बातोंको देखते हुए क्या यह संभव नहीं है कि नागवंशी राजाओंका विशेष सम्पर्क भगवान पार्श्वनाथनीसे रहा हो ? नागवंशी राजा और नागकुमारोंके अधिपति धरणेन्द्रको एकही मानकर किसी तरह उक्त प्रकार भ्रमात्मक उल्लेख होगया हो तो कुछ आश्चर्य नहीं, क्योंकि पुरातनकालमे इतिहासकी ओर आचार्योका बहुत कम ध्यान था। तिसपर यह प्रगट ही है कि भगवान पार्श्वनाथसे पहले भारतपर नागवंशी राजाओंने
९-श्रीपार्श्वनाथ चरित्र ( कलकत्ता) पृ० ४१५ श्री वृहद् पद्मावती स्तोत्रमें भी यही लिखा है यथा---
'पातालाधिपति प्रिया प्रणयनी चिंतामणि प्राणिना ।। श्री मत्पार्श्व जिनेश शासनसुरी पद्मावती देवता ॥ २२ ॥
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१४० ] भगवान पार्श्वनाथ। आक्रमण किया था और वे यहा विविध स्थानोंपर उसने भी लगे थे। श्री पद्मपुराणनीमें सीताजीके स्वयम्बरमे आये हुये राजाओंमें नागवंशी राजाका भी उल्लेख किया गया है। साथ ही श्री नागकुमार चरितमें भी इसी वातका उल्लेख है । वहा नागवापोमें जो नागकुमारका गिरना और नागोंकी उनकी रक्षा करना बतलाया है उसका भाव नागवशियोंकी पल्ली में कुमारका बेघड़क चला जाना और नागवंगियोंका विदेशसे आया हुआ बतलाना ही इष्ट हैं । जन पद्मपुराणसे यह प्रगट ही है कि नागकुमार नामके विद्याधर लोग भी यहां मौजूद थे। फिर भारतीय कथाग्रन्थोमें इन नागवंगी राजाओंका उल्लेख जहां किया गया है वहां उनको पशुनाग ख्याल करके उनका स्थान जल या वापी बतलाया गया है। इसका मतलब यही है कि वह विदेशसे आई हुई विजातीय संप्रदाय थी और समुद्रपार वप्तती थी । उस कालमें उनने भारतके विविध स्थानोंमें अपने अड्डे जमा लिये थे. यहा तककि वे मगध और हिमालयकी तराई तकमें पहुंच गए थे । नागकुमार जिस नागवापीमें गिरे थे वह मगधमें ही थी तथापि नेपालके पुरातन इतिहासमें इस बातका पूरा उल्लेख है कि वहां कई वार नाग लोग आकर बस गये थे। हिमालयको वे लोग नागहद कहते हैं। वहां नागेन्द्रका वाप्त वतलाते हैं। जैन शास्त्रोंमें भी चक्रवर्ती सगरके सौ पुत्रोंका कैलाश पर्वतपर पहुंचकर खाई खोदनेपर नागेन्द्रद्वारा मारे जानेका उल्लेख
राजपूतानेका इतिहास भाग १५० २३० । २-पद्मपुराण पृ० ४०२। ३-नागकुमार चरित पृ० १७ । ४-इन्डियन हिस्ट्री का. भाग ३ पृ. ५२१ । ५-नागकुमार चरित पृ० १७ । ६-दो हिस्ट्री ऑफ नेपाल पृ० ७०-१७४ । ५-पूर्व पुस्तक पृ० ७७ । ८-श्री हरिवशपुराण पृ० १६९।
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धरणेन्द्र-पद्मावती-कृतज्ञता-ज्ञापन। [१४१ मिलता है। जिससे भी वहां नागेन्द्रका वास प्रमाणित होता है ! परन्तु क्या यह नागेन्द्र नागकुमारोंके इन्द्र धरणेन्द्र ही थे, यह मानना जरा कठिन है, क्योकि धरणेन्द्र जिनशासनका परमभक्त बतलाया गया है। अतएव जब सम्राट् सगरके पुत्र श्री कैलाशपरके भरतराजाके बनवाये हुये चैत्यालयोकी रक्षाके निमित्त खाई खोद रहे थे तो फिर भला एक शासनभक्त देव किस तरह उनपर कोए. कर सक्ता था ? और यहातककि उनके प्राणो-सम्यग्दृष्ठियोके प्राणों तकको अपहरण कर लेता ! फिर उनका उल्लेख वहां केवल नागेन्द्र अथवा नागराजके रूपमे है जिससे धरणेन्द्रका ही भाव लगाना जरा कठिन है। इस तरह यह बिल्कुल सभव है कि वह नागराज नागवंगी विद्याधरोका राजा हो, जैसे कि उसे नेपालके इतिहासमें भी बतलाया गया है। नेपालके इतिहासमे भी नागोंका सम्बन्धा बहुत ही प्राचीनकाल अर्थात हिन्दुओके त्रेता और सतयुगसे बतराया है। त्रेतायुगमे एक 'सत्व' बुद्ध का आगमन वहांपर हुआ था। उसने नागहृदको सुखा दिया, जिससे लाखो नाग निकलकर भागे।। आखिर सत्वने उनके राजा करकोटक नागको रहनेको कहा और उनके रहनेको एक बडा तालाव बतला दिया एवं उनको धनेन्द्र बना दिया । नेपालकी इस कथाका भाव यही है कि वहांपर नागराजाओंका प्राबल्य था, जिनको सत्व नामक व्यक्तिने परास्त कर दिया। बहुतेरे नाग तो अपने देशको भाग गये; परन्तु प्राचीन क्षत्रियोकी भांति सत्वने उनके राजाको वहा रहने दिया और उसे अर्थ-सचिव बना दिया । करकोटक नाग कैस्पियन समुद्रके किनारे
१-दी हिस्ट्री ऑफ नेपाल पृ० ७९ ।
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१४२] भगवान पार्श्वनाथ । बसनेवाली एक जाति थी, यह प्रमाणित हो गया है। कैस्पियन समुद्रके निकट बसनेवाली जातियोका पूर्ण उल्लेख हम अगाड़ी करेंगे। यहांपर इस कथासे भी यह स्पष्ट है कि जिन नागोंको 'पानीमें रहनेवाला बतलाया गया है वे दरअसल मनुष्य थे । जैन शास्त्रों में तो उनको ऐसा ही बताया है जैसे कि पद्मपुराणजीके उप रोक्त उल्लेखसे प्रकट है। - नेपालके इतिहासकी एक अन्य कथासे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि यह नागलोग वास्तवमें मनुष्य ही थे । इस कथामें कहा गया है कि नेपालके राजा हरिसिंहदेवका एक वैद्य एक दिन तालाबके किनारे स्नान कर रहा था कि इतनेमें ब्राह्मणका रूप 'धरकर नागोंके राजा करकोटक वहां आये और उन वैद्य महाशयसे साथ चलनेकी प्रार्थना करने लगे। कहने लगे कि 'वैद्यराज, हमारी स्त्रीकी आखें दुख रहीं हैं; आप चलकर देख लीजिये ।' वैद्य महाशय ज्यों त्यों कर राजी हुये । वह दोनों दक्षिण पश्चिमकी ओर एक तालाबके किनारे आये। नागराजने वहांपर ब्राह्मणकी आखें बंद करके जो डुबकी लगाई तो दोनोंके दोनों पातालपुरी नागराजके दरवारमें हाजिर हुये । नागराज बडी शानसे आसनपर वठे हुए थे, चमर ढोले जारहे थे। उनने अपनी नागरानीको वेद्यराजको दिखाया । वेद्य महाशयने उमकी मांखोका इलान किया
और वह अच्छी हो गई। नागरानने प्रसन्न होकर वैद्य महाशयको मेंट दी और उन्हें सादर विदा किया। इस अपेक्षा यह स्पष्ट है
१-दी इन्टियन स्टिॉरकली फाटेरली भाग १० ४५८ । २-दी हिन्द्री ऑफ नेपाल पृ० १०८।।
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NNNNNNA
धरणेन्द्र-पद्मावती-कृतज्ञता-ज्ञापन। [१४३ कि यह नागलोग मनुष्य ही थे।
नागवंशी रानाओंका इतिहास अभी प्रायः अंधकारमें है; परन्तु उसपर अब प्रकाश पड़ने लगा है । अवतकके प्रकाशसे यह ज्ञात होता है कि इनका अस्तित्व महाभारत युद्धके पहलेसे यहां था। जैन पद्मपुगणके पूर्वोलिखित उद्धरणसे भी यही प्रकट है। सचमुच महाभारतके समय अनेक नागवशी राजा यहां विद्यमान थे। तक्षक नागद्वारा परीक्षितका काटा जाना और जन्मेजयका सर्पसत्रमें हजारों नागोंके होमनेके हिन्दूरूपक इसी बातके द्योतक है कि नागवंशी तक्षकके हाथसे परीक्षित मारा गया था और उसके पुत्र जन्मेजयने अपने पिताका वैर चुकानेके लिए हजारो नागोंको मार डाला । तक्षक, कर्कोटक, धनंजय, मणिनाग आदि इस वंशके प्रसिद्ध राजा थे। विष्णुपुराणमें ९ नागवंशी राजाओका पद्मावती (पेहोआ, ग्वालियर राज्यमे), कांतिपुरी और मथुरामें राज्य करना लिखा है । वायु और ब्रह्मांडपुराण नागवंशी नव राजाओंका चंपापुरीमें और सातका मथुरामें होना बतलाते हैं। क्षत्री और ब्राह्मण लोगोंने इनके साथ विवाह संबंध भी किए थे। इनकी कई शाखायें थीं; जिनमें की एक टाक या टाक शाखाओका राज्य वि० सं० की १४ वीं और १५ वी शताब्दितक यमुनाके तटपर काष्ठा या काठा नगरमें था। मध्यप्रदेशके चक्रकोव्यमें वि० सं० की ११ वीं से १४ वीं और कवर्धाने १० वी से १४ वीं शताब्दितक नागवंशियोंका अधिकार रहा था। इनकी सिह शाखाका राज्य दक्षिणमें रहा था। निजामके येलबुर्ग स्थानमे इनका राज्य १०वींसे १३वीं शताब्दितक विद्यमान था। राजपूतानेमें भी नागलोगोंका
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१४४]
भगवान पार्श्वनाथ । अधिकार रहा था।' उद्यान प्रान्त (पंजाब) में भी नागवंशियों का राज्य था। वहां एक अपलाल नामक नागरानाका अस्तित्व बतलाया गया है। काश्मीरके गना दुर्लभ (सन ६२५-६६१) भी नागवंगी थे। अहिच्छत्र (बरेली) में भी वुद्धके समय नागराजाओंका राज्य था। उसी समय वौद्ध गयामें भी एक नागराजाका अस्तित्व बतलाया गया है। रामगाम (मध्यप्रांत)में भी इन रानाओका राज्य होना एक समय प्रकट होता है। फाहियान और युनत्सांग, इन दोनों ही चीनी यात्रियोंने यहांपर नागराजाओंका होना लिखा है, जो बुडके स्तूपकी रक्षा करते थे। एनत्सांग लिखता है कि वे दिनमें मनुष्यरूपमें दिखाई पड़ते थे। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि उस समय भी लोगोंमें इनके वस्तुतः नाग होनेका भ्रम घुसा हुआ था. यद्यपि वस्तुत यह नागलोग मनुप्य ही थे, जैसे कि ह्युनत्सांगके उक्त उल्लेख और जैन शास्त्रोंके कयनसे प्रकट है। लाके बौद्धोका विश्वास है कि गगाके मुहाने और लंकाके मध्यके एक देशमें नागलोगोंका राज्य था। दक्षिण भारतके मजे रेका स्थानमें भी नागोंका निवाम था। तामिल के प्राचीन शास्त्रकारोंने तामिलके निवासियोंको तीन भागोमें विभक्त किया है और उनमे नागलोग भी हैं | पद्धववशके प्राचीन राजाओंका विवाह सम्बन्ध नागकुमारियोंसे हुआ था । प्राचीन चोलराजाओंका भी इनसे संबंध था। तामिलदेशका एक भाग नागवगकी अपेक्षा नागनादु कहलाता
१-पाजपूताना इतिहास प्रथन माग प० २३०-२:२॥२-अन्न्धिन, ऐनशियन्ट जॉन इन्डिरा पृ० ९५। -पूर्व पुस्तक पृ० १०७ । ४-पूर्व पुस्तक ३० (१२। "-पूर्व० पृ. ४१४। :-पत्र. १८३। ७-पूर्व० पृ० ४८४ । ८-पूर्व० पृ० १३ । ९-युर्व० पृ. ६ |
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[ १४५
धरणेन्द्र - पद्मावती कृतज्ञता ज्ञापन | था । सममुच दक्षिणमे और नागपुर के आसपास नागवंशके अधिपति अनेक थे । उनके विवाह संबंध शतवाहनोसे भी थे । (इन्डि० हिस्ट्रा ० का ० भाग ३ ८० ११८ - ९२०) मध्यप्रान्तके भोगवती आदिके नागराजाओकी पताकामे सर्पका चिन्ह था । (इपी ० इन्डिका १०/२५) काके उत्तर-पश्चिम भागमे भी नागोका वास था । इसी कारण लंकाका नाम 'नागद्वीप' भी पड़ा था । यहापर ईसासे पूर्व ६ठी शताब्दिसे ईसाकी तीसरी शताव्दि तक नागवंशका राज्य रहा था, किंतु लोगोंकी धारणा है कि ईसासे पूर्व छठी शताव्दिके भी पहलेसे वहां नागोका राज्य था । (Averent Jaffu PP 33 - 11 ) म बुद्ध जिससमय लंका गये थे, उस समय उनको वहां एक नागराजा ही मिले थे । तामिलके प्रसिद्ध काव्य 'शीलप्पत्यिकारम्' मे दक्षिण के नागराजाओकी राजधानी कावेरीपट्टन बतलाई गई है ।' जेन कथाग्रन्थोमे भी इस कावेरीपट्टनका बहुन उल्लेख हुआ है । इमतरह ऐतेहासिक रूपमें | नागलोगोका अस्तित्व प्राय समग्र भारतवर्ष मे ही मिलता है ।
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जैनधर्मसे नागवश का घनिष्ट सम्वन्ध प्रारम्भ से ही प्रमाणित होता है | भगवान पार्श्वनाथ की इनमें विशेष मान्यता थी, यह हमारे उपरोक्त कथन से सिद्ध है । यदि स्वयं भगवान पार्श्वनाथजीका 1 सम्पर्क इम कुलसे रहा हो तो कोई आश्रर्य नहीं क्योकि शास्त्रोंमे इन भगवानको उग्रवशी और काश्यपगोत्री लिखा है । उधर नागलोकको विविध वंशो एक 'उरगस' नामक मिलता है जो उग्रका प्राकृत रूप होमक्ता है । हिन्दीमे उसका प्रयोग 'उरग' रूपनें
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१ - इन्डियन हिस्य० का० भाग ३ ० ५२७
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४६]
भगवान पार्श्वनाथ । हुआ मिलता भी है और यह नागलोकवासी अपने आदि पुरुष काश्यप बतलाते ही हैं । इम अपेक्षा यदि श्रीपाश्र्वनाथजीके कुलका सम्बन्ध इन नागलोकोसे होना संभव है परतु इसके साथ ही जैन शास्त्रोंमें इन्हें स्पष्टत. इश्वाक्वशी लिखा है, यह भी हमें मूल न जाना चाहिये । अत इतना तो स्पष्ट ही है कि नागवंशका सम्बन्ध अवश्य ही भगवान पार्श्वनाथनीसे किसी न किसी रूपमें था। तथापि मथुराके कंकाली टीलेसे नो एक प्राचीन जैन कीर्तिया मिली हैं, उनमे कुगानसंवत ९५ (ईसाकी दूसरी शताब्दि) का एक आयागपट मिला है। इस आयागपटमें एक स्तूप भी अंकित है जिसमे कई तीर्थकगेके साथ एक पार्श्वनाथस्वामी भी हैं। इनसे नीचेकी और चार स्त्रियां खड़ी हैं, जिनमें एक नागकन्या है; क्योकि उसके सिम्पर नागफण है । क्वाचित यह उपदेश सुनने आई हुई दिखाई गई हैं। इससे मी नागलोगोंका मनुष्य और उनका मैनधर्मका भक्त होना स्पष्ट प्रकट है। सिंघप्रान्तके हरप्या और मोहिनजोडेरो नामक प्राचीन स्थानोंमें जो खुदाई हालमे हुई है, उसमें चार-पांच हजार वर्ष ईसासे पूर्वकी चीजें मिली हैं। इनमेंके स्तूप आदिका सम्बन्ध अवश्य ही जेन धर्मसे प्रकट होता है। इन्हींमें एक मुद्रा भी है, जिसपर एक पद्मासन मूर्तिकी उपासना नाग छत्रको धारण किये हुए दो नागलोग कर रहे हैं । (देखो प्रस्तावना) इस मुद्रासे नागवंशका जैनधर्म प्रेम भगवान पार्श्वनाथके बहुत पहलेसे प्रमाणित होता है। इसके अतिरिक्त जिस समय श्री कृष्णजीके पुत्र प्रद्युम्नकुमार विद्याधर
१-दी जै। स्तूप एण्ड अदर एटीटीन ऑफ मथुग प्लेट न.१२॥
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धरणेन्द्र-पद्मावती कृतज्ञता-ज्ञापन। [१४७ पुत्रोंसे सताये जाकर बाहर निकले थे तो वहीं निकटके एक सहमवक्र नागने उनका सन्मान किया था तथापि वही अर्जुन वृक्षपरके पांच फणवाले नागपतिने उनको पाच वाण आदि देकर सम्मानित किया था। इस तरह यह नाग भी विद्याधरोके देशके थे और जिनेन्द्रभक्त प्रद्युम्नका जो इन्होने मान किया था, उससे उनकी जैनधर्मसे सहानुभूति प्रकट होती है । 'गरुड़ पंचमीव्रत कथा' में भी नागलोगोंका संवन्ध वर्णित है। उसमें मालव देशके चिच नामक ग्रामके नागगौड़की स्त्री कमलावतीके पूछनेपर एक मुनिराजने वहांकी नागवांवीमें श्री नेमिनाथ और पार्श्वनाथ स्वामीकी प्रतिमायें बतलाइ थीं। यद्यपि यहां नागवांवी एक सपकी वांवी बतलाई गई है। परन्तु पूर्व कथाकारोंके वर्णनक्रमको ध्यानमें रखते हुए इसका अर्थ नाग लोगोका निवास कहा जासक्ता है । अस्तु; इस कथासे भी नागलोगोंका जिनधर्मी होना और भगवान नेमिनाथ व पार्श्वनाथजीसे उनका विशेष संपर्क होना प्रकट होता है। श्री मल्लषेणाचायेके 'नागकुमार चरित'में भी नागलोगोका सम्यक्त्वी नागकुमारकी रक्षा करनेका उल्लेख है, यह हम पहले देख चुके हैं। आधुनिक विद्वान् भी इनको नागवंशी स्वीकार करते हैं । इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि और सब रानाओंने तो नागकुमारके साथ अपनी राजकुमारियों का विवाह कर दिया था, कितु पल्लववंशी रानाओंने नही किया था। उनके ऐसा न करनेका कारण यही कहा था कि स्वयं उनका विवाह नागकुमारियोसे हुआ था । अतः
१-उत्तरपुराण पृष्ठ ५४७-५४८ । २-जैनव्रतकथासग्रह पृष्ठ १४२१४४ । ३-नागकुमारचरित पृष्ठ १७
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२४८ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
२
नागकुमारका नागवंशी होना प्रकट है । हिन्दुओ के विष्णुपुराण में नौ नागराजाओ में भी एकका नाम नागकुमार है ( I HQ II. 189 ) 'द्वादशीव्रत कथा' से भी यही बात प्रमाणित है। वहां कहा गया है कि मालवा देशके पद्मावतीनगरका राजा नरब्रह्मा था, जिसकी विजयावती रानीसे शीलावती नामक कुबडी कन्या थी । श्रमणोत मुनिराज से पूर्वभव सुनकर उसने द्वादशीव्रत किया था । उसके ढो पुत्र अर्ककेतु और चन्द्रकेतु थे । अर्ककेतु प्रख्यात् राजा बतलाया गया है, अन्तमें इन सबके दीक्षा लेनेका जिकर है ।" इस कथा के व्यक्ति नागलोग ही मालूम होते है, क्योकि पद्मावतीनगर नागराजाओंकी राजधानी था । यहां गणपतिनागके सिंक मिले है । साथ ही कतिपय 'वर्मातनामवाले' राजाओके तीन शिलालेख ग्वालियर रियासत से मिले है । इन राजाओमे एक राजा नरवर्मा नामक भी है, यह सिह वर्माका पुत्र है, परन्तु अभीतक इनके वशादिके विषयमें कुछ पता नहीं चला है । उपरोक्त कथाके राजा नरब्रह्मा और इन नरवर्मा के नाममे बिल्कुल सादृश्यता है तथापि इनकी राजधानी जो पद्मावती बताई है, वह भी ग्वालियर रियामतमें है | इसलिये इनका एक व्यक्ति होना बहुतकरके ठीक है । किन्तु इनके नागवशी होनेके लिए सिवाय इसके और प्रमाण नही है कि इनकी राज्यधानी पद्मावती में उस समय नागराजाओका ही राज्य था और इतिहाससे इनके वंशादिका पता चलता नहीं, इस
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१ - जैनत्रतकथासग्रह पृष्ठ १०८ - १२१ । प्रथम भाग फुटनोट पृष्ठ ११७ और पृ० प्रातके प्राचीन जैन स्मारक पृ०
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१२५-१२६ ।
२- राजपुतानेका इतिहास १३० १ ३- नयभारत, मध्य४- राजपूतानेका निहास पृ०
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धरणेन्द्र-पद्मावती-कृतज्ञता-ज्ञापन । [१४९ लिये इन्हें नागवंशी कहना अनुचित न होगा। नागवशी राजाओने जो अपनी राजधानीका नाम पद्मावती रक्खा था, वह भगवान पार्श्वनाथनीकी शासनदेवी पद्मावतीकी स्मृति दिलानेवाला प्रगट होता है। यह भी नागवंशियोके जैन धर्मप्रेमी होने में एक संकेत कहा जासक्ता है । भोगवतीके नागराजाओंकी ध्वजाका सर्प चिन्ह भी इसीका द्योतक है; क्योंकि भगवान पार्श्वनाथका लक्षण सर्प था। साथ ही वीशनगर (जैन शिलालेखोका भदिलनगर) से भी नाग राजाओके सिक्के मिले हैं। और यह स्थान भगवान शीतलनाथजीका जन्मस्थान था। यहां भी नागरानाओंका संबंध एक पुज्य जैन स्थानसे प्रकट होता है। साथ ही अहिच्छत्रके राजा वसुपाल जैन धर्मानु यायी थे यह बात आराधनाकथाकोषकी एक कथासे प्रमाणित है। और अहिच्छत्रमें नागराजाओंका भी राज्य था, संभव है, राजा वसुपाल भी नागवशी राजा हों। किन्तु शिमोगा तालुकाके कल्लूरगुड्ड ग्रामसे प्राप्त सन् ११२२ के शिलालेखमें गंगवंशकी उत्पत्तिका जिकर करते हुये, उसी वंशके एक श्रीदत्त नामक राजाको अहिच्छत्र पर राज्य करते लिखा है तथा यह भी उल्लेख है कि जब श्री पार्श्वनाथजीको केवल ज्ञान हुआ, तब इस राजाने उनकी पूजा की थी, जिससे इन्द्रने प्रसन्न हो पांच आभूषण श्रीदत्तको दिए थे और अहिच्छत्रका नाम विजयपुर भी प्रसिद्ध हुआ था । (देखो मद्रास व मैसूर जैन स्मार्क ट० २९७) अतः उपरोक्त कथाके राजा वसुपाल उपरान्तके-संभवतः श्री महावीर म्वामीके ममयमें हुए प्रकट होते हैं, क्योंकि भगवान पार्श्वनाथजीसे
१-म० भा०के प्रा० जनस्मारक पृ० ६२ । २-भाग २ पृ० १०५ ।
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१५०] भगवान पार्श्वनाथ । उनका कोई प्रकट सम्पर्क विदित नहीं होता । किंतु उपरोक्त श्रीदत्त शिलालेखमे स्पष्टतः इक्ष्वाक्वशी लिखे गये है सभव है कि अपने प्राचीन सम्बन्धको प्रकट करनेके लिए ऐसा लिखा होः क्योकि यह तो हमें मालूम ही है कि मूलमें नागवंशका निकास इश्वावश और काश्यपगोत्रसे ही है । अस्तु; उपरान्त करकंडु महाराजके चरित्रमे दक्षिण भारतकी एक वापीमेसे भगवान पार्श्वनाथकी प्रतिविम्ब एक नागकुमारकी सहायतासे मिलनेका उल्लेख है।' दक्षिणभारतमे नागराजाओंका राज्य था और खासकर उस देशमें जो गंगाके मुहाने और लंकाके वीचमें था यह प्रकट है। इसी देशमें दंतिपुर अथवा दंतपुरको अवस्थित बतलाया गया है। और उपरोक्त वापी इसी दंतपुरके निकटमें थी। अतएव इस कथामें जिस नागकुमारका उल्लेख है वह देव न होकर मनुष्य ही होगा। इससे भी वहाके नागवंशियोंका जैनधर्मप्रेमी होना प्रकट है। 'नागदत्त मुनिकी कथा से भी नागवंगियोंका सम्बंध प्रगट होता है । वहां नागदत्तको उज्जयिनीके राजा नागधर्मकी प्रिया नागदत्ताका पुत्र लिखा है और कहा गया है कि वह सोके साथ क्रीड़ा करनेमे बड़ा सिद्ध हस्त था। उनके पूर्वभवके एक मित्रने गारुड़का भेष रखकर उन्हें संबोधा था और वे मुनि होगये थे। यहां राजा, रानी और उनके पुत्रके नाम प्राय नाग-वाची है और जैसे कि हम एक पूर्व परिच्छेदमे देख आये हैं कि प्राचीनकालमें नामोल्लेखके नियमोंमे एक नियम कुल व वंश अपेक्षा प्रख्याति पानेा भी था। उसी अनुसार नागवंशी १-आ० कथा० भाग ३ पृ० २८० । २-कनिधम ए.जा. इन्डिया पृ० ६११। ३-पूर्व० पृ० ५९३ । ४-आराधनाकयाकोप भाग १ पृ. १४८ ।
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धरणेन्द्र-पद्मावती-कृतज्ञता-ज्ञापन। [१५१ होनेके कारण राजा नागधर्मके नामसे प्रगट होगा और उसकी रानी भी अपने पितृपक्षकी अपेक्षा नागदत्ता तथैव पुत्र अपनी माताके अनुरूप नागदत्तके नामसे प्रख्यात होना चाहिये । इसप्रकारके नामोलेखके कई ऐतिहासिक उदाहरण मिलते हैं। राजा श्रेणिककी रानी चेलनी अपने पितृपक्षकी अपेक्षा 'वैदेही' अथवा 'विदेहदत्ता' रूपमे और उनका पुत्र कुणिक अजातशत्रु अपनी माताके कारण 'विदेहपुत्र' के नामसे प्रगट हुये थे। आराधना कथाकोपकी एक
अन्य कथामे पाटिलपुत्रके एक जिनदत्त नामक सेठकी स्त्रीका नाम __ जिनदासी और उसके पुत्र का नाम जिनदाम मिलता
उक्त प्रकार नामोल्लेख होना स्पष्ट है। उज्जैनके आसपास दशपुर और पद्मावतीमे नागवशियोका राज्य था यह प्रकट ही है । अस्तु, उक्त कथाके पात्र भी बहुत करके नागवंशी ही थे और नागदत्तं जन मुनि हुए, इससे उनका जैनधर्मी होना स्पष्टतः प्रकट है। उपरात ऐतिहासिक कालके नागवंशी राजा जेन स्वीकार किये गये हैं। सेन्द्रक नागवंशी राजा भी जैन थे। इसप्रकार नागवंशी राजाओका जनधर्मसे प्राचीन सम्बन्ध प्रकट है। और यह सभव है कि भगवान पाश्वनाथका उपासक कोई परमभक्त नागवशी राजा हो;
जो शासनदेव नागेन्द्र धरणेन्द्रके साथ भुला दिया गया हो । अहि__ च्छत्र' से जो भगवान पार्श्वनाथका सम्बन्ध बतलाया
भी यही अनुमान ठीक जंचता है, क्योकि यह तो स्पष्ट ही है कि भगवान पार्श्वनाथका केवलज्ञान स्थान प्रत्येक जैनशास्त्रमें बनारसके
-
१-हमारा भगवानमहावीर पृ० १४३॥ २-आ० कथा० भाग ३ पृ० १६१ । ३-४-स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म भाग २ पृ० ७४ ।
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१५२] भगवान पार्श्वनाथ । निकट अवस्थित उनका दीक्षावन रतलाया गया है। इसलिये अहिच्छत्र में जिस नागराजने भगवानकी विनय की थी और उनपर सप-फण कर युक्त छत्र लगाया था वह एक नागवगी राना ही होना चाहिये । नागवंगी लोगोके संप पण कर युक्त छत्र गीगपर रहता था वह पूर्वोल्लिखित मयुराक आयागपटने की नागकन्याक उल्लेखसे स्पष्ट है एवं वहींकी एक अन्य जैन मूर्तिमें स्वयं एक नाग राजाका चित्र है और उसके शीशपर भी नागफणका छत्र है। तिसपर चीन यात्री ह्यनत्तांगका कथन है कि वौद्धोका भी अहिच्छत्रसे सम्बन्ध था । वहा वह एक 'नागहृद' बतलाता है जिसके निक्टसे बुद्धने सात दिन तक एक नाग गजाको उपदेश दिया था। राजा अगोकने यहीं एक स्तूप बनवा दिया था।' आजकल वहां केवल स्तूपका पता चलता है जो 'छत्र' नामसे प्रख्यात है । इमसे कनिघम सा० यह अनुमान लगाते है कि नाग राजाके बौद्ध हो जानेपर उसने बुद्धपर नाग फणका छत्र लगाया होगा, जिसके ही कारण यह स्थान 'अहिच्छत्र' के नामसे विख्यात् होगया। परन्तु बात दर असल यू नहीं है, क्योंकि जनशास्त्रोंके कथनसे हमें पता चलता है कि वह स्थान म० बुद्धके पहिलेसे अहिच्छत्र कहलाने लगा था। हत्भाग्यसे कनिधम सा०को जैनधर्मके बारेमें कुछ भी परिचय प्राप्त नहीं था. उसी कारण वह अहिच्छत्रका जन सम्बंध प्रगट न कर सके । अतएव युनत्सांगके उक्त उल्लेखसे यह तो स्पष्ट ही है कि अहिच्छत्रमें नाग गजाओंका राज्य म० बुद्धके समयमें
१-कनिंघन, एनशियेन्ट जागराफी ऑफ इन्डिया पु० ४१२ । 2-पूर्व प्रमाण ।
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नागवंशजोंका परिचय ! [ १५३ मौजूद था और इस तरह उनका वहांपर प्राचीन अधिकारही होना चाहिये । इसलिये अहिच्छत्रकी तद्वत् प्रख्याति भगवान पार्श्वनाथकी विनय नाग छत्र आदि लगाकर वहांके नागवंशी राजानेकी इस कारण हुई थी, यह स्पष्ट है । श्री भावदेवमूरिके कथनसे इस विषयकी और भी पुष्टि होती है। वह कहते हैं कि 'कौशम्ब' वनमें धरणेन्द्रने आकर भगवान पार्श्वनाथके शीशपर अपना फण फैलाकर कृतज्ञता ज्ञापन की थी, इसलिए वह स्थान 'अहिच्छत्र' कहलाने लगा।' यहापर भाव नागराजाके विनय प्रदर्शनके ही होसक्ते है क्योंकि हम भावदेवसूरिसे पहले हुये वादिराजमृरिके अनुसार धरणेन्द्रकी कृतज्ञता ज्ञापनका स्थान स्वय बनारस ही देख चुके हैं । अस्तु, या करीब २ निश्चयात्मक रूपमें कहा जासक्ता है कि भगवान पार्श्वनाथका परमभक्त धरणेन्द्रके अतिरिक्त एक नागगना भी था।
Team .
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१-पाश्वनाथचरित सर्ग १० श्लोक १४३......।
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१५४]
। भगवान पार्श्वनाथ ।
(१२) नागवंशजोंका परिचय ! 'पातालाधिपति प्रिया प्रणयिनी चिंतामणि प्राणिनां ।। श्रीमत्पार्श्वजिनेशशासनसुरी पद्मावती देवता ॥२२॥'
-बृहत्पद्मावती स्तोत्र भगवान पार्श्वनाथके शासनरक्षक यक्ष-यक्षिणी* धरणेन्द्र और पद्मावती देवयोनिके थे, यह हम प्रगट कर चुके हैं। साथ ही देख चुके हैं कि कोई नागवंशी राजा अलग अवश्य ही भगवान पार्श्वनाथका भक्त था और भगवान पार्श्वनाथसे उस नागवंशी राजाका सम्बन्ध था किन्तु प्रश्न यह है कि यह नागवंशी राजा कौन थे ? क्या यह भारतीय थे ? अथवा इनका निवासस्थान भारतके वाहिर था ? सौभाग्यसे इन प्रश्नों का समाधान भी सुगमतासे होजाता है और यह ज्ञात होता है कि यद्यपि नागवंशी मूलमें तो भारतके ही निवासी थे, परतु उपरांत वह भारतमें वाहरसे ही आकर बस गये थे। जैन पद्मपुराणसे हमको पता चला है कि जिस समय भगवान ऋषभदेवने दीक्षा धारण करली थी, उससमय उनके निकट कच्छ-सुकच्छके पुत्र नमि-विनमि आये और अन्योंकी भांति राज्य देनेकी याचना उनसे करने लगे थे। इस मुनि अव
, पावनाय चरितमें श्री वाटगजमरिने इन्हें यक्ष बताया है, यह हम देख चुके है । श्री सकलकीर्ति आचार्यने भी धरणेन्द्रका उल्लेख 'यक्षगज' रूपमें अपने 'पार्श्वनाथ चरित में (सर्ग १७ श्लो० १०४-१०५) में किया है। वरजेग (Burgess) मा० ने दिगम्बर मानताके अनुसार मा ही प्रस्ट क्यिा है । (Ind Anti, XXXII, 459-464)
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नागवंशजोंका परिचय ! [१५५ स्थामे ऋषभदेवनी पर यह एक तरहका उपसर्ग ही था । सो उनके पुण्य प्रभाव से वहां धरणेन्द्र आ उपस्थित हुआ और उसने नमि. विनमिको लेनाकर विनया पर्वतकी दोनो श्रेणियोका राजा बना दिया और इनका वश विद्याधरके नामसे प्रख्यात हुआ।' विद्याधर वंशमें अनेको राना होगये। उपरान्त इनमें रत्नपुर अथवा रथनूपुर नगरके राजा सहमारका पुत्र इन्द्र नामक राजा हुआ । यह श्री मुनिसुव्रतनाथजीके तीर्थकाल में हुआ था। इन्द्रने जितने भी विद्याधर राजा उस समय चहुओर फैल गये थे, उन सबको वश किया और स्वर्गलोकके इन्द्रकी तरह वह वहा राज्य करने लगा था । इसी इन्द्रने अपनेको विल्कुल ही देवेन्द्रवत माना और उसकी तरह ही अपना साम्राज्य फैलाया। जिसप्रकार देवेन्द्रके नौ भेद सामानिक, पारिपद आदि होते हैं; वैसे ही इसने नियत किये थे तथा जितने और देव थे उनकी भी कल्पना इसने विद्याधर लोगोंमें क्षेत्र आदि अपेक्षा की और उनके स्थानोंके नाम भी वैसे ही रक्खे । पूर्वदिशामें जोतिपुर नगरमे राजा मकरध्वज और रानी अदितिका पुत्र सोम लोकपाल नियत किया। राजा मेघरथ और रानी वरुणाके पुत्र वरुणको मेघपुरमें पश्चिमदिशाका लोकपाल बनाया । काचनपुरमे किहकंधसूर्य और कनकाके पुत्र पाश आयुध. वाले कुवेरको उत्तरदिशाका लोकपाल निर्दिष्ट किया एवं किहकंधपुरमे राजा बालाग्नि और रानी श्रीप्रभाका पुत्र यम दक्षिणदिशाका लोकपाल स्थापित किया। इसी तरह असुरनगरके विद्याधर असुर, यक्षकीर्तिनगरके यक्ष, किन्नरनगरके किन्नर इत्यादि रूपमें देवोके
१-श्री पद्मपुराण पृ० ४६ । २-पूर्वग्रन्थ पृ० १०६-१०९ ।
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१५६] भगवान पार्श्वनाथ । भेदोके समान ही वहाये | टमी तरह नागलोक अश्या पातालके निवासी विद्याधर नाग, सुपर्ण, गरुर, विद्युत आदि नामसे प्रख्यात हुये । इसप्रकार इस मनुष्य लोकमें ही देवलोक्की नस्ल की गई थी। विद्याधर लोग हम आप जसे मनुष्य ही थे और आर्यवगन क्षत्री थे। अस्तु, इस उल्लेखसे नागवगियो। आर्यवान मनुष्य होना प्रमाणित है और यह प्रक्ट है कि देवलोककी तरह नागद्वेग
और वंश यहा भी मौजूद थे। अत जन कथाओौके नागलोक मनुप्य भी होसक्ते है जैसे कि हम पूर्व परिच्छेदमें देख चुके हैं।
विनया पर्वत भरतक्षेत्रके बीचोबीचमें बनलाया गया है । इम पर्वत और गगा-मिंधु नदियोंमे भरनक्षेत्रके छह खण्ड होगये हैं। जिनमेसे वीचका एक रूण्ड आर्यखण्ड है और गेप पत्र म्हेच्छ खण्ड है । भरतक्षेत्रका विस्तार ६२६६. योजन कहा गया है और एक योजन २००० कोसका माना गया है । अतएव कुल भरतक्षेत्र आजकलकी उपलब्ध दुनियासे वहत विस्तृत ज्ञात होता है । इस अवस्थामें उपलब्ध पृथ्वीका समावेश भरतक्षेत्रके आर्य खण्डमें ही होजाना संभव है और इसमें विजयाध पर्वतका मिलना कठिन है । श्रीयुत प० वृन्दावनजीने भी इस विषयमें यही कहा था कि-"भरतक्षेत्रकी पृथ्वीका क्षेत्र तो बहुत बड़ा है। हिमवत कुलाचलते लगाय जंबृद्दीपकी कोट ताई, बीचि कछू अधिक दग लाख कोश चौड़ा है। तामें यह आवखण्ड भी वहत बड़ा है। यामै वीचि यह खाडी समुद्र है, ताळू उपसमुद्र कहिये है। .. अर अवार
१-पूर्वग्रन्थ पृ० ११:। --पूर्वत्रन्य प्र० ३८ । 3-सक्षिप्त जन इतिहास पृ० २ । ४-वत्वार्थाधिगम् सूत्र (S. B. J.) पृ० ९१।
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नागवंशजों का परिचय !
[ १५७
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आयु काय निपट छोटी है । ताका गमन भी थोरे हो क्षेत्र होय है । " श्रीमान् स्व ० पूज्य प० गोपालदासजी बरैया भी वर्तनकी उपलब्ध दुनियाको आर्यखडके अन्तर्गत स्वीकार करते हुये प्रतीत होते हैं । (देखो जैनहितैषी भाग ७ अक ६ ) तथापि श्री श्रवणबेलगोलाके मठाधीश स्व० पडिताचार्यजी भी इस मतको मान्यता देते थे । उनने आर्यखण्डको ५६ देशोमें विभक्त बताया था, जिनमें अरव और चीन भी सम्मिलित थे । (देखो एशियाटिक रिसर्चेज भाग ९
० २८२) तिसपर मध्य एशिया, अफरीका आदि देशोका 'आर्यन' अथवा 'आयबीज '' आदि रूपमें जो उल्लेख हुआ मिलता है वह भी जैनशास्त्रकी इम मान्यताका समर्थक है कि यह सब प्रदेश जो आज उपलब्ध है प्राय. आर्यखण्ड के ही विविध देश हैं । अगाड़ो पाताल स्थान नियत करते हुये इसका और भी अधिक स्पष्टीकरण हो जय | यहापर विजयार्ध पर्वतकी लबाई - चौड़ाईपर भी जरा गौर कर लेना जरूरी है । शास्त्रोंमें कहा है कि विजया २५ योजन ऊचा और भूमिपर ५० योजन चौडा है । भूमिसे १० योजनकी ऊचाईपर इसकी दक्षिणीय और उत्तरीय दो श्रेणिया है जिनपर विद्याधर बसते है और जैन मंदिर है। यह पूर्वपश्चिम समुद्रसे समुद्र तक विस्तृत है और चांदी के समान सफेद है । इस तरह विजयार्ध पर्वत ५० हजार कोश ऊचा प्रमाणित होता है; किन्तु आजकल ऊचेसे ऊचा पहाड तीस हजार
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१ - वृन्दावन विलास पृ० १३० । २- ऐशियाटिक रिसचेज भाग ३ पृ० ८८ आर विश्वकोष भाग २ पृ० ६७१-६७४ । ३-पद्मपुराण पृ० ५८-५९ । ४ - हरिवशपुराण पृ० ५४ ।
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१५८] भगवान पार्श्वनाथ । फीटसे ज्यादा ऊंचा नही है । आनकलके हिमालयकी ऐवरेस्ट नामक चोटी ही दुनिया में सबसे ऊची माझी जाती है और यह २९००२ फीट ऊंचाईमे है।' हिमालयके बारेमें यह भी कहा जाता है कि वह पूर्व-पश्चिम समुद्रसे समुद्र तक विस्तृत है.' परन्तु इस सादृश्यताके साथ उसका और वर्णन विनयासे नहीं मिलता तथापि उसका इतना विस्तार अर्वाचीन है, क्योंकि यह कहा गया है कि 'एक जमानेमें हिमालयका अधिकांश भाग जलमन था। नेपाल प्रदेश एक जलकुंड अश्वा हृद था, यह नेपालवासियोंका भी विश्वास है। अतएव यह स्पष्ट है कि उपलब्ध दुनिया में विनयार्धका पता लगाना कठिन है और इस हालतमें उपलब्ध प्रदेश आर्यखंड ही प्रस्ट होता है।
हिन्दू पौराणिकोने इन्द्रकी राजधानी और उसके उद्यान आदि उत्तरीय ध्रुवमें स्थित बतलाये हैं। स्वर्गादिकी कल्पना भी उन्होंने वहीं की है। यह इन्द्र और स्वर्ग आदि देवलोकके होना अशक्य है; क्योंकि हिन्दू शास्त्रोंमें भी इनको अपर (ऊर्ध्व) लोकमें बतलाया है। अतएव यह इन्द्र और उसके स्वर्ग आदि जैनशास्त्रोंक इन्द्र, विद्यावर और उसके स्थापित किए हुए नकली स्वर्गादि ही प्रकट होते हैं। इस अवस्थामें विजयार्घ उत्तरध्रुवमे कहींपर अवस्थित होना चाहिये। उत्तरध्रुवकी अभी तक जो खोज हुई है उससे यह तो प्रकट होगया है कि वहांपर भी किसी जमानेमें बड़े सभ्य
१-डी रापल वर्ल्ड ऐटलस पृ. ७ । २-एशियाटिक रिसर्चेज भाग ३ पृ. ६८ । ३-प्री-हिस्टॉरिक इन्डिया पृ० ४२-४५ । ४-हिस्ट्री ऑफ नेपाल पृ० ७७ । ५-एशियाटिक रिसर्चेज भाग : पृ० ५२ ।
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नागवंशजोंका परिचय! [१५९ मनुष्य रहते थे; क्योकि वहांपर उजड़े हुये नगरोंके खण्डहर और शिल्पनिपुणताकी अनूठी मूर्तियां भी मिली हैं। कालदोषसे वहांके निवासियोका पता आजकल अभीतक नहीं चला है; किन्तु हिन्दू 'पुराणोके वर्णनसे यह प्रकट होता है कि वहांके निवासी बर्फकी अधिकतासे एक समयमें नीचेकी ओर यूरोप और मध्य एशिया आदिकी ओर हटते आये थे। पदार्थ विज्ञानके इतिहाससे भी यह पता चलता है कि एक जमानेमें बर्फ की अधिक प्रधानता होगई थी
और उस 'शीतकाल में संसारके निवासियोंमें हलचल मची थी। इस तरह जैनशास्त्रोके कथनकी एक तरहसे पुष्टि ही होती है; क्योंकि वे मूलमें विद्याधरोका राज्य विजयाध पर बतलाते हैं और उपरान्तमें उनको तमाम यूरोप, अफरोका और मध्य एशियामें फैल गया निर्दिष्ट करते हैं, जैसे कि हम जरा अगाडी देखेंगे। मध्यएशिया. तुर्किस्तान, और तातार देशके निवासी अपनेको जो एक काश्यप नामक पुरुषका वंशज बतलाते है; वह भी जैन मान्यताका सम'र्थन करता है, क्योकि भगवान ऋषभदेवका गोत्र काश्यप था और
उनसे याचना करनेपर ही विद्याधर वंशके आदि पुरुष नमि-विनमिको राज्य मिला था। इन देशोंके निवासी असुर, दैत्य, नाग आदि विद्याधर वंशज थे, यह हम ऊपर देख ही आये हैं, जिनका अस्तित्व वैदिक कालसे लेकर पौराणिक समय तक बरावर मिलता है। । यहां तकके कथनसे यद्यपि विजया और आर्यखंडके संबंधमें
१-'वीर' भाग २ अंक १०-११ । २-प्री-हिस्टॉरिक इन्डिया प्र० '४३ । ३-पद्मपुराण पृ० ५०-१२५ । ४-इन्डियन हिस्टारीकल क्वारटली भाग २ पृ० २८ । ५-पूर्वभाग १ पृ० १३२ ।
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१६० ]
भगवान पार्श्वनाथ |
१
कुछ मालूम हो गया है, पर अभीतक नागोके निवासस्थान पाताल लोकके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं हुआ है । आधुनिक विद्वानोने दैत्य, दानव, असुर, नाग, गरुड आदिका निवास स्थान हूण जातियो का मूलगृह मध्यऐशिया और तुर्किस्तान बतलाया है । उनके अनुसार नाग, गरुड आदि सब ही हूण अथवा शक जातियोंके ही भेद है । इसको उन्होंने सप्रमाण सिद्ध भी किया है । उनका यह कथन जैन शास्त्रोंसे भी ठीक ही प्रतिभाषित होता है, यह हम यहापर पातालके विषयमें विचार करते हुए निर्दिष्ट करेंगे।
इस स्पष्टीकरण के लिये हमे मुख्यत: श्री पद्मपुराणजीका आधार लेना पड़ेगा। इस पुराण में श्री रामचन्द्रजी व रावणका चरित्र वर्णित है । सक्षेप मे उसपर एक नजर डाल लेना हमारे लिये परमावश्यक है । अस्तु, इसमें लिखा है कि सम्राट् सगरचक्रवर्ती के समय में विजयार्धकी दक्षिण श्रेणिमें एक चक्रवाल नगरका राजा पूर्णवन था । विहाय लक नगर के राजा सहस्रनयनने सम्राट् सगरकी सहायता से इसे तलवारकी घाट उतार दिया । इसका पुत्र मेघवाहन भागकर भगवान अजितनाथजी के समवशरणमें पहुंचा । वहापर राक्षसदेवोके इन्द्र भीम और सुभीम उससे प्रसन्न हुये और उसे लवण समुद्रमेंके अनेक अन्तर द्वीपों में से एक राक्षस द्वीपका अविपति वना दिया । यह राक्षसद्वीप सातमौ योजन लम्भा और चौडा बताया गया है और इसके मध्य में त्रिकूटाचल पर्वत वतलाया है । यहा योजनका परिमाण फीयोजन चार कोश समझना उचित है । यह त्रिकूटाचल पर्वतं रत्नजटित था । इसी पर्वतके १ - पूर्वभाग १ पृ० १३४ ।
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नागवंशजोंका परिचय ! [१६१ तले ३० योजन प्रमाण लंका नामक नगरी थी, जिसके अनेक उद्यान और कमलोसे मडित सरोवर थे। यहां निनेन्द्र भगवानके अनुपम चैत्यालय भी थे । यह दक्षिण दिशाका तिलकरूप नगर था। मेघवाहन आनन्दसे यहा रहने लगे थे। इसके साथ ही उनको पाताल लेका भी मिली थी। यह धरतीके बीचमे थी और इसका मुख्या नगर अलकारोदयपुर ६ योजन औडा और १३१॥ योनन चौड़ा था। मेघवाहनने लंका तो अपनी राजधानी बनाई और पाताललका भय निवारणका स्थान नियत किया । जिस समय मेघवाहन विमानमे बैठकर लकाको चले थे तो उनको बीचमे श्यामवर्णका लवण समुद्र पड़ा था।
मेघवाहन महारक्षको राज्यदे मुनि हुए । महारक्षके अमररक्ष उदधिरक्ष, भानुरक्ष ये तीन पुत्र हुए । महारक्ष भी दीक्षा ले गए, सो अमररक्षक राजा हुये और युवराज पदपर भानुरक्ष नियत हुये। अमररक्षका विवाह किन्नरनाद नगरके श्रीधर विद्याधर राजाकी पुत्री अरिजयासे हुआ था । गधर्वगीत नगरके सुरसन्निभ रानाकी गर्वा पुत्री भानुरक्षने परणी थी। बड़े भाईके दशपुत्र और छह पुत्री थी इतने ही संतान छोटे भाईके थे । पुत्रोने अपने २ नामके नगर बसाये सो कुल इसप्रकार थे.
१ सन्ध्याकार, २ सुदेव, ३ मनोद्वाद, ४ मनोहर, ५ हसद्वीप, ६ हरि, ७ जोघ, ८ समुद्र, ९ काचन १० अर्धस्वर्म, ११ आवर्त, १२ विघट, १३ अम्मोद, १४ उत्कट, १५ स्फुट, १६ रतुगृह, १७ तद्य, १८ तोष, १९ आवली और २० रन्द्वीप। '
अमररक्ष और भानुरक्ष भी मुनि होगए । उपरान्त बहुत
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"१६२] भगवान पार्श्वनाथ । -राजाओंमें एक रक्ष, जिसका पुत्र राक्षस हुआ। इन्हीके नामसे इस वंशके राजा 'राक्षस' कहलाने लगे | राक्षसके दो पुत्र आदित्य गति और कीर्तिधवल हये । विजया दक्षिण श्रेणीके मेघपुरके राजा अतीन्द्रके पुत्र श्रीकठने अपनी मनोहरदेवी कन्या कीर्तिधवलको दे दी; पर रत्नपुरके पुष्पोतर राजा उसे अपने पुत्र पद्मोत्तरके लिये चाहते थे। श्रीकंठने सुमेरु यात्रा करते हुए पद्मोत्तरकी बहिन पद्मा भाको देखा सो वह उसे उठा लाया। इसपर लड़ाई हुई, पर पद्माभाके कहनेसे संधि होगई। कीर्तिधवलके आधीन निम्नदेश थे:
सन्ध्याकार, सुवेल, कांचन, हरिपुर. जोधन, जलधिध्यान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्घखर्ग, कूटावर्त, विघट, रोधन, अमलकांत, स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभा, क्षेम इत्यादि।
श्रीकठ उपरोक्त संधिमें अपना राज्य खो बैठा था, सो कीर्तिधवलने इसे लंकासे उत्तर भाग तीनसौ योजन समुद्रके मध्य बानरद्वीप, जिसके मध्य किहुकुदा पर्वत था, वह दिया । इस द्वीपमें वानर मनुष्य समान क्रीड़ा करते थे। श्रीकंठने उन्हें पाला और किहुकंद पर्वतपर किहुकंद नगर वसाया। इसके उत्तराधिकारियोंमें एक अमरप्रभ राजा हुआ, जिसने लंकाके राजाको पुत्री गुणवतीसे विवाह किया था । इसीने अपनी ध्वनामें 'वानर' चिन्ह रखना प्रारम्भ किया, जिससे इसके वंशन बानरवशी कहलाने लगे थे। इसने विजयार्घके सारे राजाओंको जीता था । उपरांत अनेक राजाओंके बाद इस वशमें एक राना महोदधि नामक श्रीमुनि सुव्रतनाथनी (२०वें तीर्थकर)के समयमें हुआ था। इनके समयमें लंकाका राना इनका मित्र विद्युतकेश था। फिर एक किहकंघ नामक राजा
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नागवंशजों का परिचय !
[ १६३
हुआ । इसे लाल मुखवाला बिद्याधर लिखा है । इसे विद्याधरोंने हराया था, सो यह वानरद्वीप छोड़ पाताल - लंका में आया था । राक्षसवंशी भी वहीं पहुंचे । निर्धात लंकाका राजा हुआ । बहुत दिन पाताल - लका में रहते किहुकंधका जी ऊब उठा । उसने दक्षिण समुद्र तटपर करनतट वनके पहाड़पर किहुकंधपुर नगर वसाया ! कर्णपर्वत पर इसके जमाईने वर्णकुण्डल नगर वसाया । पाताललकाके स्वामी सुकेशके तीन पुत्र थे माली, सुमाली और माल्यवान । निर्घात् कुटुम्बी दैत्य कहलाते थे, सो इनसे उक्त तीन पुत्रोंने लंका वापस जीत ली । यज्ञपुरके विश्व कौशिकीके पुत्र वैश्रवणको वहां का राजा बनाया । पाताललंका में सुमालीका रत्नश्रवा रहा । इसने पुष्पकवनमें विद्या साधी । वहां केसकी नामक राजपुत्री इसकी
सेवा में रही । विद्या सिद्ध होनेपर इसने वहीं पुष्पातक नगर बसाया इन्ही के यहां रावणका जन्म हुआ । बालपनेमें रावणने उस हार को उठा लिया था जिसकी रक्षा एक हजार नागकुमार करते थे । उपरांत इसने भीम नामक वनमें एक स्वयंप्रभ नामक नगर बसाया था । रावणका विवाह विजयार्धपर्वतकी दक्षिण श्रेणीके नगर असुरसंगतिके राजा मयकी पुत्री मंदोदरीसे हुआ था । राजा मय विद्याधर ही था, परंतु दैत्य कहलाता था । लंकाके राजा वैश्रवणके वंशज यक्ष कहलाते थे । वैश्रवण और रावणमें युद्ध हुआ था, जिसमें वैश्रवणकी पराजय हुई थी । लोग उसे रणभूमिसे उठाकर यक्षपुर लेगए थे । वहां उसने दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली थी।
: लाल मुखवाले 'रेड इन्डियन्स' आज उत्तरीय अमेरिकामें मिलतेहैं । समव है वानरवंशी राजाओंका राज यहीं रहा हो ।
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१६४] भगवान पार्श्वनाथ । पुष्पकके मध्य एक महा कमलवन है सो वहासे विमानमें बैठकर रावण दक्षिण समुद्रकी ओर लकाको चला और त्रिकूटाचल पर्वत पर पद्मरागमणिमई चैत्यालय देखे । इधर सूर्यरज और रक्षरज वानरवंशियोंने भी पाताल लंकाके अलकनगरसे निकलकर किहकूपुर बानरद्वीपमें जा घेरा । राजा इदके ठिकपाल यमने उनसे युद्ध किया, जिसमें वानरवशी कैदी हुए ! मेघलवनमे नरक नामक बदीगृहमें यह वैद रक्खे गए । इसपर रावणने यमको आ घेरा । यम भागकर राजा इंद्रके पास रथनूपुर जा पहुंचा | रावण लौटकर त्रिकूटाचल पर्वतको चला गया, जहांसे समुद्र दिखाई पड़ता था । उपरांत किहकधपुरमें वानरवंशी सुर्यरनके पुत्र वाली और सुग्रीव हुए। पाताल लंकामें खरदूषण रावणका बहनोई राज्याधिकारी हुआ । पाताल-लंकामें मणिकांत पर्वत था। वाली वैराग्य पा मुनि होगये, रावण दिग्विजयको निक्ले मो सुग्रीवने उससे मंत्री कर ली। पहले उनने अंतरद्वीप वश किये फिर संध्याकार, सुवेल, हेमा, पूर्ण, सुयोधन, हसद्वीप. वारिहव्यादि देशों के विद्याधर राजाओसे उनने भेंट ली । उपरान्त रथनपुरके राजा इंद्रको वश करने रावण चला सो पहले अपने खरदूषण बहनोईके पास पाताल लंकामें डेरा डाले । हिडम्ब, हैहिडिम्ब, विकट, त्रिजट, ह्यमाकोट, सुनट, टंक, सुग्रीव, त्रिपुर, मलय, हेमपाल, कोल, वसुंदर इत्यादि राजा उसके साथ थे । खरदूषण कुभ, निकुम्भ, आदि राजाओके साथ इनके साथ होलिया । यहांसे निकलकर रावणको सूर्यास्त विव्याचल पर्वतके समीप हुआ । नर्मदाके तट रावण ठहर गये। वहां माहिमतीके राजा सहस्त्रररिमकी केलि-क्रीडासे रावणको पूजाम
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नागवंशजोंका परिचय ! [१६५ विघ्न हुआ सो उनमें युद्ध छिड गया। भूमिगोचरी सहस्ररश्मि पकड़ा गया । शतबाहु मुनिके कहनेसे रावणने उसे छोड़ दिया। परंतु उसने पुत्रको राज्य दे मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। फिर रावमने उत्तरदिशाके सब राजा वश किये । राजपुरनगरका मरुत यज्ञ कर रहा था, नारदके समझानेपर भी वह नहीं माना था । रावभने उसको भी वश किया। इतनेमें वर्षाऋतु आई; सो रावणने गंगातट पर ठहरकर बिताई । यही उमने अपनी पुत्री कृतचित्रा मथुराके राजा मधुको विवाह दी थी । यहासे ही उसने सम्मेदशिखरकी वंदना की थी और फिर अगाडी चलकर वह कैलाशके समीप पहुंचा था। यहांपर इंद्रका दिग्पाल दुलधिपुरका स्वामी नलकूबर रावणका सामना करनेको आया । उसने इद्रको भी खबर भेज दी । इंद्र उस समय पांडुवनके चैत्यालयोकी वदना कर रहा था । उसने आनेकी तैयारी की, इतने में नलकूवर परास्त होगया। रास्ता साफ पा रावण अगाड़ी बैताड्य पर्वतपर पहुंचे। इंद्रने भी रावणको नजदीक आया जानकर सिरपर टोप रखकर.रणभेरी बनवा दी । संग्राम छिड़ गया । रावणके योद्धा बजवेग, हस्त, प्रहस्त, मारीचि, उद्भव, बज्ज, वक्र, शुक्र, सारन, महाजय आदि थे। इन्द्रके मेघमाली, तडसंग, ज्वलिताक्ष, अरि, खेचर, पाचकसिंहन आदि थे । इंद्रकी ही पराजय हुई । रावण लौटकर लंका जाने लगा। रास्तेमें गंधमान पर्वत देखा । इधर. इन्द्र मुनि होकर अन्ततः मोक्षको गए। . इसतरह रावण आनन्दसे पातालपुरके समीप तिष्ठता राज्य कर रहा था कि पातालनगरके राजा वरुणसे रावणका युद्ध हुआ
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। था।
१६६] भगवान पार्श्वनाथ । था । इसी समय अपने मामाके यहां हनुरुहहीपमें जन्म पाकर बड़े हुये हनूमान भी लका आये थे । वीची पर्वत इनको मार्गमें पड़ा था । उपरान्त वह समुद्रको भेदकर वरुणके नगरपर पहुंचे थे । युद्धमें वरुण पकडा गया था। वहाके भवनोन्माद वनमें रावणने डेरा दिये थे और उसकी सत्यवती कन्याको परणा था । हनूमानको रावणने अपनी घेवती विवाही थी और उसे कर्णकुण्डलपुरका राज्य दिया था। लंकामें लौटकर शांतिनाथनीके चैत्यालयकी वंदना कर रावण आनन्दसे रहता था ।
उपरांत सुकौशल देशकी राजधानी अयोध्यामें इक्ष्वाकवंगी राजा दशरथ राज्य करते थे। इन्हीके समयमें अर्घ बरबर देशके म्लेच्छोंने भारतवर्षपर आक्रमण किया था। अर्धवरवरदेश वैताज्यके दक्षिण भागमें और कैलासके उत्तरमें अवस्थित अनेक अन्तर देशोंमें एक था । यहां मयूरमाला नगरका राजा म्लेच्छ अन्तर्गत नामक या । कालिद्रीभागा नदीकी ओर यह विषम म्लेच्छ थे। इनके साथ किरात, भील आदि थे । इन म्लेच्छोमें श्याम, कर्दम, ताम्र आदि वर्णके लोग थे तथा कई एक वृक्षोंके वल्कल पहिने हुए थे। दशरथ जनक, राम और लक्ष्मणने इनको हराया और यह विन्ध्याचल मादि गहन स्थानोमें वस गए। राम जब वनवासके दिन काटते हुए दक्षिण भारतमें पहुंचे, तो वहां इन्होको उनने परास्त किया था। उपरांत दंडकवनसे रावण सीताको हर लेगया था। इधर खरदूषगका पुत्र अज्ञात लक्ष्मणके हाथसे मारा गया था; सो खरदूषण इनपर चढ़ आया था। आखिर इस युद्ध में वही काम आया था। चन्द्रोदयके पुत्र विराधित विद्याधरके कहनेसे राम-लक्ष्मण पाताल
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नागवंशजांका परिचय! [१६७ लंका पहुंचे थे। उधर वहांसे आकर किहकंधापुरके राजा सुग्रीवकी सहायता राम-लक्ष्मणने की, सो सव वानरवंशी इनके सहायक हो गये थे । इसी समय क्रौंचपुरके राजा यक्ष और रानी राजिलताका पुत्र यक्षदत्त था। वह एक स्त्रीपर मोहित था। ऐनमुनिके समझानेसे वह मान गया था। उपरांत किहकंधापुरसे हनूमान सीताका पता लगाने चला था, सो पहले उप्तने महेन्द्रपुरमें अपने मामाको बश किया था। उनको रामचंद्रजीके पास भेजकर फिर वह अगाड़ी बढ़ा था और उसे दधिमुखद्वीप पड़ा था जिसमे दधिमुख नगर था। वहां निकट आग लगे वनमें दो मुनिराज व तीन कन्यायें हनूमानजीने देखी थी । उनका उपसर्ग उन्होने दूर किया था । दधिमुख नगरके राजा यक्षकी वे तीन कन्यायें यीं। आखिर उनको रामचंद्रने परणा था। फिर हनूमान लंका पहुच गए थे। प्रमदवनमें उसने सीताको देखा था। हनूमान सीताकी खबर ले जब लौट आए तब राम-लक्ष्मणने लंकापर चढ़ाई की थी। वे पहले वेलंधरपुर पहुंचे थे और वहाके समुद्र नामक राजाको परास्त किया था। फिर सुबेल पर्वतपर सुबेल नामक विद्याधरको वश किया था। उपरांत अक्षयवनमें रात्रि पुरी की थी। अगाड़ी चले तो लंका दूरसे दिखाई पडी । हंसद्वीपमे डेरा डाले और वहांके हंसरथ राजाको जीता। हंसद्वीपके अगाडी रणक्षेत्र रच दिया। रावणके सेनापति अरिंजयपुर नगरके राजाके दो पुत्र थे । यह अपने पूर्वभवोमें एकदा कुशस्थल नगरमें निर्धन ब्राह्मण जिनधर्मसे पराङ्मुख थे। जैनी मित्रके संयोगसे जैनी हुये और फिर अन्य भवमें तापस होकर अरिंजयनगरके राजाके पुत्र हुये थे । रावणसे युद्ध हुआ। सुग्रीव और भामण्डल
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भगवान पार्श्वनाथ ।
शक्तिहीन हुये सो गरुडेन्द्रको रामचन्द्रने याद किया। उसने सिंहवाहन और गरुड वाहन नामक देव भेजे, जिनके प्रतापसे सुग्रीव भामण्डलका नागपाश दूर हुआ । गरुड़के पखोकी पवन क्षीरसागरके जलको क्षोभरूप करने लगी सो वह नाग वहासे विलीन होगए । इन्द्र नीलमणिकी प्रभासे युक्त रावण उद्धत रूपसे संग्राम करने लगा, विद्या माधने लगा और फिर आखिर मृत्युको प्राप्त हुआ था । लक्ष्मणने कुवरके राजा बालखिल्यकी पुत्री कल्याणमालासे यहीं विवाह किया था और फिर लवण ममुद्र लाघकर अयोध्या यहुचे थे । इस तरह श्रीपद्मपुराणमे यह कथन है । अब इस कथनके आधारसे हमे पातालपुरका पता लगाना सुगम होजाता है ।
उपरोक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि भारतसे दक्षिण पश्चिमकी ओर लका थी और लका पहचनेके पहले पाताललका पड़ती थी, क्योंकि पाताल-लका ही रावणको दिग्विजयके लिए निकलते समय पहले आई थी। फिर पाताल-लकासे खन्दूषणने राम-लक्ष्मणपर जो दडकवनमें आक्रमण किया था, सो उसकी खबर रावणको नहीं हुई थी, क्योंकि पाताल-लंकासे भारत आते हुये वीचमें लंका नहीं पड़ती थी-वह उससे ऊपर रह जाती थी यह प्रगट होता है। किंतु हनुमानजीको लंका जाते हुये मार्गमें पाताललका नहीं पड़ी थी, इसका यही कारण हो सकता है कि वे दूसरे मार्गसे गये थे। यही वात राम-लक्ष्मणके आक्रमणकी समझना चाहिये । वहा मी पाताल लकाका उल्लेख नहीं मिलता है, किंतु यहा यह सभव है कि वे पाताल-लका तक पहुच ही न पाये हों और हंसद्वीपमें ग्णभूमि रचकर बैठ गए हों, जो पाताल-लंकाके इतर भागमें हो। इस विषयमें निश्चयरूपसे जाननेके लिये हमें
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नागवंशजोंका परिचय |
[ १६९ देखना चाहिए कि राक्षसद्वीप अथवा लंका और पाताललंका कहांपर थे ? आजकलकी मानी हुई लंका (Ceylon ) तो यह हो नहीं सक्ती; क्योंकि भारत से प्राचीन लंकातक पहुंचने में कितने ही द्वीप पड़ते थे । जब रावण सीताको हरकर लिये जारहा था तो बीच समुद्र में रत्नजी विद्याधर ने उसका मुकाबिला परास्त होकर कम्पूद्वीपमे जा गिरा था ।" अंतर द्वीपों में से एक बताया गया है। द्वीप न होकर द्वीप है । तिसपर प्राचीन रत्नद्वीप और सिंहलद्वीपके नामसे हुआ त्रिकूटाचल पर्वत भी कहीं दिखाई नहीं
किया था और वह और फिर उसे अनेक
मौजूदा लका एक अतर कथाओ में इसका उल्लेख मिलता है और इसमें पड़ता है । इसलिये यह राक्षस वशियो के निवास स्थान जो सन्ध्याकार आदि बताये गये हैं, उनमें, का रत्नद्वीप ही होगा, यह उचित प्रतीत होता है । इस अपेक्षासे राक्षसोके इन आसपास के स्थानोंको छोड़कर कही दूर अंतरदेशमें लंका और पाताललंका होना चाहिये ।
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हिन्दू पुराणोंमें शङ्खद्वीपमें राक्षसों और म्लेच्छोंका निवास बतलाया है और अन्ततः राक्षसोंकी अपेक्षा ही उनने उस स्थानका नाम 'राक्षस स्थान' रख दिया है । हिन्दू शास्त्रोमें यह राक्षस लोग भयानक देव बतलाये गये हैं ।" परंतु वात वास्तवमें यूं नहीं है। यह मनुष्य विद्याधर ही थे । हिन्दू शास्त्रकारोने इनका उल्लेख भयानक राक्षसों और म्लेच्छोके रूपमें केवल पारस्परिक स्पर्द्धासे ही
१ - जैन पद्मपुराण पृ० ५५६ । २ - कनिंघम, एनशियन्ट जागराफी ऑफ इन्डिया पृ० ६३७-६३८ । ३ - ऐशियाटिक ग्सिचेंज भाग ३ पृ० ०० । ४ - पूर्व० पृ० १८५ । ५- पूर्व० पृ० १०० ।
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१७०] भगवान पार्श्वनाथ । किया है, क्योंकि हम जानते है कि यह विद्याधर जैन धर्मानुयायी थे। रामायणमें स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि राक्षस-दैत्य आदि यज्ञमे मानकर विघ्न उपस्थित करने लगे थे और ऊपर जैन पद्मपुराणके वर्णनमें हम देख आये हैं कि राक्षसवशी रावणने यज्ञकार्य बंद कराया ही था । इस अपेक्षा यह स्पष्ट है कि विद्याधर मनुप्योको राक्षस आदि देवयोनिके बतलाना केवल पारस्परिक स्पोके ही कारण था । याज्ञवल्क्यने, इसी स्पीके कारण गंगाकी तराईमें रहनेवाले मनुष्यों अथवा पूर्वीय आर्योको जो बहुतायतसे काशी, कौशल, विदेह और मगधमें वेद विरोधी बने रहते थे और जो बहुत करके जैन ही थे 'भृष्ट' सज्ञासे विभूषित किया था। सारांशत. यह स्वीकार किया जासक्ता है कि शङ्खद्वीपमें रहनेवाले राक्षस और म्लेच्छ वास्तवमे आर्य मनुष्य ही थे और प्रायः जैन थे।
__ अब देखना यह है कि शङ्गद्वीपमेंका यह राक्षसस्थान कहां पर है ? एक यूरोपीय प्राच्य विद्याविशारद शहीपको आजकलका मिश्र (Egypt) सिद्ध करते हैं और उसीमें राक्षसस्थान प्रमाणित करते हैं। वह राक्षसस्थान वही प्रदेश बतलाते हैं जिसको यूनानवासियोंने रॉकोटिस (Rhacotis) संज्ञा दी थी अथवा जिसको उन्हींका भूगोलवेत्ता केडरेनस (Cedrenus ) 'रॉखास्तेन' (Rhakhasten) नामसे उल्लेखित करता है। यह स्थान मौजूदा अलेक्झांडियाके ही स्थलकी ओर था और प्राचीनकालमें अवश्य ही विशेष महत्वका स्थान रहा होगा, क्योंकि भूगोलवेत्ता लिनी
१-पक्षिप्त जैन इतिहास पृ० ११-१२ । २-ऐशियाटिक रिसचेंज भाग ३ पृ. १०. । ३-पूर्व० पृ० १८९ ।
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नागवशंजोंक परिचय। [१७१. (Pliny) बतलाता है कि मेसफीस (Mesphees) नामक मिश्रके एक प्राचीन राजाने यहांपर दो चौकोने स्तंभ (Obsliks) वनवाये ये और उससे पहलेके राजाओंने यहां अनेक किला आदि बनवाये थे। यह स्थान अन्तरीय कुशद्वीपके किनारेपर' अवस्थित 'त्रिशृङ्ग' अर्थात् तीन कूटवाले पर्वतसे हटकर नीचेमें था । जैन शास्त्र राक्षसद्वीपमें तीन कूटवाला त्रिकूटाचल पर्वत बतलाते हैं; उसकी तलीमें लकापुरी कहीं गई है । हिन्दू और जैन शास्त्रकारोंके बताये हुए नामोंसे किञ्चित अन्तर आना स्वाभाविक ही है; किन्तु उपरोक्त सादृश्यताको ध्यानमें रखते हुये राक्षसद्वीप और लंकाका मिश्रमें होना ठीक जंचता है। वैसे भी लोक व्यवहार में लंका 'सोने' की मानी जाती है और मिश्रके प्राचीन राजाओंकी जो सोनेकी चीजें अभी हालमें भूगर्भसे निकली हैं, वह इस जनश्रुतिको सत्य प्रकट करती हैं । तिसपर जैनशास्त्रमें जो लंकाके पास कमलोंसे मंडित कई उद्यान और वन बतलाये हैं; वह भी यहां मिल जाते हैं। मिश्रका ऊर्ध्वभाग, जिसमें कि अलेकजन्ड्यिा आदि अवस्थित हैं इन्ही वनोंके कारण 'अरण्य' अथवा 'अटवी' के नामसे ज्ञात था। सचमुच पहले नील (Nile) नदीका यह मुहाना गहन वनसे भरा हुआ था और यूनानीलोग • उसे अपनी देवीका पवित्रस्थान (Sncred to the Godess Diana) मानते थे। उनका यह मानना एक तरहसे है भी ठीक क्योंकि महासती सीताके निवासस्थानसे यह वन पवित्र होचुके थे।
१-पूर्व० पृ. १८९। २-पूर्व० पृ० १५४ । ३-माडनरिव्यू Vol XL. ४-ऐशियाटिक रिसर्चेज भाग ३ पृ. ९७ । ५-पूर्व० पृ० १६४।
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१७२]
भगवान पार्श्वनाथ । इसतरह लकामें जो पर्वत आदि बताये गये थे, वह सब उक्त प्रकार मिश्रमे मिल जाते है । इसलिये लकाका यहा हो होना ठीक है ।
यदि लका ऊपरी मिश्रमें मानी जावे तो पाताल लकाका उमसे नीचे होना आवश्यक ठहरता है। पाताल-लंकाके निकट, पद्मपुराणके उपरोक्त वर्णनमें पुप्पकवन और उसीमे उपरान्त पुष्पातक नगरका चमाया जाना लिखा है तथापि पुप्पकके मध्य 'एक महाकमल वन भी था और स्वय पाताल लंकामें एक मणिकात पर्वत बतलाया गया है। इन स्थानोंको ध्यानमें रखनेसे हमें मिश्रके -नीचेके स्थान अवेसिनिया(Abyssenia) और इथ्यूपिया (Ethiopia) ही पाताल लका प्रतिभाषित होते हैं। इन्ही दोनो देशोमें पाताल लंकाके उपरोल्लिखित स्थान हमें मिल जाते हैं। अवेसिनियाके निकट इथ्यूपियामें पुष्पवर्ष स्थान बतलाया गया है जहां अवसिनियाकी नन्दा अथवा नील नदी वृहत नील (sile) मे आकर मिलती है। यहीं इसी नामके पर्वत व वन है । तथा इन्हींके नीचे जो पद्मवन बताया गया है वह महा कमलवन होगा क्योंकि कमल और पद्म पर्यायवाची शब्द हैं और पद्मवनमें कोटिपत्रदलके कमल होते थे, इसलिये उनका पर्यायवाची एवं और भी स्पष्ट • नाम महाकमलवन ठीक ही है । पुप्पातक और पुप्पवर्षमें किंचित् ही बाह्य भेद है, वरन् भाव दोनोंहीका एक है । अतएव उनको एक स्थान मानना युक्तियुक्त प्रतीत होता है। अब रहा सिर्फ मणिकांत पर्वत जिसमें अनेक प्रकारकी मणिया लगी हुई थीं। पुप्पातक अथवा पुप्पवर्षसे ऊपर चलकर इथ्यूपियामे जहांशखनागा
१-पूर्व० पृ० ५६ । -पूर्व० पृ० ६४ ।
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नागवंशजोंका परिचय । [१७३ (आजकलकी मारेच Mareb) नदी नील (Nile)मे आकर मिलती है, वहापर समीपवर्ती एक 'द्युतिमान' पर्वत बतलाया गया है। इसमें मणियां धातु आदि मिलते थे, इस कारण मणियोका प्रकाशरूप यह पर्वत 'द्युतिमान' कहलाता था। अतएव द्युतिमान और मणिकांत पर्वत एक ही हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। इसप्रकार पाताललंका आजकलके अत्रेसिनिया और इथ्यपिया प्रदेश ही होना चाहिये । इथ्यूपियामे जैन मुनियों का अस्तित्व ग्रीक लोग 'जैम्नोसूफिट्स ' के रूपमें बतलाते हैं। जैम्नोसूफिटम जैन मुनि ही होते हैं यह प्रगट ही है । अस्तु; यहांपर यह संशय भी नही रहती कि अबेसिनिया और इथ्यूपियामें जैनधर्म कहांसे आया ? यद्यपि जैनशास्त्र तो तमाम आर्यखण्डमे जिसमें आजकलकी सारी पृथ्वी आजाती है एक समय जैनधर्मको फेला हआ बतलाते है। पाताललकामे जैन मदिरोका मन्त्वि शास्त्रोमें कहा गया है। . अवेसिनिया और इथ्यूपियाके निवासी बहुत प्राचीन जातिके और उनका धर्म भी प्राचीनतम माना गया है;" एव उनकी भाषा और लिपि करीब २ प्राचीन संस्कृत लिपिके समान ही थी। तथापि उनका संबन्ध यादवोंसे भी था, यह बताया गया है। हिन्दू
१-पूर्व० पृ० १०६।२-पर विलियम जोन्स इन जैम्नोसूफिट्सको बौद्ध
यायी बताते है (पूर्व० प्र०), किन्तु उस प्राचीनकालमें वौद्रोंका अस्तित्व भारतक बाहर मिलना कठिन है. क्योफि बौद्ध धर्मका विदेशोंमें प्रचार सम्राट
* द्वारा ही हुआ था । तिसपर सर विलियमके जमानेमें जैन और छ एक समझे जाते थे । इसलिये यहा बौद्रोंसे मतलव जैन ही ममझना चाहिए । ३-इन्माइकोपेडिया बेटिनिका भाग ३५। ४-ऐशियाटिक परसत्रज भाग ३ पृ. १३९ । ५-पूर्व० प० ४-५ ।
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१७४] भगवान पार्श्वनाथ । शास्त्रोंक अनुसार अवेसिनिया और इथ्यूपिया बहिर कुगद्वीपमें आ जाते हैं।' इस कुशद्वीपमें वह एक कुशम्तंभ और दैत्य, दानव, देव, गंधर्व, यल, रक्ष और मनुष्योका निवास बतलाते हैं। मनुष्योमें चतुर्वर्ण व्यवस्था भी थी, यह भी वह कहते हैं। इसी कुशद्वीपमें यादवोंका आगमन कृष्णके बाल्यकालमें कंसके भयके कारण बताया गया है। कहा गया है कि वे भारतवर्षसे निकलकर अवेसिनियांके पहाड़ोंपर आकर रहने लगे थे। उनके नेता यादवेन्द्र कहलाते थे। सो उन्हींकी अपेक्षा यह पर्वत भी इसी नामसे प्रसिद्ध हुये थे। प्राचीन इथ्यूपियन निवासियोंके स्वभाव आदि इन यादवों जैसे ही थे और ग्रीक भूगोलवेत्ता भी उनका आगमन वहां भारतवर्षसे हुआ बतलाते हैं। जैन हरिवंशपुराणके कथनसे भी इस व्याख्याकी पुष्टि होती है। यद्यपि वहां कृष्णसे बहुत पहले उनका आगमन यहां बतलाया गया है। वहां कहा गया है कि २१ वें तीर्थकर श्री नमिनाथनीके तीर्थ में यदुवंशी राजा शूर थे। इन्होंने अपना मयुराका राज्य तो अपने छोटे भाई सुवीरको दे दिया था और स्वयंने कुशद्य देशमें परमरमणीय एक शौर्यपुर नामक नगर बसाया था। आजकल शौर्यपुर मयुराके पास ही माना जाता है। पतु यह ठीक नहीं है क्योकि मथुराके आसपासका देश 'कुशद्य' नामसे कमी प्रख्यात् नहीं था। भारतमें कुशस्थल देशको कौशल किन्हीं शास्त्रों में बताया हुआ मिलता है, किन्तु वहांभी शौर्यपुर
१-पूर्व पृ० ५५ । २-३-विष्णुपुराण २-४ ३५-४ । ४-५-ऐशियाटिक रिसर्चेज भाग ३ पृ० ८७ । ६-रिवशपुराण प्र० २०४ । --मावदेवसरि, पार्श्वनाथचरित्र सर्ग ५ में कुशस्पलके राजा प्रसेन
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नागवंशजोंका परिचय । [१७५ नहीं होसक्ता; क्योंकि शौर्यपुरके निकट उद्यानमें एक गंधमादन पर्वत बतलाया है; हांपर सुप्रतिष्ठ नामक मुनिराजको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी।' गंधमादन पर्वत हिमालयका पश्चिमी भाग माना जाता है; परंतु उसका कोई निकटवर्ती प्रदेश भी कुशद्यदेश नहीं कहलाता है। इसके अतिरिक्त गंधमादन पर्वतका उल्लेख द्वारिकाके निकट रूपमें भी हुआ है; परंतु वहां जैनाचार्य बरड़ो पर्वत श्रेणीको ही गंधमादन मानकर वह उल्लेख करते हैं। हिन्दू शास्त्र द्वारिकाको कुशस्थलीमें बतलाते हैं; परतु यहा भी वही आपत्ति अगाड़ी आती है कि द्वारिकाके निकट उद्यानमें गंधमादन पर्वत नहीं था। अतएव यह कुशद्यदेश उपरोक्त कुशद्वीप अर्थात् अवेसिनिया ही होना चाहिये; जहांपर यादवोका आना प्रमाणित है। हिन्दुओंके माने हुए कुशद्वीपमें गंधमादन पर्वतका उल्लेख भी मिलता है। इसलिये अवेसिनियाको ही कुशद्यदेश समझना ठीक जंचता है। इस अवस्थामें पाताल-लका और कुशद्यदेश एक ही स्थानपर परिचित होते हैं । इसका अर्थ यह होसक्ता है कि पाताल-लंका भी उपरान्त कुशद्यदेशके नामसे प्रसिद्ध होगई थी जैसे कि हिन्दूशास्त्र पाताललंकाका उल्लेख कहीं करते ही नहीं है और अवेसिनिया इथ्यूपिया एवं न्यूबियाके सारे प्रदेशको कुशद्वीमें गर्भित करते हैं; परंतु रावणके समयमें जैन ग्रन्धकार अवेसिनिया और इथ्यूपियाको पाताल-लंकाके जित वतलाये है, पर यह राजा कौशलके ये। इसलिए यहा कुशस्थलसे भाव काशलके ही प्रगट होते हैं ।
१-हरिवशपुराण पृ० २०५ । २-दी इन्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली भा० १ पृ. १३५ । ३-नेमिनिर्वाणकान्य ५३-६१ । ४-महाभारत सभा० १३ अ० । ५-ऐशियाटिक रिसर्चेज भाग ३ पृ. १६७.
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१७.] भगवान पार्श्वनाथ । नामसे और न्यूवियाको कुशस्थलकी सनासे उल्लेख करते प्रतीत होते है । यह भी सभव है कि जेन शास्त्रकारोके निकट अवेसिनिया कुराढीप रहा हो और इथ्यूपिया पाताल लंका क्योकि इथ्यपियामें ही पाताल-लंकाके पर्वत व वन आदि मिलते हैं। अस्तु,
उस समय करायलमे वैदिक धर्मके क्रियाकाण्ड यज्ञादिका प्रचार था, यह भी पद्मपुराणमे स्वीकार किया गया है। अतएव यह स्पष्ट है कि अवेसिनियामे यादव लोग भी पहुंचे थे: जिनमेसे उपरात भगवान नेमिनाथका जन्म हुआ था और जो जनशास्त्रोंमें जैनधर्मानुयायी बताये गए है । अवेसिनिया ही कुगद्यदेश है, इसका समर्थन यादवेन्द्र शूरसेनके पौत्र वसुदेव वर्णनसे भी होता है। जब वनुदेव कुगद्यदेशके शौर्यपुरसे निकलकर अंगदेशके चम्पा नगरमें जाकर विद्याधरके विमानसे गिरे थे, तब उन्होंने अचंभेमें पडकर लोगोसे पूछा था कि यह कौनसा देश है ? यदि मयुराके पास ही गौर्यपुर होता तो अंगदेश और चम्पाका परिचय वसुदेवको जरूर होना चाहिये था और वहापर पहुंचने पर उन्हें विस्मित होना आवश्यक न था। साथ ही शौर्यपुरके गंधमादन पर्वतपर जो जैन मुनिको केवलज्ञान होना बतलाया गया है, वह भी ठीक है, क्योकि अबेसिनियामें जैन मुनि पहले विचरते थे, यह बात ग्रीक लोग बतलाते हैं। इस गामें अवेसिनियाको ही पाताल-लंका मानना ठीक-जंचता है। उसके शब्दार्थ भी इसी व्याख्याका समर्थन करते है; क्योंकि लका ( मिश्र ) से नीचे ( अघो-पाताल )की ओर ही अवेसिनिया थी।
यदि ला मित्र और पाताल-लंका अवेमिनिया एवं १-पद्मपुगण पृ० ६.१ ।
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नागवंशजोंका परिचय! [१७७ इथ्यूपियामें थे, तो हनूमान और रामचंद्रजीको जो वहां जाते हुये मार्गमें देश पड़े थे, वह भी यथावत आन मिश्र जाते हुये मिल जाना चाहिये। पाताल लंकामे रावणके बहनोई खरदूषणको मारकर रामचन्द्र वहां विद्याधर विराषितके कहने और राक्षसवशके मित्र किष्किघापुरके वानरवंशियों-सुग्रीव आदिके भयसे चले गये थे, परंतु वह वहां ज्यादा दिन नही ठहरे थे और वापिस कि कन्धापुर मुग्रीवकी सहायता करने चले आये थे। उनका वहां अधिक दिन ठहरना भी उचित नहीं था, क्योकि आखिर वहां रावणका भय अधिक था और जबकि रावणको राम-लक्ष्मणके पाताल लंकामें होनेका पता चल गया था, तब उनका पाताल-लंकाकी ओरसे आक्रमण करना उचित नहीं था। सुतरां मालूम तो यह पडता है कि रामचंद्रनीके किष्किन्धा चले आनेके अन्तरालमें रावणने अपने सन्ध्याकार आदि देशोके राक्षप्तवंशियोंपर संदेशा भिजवा दिया था। इसकारण वे हसद्वीपसे अगाडी बढने ही नहीं पाये थे। हतभाग्यसे हमारे पास ऐसा कोई साधन नहीं है, जिससे इन देशोका पता चला सकें जिनमें राक्षसवंशज रहते थे। हां, इनमेसे रत्नद्वीपका पता अवश्य ही चलता है और यह आजकलकी लका ही है, यह हम देख चुके हैं । यह हो सक्ता है कि यह ' सन्ध्याकार आदि प्रदेश उस पृथ्वीपर अवस्थित हो जो अब समुद्र में डूब गई है, क्योकि यह तो विदित ही है कि अफ्रिकासे भारतके उत्तर-पश्चिमीय तटतक एक समय पृथ्वी ही थी। अस्तु; अब 'यहांपर पहले हनूमा-' नजीके लंका आनेके मार्गपर एक दृष्टि डाल लेना उचित है। , १. ऐशियाटिक रिसर्चेज़ भाग ३ पृ. ५२ । १२
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२७८] भगवान पाश्चनाय
हनुमाननीने हिप्किन्वासे चलनेपर पहले पर्वतपर अवस्थित राजा महेन्द्रका नगर मिला था। महेन्द्रपुर और पर्वत दक्षिण भारतमें ही होना चाहिये, क्योंकि हनूनान दशिगनी ओर चले आये थे।
आजकल भी दबिग भारतले विस्कुल छोरपर महेन्द्र पर्वतका __ अस्तित्व हमें मिलता है। इस अवम्याने महेन्द्रपुर इसी पर्वतपर
अवन्यित होना चाहिये । राजा नहेन्द्र अपने नगरकी अपेक्षा ही महेन्द्र कहलाना होगा ! महेन्द्रपुरसे गना महन्द्रको निमिन्यापुर पहुंचार विमानपर ठचर अगाड़ी चलनेपर उनले दधिमुत नाम द्धीर मिल थाः निमनें दधिनुन्छ नगर था। यहांले वनमें उन्होंने दो गरश मुनियोंको अनिमें जल्ने हुए बचाया था। दविमुत्त एक प्रसिद्ध शाक्य (-cythis) जाति प्रमाणित हुई है और यह 'दह्य (Dahae) लाती एवं जमत्रम नदी (Jaradres) के जरी मागके किनागेंपर रहती थी। इन्हींकी अपेक्षा तमाम भव्य ऐशिया 'दहय-देश के नामसे विन्यात् हुमा ही। इस अवस्था दविमुन्द्वीप समस्त नव्य ऐगिया होती है और उमनें दधिमुत नगर दहयनातिका निवास स्थान होमना है। यहांचा राजा गन्धर्व पअयुगणमें बनाया गया है और यह नाम जाति लपेटा प्रकट होता है। नन्न ऐगिया मया रसातल्ने गन्धर्व जाति भी रहती थी, यह प्रगट ही है। अतएव दधिमुक्त नगर और उसका राना आनरल ईरान ( Persia) श्री सन्इनपर नहीं होना चाहिये। दधिमुहीके अगाडी हनुमान लंकाली मीमापर पहुंच गये थे।
.इनिन हिरिकल इटाली ना. पृ. ३८९।-
. ... .. . . .. २६.
वं.
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नागवंशजोंका परिचय !
[१७,
वहापर कोटरक्षक वजमुखकी कन्याको परास्त करके इनने उसके साथ विवाह किया था। यहांपर जो कन्यासे युद्ध करने का उल्लेख है, वह शायद 'स्त्रीराज्य' की स्त्री शासकोंका बोधक हो; क्योंकि मिश्र, न्यूविया आदिके किनारेपर ही इस स्त्री-राज्यको अवस्थित खयाल किया गया है और फिर हनूमान लंकामें पहुंच जाते हैं। यहां हम पहले हनूमानको दक्षिण भारतके छोरसे समरकन्द बगदाद मादिकी ओर चलकर मध्य ऐशियाको लाधकर लका पहुंचते अर्थात् मिश्नमें दाखिल होते पाते हैं और यह है भी ठीक । इस रास्तेमें मध्यऐशियाका माना जरूरी है। इस तरह भी लंकाका मिश्रमें होना -ठीक जंचता है।
अव रामचंद्रनीकी लंकापर चढ़ाई ले लीजिये। पहले ही उन्हें वेलधरपुर पहुंचा बतलाया गया है। पद्मपुराणमें देशोंके नामको हम नगरोके रूपमें प्रायः व्यवहृत हुआ पाते हैं। उदाहरणके तौरपर रत्नहीप एक नगर बताया है, परन्तु वह वास्तवमें एक देश था क्योंकि वह आजकलकी लंका ही है. यह हम देख चुके हैं। इसलिये वेलधरपुर यदि कोई देश हो तो आश्चर्य नहीं ! मव्य-ऐशियामें हिन्दू शास्त्रोका बित्तल प्रदेश 'आन-तेले' रूपमें बतलाया गया है । और आब-नेलेका भाव उन हूण लोगोंसे है जो आक्षस (Oxus) नदीके किनारोंपर वसते थे। बेलंधरपुर आवतेलेके हूणों का निवासस्थान ही होसक्ता है क्योंकि वेलंधरपुरके शब्दार्थ यह होसक्ते हैं कि बेल (=माब-बेले-जाति)को
१. पूर्व० भाग १ पृ० १३५. २ दी इतिश्न हिस्टोरीकल क्वारटी भाग १ पृ. १३५
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१८० ]
भगवान पार्श्वनाथ |
वारण करनेवाला पुर | तिसपर वहांके राजाका नाम जो समुद्र बताया है, वह भी इसी वातका द्योतक है। नदी के किनारेपर वसनेवालों का राजा समुद्ररूप में उल्लेखित किया गया प्रतीत होता है। इस अपेक्षा वेलंधरपुर मध्य ऐशियामें वृहद्र पामीर (Great Pamir) पर्वतके निकट अवस्थित प्रतीत होता है ' । इस हालत में रामचन्द्रजी बेहद उत्तर में चले गये मालूम होते है किन्तु उनका इस तरह घूमकर जाना राजनीतिकी दृष्टिसे ठोक ही थाः क्योंकि दक्षिणभारतके अगाडी रत्नद्वीपसे तो रावणके वंशज ही रहते थे । इसलिये घूमकर ठीक लंकापर जा निकलनेसे उनको बीचमें युद्ध में अटका रहना नहीं पड़ा था । उघर से जाने में एक और बात यह थी कि इन प्रदेशोंकी योद्धा जातियोको भी वे अपना सहायक बना सके थे । तिसपर गरुडेन्द्र उनका सहायक मित्र बतलाया गया है और उपरान्त उसने उनकी सहायताको रणक्षेत्रमे सिवाहन और गरुडवाहन देव भेजे थे । इन गरुडके पखोंकी पवन क्षीरसागर के जलको क्षोभरूप करनेवाली और रावण के सहायक सर्पोको भगाने - वाले बताई गई है । इस अवस्थामें यह गरुडवाहन कैंसपियन समुद्रके निकट बसनेवाले शाक्य ( Scythian ) जातिके योद्धा होना चाहिये, क्योंकि इसी समुद्रको क्षीरसागर भी पहले कहते थे । यद्यपि जैन शान्त्र में गरुडेन्द्र देवयोनिका माना गया है अतएव रामचंद्रजीका इधर होकर जाना बहुत ही मुझका काम था । नेरपुर से आगे वह सुचेल पर्वतपरके सुवेलनगर में आये कहे गये
१०.15 136 ९ पद्मपुरा ० ६५१ : दीि for that we do 3%.
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नागवशंजोंक परिचय। [१४५ हैं। यह प्रदेश हिन्दू शास्त्रोंका सु-तल होसक्ता है, यह सु जातियों (Kidarites or Sutribes) का निवासस्थान होनेके रूपमें इसस नामसे विख्यात था। इसमें आजकलका बलख भी था। यहां सुवेल विद्याधरको जीतनेका उल्लेख पद्मपुराण करता ही है । अतएव सुवेलका सु-तल होना ही ठीक जंचता है। उपरात रामचन्द्रनीने अक्षयवनमें डेरा डाले थे और वहां रात पूरी करके हसद्वीपमें हंसपुरके राजा हंसरथको जीता था। यहीं अगाडी रणक्षेत्र मादकर वह डट गये थे। अक्षयवन संभवतः जक्षत्रस (Jaratres) नदीके आसपासका वन हो और इसके पास ही सुपर्ण आदि पक्षियोका निवास स्थान था', यह विदित ही हैयद्यपि पक्षीका भाव यहां जातियोंसे ही है । अस्तु, हंस भी एक पक्षीका नाम है, इसलिये हंसद्वीप और हंसरथसे भाव पक्षियोकी जातिसे होसक्ता है । इसके भगाड़ी जो लंकाकी सीमा आगई ख्याल की गई है वह भी ठीक है, क्योंकि राक्षसवंशजोंका एक देश हरि भी जैन पद्मपुराणमें बताया गया है। आर्यबीज अथवा आर्यना (Aeriana) प्रदेश बाइबिलमें - 'हर' नामसे परिचित हुआ है। तथापि यहांपर हूण अथवा तातार जातिया भी रहती थीं, जिनमें ही राक्षसवंशी भी आजकल माने गये हैं। इस हालतमें हंसडीपके अगाड़ी राक्षसोंका हर प्रदेश आजाता था। इसलिये रामचन्द्रजीका विरोध वहींसे होने लगा होगा, जिसके कारण वह वहींपर रणक्षेत्र रचकर डट गये थे । अतएव इस तरह भी लंकाका मिश्रमें होना ही ठीक जंचता है।
१ पूर्व० भाग १ पृ. ८५६. २ पूर्व० भाग २ पृ. ४३. ३ पद्मपुराण पृ० ६८ और ७७ ४ दी इडि. हिस्टा• क्वारटनी भाग १ पृ० १३१ ५ पूर्व० भाग १ पृ. ४६२. .
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१८२] भगवान पार्श्वनाथ ।
जैन पद्मपुराणमे कैलाश और वैताव्य पर्वतमें स्थित अर्धवरबरदेशके म्लेच्छोंका भारतपर आक्रमण करना लिखा है तथापि श्याममुख, कदम, ताम्र आदि वर्णके लोगोंको कालिन्द्रीनामा नदीके किनारे वाला बतलाया है । यह अर्धबरबर प्रदेश ऐशियाटिक रसियाका बीचका भाग होसक्ता है। इसके राजाकी अध्यक्षतामें श्याममुख आदि यहां आए थे। यह ज्ञात है कि ज्याममुखोंका एक अलग प्रदेश काली अर्थात् नील (Nile) नदीके किनारेपर ही था'। इसी तरह कर्दमवर्णके लोगोका कर्दमस्थान' और ताम्रवर्णके लोगोंका तमस-स्थान भी वहीं बतलाये गये है, तथापि रावणने जो अपने आसपासके राजाओंके साथ दिग्विजयके लिये पयान किया था तो उस समय उसके साथ हिडम्ब, है हिडिम्ब, विकट, त्रिजट, हयमाकोट, सुनट, टंक आदि लोग थे । इनमेंके हिडम्ब और हैहिडिम्ब संभवत. हैहय ( Haihayas) होंगे, जिन्होने उत्तर कुशद्वीपके राजाओं के साथ गौतमऋषिकी सहायता करके जमदग्निको मारा था। यह हैहय ईरानी (Persian) अनुमान किये गये है। त्रिनट सुनट और विकट शंखद्वीप (मिश्र) के जटापर्ट और कुटितकेग नामक जातियोंके राजा होसक्ते है । इयमाकोट हेमकूट पर्वत जो शंखद्वीपमें था उसके निकटवासी मनुष्योंकि राजा प्रतीत होते हैं और टंक टक्कका अपभ्रश मालम होता है जो तक्षकनागके वंशज थे। इसलिए टंक नाग जातिके
शियाटिक रिसर्चेज भाग ३ १० : २ पूर्व. पु. ९६ । पूवं• १० : -५ .ऐशियाटिक ग्मिन भाग : १० ११६. ६- १० ११५. ७-पूर्व पृ. ५. ८-पूर्व० पृ. ५६. राजपूता. ने इनिदाग प्रथम भाग पृ. २३.
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नागवंशजोंका परिचय। [१८३ हूण लोग होसक्ते हैं; और जैन पद्मपुराणमें रावणके पक्षमें नागोंका होना स्वीकार किया गया है जो गरुडवाहनके आनेसे भाग गये लिखे हैं । खरदूषणके साथ त्रिपुर, मलय, हेमपाल, कोल आदि राजा थे और यह भी रावणके साथ दिग्विजयको गये थे। रावण पाताललंका होता हुआ इन राजाओको साथ लेकर नर्मदा तटपर पहुंचा था । यह राना मलयद्वीप (Maldiva) जो पहले बहुत विस्तत था और भारतसे लगा हआ था,' वहीके विविध देशोंके राजा मालूम देते हैं । वहांके त्रिकूट पर्वतके निकटवाले देशके राजा त्रिपुर, सोनेकी कानोंवाले देशके अधिपनि हेमपाल और मलयदेशके सना मलय एव कोल जातिके नृप कोल कहे जासक्ते हैं । नर्मदाके तटपर माहिष्मती नगरीके राजा सहस्ररश्मिसे जो वहांपर युद्ध हुआ था, यह आज भी मध्यप्रांतमें जनश्रुतिरूपसे प्रचलित है। इसतरह इस विवरणसे भी रावणका निवासस्थान राक्षसद्वीप और लंका मिश्रमे प्रमाणित होते है। यह पृथ्वीरेखा (Equator), के निकट भी थे, जैसा कि अन्य शास्त्रोंमें कहा गया है।
किन्हीं विद्वानोंका अनुमान है कि मध्य भारतमें अमरकण्टकपहाड़की एक चोटीपर ही रावणकी लंका थी, अन्योका कहना है कि आजकलकी लंका ही लंका है और डा० जैकोबी उसे आसाममे ख्याल करते हैं। हालमें एक अन्य विद्वानने लकाको मलयद्वीप (Maldiva Islunds) में बताया है। उपरोक्त
१-दी० इन्डि. हिस्टॉ० क्वार्टली भाग २ पृ० ३४८. २-मध्यप्रातके प्राचीन जैन स्मार्क, भूमिका पृ० ६. ३-भुवनकोष १७. ४-५-इन्डि०. हिस्टॉ० क्वार० भाग २ पृ० ३४५
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१.८४.]
भगवान पार्श्वनाथ |
. वर्णनको देखते हुये इन व्याख्यायोंपर सहसा विश्वास नही किया - नासक्ता ? मध्य भारत और आसाममे लंकाका अस्तित्व मानना - बिल्कुल भूल भरा है । आज कलकी लंका भी रावणकी लंका नहीं है, यह हम पहले देख आये हैं । तथापि हिन्दूशास्त्रोंसे भी इस 1 लंकाका सिहलद्वीप होना और इसके अतिरिक्त एक दूसरी लंका होना सिद्ध है । अत्र केवल मलयद्वीपको राक्षसद्वीप और लंका बतलाना विचारणीय हैं | मलयद्वीप में भी त्रिकूट पर्वत और सोनेकी कानें होने के कारण उसको रावणकी लंका ख्याल किया गया है, किन्तु यदेि वही राक्षसद्वीप या तो फिर उसका नाम हिन्दूशास्त्रों में मलयद्वीप क्यों रक्खा गया ? तिसपर स्वयं हिन्दूशास्त्रोंसे उसका लंका होना बाधित है । रामायणमें कहा गया है कि रावण वरुण के देशसे बालीको छुड़ाने आया था । वरुणका देश पश्चिममें यूरोपके नीचे कैस्पियन समुद्रके निकट था और वाली मध्य ऐशिया में चलिखनगरमें कैद रक्खे गये माने जाते हैं । इस अवस्थामें रावणकी लका मिश्रमें होना ही ठीक है । हिन्दू पुराणोंमें शंखद्वीपमें ग्लेच्छोंके साथ राक्षसोंको रहते बताया गया है और कहा गया है कि वहां कोई भी ब्राह्मण नहीं था इस कारण प्रमोद के राजाके अनुग्रह से पोथिऋषिने वहां वैदिक धर्मका प्रचार किया था । ब्रह्माण्ड और स्कन्दपुराणनें जो कथा राक्षसस्थानकी उत्पत्ति में दी हुई है, वह भी उसे मिश्र के बरवरदेश के निकट बतलाती है और
Ε
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९-१० पृ० ३४६-३४७ २ नानावण उत्तरकाउ २३-२४ ३ - इन्टि हिस्टॉ० क्वार० भाग २ ० २४० ४ - पूर्व० भाग १ पृ० ४५६ ५-ऐयाटिक ग्सिचेंज भाग १०१००६ - पूर्व० पृ० १८२-१८५
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नागवंशजोंका परिचय! । १८५ इसका समर्थन ग्रीक भूगोलवेत्ता भी करते हैं, यह हम पहले देख चुके हैं । तथापि गणितशास्त्र ‘गोलाध्याय ' के कर्ता भास्कराचार्य ( सन् १११५ ई० ) का निम्न श्लोक भी हमारे ही कथनका समर्थन करता है:-- 'लङ्काकुमध्ये यमकोटिरस्याः प्राक् पश्चिमे रोमकपट्टनं च । अधस्ततः सिद्धपुरं सुमेरुः सौम्येऽथ यामे वड़वानलश्च ॥'
यहां लङ्काके मध्य पूर्व में यमकोटिस्थान और पश्चिममे रोमकपट्टन बतलाये हैं । इनसे अध भागमें सिद्धपुर-सुमेरु बतलाया और दक्षिणमे बड़वानलका होना लिखा है । अब यदि हम मिश्र ही लंका मान लेते हैं तो यमकोटि, जो सभवतः यमका स्थान ही है, वह लकाके मध्यपूर्वमें मिल जाता है । हिंदुओंके पद्म और भागवतपुराणमें जो कृष्णके गुरु काश्यपकी स्त्रीकी खोजमें कृष्णके जानेकी कथा है उसमें कृष्णके वराहद्वीप (यूरोप) की ओर जानेपर वरुणके कहनेसे वह वहांसे नीचे उतरकर यमपुरीमें पहुंचे थे। कृष्ण भारतसे उधर गये थे; इसलिये मध्य एशिया आदि प्रदेश तो वह लांघ गए थे और इस अवस्थामें यूरोपकी सीमासे उनका नीचेको आगमन अफ्रीकामे ही होसक्ता है। इसलिए यमपुरी लंका (वरबर स्थान-मिश्र) के मध्यपूर्वमें होसक्ती है। आगे रोमकपट्टन जो पश्चिममें बतलाई गई है वह भी ठीक है । यह रोमकपट्टन आजकलका रोम (Roms) है और यह उत्तर पश्चिममें स्थित बराहद्वीप (यूरोप) में था। इसलिये यह भी ठीक मिल जाता है । अधो
१-भुवनकोष १७ २-ऐशियाटिक रिसर्चेज भाग ३ पृ० १७९ ३-पूर्व• पृ. २३१
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१८६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
भागमें सिद्धपुर और सुमेरुपर्वत बतलाये गये हैं । हिन्दुओंका यह सुमेरुपर्वत आजकलका हिदूकुश पहाड़ है' और इसके पास शायद कही मिद्धपुर होगा और यह मिश्रसे नीचेको उतरकर ही है । इसलिये यह भी भास्कराचार्यके कथनानुसार ठीक मिलते है । अब रहा सिर्फ बड़वाल अर्थात् पृथ्वीकी मध्य रेखा (Equator ) सो मिश्र से दक्षिणकी ओर अफ्रीका होकर यह निकाला ही है । इस दशार्मे भाम्कराचार्यके अनुसार भी मिश्र ही लंका प्रमाणित होती है। इन बातोंको देखते हुये लंकाको मलयद्वीपमें बतलाना ठीक नहीं है । कम्से कम जैनशास्त्रोके अनुसार तो उसका अस्तित्व मिश्रदेशमे ही प्रमाणित होता है । मलयद्वीप तो उससे अलग था, यह हमारे उपरोक्त वर्णनसे प्रकट है । अ·तुः
1
प्राचीनकालमें मिश्रमें जैनधर्मका अस्तित्व होना भी प्रमाणित है । एक महाशयने वहांके एक राजाको जैनधर्मानुयायी लिखा भी था। वहांके प्राचीन धर्मका जो थोड़ा बहुत ज्ञान हमें मिलता है उससे भी सिद्ध होता है कि यहां पहले जैनधर्म अवश्य रहा होगा | सबसे मुख्य बातें जो मतमतान्तरों में प्रचलित है वह आत्मा और परमात्मा के स्वरूप सम्बन्धमें हैं । सौभाग्यसे इन विषयो मिश्रवासियों का प्राचीन विश्वास करीव २ जैनधर्मके समान था । प्राचीन मिश्रवामी जैनियोंके समान ही परमात्माको सृष्टिका कर्त्ता हती नहीं मानते थे । उसे वे संपूर्णत पूर्ण और सुखी ( Infinitely perfect and happy ) मानते थे और वह
१०० क्वाटी भाग १ ० १३५२ - अग्रवाल इतिहास प० 1-निटीज ऑफ प्री० मेनन पृ० २७१
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नागवंशजोंका परिचय | [ १८७ केवल एक ही स्वतंत्र व्यक्ति नहीं था अर्थात उनके निकट अनेक परमात्मा थे ।' मिश्रवासी आत्माका अस्तित्व भी स्वीकार करते थे और उसका पशुयोनिमें होना भी मानते थे । उसके अमरपने में भी विश्वास रखते थे । यह सब मान्यतायें बिलकुल जैनधर्मके समान हैं । भगवान मुनिसुव्रतनाथ और फिर भगवान नमिनाथके तीर्थोके अन्तरालमें यहां जैनधर्मका विशेष प्रचार था, यह जैनशास्त्रोसे प्रकट है । तथापि यूनानवासियोकी साक्षीसे मिश्र के निकटवर्ती अवेसिनिया और इथ्यूपिया प्रदेशो में जैन मुनियोका अस्तित्व' आजसे करीब तीन हजार वर्ष पहिले भी सिद्ध होता है । इस दशामे उक्त सादृश्यताओको ध्यानमे रखते हुये यदि यह कहा जावे कि मूलमें तो मिश्रवासियों का धर्म जैनधर्म ही था, परन्तु उपरांत अलंकारवादके जमानेकी लहर में उसका रूप विकृत होगया था तो कोई अत्युक्ति नहीं है । यह विदित ही है कि मिश्र, मध्य एशिया' आदि देशोमें अलंकृत भाषा और गुप्तवाद (Allegory) का प्रचार होगया था और धर्मकी शिक्षा इसी गुप्तवादमे दी जाती थी । * मिश्रवासियोकी अलकृत भाषा और उनकी गुप्त बातें (Mystries) बहु प्राचीन हैं । इन गुप्त बातोको जाननेके अधिकारी मिश्रमें पुरोहित और उनके कृपापात्र ही होते थे । यह पुरोहित बड़े ही सादा मिजाज़ और सयमी होते थे । यह साधारण लोगों को ऐसी शिक्षा देते थे जिससे उनको अपने परभव और पुण्य - पापका भय
१ - मिस्ट्रीज ऑफ फ्री मेसनरी पृ० २७१ २ - दी पृ० १८७ ३ - ऐशियाटिक रिसर्चेज भाग ३ पृ० ६ कान्फल्यून्स ऑफ ऑपोजिट्स पृ० १-६ ५-दी स्टोरी १७३ ६-७ - पूर्व० पृ० १९१
४
स्टोरी ऑफ मैन – सपलीमेन्ट टू ऑफ मैन पृ०
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१९०] भगवान पार्श्वनाथ । इसिस उसकी लाशको ढूंढ निकालती है और ओसिरिसके पुत्र होरसकी सहायतासे उसे पुन. जीवित करके परमात्मपदमें पघरवा देती है, जहां वह अमर जीवनको प्राप्त होता है। इसिस ओसिरिसको ढूंढती हुई अपने पर्यटनमें सब कठिनाइयो आदिका मुकाविला करती है और इसी लिए उसने गुप्तवादको जन्म दिया है कि उसके चित्रपटको देखकर हरकोई उन कठिनाइयोंको सहन करनेकी शिक्षा ग्रहण कर ले, जो कि उसे आशाकी रेखाके दर्शन करा दे । इसमें शक नहीं कि यह गुप्तवाद-एक नवीन सुखमय जीवनको प्राप्त करनेका मार्ग बतानेवाला है। अस्तु. उपरोक्त कथानामे ससारी आत्माके मोक्षलाभ करनेका ही विवरण है । ओसिरिस शुद्धात्माका द्योतक है, जो पुद्गल (सेठ) के वशीभूत होकर
अपने स्वाभाविक जीवनसे हाथ धोकर भवसागरमें (नीलमें) रुलता फिरता है । इस भवसागरमे शुद्धात्माको तपश्चरणकी कठिनाइयां सहन करनेवाले और सर्वथा व्यान करनेवाले ऋषिगण ही पासक्ते हैं। इसलिए इसिस ऋषिगणका ही रूपान्तर है। ऋषि और भृष्ट शुद्धात्मासे ही तीसरा व्यक्ति अहंत (Horus होरस) उत्पन्न होता बतलाया गया है. क्योंकि ऋषिगणके लिये अर्हतपद ही एक द्वार है जो उसे शुद्ध-बुद्धबनाकर परमात्मपदमें पधरवा देता है। इसलिये ओसिरिस अन्तत सिद्धपरमात्मा ही है ! अईत और होरस शव्दकी सादृश्यता भी भुलाई नहीं जासक्ती; यही बात
ऋषि और इसिस शब्दमें है । ओसिरिस भी सिद्ध शब्दका रूपा-' - न्तर होसक्ता है । बसिरिस (Ysiris) रूपमें उसकी सहशता
१-कान्नलयन्स ऑफ ऑपोजिटम पृ. २४८ २-पूर्व० पृ० २४७
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नागवंशजोंका परिचय !
श्
[ १९१ सिद्ध शब्द से मिल जाती है । इस शब्दका भाव मिश्रवासियोंके निकट परमात्मा (Superme Being) से था, यह हेला निकस नामक ग्रीक विद्वान् बतलाता है ।" इसतरह हमारे ख्याल से मिश्रके तीन देवता सिद्ध, साधु और अरहंत ही हैं । होरस ( Horus) की जो एक मूर्ति देखने में आई है, वह भी इस व्याख्याका समर्थन करती है । वह बिल्कुल नग्न खड्गासन है; शीशपर सर्पका फण है जैसा कि जैन तीर्थंकर पार्श्व और सुपार्श्वकी मूर्तियो में मिलता है; किन्तु जैनमूर्ति से कुछ विलक्षणता है तो सिर्फ यही कि उसके ! दोनो हाथों मे दो २ सर्प और एक कुत्ता व एक मेंढा है तथापि ' वह मगरमच्छ के आसनपर खड़ी है । वैसे मूर्तिकी आकृति से भयकरता प्रकट नहीं है, प्रत्युत गभीरता और शांति ही टपक रही है | यहापर सर्पो आदिको हाथोंमें लिये रखने से गुप्त संकेत रूपमें (Hıe1ate Symbols) इन देवताके स्वरूपको स्पष्ट करना ही इष्ट होगा । चार सर्पोंसे भाव अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से होसक्ता है; क्योकि सर्पको मिश्रवासियोंने बुद्धि और स्वास्थ्यका चिन्ह माना था । इसी -तरह कुत्ते और मेंढेका कुछ भाव होगा । साराशत होरसकी मूर्ति भी जैन मूर्तिसे सदृशता रखती थी। वह मूलमें नग्न थी, जो मोक्ष प्राप्तिका मुख्य लिङ्ग है । प्राचीन और जैन मूर्तियोंकी आकृति
श्री मिश्र के मूल निवासियों (Negro ) से मिलती हुई अनुमान की - गई है । किन्हीका कहना है कि एक कुटिलकेश नामक नीग्रो
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१ - ऐशियाटिक रिसर्चेन भाग ३ ० १४१ २-दी स्टोरी ऑफ मैन पृ० २१० ३ - ऐशियाटिक रिसर्चेन भाग ३ पृ० १२२-१२३
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१९२ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
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जाति पहले भारतमें मौजूद थी और यह जैन मूर्तियां उन्हीं द्वारा निर्मित हुई थी ।' किन्तु साथमें यह भी ध्यान में रखनेकी बात है कि २२वें और २३वें तीर्थंकरोके शरीरका वर्ण भी जैन शास्त्रोमें नील बतलाया गया है । मथुरासे जो प्राचीन जैन मूर्तियां आदि निकली है उनकी भी सदृशता मिश्र देशके ढगसे है। खासकर उनमें जो चिन्ह थे वह मिश्रदेश जैसे ही थे । मिश्रदेशमे जो क्रास (Cross) चिन्ह माना जाता है वह अन्य देशो से भिन्न समकोणका होता था (+), यह जैनस्वस्तिकाका अपूर्णरूप है । मिश्रवासी अपनेको ज्योतिषवाद के सृष्टा समझते थे और उनके निकट ज्योतिषका महत्व अधिक था, यह खासियत भी जैनधर्मसे सहशता रखती है। जैनधर्मकी द्वादशाङ्गवाणीके अतरगत इसका विशद विवरण दिया हुआ था, जिसका उल्लेख श्रवणबेलगोलके भद्रबाहु - बाले लेखमें भी है । वौद्धो के प्रख्यात् ग्रन्थ ' न्यायबिन्दु 'में जैन तीर्थंकरो ऋषभ और महावीर वर्द्धमानको ज्योतिषज्ञान में पारगामी होनेके कारण सर्वज्ञ लिखा है । साथ ही मिश्रवासियोंका जो स्फटिक चक्र' (Zodiacal stone at Denderah) डेन्डेराह में है वह जैनियोंके ढाईद्वीपके नक्शेसे सदृशता रखता है । मिश्रकी प्रख्याति मेमननकी मूर्ति ( Statue of Memnon ) की एक विद्वान् 'महिमन' की जिनको हम महावीरजी समझते है, उनकी, बतलाते है । अतएव इन सब बातोंसे मिश्रदेशमें किसी समय,
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१- ऐशियाटिक ग्सिचेंज भाग ३ पृ० १२२ - १२३ २ - 'ओरियन्टल',, अक्टूबर १८०२, पृ० २३-२४ ३-स्टोरी 'ऑफ मैन पू० १७२ ४ - पूर्व ०२ पृ० १८७५- भद्रबाहु व श्रवणबेलगोल - इन्डियन एन्टीक्वेरी भाग ३ ५० १५३ ६ - न्यायविन्दु अ० ३ ७-स्टोरी आफ मैन पृ० २२६ ऐशियाटिक रिसचेंज भाग ३ पृ० १९९
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नागवंशजोका परिचय ! [१९३ जनधर्मका अस्तित्व होना भी नमवित होजाता है । इस अवस्थामें जो हम लंकाको वहां पाते है वह ठीक ही है । स्वयं हिन्दू शास्त्र भी इस वातको अस्पष्टरूपमें स्वीकार करते हैं । वह पहले शंखद्वीप (मिश्र) मे ब्राह्मणोंका अस्तित्व नही बतलाते हैं और राक्षसों एवं म्लेच्छोंको बसते लिखते हैं, जो जैन ही थे, जैसे कि हम पहले बतला चुके हैं। इसके अतिरिक्त 'वृहद हेम' नामक हिन्दू शास्त्रमें, पांडवोंका शंखद्वीपमें काली तटपर आना लिखा है। वहांपर उन्हें एक त्रिनेत्रवाला मनुष्य राजसी ठाठसे उपदेश देता मिला था, जिसके चारों ओर मनुष्य और पशु बैठे हुए थे। यही उपरांत 'अमानवेश्वर' नामसे ज्ञात हुआ था। यह वर्णन जैन तीर्थंकरको विभूतिसे मिल जाता है । तीर्थकर भगवान भूत, भविष्यत् वर्तमानको चराचर देखनेवाले रत्नत्रयकर सयुक्त सम्राटोसे बड़ी चढ़ी विभतिरूप समवशरणमें मनुष्यों और पशुओ और देवों. सबहीको समानरूप उपदेश देते हैं, यह प्रगट ही है । अतएव हिन्दू शास्त्र यहां परोक्षरूपमें जैनधर्मका ही उल्लेख करता प्रतीत होता है। इस तरह लकाका मिश्रमें होना ही उचित जंचता है।
__लंकासे पातालपुर समुद्र भेदकर जाया जाता था, यह पापुराणके उल्लेखसे स्पष्ट है । आजकल पातालपुर सोगडियन देश • (Sogdiann) की राजधानी अश्म अथवा अक्षयना (Oriana) का रूपान्तर बतलाया गया है। परन्तु हिन्दूशास्त्रोंमें पातालपुर एक नगरके रूप में व्यवहृत है और जैनशास्त्र इसे एक प्रदेश बतलाते हैं;
१-ऐशियाटिक रिसर्चेज भाग ३ प० १०० २-पूर्व० पृ० १७५ ३-इन्डि. हिस्टॉ० क्वार्टर्ली भाग १ पृ. १३६
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१९४] भगवान पार्श्वनाथ । जिसकी राजधानी पुण्डरीकणी नगरी थी। हिन्दू पुराणोंमे पाताल इसी भावका द्योतक है और यह वहां 'नि-तल' के पर्यायवाची रूपमें व्यवहृत हुआ है। इसलिये सोगडियनदेश ही पाताल था। श्वेतहणों के लिये व्यवहृत 'इफथैलिट्स' (Ephthalites) शब्दसे पातालकी उत्पत्ति हुई बतलाई गई है और इस पातालमें सारी मध्य एशियाका समावेश होता बतलाया गया है। श्वेतहण अथवा इफथैल्ट्सि नक्षरतसका (lararles) की उपत्ययिकामें बसनेवाली एक बलवान जाति थी, जिमने सिकन्दर आजमके बहुत पहले भारतपर चढ़ाई की थी और वह पंजाब एवं सिंघमें बस गई थी। स्कंधगप्तके जमानेमें भी उनके वंशजोंने भारतपर आक्रमण किया था। इफथलिट्मके लिये हिन्दुओंने इलापत्र शब्द व्यवहारमें लिया था। इलापत्रका अपभ्रंश 'अला' और 'पाता' होता है, जिसके पलटकर रखनेसे पाताल शब्द बना हुआ आजकल विहान बतलाते हैं। सिबमें इन्हीं लोगोंके वमनेके कारण यूनानी इतिहासवेत्ताओंने सिघ प्रदेशको पातालेन (Patolene) और उसकी सजघानीको पाताल लिखा है । इस तरह समग्र पाताल अथवा रसातल पूर्वमें वृहद पामीर ( Grent Pamir ) पश्चिममें वेवीरोनिया, उत्तरमें कैम्पियन समुद्रके किनारेवाले देशों और जमरतम नदी एवं दक्षिणमें सभवतः भारत महासागरसे सीमित था।"
इम विवरणमे पातालपुर केम्पियन समुद्रके पास अवस्थित प्रमाणित होता है । मिश्रसे वहांतक पहुंचने में कम्पियन समुह
- - - पृ. ४५९ ३-४-पूर्व प्रमा। ५-:-पृ०
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नागवंशजोंका परिचय ! [ १९५ बीचमें आसक्ता है, इसलिये वहांपर हनूमानका समुद्र भेदकर जाना लिखा है, वह ठीक है । उपरांत वहांपर भवनोन्माद वनमें समुद्रकी शीतल पवनका आना बतलाया है वह भी इस बातका योतक है कि पाताल समुद्रके किनारे था, किन्तु वहाके राजा वरुण
और राजधानी पुण्डरीकणीके विषयमें हम विशेष कुछ नहीं लिख सक्ते हैं । अतएव जैन पद्मपुराणके अनुसार भी पाताल वही प्रमाणित होता है जो आजकल विद्वानोंको मान्य है।
जैन 'उत्तरपुराण'से भी इसी बातका समर्थन होता है । वहां प्रद्यम्नको विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीके मेघकूट नगरमें स्थित बतलाया है। वहांसे उसे बराह बिलमें गया लिखा गया है, जहां उसने वराह जैसे देवको वश किया था। अगाड़ी वह काल नामक गुफामें गया जहां महाकाल राक्षसदेवको उसने जीता था। वहांसे चलकर दो वृक्षोंके बीचमें कीलित विद्याधरको उसने मुक्त किया था। फिर वह सहस्रवक्त्र नामके नागकुमारके भवनमें गया था और वहा शंख बजनेसे नाग-नागनी उसके सम्मुख प्रसन्न होकर आए थे। उन्होंने धनुष आदि उसे भेंट किये थे। वहासे चलकर कैथवृक्षपर रहनेवाले देवको उसने बुलाया और उस देवने भी उसको आकाशमें लेजानेवाली दो चरणपादुकायें दी । अगाड़ी अर्जुनवृक्षके नीचे पाच फणवाले नागपति देवसे उसने कामके पांच बाण प्राप्त किए । वहांसे चलकर वह क्षीरवनमें गया; वहाके मर्कटदेवने भी उसे भेंट दी थी। आखिर वह कंदवकमुखी बावड़ीमें पहुंचा था और वहांके देवसे नागपाश प्राप्त किया था।
१ पद्मपुराण पृ. ३१२...
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१९६] भगवान पार्श्वनाथ । फिर वह पातालमुखी वावड़ीमे पहुंचा था, वहांपर उसे नारद मिले थे और भारत लिवा ले गये थे। विनया पर्वतको हम उत्तर ध्रुवमे पहले बता चुके है। अस्तु, वहासे चलकर पहले बराहद्वीप अर्थात् यूरोपका आना ठीक है । वराहविल वराहद्वीपका रूपान्तर ही है । कालगुफामें राक्षसदेव बतलाया है सो यह गुफा अफ्रीका भ मिश्रदेशमें होना चाहिये, क्योकि राक्षसोंका निवास हम वहीं पाते हैं और यूरोपके नीचे यह आता भी है। तिसपर यहांक लिवासी त्रिगलोडेट्स (Triglodytes) गुफाओं में रहते थे। इस कारण इसका गुफारूपमें उल्लेख होना उचित ही था। कालगुफासे विद्याधरको मुक्त करके प्रद्युम्नका नागकुमारके भवनमें जाना लिखा है सो यहांसे उनका नागलोक अथवा पातालमें पहुंचना ही समझ पड़ता है । सहस्रवक्त्र संभवत सु अथवा किडेटिप्स (Kiderites) जातिके लोगोंका परिचायक है, जो नागलोग या पातालके एक सिरेपर बसते थे। और नाग शब्द 'बिग-नु' ( Hung.nu) शब्दका विगड़ा रूप बतलाया गया है, जो हूण लोगोका प्राचीन माम था। सुनातिकी भी गणना हूणोंमे है। इसलिये इनका उपरोक्त प्रकार नाग बतलाना ठीक है। अगाड़ी वृक्षोंका उल्लेख है सो पातालमें काश्यपसे इनकी उत्पत्ति भी बतलाई गई है। कैथ वृक्ष वाले देवसे भाव शायद कुर्द अथवा कार्डकी ( Carduchi ). जातिके अधिपतिसे हो जो वहां निकटमें वसती थी। इसी तरह
१ उनगपुगण पृ. ५४५-५४७ । २ एशियाटिक रिसर्चेज भाग १ पृ. ५६। ३. इन्डि. हिस्टॉ० कार्टी भाग १ पृ. ४५६ । ४, पूर्व. भाग २ पृ० ३६। ५. पूर्व० भाग १ पृ. ४५७-४५८ । ६-पूर्व० भाग २ पृ. २४३ । ७-पूर्व पृ. ३६।
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नागवंशजोंका परिचय। [१९७० अर्जुनवृक्षपरका पांच फणवाला नागपति 'अजि' (Az1) जातिके राजाका द्योतक प्रतीत होता है । इसीका अपभ्रंशरूप 'अहि' है, जो नागका पर्यायवाची शब्द है । अगाड़ी क्षीरवनका जो उल्लेख है वह क्षीरसागर अर्थात् कैस्पियन समुद्रके तटवर्ती भूमिका द्योतका है। कैस्पियन समुद्रको पहले 'शिरवनका समुद्र' कहते थे, जो क्षीरवनसे सदृशता रखता है। यहांका मर्कट देव मस्सगटै (Massagatae) जातिका अधिपति होना चाहिये; क्योंकि यह जाति कैस्पियन समुद्रके किनारे पूर्वकी ओर बसती थी। तथापि मर्कट और मस्सगटै नाममें सदृशता भी है। साथ ही यह भी दृष्टव्य है कि प्रद्युम्न पाताल लोकमें चल रहा है और कालगुफासे अगाडी उसका सात प्रदेशोंको लांघकर भारत पहुंचना लिखा है । अतएव यह सात प्रदेश पातालके सात भागोका ही द्योतक है । इसलिये यहांकी बसनेवाली उक्त जातियोंके लोग ही उसे मिले होंगे। इनको देव योनिका मानना उचित नहीं है, यह पद्मपुराणके कथनसे स्पष्ट है। अस्तु, मर्कटसे मिलकर अगाड़ी प्रद्युम्न कंदबकमुखी बादड़ीमें पहुंचे थे वहांका देव नाग शायद कास्पी जातिक हो। कापौतसर (Lake Uluminh) सभवतः कंदवक बावड़ी हो।
यह कास्पी लोग बड़े बलवान थे। इनमें सत्तर वर्षसे अधिक वयके वृद्धोको जंगलमें छोड़कर भूखो मारनेके नियमका उल्लेख स्ट्रेवो करता है। जैनशास्त्रोंमें मनुष्यके लिये ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमोंसे गुजरकर सन्यास आश्रममें पहुंचना आवश्यक बतलाया है।
१-पूर्व० पृ. ३७ । २-पूर्व० पृ० २३८ । ३-पूर्व० भाग १ पृ० ४६१ । पूर्व० भाग २ प० २४५ ॥ १-इन्डि० हिस्टा. वारटर्लो भाग २ पृ० ३३-३४।
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१९८] भगवान पार्श्वनाथ । जैनशास्त्र ऐसे उदाहरणोंसे भरे पड़े हैं जिनमें वृद्धावस्थाके आते ही लोगोने सन्यासको धारण किया है। सन्यासमें शरीरसे ममत्व रहता ही नहीं है और अन्तत सल्लेखना द्वारा समाधिमरण करना आवश्यक होता है। कास्पी लोगोमें ऐसा ही रिवाज प्रचलित होगा। इसी कारण स्ट्रेवो उसका उल्लेख विकृतरूपमें कर रहा है। आजकल भी अनेक विद्वान् जैन सल्लेखनाका भाव भूखों मरना समझते हैं; किन्तु वास्तवमें उसका भाव आत्मघात करनेका नहीं है। कंदवक वावड़ीसे प्रद्युम्न पातालमुखी बावड़ीमें पहुंचे थे। इसका नाम अन्तमें लिया गया है, इसलिये संभव है कि यह रसातल अथवा रसा-तेले (Rasa-tele) होगा जो रसा अर्थात् अक्षरतस नदीकी
उपत्ययिका थी' और यहासे भारतकी सरहद भी बहुत दूर नहीं ~ रह जाती थी, क्योंकि अफगानिस्तान यहासे दूर नहीं है, जो पहले ।
भारतमें सम्मिलित और उसका उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्त था।' इसप्रकार उत्तरपुराणके कथनसे भी पाताल अथवा नागलोकका मध्य एशियामें होना प्रमाणित होजाता है; जमा कि आजकल विद्वान् प्रमाणित करते हैं, किन्तु इतना ध्यान रहे कि जैन दृष्टिसे यह पाताल लोक देव योनिका पाताल नहीं है बलिक विद्याधरके वंशजोंका निवास स्थान है।
आजकलके विद्वान मच्याएनियामें बसनेवाली उपरोक्त जातियोको अनार्य समझते हैं. परन्तु जैनदृष्टिमे वह अनार्य नहीं हैं; क्योंकि पहले तो वह आर्यखण्डमें वसते थे इसलिए क्षेत्र अपेक्षा वे आर्य थे और फिर यह लोग अपनेको काश्यपका वंशज वत
१-पूर्व भाग १ १०८:। २-निवन, ए. जाग० टन्दिया, १० १००-102 आर नाट पृ०
टन्टि, हिम्दा माग्टरी माग ... ....
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नागवंशजोंका परिचय । [१९९ लाते हैं। काश्यप जैन तीर्थकरोका गोत्र रहा है और भगवान ऋषभदेव काश्यपसे नमि-विनमि राजा राज्याकांक्षा करके विजया पर्वतीय देशोके अधिकारी हुये थे और वही क्रमशः इन सब प्रदेशोंमें फैल गए, यह हम पहले बतला चुके हैं। अतएव इस दृष्टिसे उनका कुल अपेक्षा भी आर्य होना सिद्ध है। जैन तीर्थंकरों की अपेक्षा ही कैस्पिया आदि नाम पडना आधुनिक विद्वान् भी स्वीकार करते हैं। स्वय जेरूसालमके एक द्वारका नाम वहांपर जैनत्वको 'प्रकट करनेवाला था। ओकसियाना (Oriana), बलख और समरकन्दमें भी जैनधर्म प्रकाशमान रहचुका है। (देखो मेजर जनरल फरलांगकी शार्टस्टडीज ए० ६७) बैबीलोनियाका ‘अररत' नामक पर्वत 'अर्हत्' शब्दकी याद दिलानेवाला है। अर्हन शब्दको यूना नवासी 'अरनस' (Unna-), रूपमें उल्लेख करते थे। जैनधर्म एक समय सारे एशियामे प्रचलित था, यह वहाके जरदस्त आदि धर्मोकी जैनधर्मसे एकाग्रता बैठ जानेसे प्रकट है।" सुतरां आजकलके पुरा. तत्व अन्वेषकोने भी इस बातको स्वीकार किया है कि किसी समयमें अवश्य ही जैनधर्म सारे एशियामें फैला हुआ था। उत्तरमें साइवीरियासे दक्षिणको रासकुमारी तक और पश्चिममे कैस्पियन झीलसे लेकर पूर्व में कमस्करकाकी खाडी तक एक समय जैनधमकी विनयवैजयन्ती उड्डायमान थी। तातारलोग 'श्रमण' धर्मके माननेवाले थे, यह प्रकट है। (देखो पीपल्स ऑफ नेशन्स भाग १४० ३४३)
१-रालिन्सन-सेन्ट्रल ऐशिया २९६ और अ० जैनगजट भाग ३ पृ० १३ । २-मेजर जनरल फरलागकी “शार्टस्टडीज" पु. ३३ । ३-स्टोरी ऑफ मैन पृ. १४३ । ४-एशियाटिक रिसर्चेज भाग ३ प्र० १५७ । ५-असहमतसंगम देखो। ६-डुवाई, डिस्क्रिपशन आफ दी करैकर ..आफ पीपुल आफ इन्डियाकी भूमिका ।
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२००] भगवान पार्श्वनाथ । और श्रमण धर्मके नामसे जैनधर्म भी परिचित है । ( कल्पसूत्र पृ० ८३ ) इप्सलिये तातार लोगोका मूलमें जैनी होना भी संभव है । तिसपर ईरान और अब तो तीर्थ रूपमे आज भी लोगोके मुंहसे सुनाई पड़ते हैं। श्रवणबेलगोलके श्री पंडिताचार्य महाराजका कहना था कि दक्षिण भारतके जैनी मूलमें अरवसे आकर वहां बसे थे। करीब २५०० वर्ष पूर्व वहाँके राजाने उनके साथ घोर अत्याचार किया था और इसी कारण वे भारतको चले आये थे। (देखो ऐशियाटिक रिसर्चन भाग ९ १० २८४ ) किन्तु पडिताचार्यनीने इस राजाका नाम पार्श्वभट्टारक बतलाया एवं उसी द्वारा इस्लाम धर्मकी उत्पत्ति लिखी है वह ठीक नहीं है । 'ज्ञानानंद श्रावकाचार'मे भी मकासे मस्करी द्वारा इस्लाम धर्मकी उत्पत्ति लिखी है, वह भी इतिहास वाधित है। किन्तु इन उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कि एक समय अरबमें अवश्य ही जैनधर्म व्यापी होरहा था। इस तरह ईरान, अरब और अफगानिस्तानमें भी जैनधर्मका अस्तित्व था; बल्कि दधिमुख द्वीपमे चारणमुनियोंका उपसर्ग निवारण स्थान तो ईरानमें ही कहींपर था, यह हम पहले देख चुके है । मध्यएशियाके अगाडी मिश्रवासियोमें तो जातिव्यवस्था भी मौजूद थी, जो प्रायः क्षत्री, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र और चण्डालरूपमें थी। इसलिए इन लोगोको अनार्य कहना जरा कठिन है। हां, पातालवासी उपरोक्त काश्यपवंशी जातियोंके विषयमें यह अवश्य है कि बडे२ युगोंकि अन्तरालमें और अपने मृल देश विजयाघको छोड़कर चल निकलनेपर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके प्रभाव अनुसार यह अपने प्राचीन रीतिरिवाजोंको पालन १-राइस, मालावर क्वार्ट रिव्यू भाग ३ और इन्डियन मैक आफ
नोट। २-स्टोरी आफ मैन पृ० १८८ ।
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नागवंशजोंका परिचय! [२०१ करनेमें असमर्थ रहे हों । सारांशतः पातालमें बसनेवाले नागवंशी मूलमे मार्य थे और उन्हें जैनधर्ममें प्रतीति थी तथापि भगवान पार्श्वनाथजी पर फणका छत्र लगाकर जिस राजाने अहिच्छत्रमे उनकी विनय की थी वह भी इसी वंशका था। वह धरणेन्द्र के साथ नाम सामान्यताकी अपेक्षा ही भुला गया दिया है। धरणेन्द्रके पर्यायवाची शब्द नागपति, अहिपति, फणीन्द्र आदि रूपमे थे और यह नागवंशी राजाओके लिये भी लागू थे; क्योकि हम जान चुके है कि इन जातियों में की ह्युग-नु जातिसे नाग शब्दकी और अनि जातिसे अडि शब्दकी उत्पत्ति हुई थी। उरग-नागोका' अधिपति जो उसे बताया है, वह उनकी ' उइगरप्स' (Uigurs )२ जातिकी अपेक्षा होगा तथापि फणीन्द्र भी इन्हींमेकी एक जाति फणिक अथवा पणिकके राजाका सूचक है। पणिक या फणिक एक विदेशी जाति थी, यह एक जैन कथासे भी प्रकट है। इस कथामें फणीश्वर शहरके राजा प्रजापालके राज्यमें सेठ सागरदत्त और सेठाणी पणिकाका पुत्र पणिक बतलाया गया है । यह सेठपुत्र पणिक कदाचित भगवान महावीरके समवशरणमे पहुंच गया और उनके उपदेशको सुनकर यह जैन मुनि होगया। अन्तः गंगाको पार करते हुये नांवपरसे' यह मुक्त हुआ था। यहां पर देश, सेठाणी और सेठपुत्रके नाम पणिक-वाची हैं; जो उनका सम्बन्ध पणिक जातिसे होना स्पष्ट कर देते हैं । राजा और सेठके नाम केवल पूर्तिके लिये तद्रूप रख लिये गये प्रतीत होते हैं। पणीश्वर शहर फॅानीशिया (Phoenecit)
१-पार्वाभ्युदयके टीकाकार योगिराट् यही लिखते हैं, यथा'नागराजन्य साक्षात् नागाना राजानः उरगेन्द्राः तेषामपत्यानि नागराजन्याः।' प० २६५। २-इन्डि. हिस्टॉ० क्वार्टी भाग १ ए. ४६० । ३-पूर्व० भाग २ पु० २३२-२३५। ४-आराधना कथाकोष भाग २ पृ. २४३
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२०२१
भगवान पार्श्वनाथ |
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देशका रूपान्तर ही है और पणिक एवं पणिका स्पष्टत. पणिक जातिकी अपेक्षा है । पहले कुल और जाति अपेक्षा भी लोगोंक -नाम रक्खे जाते थे, यह हम देख चुके हैं । अतएव इस कथा के पणिकमुनि पणिक जातिके ही थे, यह स्पष्ट है। इस कथासे पणिकोंका व्यापारी होना तथा भगवान महावीरस्वामीके समय विदेश से आना भी प्रगट होता है. क्योंकि यदि वह व्यापारी न होते तो उनका सेठरूपमें लिखना वृथा था और वह यहां अपनी जाति अपेक्षा प्रख्यात हुये, यह उनका विदेशी होनेका द्योतक है । यदि - वह यहीं के निवासी होते तो उनकी प्रख्याति जाति अपेक्षा न होकर - दीक्षित नामके रूपमे होना चाहिये थी । अस्तु; पणिक या फणिक जातिकी अपेक्षा इस जातिके राजा फणीन्द्र भी कहलाते थे और यह मनुष्योंक्के नागलोक में रहते थे, इसलिये नागकुमारोंके इन धरणेन्द्रका उल्लेख सदृशताके कारण फणीन्द्ररूपमे हुआ मिलता है। यहापर यह दृष्टव्य है कि पहले विदेशी लोगोंको जैनधर्म धारण करने और मुनि होकर मुक्तिलाभ करनेका द्वार खुला हुआ था । मूलमें जैनधर्मका रूप इतना संकीर्ण नहीं था कि वह एक नियमित परिधिके मनुष्योंके लिये ही सीमित होता । अस्तु,
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इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथके शासनरक्षक देवता घरणेन्द्र और पद्मावती एवं उनके अनन्यभक्त अहिच्छत्र के नागवशी राजाका विशद परिचय प्रगट है और उनका निवासस्थान पाताल कहां था, - यह भी स्पष्ट होगया है । अतएव आइए, पाठकगण अब अगाड़ी भगवान पार्श्वनाथ जीके शेष पवित्र जीवनके दर्शन करके अपनी मात्माका कल्याण करलें ।
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [ २०३
( १३ )
भगवानूका दीक्षाग्रहण और
तपश्चरण ।
साकेत नगरे सोऽथ जयसेनाख्य भूपतिः । धर्मप्रीत्यान्यदासौ प्राहिणोछी पार्श्व सन्निधं ॥ निःसृष्टार्थं महादूत कृत्स्न कार्यकरं हितं । भगलादेशसंजातहयादिप्राभृतः समं ।।
- श्री सकलकीर्निः ।
राजकुमार पार्श्वनाथ आनन्दसे कालयापन कर रहे थे । पिता के राजकार्यमें वे उनका हाथ बटाये हुये थे । युवावस्थाको प्राप्त हो चुके थे । युवक वयस के ओज पूर्ण रसने उनके शरीरको ' ऐसा खिला दिया था कि मानों कामदेव भी वहां आते खिज रहा है। भगवान तो जन्मसे ही अतीव सुन्दर और सुदृढ़ शरीर के धारी थे, पर इस समय उनकी शोभा देखे नहीं बनती थी। नीलाकाशमें जैसे शरद - पूनों का चन्द्रमा अपनी सानी नही रखता, वैसे ही भगवानके नीलवर्णके सुन्दर शरीर में यौवन अन्यत्र उस उपमाको नहीं पाता था । भगवान् जिस ओरसे होकर निकल जाते थे उस ओरके लोग उनके रूप सौन्दर्यपर बावले होजाते थे । स्त्रियोको यह भी पता नहीं रहता था कि हमारा अंचल वक्षःस्थल से कच स्खलित
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२०४] भगवान पार्श्वनाथ । होगया है और हमारी लोकलज्ना क्या है ? जैन शास्त्रोंमें भगवानके विषयमें ऐमा ही वर्णन मिलता है।'
एक रोन यौवन पम्पन्न राजकुमार पावको देखकर उनके पिताको पुत्रके विवाह करने की सुब आई । सचमुच भारतीय मर्यादाके अनुसार पहले ब्रह्मचर्य आश्रममें पूर्ण दक्षता प्राप्त कर चुकने पर और युवा होमाने पर ही लोग गृहस्थाश्रममें प्रवेश करते थे । आनकलकी तरह नन्हें २ बालकोंके विवाह उस जमाने में नहीं होते थे अनमेल और वृद्ध विवाहों का भी अस्तित्व उसममय इस घरातलपर नहीं था. क्यों के लोग गृहस्थ आश्रमका उपभोग करके वानप्रस्थ आश्रमका अभ्यास करने लगते थे। इसप्रकारके नियमित और संयमी सामानिक वातावरणमें ही आर्यसंतान फल फूल रही थी और संपारभरमें वह अपनी समानतामें एक थी। उसी पुरातन आदर्श आर्य जनताके गुणगान आन भी सारा संसार मुक्तकंठसे करता है किन्तु उन्हींको संतान आनके भारतीयों को कोई कौड़ी मोल नहीं पूंछा ! आर्यवंशन होते हुये भी वह अपने पूर्वजोंकी
यादाको लांछित बना रहे हैं। सचमुच जबतक भारतीय ममानका मामानिक जीवन प्राचीन आदर्शनीवन नहीं बन जायगा तबतक उसकी उन्नति होना अशक्य है। भगवान पार्श्वनाथके भक्त जैनी भी आज अपने पूर्व नोंके आदर्शनीवनसे कोसों दूर है; यही कार, है कि उनके जीवन हीन और संकटापन्न बन रहे हैं। विवाह नियमशी अवहेलना वह बुरी तरह कर रहे हैं। बाल, अनमेल और वृद्धविवाह जैसी कुप्रथाओं, उनमें बहु प्रचार है । जहां
१-पार्श्वनायचरित ५० १६६-३६७ ।
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भगवानका दीक्षाग्रहणं और तपश्चरण । [ २०५
पहले उनके पूर्वज अपने पुत्र-पुत्रियों को युवावस्था प्राप्त करने तक जैन उपाध्यायोंके सुपुर्द करके धार्मिक और लौकिक ज्ञानमें पारंगत बनाते थे, वहां अब उनको नन्हींसी उमरसे ही गृहस्थी की झंझटमें फंसा दिया जाता है । वे बालक अपरिपक्व शरीर और अधुरे ज्ञानको ही रखकर गृहस्थीका महान बोझा अपने कोमल कंधोंपर लेकर
चलने को बाध्य किये जाते हैं; जिसका परिणाम यह होता है कि चे गृहस्थ - धर्मका समुचित पालन करनेमें असफल रहते हैं । धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थका वह भली भांति पालन ही नहीं कर सक्ते हैं। वह तो पहले ही नामको पुरुष रह जाते हैं । इस दशा में वृद्धावस्था तक उनकी वही असंयमी दशा वनी रहती है और वानप्रस्थधर्म एवं सन्या पधर्मका पालन करना उनके लिये मुहाल हो जाता है । इसके साथ ही अपने पूर्वजोंके खिलाफ आजके जैनियोंने अपने को अलग र टोलियो में सीमित कर रक्खा है, जिससे विवा
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क्षेत्र संकुचित होगया है और योग्य वर कन्याओं के ठीक सम्बंध नहीं मिलते हैं । इससे भी सामाजिक ह्राप्त बहुत कुछ हो रहा है ! किन्तु पूर्व कालके जैनियोंमें यह बात नही थी । उनका विवाहक्षेत्र विशद था और उनके जीवन आदर्शरूप थे । आज उनके पढ़चिह्नोंपर चलने में ही हमारा कल्याण है । अस्तु उस समयके आदर्श सामाजिक जीवनके अनुसार ही जब भगवान् पार्श्वनाथ पूर्ण युवा होगये तो उनके पिताने उनका विवाह करना आवश्यक समझा था ।
राजा विश्वसेनने राजकुमार पार्श्वके समक्ष जब विवाहका प्रस्ताव रक्खा, तो वे सकुचा गये । उन्होंने अपने बल - पराक्रम
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__ २०६ ! भगवान पार्श्वनाथ ।
और योग्यतापर दृष्टि डाली, कर्तव्याकर्तव्यकी ओर निगाह फेरी" पिताने कहा-वंश वेलको अगाड़ी चलानेके लिये भगवान ऋषभ नाथकी तरह तुम भी विवाह करलो परंतु रानकुमार पार्श्वने ऋषभदेवसे जो अपनी तुलना की तो उनको इस प्रस्तावसे सहमत । होता कठिन होगया । उन्होंने कहा-'मै ऋषभदेवके समान नहीं हूं, मात्र सौवर्षकी मेरी आयु है, जिसमें से सोलह वर्ष तो व्यतीत होचुके है और तीस वर्षमें सयम धारण करने का अवसर आजायगा। इसलिए नरराज! अब मुझे इस झंझटमें न फसाइये। देखिये. चहुओरका वातावरण कैप्ता असंयमी बन रहा है । लोग ब्रह्मचर्यके ,' महत्वको ही नहीं समझते हैं। गृहत्यागी लोग तक पुत्रोत्पत्तिकी आशासे.. विवाह करना अपना धर्म माने हुये है। गृहवाप्स छोड़कर जगलोंमें आकर : चसे हुये लोग भी आज इद्रियनिग्रहसे मुंह मोड़ रहे है। इसलिये हे पितानी । कर्तव्य मुझे बाध्य कररहा है कि मैं आपके प्रस्ता... वको अस्वीकार करू। अल्पकाल और अल्प सुखके लिये आप ही . बताइये मैं क्योकर इस झंझटमें पडूं ?, इस अल्प प्रयोजनके लिये अपने कर्तव्यको कैसे ठुकरा दूं ?
राजकुमार पावके इस प्रकार सारपूर्ण वक्तव्यको सुनकर राजा विश्वसेन चुप होगये. परन्तु इस घटनाने उन्हें मर्माहत बना दिया । वह मन ही मन विलखते हुये नेत्रोंमें ही आंसुओंको छुपा , ले गये। पुत्रका विवाह करनेकी लालसा किसे नहीं होती है और उस लालमापर कहीं पानी फिर जाय तो अपार दुःखका अनुभव क्यों नहीं होगा ? किन्तु राना विश्वसेन बुद्धिमान थे। वह कर्तव्य अकर्तव्य और हिताहितको जानते थे। पार्श्वनाथजीके मार्मिक
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [२०७ 'शब्दोंका उनके पास कोई समुचित उत्तर नहीं था। उन्होंने समझ लिया कि इनके द्वारा तीनों लोकका कल्याण होनेवाला है; इसलिये 'इनके परमार्थ भावपर अवलंबित निश्चयमें अडंगा डालना वृथा है।
राजकुमार पार्श्व इसके उपरांत श्रावकों के व्रतोंका पालन करते हुये -रहने लगे।
एक दिवसकी बात है कि वह प्रसन्नचित्त रान-सभामें बैठे हुये थे, उसी समय द्वारपालने आकर सूचना दी कि अयोध्याके नरेश राजा जयसेनका दूत उनके लिये प्रेमोपहार लेकर आया है
और सेवामें उपस्थित होनेकी प्रार्थना कर रहा है। द्वारपालका यह निवेदन स्वीकृत हुआ और उसने राज अनुमति पाकर दूतको समामें भेज दिया। इतने प्रणाम करके जो कुछ भेट राजा जयसेनने भेजी थी वह राजकुमारको नजर कर दी। इस भेटमें भगलीदेशके सुन्दर घोड़े आदि अनेक वस्तुयें थीं। भेटकी ओर निगाह फेरते हुये राजकुमार पार्श्वने दूतसे अयोध्या नगरका पूर्व महत्व वर्णन कग्नेको कहा । दूत तो चतुर था ही, उसने भगवान् ऋषभदेवसे लगाकर उस समय तकका समस्त वृत्तांत अयोध्याका कह सुनाया। तीर्थंकरोंके अनुपम कल्याणकोंका जिक्र भी उसने किया। राजकुमारने दूतको पुरस्कृत करके विदा किया; परन्तु उसके चले जानेपर भी वह उसके शब्दोंको न भुला सके । अयोध्याके विव-रणको सुनकर उनके हृदयमें वैराग्यकी लहर उमड़ पड़ी। नाचीन दूतके बचन-उनके वैराग्यका कारण बन गये।
राजकुमार पार्श्वनाथका चित्त संसारसे विरक्त होगया-उनको संसारकी सब वस्तुए, निःसार जंचने लगीं। उनमें उनको अब जरा
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२८८] भगवान पार्श्वनाथ । भी ममत्व न रहा ! सासारिक सम्पत्ति और विषयभोग उनको महादुःखदायी भासने लगे। विवेक नेत्रोके वल वह उनमे दुःख ही दुःख भरा देखने लगे ! वे ज्ञानवान थे। तीन ज्ञानके धारी जन्मसे थे-वे इंद्रियजनित विषय-सुखोंके इन्द्रायण सरीखे असली रूपको जानते थे ! फिर भला उनके लिये यह कैसे सम्भव था कि वह और अधिक समय गृहस्थ अवस्थामें बने रहते । विषसे अनभिज्ञ मनुष्य भले ही विष भक्षण कर ले. परन्तु जो विषको जानता है वह उसको कैसे खा सक्ता है ? राजकुमार पार्श्वनाथ जन्मसे ही निर्मल सम्यग्दर्शनके ज्ञाता थे-गृहस्थ दशामें भी वे संयमी जीवन व्यतीत करनेके इच्छुक थे, वे उत्तम मार्गका ही अनुसरण करना जानते थे, इसलिये उन्हें अपने स्वरूप रूप मुक्ति-धाम पानेकी योजना करना प्राकृत आवश्यक थी। वैराग्यका गादा रंग उनके मनको सम्बोर कर देगा, यह सर्वथा सुसंगत था। अनेक दोषोंके घर स्वरूप और त्याज्य विपयभोगोंसे पीछा छुडा लेना और परमार्थ सिन्हिके मग लग जाना ही बुद्धिमानोंका कार्य है। राजकुमार पार्वगायने सोचा कि जब स्वर्गाके सुखोंसे विषयतृप्णाकी तृप्ति न हुई, दो अब मनुप्यपदमें उमकी शांति क्या होगी ? एक कवि यही लिखते हैं - 'जो सागरके जलसेनी. न बुझी तिसना तिस एनी। मां दाम-अनीके पानी. पीवत अब कसे जानी ? दयनमा आगि न याप. नदियों नहिं समाप । यो भोग विप अनि भार्ग, नृपते न कभी तन धारी!' बरी पिवार हे गनकुमार पार्वनाथ संसारसे बिल्कुल
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण। [ २०९ विरक्त होगये । वे अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओंका चितवन कर रहे थे कि इतनेमें अपने कर्तव्यके परे हुये लौकातिक देव वहापर आपहुंचे और भगवान के वैराग्यकी सराहना करने लगे। कहने लगे कि 'पुरुपोत्तम ! यदि अपने जातीय स्वभावके वशीभूत होकर और इस कार्यको अपना कर्तव्य समझकर हम आपके निकट आये है, परतु नाथ ! आपको प्रवुद्ध करनेको हममें सामर्थ्य कहां है ? आर स्वय वस्तुओके क्षणभंगुर विनागीक स्वभावसे परिचित हैं। उनसे आपका स्वयमेव विरक्त होना कोई अचरजभरी बात नहीं है। त्रिलोकीनाथ बनने का उद्यम करना यह आपके लिये पहलेसे ही निर्णीत है। यह तो हमारी उतावली है, मनकी व्यग्रता है जो हम आपको वैराग्यप्राप्तिमें सहायक बननेका दम भरकर यहां आपहुचे हैं । सचमुच हमारो यह क्रिया सूरनको दीपक दिखानेके समान है ! बस, चलिये और महावतोंको धारण कीजिये । आपके इस दिव्य कल्याणकसे ही हमारी आत्माओंको आनन्दका आभास मिलेगा।' इतनी विनयके साथ वे सब ब्रह्मलोकको चले गए।
इधर लौकांतिक देवोकी इस विनतीको सुनकर भगवान वैराग्यरसमें मग्न होगये और दिगम्बरी दीक्षा धारण करनेका दृढ़ निश्चय करने लगे। इस परमोच्च भावके उदय होते ही संसारमें फिर एक दफे इतनी प्रबल आनन्द-लहर फैल गई कि वह विद्युत गतिसे भी तेज चलकर सप्तारके कोने मे भगवानके दीक्षा कल्याणकके समाचार पहुचा आई ! विशिष्ट पुण्य प्रकृतिक प्रभावसे महान् पुरुषोंके निकट दिव्य बातें स्वमेव ही होने लगती हैं । भगवान्के तप धारण करनेके समाचार जानकर देवेन्द्र पुलकित वदन होकर
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२१०] भगवान पार्श्वनाथ । चट सर्व ही देव देवांगनाओं सहित बनारस नगरमे आया और , भगवानका अनेक प्रकारसे जयगान करने लगा। उपरांत सब देवोंने मिलकर भगवान का अभिषेक किया और उन्हें दिव्य वस्त्राभूपोंसे अलकृत बनाया. जिनको धारण करके वे ऐसे ही जान पड़ने लगे कि मानों मोक्षरूपी कन्याको वरनेके लिये साक्षात् दुल्हा ही हों ! फिर देवेन्द्रने भगवानसे निम्नप्रकार प्रार्थना की; यही आचार्य कहते हैं
'अमर्यादवतारोऽयं पारौथैकफलस्तव । कि पुनखिदिवादन्यभोगातिशयहेतवः ॥ निर्वेदस्तेन देवायं फलेन प्रतिमन्यताम् । समुन्मील्यास्त्वया चैताः सतामंतारदृष्टयः ।।
'हे भगवन् ! देवलोकसे जो आपका अवतार हुआ है, उसका फल पर हतका सम्पादन करना है। इसलिये स्वर्गसे अन्य जितने भर भी भोग हैं वे स्वर्गके भोगोंसे अधिक आपको अच्छे नहीं लग सक्त । दूसरों का हित सम्पादन करनेवाले आप, विषय भोगोंमें नहीं फंप सक्ते । इमलिये हे भगवन् । आपको जो वैराग्य हुआ है उसे सफल बनाइये, दिगम्बरी दीक्षा धारण कीजिये और केवलज्ञान पाकर उपदेश दे भव्यनीवोंके अन्तरग नेत्रोंको खोल दीजिये।
(श्री पार्श्वनाथचरित्र ४० ३८१-३८२) इन्द्रने अपने डम निवेदनको पूर्ण करते हुये भगवानको अपने हाथा सहारा दे दिया। भगवान्ने इन्द्र के हाथको ग्रहण करके चट निहापन छोड़ दिया ? वहां देर ही किस बातकी थी-वैराग्य तो पहले ही उनको वहामे उट चलनेको प्रेरणा कर रहा था। भगचान तो उधर तप धारण करनेका साधन करने लगे और उघर
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण। [ २११ रणवासमें जब यह समाचार पहुंचे तो इनकी माता एकदम विह्वल बन गई! मां की ममता एक साथ ही उमड़ पड़ी। 'हाय ! पुत्र नयनोके तारे मुझे छोड़कर कहां जाते हो' ऐसे ही अनेक रीतिसे विलाप करने लगी। राजा विश्वसेन भी खिन्नचित्त होगये! परन्तु 'प्रबुद्ध भगवानने इनको आश्वासन बंधाया, माताको बड़े ही मधुर शब्दोमें समझाया । उन्हें जगतके विनाशीक पदार्थोका स्वरूप सुझाया और सांसारिक सम्बन्धोकी निस्सारता जतलाई । प्रभुके उपदेशको सुनकर-हितमित पूर्ण बचनोंको ग्रहण करके रानी ब्रह्मदत्ताका हृदय शांत हुआ। वह जान गई कि उनके महाभाग्यवान पुत्र का जन्म ही इमी हेतु हुआ है और वे इस अवस्थामें अपनेको धन्य मानने लगीं।
माता-पिताको समुचित रीतिसे समझा बुझा और ढाढर बंधाकर भगवान् इन्द्रकी लाई हुई विमला नामक पालकीमें बैठकर वनकी ओर प्रस्थान कर गये। पहले नरलोकके भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंने क्रमसे सात२ पैढ़ तक उस पालकीको उठाया
और फिर समस्त देवसंघ उसको उठाकर ले चला ! इस दिव्य अवसरपर आकाश देवदुंदुभीके बजनेसे घनघोर झकारसे भर गया, देव कन्यायें अनेक प्रकारसे नृत्य करने लगी और चारो ओरसे भगवान के ऊपर पुष्पवृष्टि होने लगी। आखिर भगवान् निकटके 'अश्वत्थ' नामक वनमें पहुंचे। यहापर इन्द्रका इशारा पाकर सब ही लोग शांत होगये । भगवान् पालकीसे उतर आये । शत्रु
१-श्री सक्लकीर्ति, पार्श्वचरित सर्ग १६ श्लोक ११०...और पार्श्वपुराण पृ० ११९ । २-पार्श्वपुराण पृ० ११९-पार्श्वचरित पृ० ३८८ ।
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२१२]
भगवान पार्श्वनाथ |
५
मित्र और तृण - कंचन सबमें समभाव रखकर उन्होने अपने सब वस्त्राभूषण उतार डाले | इतनेमें शचीने वहीं पर एक वटवृक्षके तले स्थित चन्द्रकांत शिलाको 'स्वस्तिका' से अलंकृत कर दिया । भगवान पूर्व की ओर मुख करके उसी स्फटिकमणी पाषाण शिलापर बिरान गए और हाथ जोडकर 'नम' सिद्धेभ्यः' कहकर उन्होंने सिन्होंको नमस्कार किया । फिर व ह्याभ्यंतर परिग्रहको तजकर पंचमुष्टिलोंच किया । इस प्रकार दिगम्बर मुद्राको धारण करके वे व्यानशीन होगये । नरनारी और देवसमृह भी भगवानकी अभिचदना करके अपने२ स्थानोको चले गये । उस दिगम्बर मुद्रामें भगवान बड़े ही सुन्दर जंचने लगे । कवि भी यही कहते है:'सोहे भूपन वसन विन, जातरूप जिनदेह | इन्द्र नीलमनिकों किधौ, तेजपुंज मुभ येह || पोह प्रथम एकादशी, प्रथम प्रहर शुभ वार पद्मासन श्री पार्सजिन, लियौ महाव्रत भार ॥ और तीन छत्रपति, प्रभु साहस अविलोय | गज छरि संयम धरच, दुख दावानल-तोय ॥ नव सुरेश जिनकेश सुचि. छीरसमुद्र पहुंचाय। कर श्रुति साथ नियोग सब गयौ मुरंग सुरराय ॥ * गयाँ
•
भगवान वीरागमयी ध्यान अवस्थामें लीन हो गये । तीन नहीं उसी ध्यानमग्न दशामें स्थित रहे । उन्होंने
दिन तक
नेला उपवास कर लिया ! मुनियोंक अट्टाईम मृल्गुण और चौरा
१०११°२
पारिश्र० १०
१०३ ३-८ - १२० ।
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण। [ २१३ सीलाख उत्तर गुण उन भगवानने धारण कर लिये । वे मौन सहित योगसाधनमे अचल थे। इसी समय उन्हे मनःपर्यय ज्ञानकी प्राप्ति होगई थी। इसके उपरान्त वे निर्ममत्व, शांतिमुद्राके धारक, परम दयावान और परम उदास भगवान् शरीरकी रक्षाके लिये योग निरोध कर खड़े होगये और दीक्षावनसे एक
ओरको विधि सहित भूमि शोधते हुये चलने लगे और क्रमकर गुल्मखेट नामक नगरमें पहुंच गये। वहांके धर्मोदय अथवा धन्य नामक रानाने उनको बडी भक्तिसे पड़गाहकर-आमत्रित करके शुद्ध
और सरल आहार कराया था, जिसके पुण्यप्रभावसे उसके राजमहलमें देवोंने पचाश्चर्य किये थे। तीर्थंकर भगवानके समान त्रिलोक पूज्य परमोत्कृष्ट उत्तम पात्रको निर्विघ्न आहारदान देकर उस राजाने अपनी कीर्ति तीनों कालके लिये तीनों लोकमें फैलादी । इस आहारदानसे स्वय राजा धर्मोदय अपनेको ससारसे पार पहुंचा समझने लगा ! वह थोड़ी दूर तक भगवानके साथ गया और फिर भगवानकी आज्ञा पाकर अपने राजमहलको लौट आया । भगवान् वनमें जाकर तपश्चरणमें लीन होगये !
तपोधन भगवान् पानाथ वनमें आकर प्रतिमायोगसे दुर्द्धर तप तपने लगे और धर्मध्यानमें मग्न रहने लगे। उस समय उनकी परम पवित्र शांत मुद्राके जो भी दर्शन कर लेता था, वह अपने दुःख शोक सब ही भूल जाता था, स्वभावतः वह उनके चरणोंमें नतमस्तक होजाता था ! परन्तु भगवान तो परमोच्च उद्देश्यकी
१-पूर्ववत् और पार्श्वचरित पृ. ३८५ । २-पार्श्वचरित पृ० ३८५ । ३-हरिवशपुराण पृ० ५६९ और चंद्रकीर्ति आचार्य, पार्श्वचरित अ० १२ श्लोक १३ ।
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२१४] भगवान् पार्श्वनाथ । -सिद्धिमें तन्मय थे। उन्हें सिवाय निजपद प्राप्त करनेके और कुछ भी ध्यान नहीं था-एकचित्त हो मौन धारण किये हुये वह
उसीको प्राप्त करनेकी चेष्टामें प्रयत्नशील थे। कोई भी बाधा__ कैसा भी प्रलोभन उन्हें उनके इष्टमार्गसे विचलित नहीं कर सका
था। वे एक व्यवस्थित और नियमित ढंगसे आत्मोन्नतिके मार्गमें पग बढ़ा रहे थे। वस्तु-स्वभावरूप तत्त्वोंका चिन्तवन करके और इन्द्रियनिग्रह एव विविध प्रकारको तप-क्रियायो द्वारा संयमका पालन करते हुये वेह अपनी आत्माको निर्मल और शुद्धरूप परमशक्तिवान बना रहे थे। वेह उस समय ऐसे प्रतिभाषित होने थे जैसे कल्लोलोसे रहित निस्तव्य नील समुद्र ही हो अथवा अडोल सुमेरुगिरिकी शिखिर पर नीलमणिकी सुंदर प्रतिमा ही विराजमान हों। उनके चहुओर शांतिका साम्राज्य फैल रहा था। सचमुच'वरभाव छोड्यौ वन जीव, प्रीत परस्पर करें अतीव । केहरि आदि सतावै नाहिं, निर्विष भये भुजग वनमांहि ।। सील सनाह सजौ सुचिरूप, उत्तरगुन आभरन अनूप । तपमय धनुष धरयौ निजपान, तीन रतन ये तीखतवान ।। समताभाव चढ़े जगशीस, ध्यान कृपान लियो कर ईस । चारितरंगमहीमें धीर, कर्मशत्रु विजयी वरवीर ।'
इसी अवस्थामें भगवान चार मास तक रहे थे और उपरान्त वे काग के निकट अवस्थित दीक्षावनमें पहुंच गये थे। किन्तु खेताम्बर सप्रदायके श्री भावदेवसूरि विरचित 'पार्श्वचरितमें' भगवानका अन्य स्थानोंमें पहुंचनेका भी उल्लेख है। वहां भगवानका पारणा स्थान कोपकटक स्थान बताया गया है और धन्यको
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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण। [२१५
उस नगरका एक गृहस्थ (Householder) लिखा है। यह कोपकटक नगर आज कलका धन्यकटक नगर अनुमान किया गया है।' इस नगरसे प्रस्थान करके उपरान्त उनका आगमन कालिगिरिके निकट वाले कादम्बरी वनमें होना लिखा है। वहां वे कुन्द नामक सरोवरके तटपर एक जैन प्रतिमाके निकट विराजमान रहे थे । इसी अवसरपर चम्पाके करकण्डु नामक राजाका यहां आना और भगवानकी विनय करना एवं देवोपनीत प्रतिबिम्बके लिए मंदिर बनवा देनेका उल्लेख है । इस कलिकुण्डसे भगवानको शिवपुरी पहुचा बतलाया गया है। जहांके 'कौशाम्ब' नामक वनमें वे कायोत्मगरूपमें विराजमान हुए थे। यहींपर नागराज धरणेन्द्रने आकर भगवानकी पूना की थी और तीन दिन तक उनपर वह छत्र लगाये रहा था, जिससे यह स्थान “अहिच्छत्रके नामसे विख्यात हुआ था यह कहा गया है। यहांसे वे राजपुर पहुंचे जहांके राजाको भगवानके दर्शन करते ही अपने पूर्वभव याद आगए थे। उसने भी भगवानकी विनय की थी और जहांपर भगवान विराजमान थे, वहांपर उसने एक चत्य बनवा दिया था जो कुक्कटेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुआ था, यह लिखाहै । उपरान्त भगवान अन्यत्र विचरते बताये गए है और इसी अन्तरालमें कमठके जीवका उनपर उपसर्ग होना कहा है और फिर उनको काशीके दीक्षावनमें पहुंचा बतलाया है। दिगम्बर जैनशास्त्रोंमें यह वर्णन नहीं है और कमठके जीवका दीक्षावनमें उपसर्ग करना लिखा है । अस्तुः इसप्रकार हम भगवानके दीक्षा ग्रहण करनेके अवसर और तपश्चरण करनेका दिग्दर्शन कर लेते हैं।
१-बगाल, विहार, ओड़ीसा जैन स्मार्क पृ० ७९ । २-भावदेवमूरि पार्श्व०- सर्ग ६ श्लोक १२०-२१४ ।
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२१६] भगवान पार्श्वनाथ ।
(१४) ফ্লাক্সাব্বি খ্রীস্ নূহ্ ? 'बृहत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडिपिगरुचोपसर्गिणम् । जुगूह नागो धरणो धराधरं विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा । स्वयोगनिस्त्रिंशनिशातधारया निशास यो दुर्जयमोहविद्विषम् । अवापदार्हन्यमचिन्त्यमदभुतं त्रिलोकपूजातिशयास्पदं पदम् ।।
-श्री समन्तभद्राचार्यः । बनारसके अश्वत्थ वनमें दिगम्बरमुद्रा धारण किये परम धीर वीर और गम्भीर मुनिरानोंके इन्द्र सुन्दर सुभग नीलवर्णके शरीरको धारण किये हुए कायोत्सर्ग आसनसे विराजमान हैं ! न किसी जीवसे राग है और न किसीसे द्वेष है। अपनी शुद्धात्माके ध्यानमें वे लीन हैं। किन्तु यह क्या ? इन मुनींद्रकी शातिमुद्राका द्रोही कौन बन गया ? किसने यह पर्वतोंका प्रहार करना इनपर शुरू कर दिया ? अरे, यहा तो तूफान ही पर्ण होगया ! प्रचंड आंधी चल पड़ी । बडे २ विशाल पेड़ उखड२ कर इन प्रभुके ऊपर गिरने लगे ! विजलियां चमकने लगीं-वत्रपात होते दिखाई पडने लगे। न जाने उस शांतमय बातारणमें यह कोलाहल कहांसे खड़ा होगया? किन्तु जरा देखो तो इस महा भयानक दशामें भी वे मुनिराज पूर्ववत् ध्यानमग्न हैं-वे अपनी योग समाधिसे जरा भी विचलित नहीं हुए हैं। वे ज्योंके त्यो नील इन्द्रमणिकी मनमोहनीय प्रतिमाकी भाति वैसे ही खडे हुये हैं !
पाठक ! जरा संमलिये, इघर देखिये, यह विक्रालरूप धारण क्येि हुए कौन आरहा है ? कोषके आवेशमें इसके नेत्र लाल हो
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ज्ञान प्राप्ति और धर्म प्रचार। [२१७ रहे हैं । मुख क्रूरताको धारण किये हुये हैं और शरीर भयानक ताको लिये हये है। यह दीठ पुरुष मुनिराज के समक्ष आकर गरज रहा है। वह कह रहा है कि रे मुनि ! मैंने तुझसे यहासे चले जानेको कहा, पर तू अपने पाखण्डके घमण्डमें कुछ समझता ही नहीं है। पर याद रख मुने ! मेरा नाम शंवरदेव नहीं जो मैं तुझे तेरे इस हठाग्रहके लिए अच्छी तरह न छका दू ! न मालूम तुझे मेरे विमानको रोक रखनेमे क्या आनन्द मिलता है। मुने ! अब भी मान जाओ और मेरे विमानके मार्गको छोड दो ।'
किन्तु इस देवके इन बचनोंका कुछ भी उत्तर उन मुनिराजसे न मिला, वे शब्द उनके कानों तक पहुंचे ही नहीं। उन मुनिराजका उपयोग तो अपने आत्माके निजरूप चिन्तवनमें लग रहा था। उनका इन वाह्य घटनाओंसे सम्बन्ध ही क्या ? शंवरदेवका गर्नना कोग अरण्यगेदन था। उसकी धृष्टता उन शांत मुनिराजका कुछ न बिगाड़ सकी थी। यह देखकर वह बिलकुल ही आगबबूला होगया। उसके नेत्रोंसे अग्निकी ज्वालायें निकलने लगी और वह बड़ी भयंकरतासे उन मुनिराजपर घोर उपसर्ग करने लगा। अनेक सिंहों और पिशाचोंका रूप बना२ कर वह उन मुनिराजको त्रास देने लगा। कभी गहन जल वरसाने लगा, कभी शस्त्रोंका प्रहार उनपर करने लगा और कनी अग्निको चहुंओर प्रज्वलित करने लगा !
यह शंवरदेव एक पूर्वभवनें क्मठ नामक द्विजपुत्र था और मुनिराज भगवान् पार्श्वनाथके अतिरिक्त और कोई नहीं हैं। शंबरफे कमठाले भवमें भगवान उसके भाई थे और तवहीसे इनका
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२१८] भगवान् पार्श्वनाथ । आपसी वैर चला आरहा है, यह पाठकगण भूले न होंगे। उसी पूर्व वैरके वशीभूत होकर जब यह कमठका जीव संवर ज्योतिषीदेव अपने विमान में बैठा हुआ अश्वत्थ वनमें से जारहा था, तब मुनिराजके ऊपर नियमानुमार विमानके रुक जानेसे वह अपना पूर्व वैर चुकानेके लिये उपरोक्त प्रकार भगवानपर घोर उपमर्ग करने लगा था। ईसाको प्रारंभिक शताव्दियोंमें हुये महान विद्वान् श्री समतभद्राचार्यजी इस घटनाका उल्लेख इन शब्दोमें करते हैं कि"उपसर्ग युक्त नो पार्श्वनाथ हे उनको धरणेन्द्र नामके सपंराजने अपने पीली विजलीकी भाति चमकते हुये कांतिवान् फण समूहसे वेष्टित किया है (अर्थात् उप नगदा किया है)-जिम प्रकार मानो - संध्याकी लालिमा नष्ट हो जानेपर उसमें जो पीत विद्यतसे मिला हुमा पीतमेघ पर्वतको आच्छादित करता है।'
(वृहद स्वयंभू स्तोत्र ट० ७१) पापाचारी दुष्ट संवरकी दुश्चेष्टाका पता जब घरणेन्द्रको लगा तो वह शीघ्र ही अपनी देवी पनावती सहित वहां आये। जिनके प्रतापसे वे नाग-नागिनी भवसे देव-देवी हुये, उनको वह कैसे भुला सक्ते थे? वे फौरन हीभगवानकी सेवामें आकर उपस्थित हुये थे। उन्होने भगवानको नमस्कार किया और मणियोंसे मंडित अपना फण उनके ऊपर फैला दिया। पद्मावतीदेवीने उनपर सफेद छत्र लगाया था। इसीका उल्लेख श्रीसमन्तभद्राचार्यनीने किया है। एक अन्य आचार्य भी धरणेन्द्रके इस सेवाभावके विषयमें कहते हैं कि. • असमालोचयन्नेव जिनस्वाजप्यतां परैः । । चक्रे तस्योरगो रक्षामीदता हि कृतज्ञता ॥ ८०॥
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२१९ ___ " भगवान जिनेन्द्र अजय्य हैं। दूसरोंसे जीते नही जा' सकते इस बात का विचार न कर धरणेन्द्र उनकी रक्षाके लिये प्रवृत्त होगया । कृतज्ञता इसीका नाम है । " (पा० च० ए० ३९४)
दुष्ट संवर उनके आनेपर और भी भयानकतासे उपसर्ग करने लगा, जिससे वनके मृग आदि जंतु भी बुरी तरह व्याकुल होने लगे। पर वह अपने विकट भावको पूरी तरह कार्य रूपमें परिणत करनेमें जरा भी शिथिल न हुआ। पहलेकी तरह उपसर्ग करनेमें वह तुला ही रहा । कवि कहते हैं:
'किलकिलंत वेताल, काल कज्जल छवि सज्जहि । भौं कराल विकराल, भाल मदगज जिमि गज्जहि ॥ मुंडमाल गल धरहि, लाल लोयननि डरहिं जन । मुख फुलिग फुकरहिं, करहिं निर्दय धुनि हन हन ॥ इहि विध अनेक दुर्भेषधारि, कमठजीव उपसर्ग किय । तिहुंलोकवंद जिनचंद्र प्रति, धूलि डाल निजसीस लिय॥"
सचमुच सवर देवने उन मिनेन्द्रचंद्र भगवान पर उपसर्ग' करके चन्द्रमापर मट्टी फेंकनेका ही कार्य किया था ! वह उपसर्ग उन भगवानका कुछ भी न बिगाड़ सका; प्रत्युत उनके ध्यानको एकाग्र बनानेमें ही सहायक हुआ; परन्तु उत्त संवरदेवने अवश्य ही अपने आत्माके लिये काटे बोलिये-वृथा ही पाप सचय कर लिया ! भगवान उपसर्ग दशामें और भी दृढ़तापूर्वक समाधिलीन रहे । वास्तवमें मनीषी पुरुष भयानक उपद्रवके होते हुये भी अपने इष्टपथसे विचलित नहीं होते हैं । अनेकों घोर संकट उनके मगमें भाड़े पड़े हों, पर वे उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सक्ते हैं। फिर
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२२०] भगवान पार्श्वनाथ । भला तीर्थकर भगवानका विचलित होना बिल्कुल असंभव था ! प्रत्युत इस परीक्षा समयपर-घोर उपसर्ग दशामें भी अपने व्यानको इतना प्रबल बनानेमें वे सफल हुये थे कि इमी ममय उनको केवलज्ञान-सर्वज्ञताकी प्राप्ति होगई थी ! संवर देवके भयानक संकटमय कृत्य उनके लिये फूलमाल हुये थे। वे त्रिलोक्यपूज्य
ईत्यद-तीर्थकर अवस्थाको प्राप्त हुये थे । शुद्ध, बुद्ध-जीवन्मुक्त परमात्मा बन गये थे । श्रीसमंतभद्राचार्यजी कहते हैं कि "भगवान पार्श्वनाथने दुर्जय मोह शत्रुको परम शुक्ल व्यानरूप खड्गकी तीन्ग धारसे मारकरके अचिन्तनीय अद्भुत गुणोंयुक्त स्थान२ पर तीन लोकी पूजाचा अतिशय आधार, ऐसा जो "माईन्य" पद है उसको प्राप्त किया । अर्थात् उपसर्ग दूर होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें ही मोह कर्मको नाशकर केवलज्ञान लक्षणरूप अर्हन्त अवस्था उन्हें प्राप्त होगई।" (वृ० स्व० स्तोत्र ट० ७१ )
यह चैत्र कृष्ण चतुर्दशीचा पवित्र दिन था। पमय दोपहरसे कुछ पहलेका था। इसी समय पार्श्वनाथ भगवान तीर्थकरपदको प्राप्त हुये थे. स्वयं बुद्ध परमात्मा होगये थे। चराचर वस्तु तीनों लोककी उनके ज्ञान नेत्रोंमें सष्ट प्रतिभापित होने लगी थी। अनन्त दर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्यकी अपूर्व निधि उनको प्राप्त हो गई थी । उनका दिव्य औदारिक शरीर ऐसा चमकने लगा था मानो सहन सूर्य-मिका ही प्रकाश हो! दुख, शोक, सुवा, तृषा, राग, द्वेप आदि सब ही मानवी कमजो. रियों को उन्होंने परास्त कर दिया था। वे अब उनके निकट फट-. कने भी नहीं पाती थीं । वे सशगरी जीवित परमात्मा होगये थे
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२२१ और उनके इस परमपद प्राप्त करनेका उत्सव मनाने इन्द्र व देव देवांगनायें फिर आये थे । आचार्य कहते हैं किततः प्रघोपं जयकारतूर्यैदिवौकसां उल्लसितं समंतात् । निश्म्य निर्मुच्यरूपं तदैव वभूव शत्रुः स च कांदिशीकः॥
अर्थात्-'केवलज्ञानके प्रगट होते ही देवोंका बड़े जोरसे जय जयकार शब्द होने लगा जिसे सुनते ही भूतानंद (संवर)का क्रोध एकदम शांत होगया और वह एकदम अवाक रह गया !'
और अपनेको अशरण जानकर भगवानकी शरणमें आया ! उसे वहीं शांतिका लाभ हुआ। उसे ही क्या, सारे ससारको इस दिव्य अवसर पर आनंदरसका आस्वाद मिल गया था। ' 'प्रकटी केवल रविकिरन जाम, परिफूल्यो त्रिभुवन कमल ताम। आकास अमल दीसै अनूप, दिसि-विदिसि भई सब कमलरूप ।।"
देवोंने आकर भगवानका केवलज्ञान पूजन किया और बड़े ठाठसे भगवानका समोशरण-सभाभवन रच दिया । मानस्तंम, पीठिका, आदिकर संयुक्त दिव्यमणियोंका बना हुआ वह समवसरण तीन लोककी संपदाको भी लज्जित कर रहा था। भगवान के इस ' सुन्दर समोशरणको देखकर पाखंडी लोगोंको यह भय होता था कि यहां कोई इन्द्रजालकी माया फैला रहा है । परंतु भगवानके निकट आनेसे यह सब मिथ्या धारणायें दूर भाग जाती थीं। समवशरप्णके ठीक मध्यमें उत्तमोत्तम पदार्थोसे बनी हुई भगवानकी गंधकुटी
थी। इसके बीचो बीचमें 'उदयाचल पर्वतकी शिखिरके समान, सिंहोंसे चिह्नित, मणिमयी सिंहासनपर विराजमान परम तेजस्वी भगवान उस समय नम्रीभूत देवोंको ऐसे जान पड़ते थे मानो ये
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२२२ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
साक्षात् सूर्य हैं ।' उनपर तीन छत्र लग रहे थे और यक्षेन्द्र चवर ढाल रहे थे। वहां मदर पवन चल रहा था और समवशरणके वारह कोठों में अलग र मुनि आर्यिका, देव-देवांगना, श्रावकश्राविका पशु पक्षी आदि भव्यजन बैठे हुये अपूर्व शोभाको प्राप्त हो रहे थे। जिनेन्द्र भगवानके प्रभाव से समवशरणकी भूमि निर्दोष होगई थी । वहा उस समय किसीके परिणामों में किसी तरहका भी दोष नहीं था । सब ही जीव साम्यभावसे वहां विराजमान थे । आत्म-बलका प्रत्यक्ष साम्राज्य वहा फैल रहा था । आचार्य कहते हैं कि इसी समय भगवानके प्रमुख शिष्य स्वयम् नामक गणधर भगवान उनके निकट आकर उनका स्तवन बडे भक्तिभावसे करने लगे थे, यथादेवस्तदा गणवरः प्रथमं स्वयंभू
देवाधिदेवमुपढौक्य कृतप्रणामः ।
आनम्रमौलिकतया स्थितिमत्सु पश्चा
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दिद्रेषु वस्तुगणने हितमन्वयुक्तं ॥ अर्थात् - " प्रथम गणधर स्वयंभू देवाधिदेव भगवान् जिनेंद्रके पास आये । भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उनके समीपमें बैठ गये तथा अपने पीछे मस्तक नमाकर इन्द्रोंके बैठ जानेपर उन्होने पदाथके विचारमें चित्त लगाया और वे इस प्रकार भगवान् जिनेंद्रकी स्तुति करने लगे । ”
इत्याद्यनेकनयवादनिगृहतत्त्वं,
जीवादिवस्तु खलु मात्मदृशामभूमिः । त्वं विश्वचक्षुरसि देव तव प्रसादात, सन्निर्णयोस्तु सुलभः स्वयमस्मदाद्यैः ॥
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२२३ अर्थात-'अनेक नयवादोसे जिसका स्वरूप छिपा हुआ है ऐसे जीव अजीव आदि पदार्थ आप सरीखे महानुभावोंके ज्ञानके अगोचर नहीं । यथार्थ रूपसे आपको उनके स्वरूपका ज्ञान है । आप विश्वचक्षु सर्वज्ञ है । भगवन् ! आपकी कृपासे हमें उनका निर्णय सुलभ रीतिसे होसकेगा।' (पा० च० ट० ४०६-४०७)।
प्रथम गणघर स्वयभूके इस प्रकार निवेदन करने पर मेघकी गर्मनाके समान भगवानकी दिव्यध्वनि खिरने लगी। उसमें वस्तु स्वरूपमें अनुपम पदार्थोका निर्णय होने लगा और सप्तरंगी नवकर परिपूर्ण परमोपादेय उपदेश हुआ । इस दिव्य उपदेशको सब ही जीव अपनी२ भाषामें समझने लगे यह शास्त्रोंमे लिखा हुआ है । जिनेन्द्र भगवानके मुखसे यथावत तत्वोका स्वरूप जानकर सब ही भव्यनीव आनन्दमग्न होगये । इसी समय भगवानका जिससे अनेक पूर्वभवोसे वैर चला आरहा नामक देव भगवानके निकट हीन गर्व होकर अपने वैरको भुला सका ! उसे परम सुखकर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होगई । धरणेन्द्र
और पद्मावती भगवानके शासन रक्षक देवता माने जाने लगे और घरणेन्द्र के सम्बन्धमे भगवानने कहा था कि वह मोक्ष जायगा। इस भविप्य सन्देशको सुनकर उपस्थित प्राणियोंके हृदय प्रफुल्लित होगये थे । वह भी भगवानके निकन्से विनयपूर्वक यथाशक्ति चारित्र नियमोंको गृहण करने लगे थे । आचार्य कहते हैं कि
' तथा धर्मोपदेशेन सभासो जिनाधिराट् । पार्थः प्रल्हादयामास चंद्रः कैरविणीमिव ॥ १८ ॥ सभासीना जनाः केचित्पीत्वा तद्वचनामृते ।
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२२४]
भगवान पार्श्वनाथ। बभूव ग्रंथनिर्मुक्ताः काललब्धा प्रणेदिता ॥ १९ ॥ अनून ललनाः काश्चिद्धर्म श्रुत्वा जिनोदितं । बभूवुश्चायिकाधीश सर्वसंगविवजिताः ॥ २० ॥ जगृहुः श्रावकाचारं तत्रैकेचिन्नपादयः।। लोकाः प्रसन्नभावेन पीताद्वाक् सुधारसा ॥२१॥२८॥
जिनराज पार्श्व भगवानके वचनामृतोंको पीकर सभामध्य स्थित प्राणियोमेसे कितने हीने तो सर्व परिग्रहका त्याग करके निग्रंथ मुनिक चारित्र धारण कर लिया, किन्हीं ललनाओंने उस जिन प्रणीत कल्याणकारी धर्मको सुनकर संसारी परिजनका सम्बंध त्याग दिया और वे आर्यिका होगई और वहुतेरे राजाओंने श्रावकके व्रतोको गृहण कर लिया । तथापि जो किसी प्रकारके भी व्रतोंको धारण करनेमें असमर्थ थे वह भगवानके वचनोंको प्रसन्नचित्त होकर सुनने लगे । सारांशत. प्रत्येक उपस्थित प्राणीको भगवान्के सदुपदेशसे लाभ हुआ था । वह प्रफुल्ल वदन उनके गुणोमें लीन था । ब्रह्मचर्य और अहिंसाका भाव भगवान्ने स्वयं अपने चारित्रसे प्रगट कर दिया था, जिसकी उस समय बड़ी भारी आवश्यक्ता थी। इसी कारण उनकी प्रख्याति सर्व लोकमें "जनप्रिय" ( Peoples' Favourite ) के नामसे होगई थी ! सचमुच वे भमवान् जनप्रिय ही नहीं थे, बल्कि 'प्राणी मात्रके प्रिय' थे। उन्होंने विश्वात्मक ज्ञानको ( Cosmic Consciousness ) पालिया था। उनमें विश्वप्रेमके साक्षात् दर्शन होते थे !
१ श्री बद्रकीाचार्य प्रणीत पार्श्वचरित सर्ग २८. २ कल्पसूत्र (SBE) पृ० २४९.
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२२५ विश्वात्मक ज्ञान और विश्वप्रेमके आगार भगवान पार्श्वनाथका जब सर्व प्रथम दिव्य उपदेश वनारसके निकट अवस्थित वनमे हुआ तो उनका यश दिगन्तव्यापी होगया। वे भगवान् जो कुछ कहते थे वह प्राकृत रूपमें कहते थे। वहां रागद्वेषको स्थान प्राप्त नहीं था। उनकी क्रियायें भी प्राकृतरूप निरपेक्ष भावसे होती थी। इसी अनुरूप सर्व लोकोका कल्याण' करनेके लिये उनका विहार भी आर्यखंडमें हुआ था । एक तीर्थकरके लिये यत्र-तत्र भ्रमण करके संसारके दु खोसे छट पटाते हुये जीवोको धर्मका सुखकर पीयूष पिलाना आवश्यक होता है। यह उनकी तीर्थकर प्रकृतिका प्रकट प्रभाव है । इसी अनुरुप भगवान पार्श्वनाथका भी पवित्र विहार और धर्मप्रचार समस्त आर्यखंडमें हुआ था। श्री वादिराजसूरि भी यही कहते हैं - देवस्तु धर्मममृतं वरभव्यशस्यैः,
संग्राहयन प्रविजहार विधाय जिष्णुः । स्वाभाविकः खलु रवेः कमलाववोधी,
दिक्षु भ्रमस्स न विचारपथोपसपी ॥४४॥ अर्थात्-'जिस प्रकार कमलोंके खिलानेवालाः दिशाओंमें सूर्यका भ्रमण स्वभावसे ही होता है उसके वैसे भ्रमणमें विचार करनेकी जरूरत नहीं पड़ती उसी प्रकार जयगील भगवान जिनेन्द्रका भी भव्य जीवरूपी धान्योंके लिये धर्मामृत वषोनेवाला विहार स्वभावसे ही होने लगा। आज यहां तो कल वहां विहार करना चाहिये इस प्रकार इच्छा पूर्वक उनका विहार न था।'
(पा० च० ४० ४१६)
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२२६ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
इस विहारमें भगवान विना किसी भेद भावके सब ही जीवोंको समान रूपसे धर्मामृनका पान कराते थे । उनका विहार देवोपनीत समवशरणकी विभूति सहित होता था । जहां जहां भगवान पहुंच जाते थे वहां वहां इन्द्रकी आज्ञासे कुवेर समवशरणकी रचना कर देता था | जैन शास्त्रों का कहना है कि तीर्थकर भगवानका प्रस्थान साधारण मनुष्योकी तरह नहीं होता है । उनके निकटसे अशुभ रूप चार घातिया कर्मो का अभाव होगया था । इसलिये उनका परम और शरीर इतना पवित्र और हमवजन होगया था कि वह पृथ्वीसे ऊपर बना रहता था । उसके लिये पृथ्वीका सहारा लेने की आवश्यक्ता नहीं रही थी । इसमें आश्चर्य करनेके लिए बहुत कम स्थान है: क्यों के योगमाघनके बल किंचित् कालके लिये छदमस्थ मनुष्य भी अवर आकाशमें तिष्ठते बतलाये गये हैं । फिर जो महापुरुष साक्षात् योगरूप होगया है, उसके लिये आकाश ही आसन होजाय तो कुछ भी अचरजकी बात नहीं है । योगशास्त्रोंके पारंगत विद्वान् इस क्रियामें कुछ भी अलौकिकता नहीं पायेंगे । वास्तमें इसमें कोई अलौकिकता है भी नहीं; यद्यपि यह ठीक है कि आजकल ऐसे योगी पुरुषोंके दर्शन पा लेना असंभव होगया है । यही नहीं योग शास्त्रोंमें बताये हुये सामान्य नियमों के पालनमें पाण्डित्यप्राप्त मनुष्य ही मुश्किल से देखनेमें मिलते हैं । इसलिये आजकलके लोग इन बातोंकी गिनती 'करिश्मो' अथवा 'अलौकिक' चातोंमें करने लगते हैं और ऐसी बातें उनके गलेके नीचे सहसा नहीं उतरती हैं ! किन्तु वह मूलते हैं और आत्माकी अनन्तशक्ति अपना 'अविश्वास प्रकट करते हैं । आत्मामें सब कुछ कर
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ज्ञानप्राप्रि और धर्म प्रचार। [२२७ सकनेकी महोघशक्ति विद्यमान है । उसके लिये कोई कार्य कठिन नहीं है । अस्तुः आत्माके स्वाभाविक रूप परमात्मपदको प्राप्त हुये भगवान् पार्धनाथके लिये इसमे कुछ भी अलौकिकता नहीं थी कि वह दिव्य देहके धारक थे, पृथ्वीका सहारा लिये विना ही अघर गमन करते थे और सिहासनपर अंतरीक्ष विराजमान होकर मेघगर्जनकी भांति धर्मोपदेश देते थे, जिसे हरएक प्राणी अपनी २ भाषा समझ लेता था । यदि इन बातोंको अलौकिक मान लिया जाय और इस कारण स्वय भगवान पार्श्वनाथ मनुप्योंसे विलग कोई लोकोत्तर व्यक्ति मान लिये जांय, तो उनसे हमारा क्या मतलब सध सक्ता है ? हम मनुष्य हैं । हमारा पथप्रदर्शक भी मनुष्य होना चाहिये । जैनी करीब ढाई हजार वर्षोसे इन पार्श्वनाथ भगवानको अपना मार्ग-दर्शक पूज्यनेता मानते आये हैं और वह इनको एक हम आप जैसा मनुष्य ही बतलाते है। इसलिये उनके विषयमें अलौकिकताका अनुमान करना वृथा है । वह हमारे समान मनुष्य ही थे, परन्तु वह अपने कितने ही पूर्व भवोंसे ऐसे सद्प्रयत्न करते चले आ रहे थे कि उनकी आत्मा विशेषतर अपने निजी गुणोको प्राप्त करनेमें सफल हुई थी और उनके भाग्यमें पुण्य प्रकृतियोंकी ही अधिकता थी। इसी कारण अपने इस तीर्थकर भवमें वह जन्मसे ही इतर मनुष्योंसे प्राय अपनी सब ही क्रियायोंमें विलक्षणता रखते थे । महापुरुषोके लिये सचमुच यह विलक्षणता स्वाभाविक है । वह अपना मार्ग स्वयं निर्मित करते है । साधारण जनताके पीटे हुये रास्तेका सहारा लेना जरूरी नहीं समझते। इसीलिये यह कहा गया है कि
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२२८] भगवान पार्श्वनाथ । 'होनहार विरवानके होत चीकने पात' और 'महाजनाः येन गताः सा पन्थाः ।' अस्तु भगवान् पार्श्वनाथ हमारे लिये पूर्णताके एक अनुकरणीय और अनुपम आदर्श है। उन्होंने अपने अमली जीवनसे उस समयकी जनताको अपने धर्मोपदेशकी सार्थकता स्पष्ट कर दी थी। वे ग्राम-ग्राम और खेडे-खड़ेमें पहुंचकर धर्मका प्रासत स्वरूप सब ही जीवित प्राणियोंच्चो समझाते थे। उनके निकट कोई खास मनुप्य समुदाय ही केवल धर्म धारण करनेका अधिकारी नहीं था। उन्होंने उस समयकी प्रगतिके विरुद्ध सदर ही श्रेणियोंके मनुप्योंको धर्माराधन करनेका अधिकारी बताया था । ऊंच नीचका भेद लोगोंमेंसे हटा दिया था ! प्रत्येक हृदयमें स्वाधीनताकी पवित्र ज्योति जगमगा दी थी. उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि पराश्रित होकर-दूमरोंके मुहताज बनकर तुमको कुछ नहीं मिल सक्ता ! यदि तुम आत्म-स्वातव्यको पाने के इच्छुक होस्वाधीनताके उत्कट पुजारी हो तो दृढ़ता पूर्वक संयमी बनकर अपने पैरोंपर खड़ा होना सीखो। तुमही अपने प्रयत्नोंसे अपनेको स्वाधीन और सुखी बना सकोगे ! उनका यह प्रास्त उपदेश हर समय और हर परिस्थितिके मनुप्योंके लिये परम हितकर है । यह एक नियमित सूत्र है जो तीन लोक और तीन कालमें समान रूपसे लागू है । मगवान पार्श्वनाथ अपने इस दिव्यसंदेशको प्रातरूपमें दिगन्तव्यापी बनाते हुए समस्त आर्यखंडमें विचरे थे। श्री सकलकीर्ति आचार्य उनके विहारका विवरण इस प्रकार लिखते हैं.
'जिनभानृदये संचरंति साघु मुनीश्वराः। .. बदाकुलिंगिनो मंदा नश्यति तस्करा इव ॥ १७ ॥ .
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार ।
[ २२९
कुरुकौशलकाशी सुह्यावंती पुंड्र मालवान् । अंग वंग कलिगाख्य पंचालमगधाभिधान ।। १८ ।। विदर्भभद्र देशाख्य दर्शर्णोदीन बहून्जनः । विहारमहाभूत्या सन्मार्ग देशिनोद्यतः ।। १९ ।। २३ ॥ अर्थात् - जिनेन्द्ररूपी भानुके उदय होनेसे साधु मुनीश्वरोंका संचार होगया और कुलिगी जटिल आदि पाखंड रूप अधकारका उसी तरह नाश होगया जैसे चोरोंका होजाता है । फिर भगवान्का पवित्र विहार कुरु, कौशल, काशी, अवंती, पुंडू, मालवा, अग, बंग, कलिंग, पचाल, मगध, विदर्भ, भद्र, दर्शार्ण आदि देशों में महाविभूतिके साथ होगया था । यह सारे ही देश आजकल इसी भारतके अन्तर्गत मिल जाते है । इसी तरह एक अन्य आचार्य भगवान् के विहारमें आकर पवित्र हुये देशों का उल्लेख एक दूसरे रूपमें ये करते हैं: -- यूं
'तत्वभेदप्रदानेन श्रीमत्पार्श्वप्रभुर्महान् ।
जनान् कौशलदेशीयान कुशलान संव्यध्यद्दृश ॥ ७६ ॥ भिंदन मिथ्यातमोगाढं दिव्यध्वनिप्रदीपकैः । काशीय देशीयकोकान् स चक्रे संयमतत्परान || ७७|| श्रीमन्मालवदेशीय भव्यलोकसु चातकान् । देशनारसधाराभिः प्रीणयाभास तीर्थराट् ॥७८॥ अवंतीयान् जनान् सर्वान् मिथ्यात्वानलतापितान् । रयान्निर्वापयामास पार्श्वचंद्रामृतैः ॥ ७९ ॥ गौर्जराणां जनानां हि पार्श्वसम्राट् जितेंद्रियः । मिथ्यात्वं जर्जरंचक्रे सद्वचः शस्त्रघातनैः ॥ ८०
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२३० ] भगवान् पार्श्वनाथ ।
महाव्रतधरान् काश्चिन्महाराष्ट्र जनान् व्यधान् । दीक्षोपदेशदानेन पार्श्वकल्पमस्तहा ॥ ८१ ॥ पार्श्वभट्टारक श्रीमाल पादन्यासेविहारतः। सर्वान सौराष्ट्र लोकाश्च पवित्रान् चिद्धेमृशं ।। ८२॥ अंगे वंगे कलिंगेऽथ कर्णाटे कौकणे तथा । मेदपादं तथा लाटे लिंतिगे द्राविडे तथा ॥ ८३ ॥ काश्मीरे मगधे कच्छे विदर्भ च दशाके । पंचाले पल्लवे वत्से पराभीरे मनोहरे ॥ ८४ ॥ इसार्यखंड देशेषु व्यक्रीणात्समहाधनी । दर्शनझानचारित्ररत्नान्मेवोतयान्यलं ।। ८५ ॥ १५ ॥
भावार्थ-तत्व भेदको प्रदान करने के लिये महान प्रभू श्री पार्थ भगवानने कौशल देशके कुशल पुरुषोमे विहार किया और अपनी दिव्यध्यनिरूप प्रदीपसे गाढ मिथ्यातमकी धिजिया उडा दी। फिर संयममें तत्पर कागी देशके मनुष्योंमें धर्मचक्रका प्रभाव फैलाया। श्री मालवदेशके निवासी भव्यलोक रूप चातकोंने भी तीर्थराट्के धर्मामृतका पान किया था । अवतीदेश जो मिथ्यानलसे तप्त था मो पाचरूपी चंद्रके अमृतको पाकर शांत होगया था। गौनर देशमें भी नितेन्द्रिय पाश्चतम्राटके सवचनोके प्रभावसे मिव्यात्व बिलकुल जर्नरित होगया था। महाराष्ट्र देशवासियोमें अने. कोंने पाच भगवानसे दीक्षा ग्रहणकी थी। सर्व सौराष्ट्र ढगम भी पाचभट्टारकका विहार हआ था, जिससे वहाके लोग पवित्र होगए थे। अग, वग, कलिंग, कर्नाटक, कौंकन, मेटपाद (मेवाड़)
१-पानाधरित भंग १.7
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ज्ञानप्राति और धर्म प्रचार। [२३१ लाट, द्राविड़, काश्मीर, मगध, कच्छ, विदर्भ, शाक, पंचाल, पल्लव, वत्स इत्यादि आर्यखंडके देशोमें भी भगवानके उपदेशसे सम्यग्दशन, ज्ञान, चारित्र र नोकी अभिवृद्धि हुई थी।
इस वर्णनमें आये हुए देश भी विशेषकर आजकलके भारतमें ही गर्भित है किन्तु पूर्वोडेखसे इसमें कर्णाटक, कोकण, मेढपाद, द्राविड, काश्मोर, शाक और पल्लव देशोकी अधिक गणना की गई है । कर्णाटक और चौंकण, द्राविड और पल्लव देश तो दक्षिण भारतमें आजाते हैं। मेदपाद-मेद अथवा मेड़लोगोंका निवासस्थान भाजकलका राजपूताना है। यहापर बिनौलिया पार्श्वनाथ नामक अतिगय जैनतीर्थ आज भी मेवाड़ रियासतके अंतर्गत विद्यमान है। यह स्थान भगवान पार्श्वनाथके समवशरणके आनेके कारण ही अतिशयक्षेत्र में परिगणित किया गया है। काश्मीर आजकलका काश्मीर ही हो सक्ता है । यहा भी उस प्राचीन कालमे जैनधर्मका प्रचार हुआ जैनशास्त्रोंसे प्रकट होता है । सिकन्दर आजमके और उपरान्त चीनी यात्रियोके जमाने में जब उत्तर पश्चिमीय सीमाप्रान्तमें एवं स्वयं अफगानिस्तानमे विशाल दि० जैन मुनि मिलते थे तो यह बिलकुल संभव है कि काश्मीरमें भी उनकी गति रही हो ! प्राकृत यह ठीक नहीं मालूम देता कि सीमाप्रान्त और मद्रदेश (मद्रि-पंजाब) में जैनधर्मका बाहुल्य रहते हुये काश्मीर उससे अछूता बच गया हो । अगाड़ी शाक देशका उल्लेख है । इससे
१-राजपूतानेका इतिहास भाग १ पृ०२। २-जर्नल आफ दी रायलऐशियाटिक सोसाइटी, जनवरी सन् १८५५ । ३-कनिन्धम, ऐ० जाग० आफ इन्डिया पृ० ६१७।
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२३२] भगवान् पार्श्वनाथ । स्पष्ट नहीं है कि किस शाकदेशका भाव यहांपर इष्ट है ? भारतमें -म० बुद्धका वंश ' शाक्य ' नामसे प्रसिद्ध है और उनका देश भी 'शाक्यभूमि · से परिचित है । संभव है, भगवान पार्श्वका विहार यहींपर हुआ हो। यह प्रदेश नेपालको तराईमें था और नेपालकी कथानकसे भी ऐसा प्रकट होता है कि भगवान पाचका आगमन वहा हुआ था। उसमें कहा गया है कि काश्यप बुद्ध बनारससे आये थे और स्वयंभू मदिरमे रहकर उनने उपदेश दिया था। फिर वह गौड देश ( बगाल ) को चले गए थे। वहांके प्रचण्ड देव नामक राजाने उनको पिण्डपात्र दिया था। बुद्धने उनसे स्वयंभूक्षेत्र ( नेपाल ) जानेको कहा था। सो वह अपना राज्य अपने पुत्र शक्तिदेवको देकर भिक्षु होगया था और शास्त्राध्ययन करने लगा था। उपरांत वह नेपाल गया और शांतिकर नामसे परिचित हुआ। यहां भगवान पार्श्वनाथका उल्लेख गोत्ररूप (काश्यप ) में किया गया है। उनका बनारससे आना और वगालको जाना स्पष्ट कर देता है कि सचमुच काश्यप बुद्ध भगवान पार्श्वनाथ ही होंगे: क्योंकि भगवानने धर्मोपदेश वनारससे ही देना प्रारम्भ किया था और वे वगालमें भी गये थे, यह प्रगट है । आनकलकी खोजसे यह प्रमाणित हुका है कि श्री पार्श्वनाथनीके धर्म तथा उपदेशका असर अंग-उंग और कलिगमें फैला हुआ था । भगवान् ताम्रलिप्तसे चलकर कोपन अथवा कोप कटक पहुचे थे जो उनके वहा पिण्ड-आहार ग्रहण करने के कारण उपरात धन्य कटक कहलाने लगा था और जो आजकलका कोपारी
1-दिस्ती आफ नेपाल पृ० ८३-८४ ।
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२३३ ग्राम है।' इन प्रदेशोंमें भगवान् पार्श्वनाथकी मान्यता और मूर्तियां भी बहु संख्यामें प्राचीन मिलती हैं । कलिग देशके राजा खारवेल द्धारा निर्मित्त हाथी गुफा आदिमें इन तीर्थकर भगवान की सम्पूर्ण जीवनीके चित्र दीवालोंपर अंकित हैं। उन्होंने पौंड्र, ताम्रलिप्त आदिमें विशेष रीतिसे अपना विहार किया था। आज भी राची, मानभूम आदि जिलोमें हजारो मनुष्य केवल भगवान पार्श्वनाथके नामकी उपासना करते हैं, उनको अपना इष्टदेव मानते है-परन्तु उनके धर्मके विषयमें और अधिक आज वे कुछ भी नहीं जानते यद्यपि वे अब भी सराक (श्रावक ) नामसे प्रख्यात् है। इससे स्पष्ट है कि भगवानका विहार बंगालमें भी हुआ था और ऊपर शाक देशमें उनका पहुंचना लिखा ही है, जो नेपालकी तराईका शाक्य प्रदेश ही होसक्ता है। स्वयं शाक्यवंशी राजा शुद्धोदनके गृहमें जैनधर्मकी मान्यता थी, ऐसा बौद्ध ग्रन्थोंके कथनसे प्रमाणित होता है। इस अवस्था में भगवान् पार्श्वनाथजीका ही नेपालमें धर्म प्रचार करना संभवित होता है, जिसका उल्लेख पूर्वोक्त प्रकार नेपालके इतिहासमें किया गया है । शाक्य भूमिके अतिरिक्त किसी अन्य देशका नाम 'शाक भारतमें तो देखनेको मिलता नहीं है । हाँ! इन्डो-ग्रीक राजाओंकी रानवानी शाकल अथवा साल (माजकलका स्यालकोट) अवश्य शाकसे सादृश्यता रखती है और वहांके प्रख्यात राना मिलिन्द (IF• nander) अधिकांश यवनोंक
१-आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ मयूरभंज सन् १९११ और बंगाल प्राचीन जैनस्मार्क पृ. ७९ । २-बगाल ओड़ीशा, विहारके प्राचीन जैनस्मार्क पृ० ८९-९०१३-पूर्व० पृ० १२ और १४०-१८७ पृ. ४१३॥ ४-भगवान महावीर और न० बुद्ध पृ. ३७ ।
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_२३४] भगवान पार्श्वनाथ । __ साथ एक समय जैनधर्मानुयायी थे, यह भी प्रगट है। परन्तु यह
साकल और राना मनेन्द्र अथवा मिलिन्द आदि भगवान् पार्श्वनाथसे एक दीर्घकाल उपरांत भारतीय इतिहासमें स्थान पाते हैं। इसलिये उक्त शास्त्रका शाकदेश साकल नहीं होसक्ता है । इसके अतिरिक्त भारतके बाहर शाकद्वीप (Sythin) में भगवान पार्श्वनाथका विहार हुआहो, तो कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि प्राचीनकालमे भारत और शाकद्वीपका विशेष सम्बध था। लोगोंका कहना है कि कृष्णके पुत्र शम्ब शाकद्वीपसे आये थे और वह अपने साथ शाकद्वीपस्थ ब्राह्मणोंको भी लाये थे जो सूर्यकी उपासना करते थे । यही ब्राह्मण आजकलके भोजक है.जो जैन मम्प्रदायमें विशेष परिचित हैं । तिसपर मध्य ऐशिया और यूनान तक जैनधर्मके अस्तित्वके चिन्ह मिलते है। इसलिये यह भी अनुमान किया जासक्ता है कि भगवानका विहार शाकद्वीपमें हुआ हो, जो जैन दृष्टिसे आर्यखण्डमें आजाता है। अब सिर्फ दक्षिण देशोंके प्रदेश रहे है। जैन शास्त्रोंमें यहां भगवान पार्श्वनाथके वहत पहलेसे जैनधर्मका अस्तित्व बतलाया गया है; किन्तु आजकलके विद्वानोंको ऐमी धारणा होगई है कि 'सम्राट चन्द्रगुप्त मौ के जमाने में श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा ही सर्व प्रथम वहां जैनधर्मका प्रचार हुआ था । इस धारणामें कुछ अधिक वजन है यह दिखता नहीं, क्योंकि जैनेतर शास्त्रोंसे वहां इस कालके बहुत पहलेसे जैनधर्मका प्रचलित होना प्रतिभाषित होता है । तिसपर स्वयं भद्रबाहुस्वामीकी घटनासे ही यह वात प्रमाणित है।
१-वीर' वर्ष २ पृ. ४१३ । २-टॉडका राजस्थान (वकेंटेश्वर प्रेस) भा० १ पृ. २७ ।।
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२३५ यदि उनके समयके दुप्कालमें दक्षिणमें जैनी न होते तो वह वहांको प्रस्थान केसे कर जाते ? क्योंकि जैन मुनि श्रावकोंके यहां सविधि आहारदान पासक्ते हैं अन्यत्र उसका मिलना कठिन है । इससे यही प्रगट है कि वहांपा जैनधर्म उनके पहलेसे विद्यमान था। 'रामावलीकथे' नामक ग्रन्थनें यही कहा गया है और इस कथनको विद्वान् लोग करीब २ विश्वपनीय ब लाते हैं।' तिसपर बौद्धोके 'महावंश' नामक ग्रन्थमें ईस्वी सन्से पहले ४३७के करीब सिहल लंका ( Cey.on) मे अनुरुद्धपुरके बताये जानेका वर्णन दिया हुआ है। उसमें वहांपर ' गिरि,' नामक एक निगन्थ (जैन) उपासकको स्थान देने एवं बहाके राना पाडुगाभय द्वारा ' निगन्थ । कुम्बन्ध ' के लिये एक मंदिर बनवानेके उल्लेख आये है। इस कथनसे स्पष्ट है कि सिहल-लकामें ईसासे पूर्व पांचवी शताब्दिमें जैनधर्म मौजूद था। इस दशामें दक्षिण भारतका उस समय उसके प्रचारसे अछूता बच जाना कुछ जीको नहीं लगता । इसी कारण कतिपय विद्वान् इस बातको माननेके लिये तैयार हुये हैं कि श्री भद्रबाहुस्वामीसे पहले ही जैनधर्मका अस्तित्व दक्षिण भारतमें मौजूद था। यहापर यह शका करना भी वृथा है कि जैनधर्म समुद्र मार्गद्वारा सीधा सिंहल-लकाको पहुंच गया होगा, क्योंकि जब वह जहाजोंद्वारा लका पहुच सक्ता है तो उसी तरह दक्षिण भारतमें भी दाखिल हो सक्ता है । दक्षिण भारतसे भी सामुद्रिक व्यापार तब चलता था । तिसपर जैनशास्त्र स्पष्ट कहते हैं कि वहांरर जैन
१-स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म पृ. ३२ । २-महावश पृ० ४९ । ३-स्टडीज इन साउथ इडिपन जैनी ज्म भाग १ पृ० ३३ ।।
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२३६] भगवान, पार्श्वनाथ । धर्मका अस्तित्व बहुत प्राचीन कालसे है । इसलिये इसमें शका करना वृथा है कि भगवाा पार्श्वनाथका विहार दक्षिण भारतमें हुआ था। उनके वहां पहुंचने के स्पष्ट प्रमाण वहांपरके उनके आगमनके स्मारक स्वरूप अतिशय तीर्थक्षेत्र आज भी मिलते हैं। कलिकुण्डपार्श्वनाथ नामक तीर्थ दक्षिण भारतमें ही है।' इसीतरह भगवानका विहार मध्यभारतमें भी हुआ था, यह उपरोक्त शास्त्र उद्धरणोसे प्रमाणित है। प्राचीन 'निर्वाणशंड' ग.थासे भी यही प्रकट है:पासस्स समवरणे सहिया ग्दत्त मुणिवरा पंच । रिस्सिदेगिरिसिहरे, णिवाणगयो जमो तेसिं !!१९॥
यह रेशिंदेगिरि पन्ना राज्य में है और यहां पहाडीपर चालीस दि. जैन मंदिर हैं। इनके अतिरक्त श्वेताम्बराचार्य भावदेवमूरि भगवान पार्श्वका विहार-वर्णन इस प्रकार करते हैं। वह कहते हैं कि पहले भगवानने गंगा जमनाके किनारेवालों देगोंमें धर्म प्रचार किया और फिर वह पुदेशको विहार कर गये थे। वहांके प्रसिद्ध नगर ताम्रलिप्तिमें उनका विशेष उपदेश हुआ था । उपरांत चारह वर्ष के बाद वे भगवान मध्यमारतकी नागपुरीमे पहुचे थे
और यहाँसे उनका आगमन सम्मेदाचल पर्वतपर हुआ बतलाया गया है। यहांपर श्वेताम्बराचार्य ने केवल उन स्थानोंका उल्लेख किया है, जहांपरकी किमी खाम घटनाका वर्णन उनको देना इष्ट है। इस
-दि० जैन डायरेक्टरी देखो। २-पायंचरित सुर्गो० २५८ । ३-पृवं. न. ८ श्लो० - ४-पूर्व० सं० ८. श्लो० ५-६ । ५- ८-१९९ :-पूर्व० ८-१।
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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार ।
हालतमें उनका अन्य प्रदेशोंको अछूता छोड़ देना ठीक ही है। इसतरह पर जहां२ भगवान पार्श्वनाथका पवित्र विहार हुआ था, वहां वहां का वर्णन जैनशास्त्रोंमें मिलता है। इस पवित्र विहारमें अव्याबाघ सुख को दिलानेवाले धर्मका बहु प्रचार हुआ था । भव्यरूपी चातकों के लिये दुर्लभ धर्मामृतकी अपूर्व वर्षा हुई थी। जो भी भगवानके समवशरणमें पहुंच गया वह कृतकृत्य होगया । यही नहीं, जिस ओरसे भगवानका विहार होगया उस ओर कोसोंमें सुकाल फैल गया था-ग्रामीण लोग मानन्दमग्न होगए थे। दुर्भिक्षका वहां पता ही नहीं मिलना था। साक्षात् परमात्मा तीर्थकर भगवानकी पुण्य प्रकृतिसे सबको सब ठौर सुख ही सुख नजर पड़ता था। इस तरह पर भगवान का सर्वत्र सुखकारी धर्मप्रचार और विहार हुआ था। 'बहुदेशन माही प्रभु विहराही भवि जीवन संबोधि दये। मिथ्यामत भारी तिमिर विदारी जिनमत जारी करत भये॥ कछु इच्छा नारी विनि डगधारी होत विहारी परमगुरू । जिन प्राणिन केरा तरब सवेरा तितै नाथ मग होत शुरू। चामाके प्यारे जग उजियारे मनसों थारे पद परसों। जिन परसे सारे पातक जारे और सवारे शिव दरसों॥"
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२३८]
भगवान् पार्श्वनाथ ।
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भूगुवातका धर्मोपदेश ! 'तमोत्तु ममतातीत ममोत्त ममतामृत । ततामितमते तात मतातीतमृतेमित ॥१०॥
___-श्री समन्तभद्राचार्य । 'हे पार्श्वनाथ ! आप ममत्व रहित है । ममता-तस्कर आपसे कोसो दर रहता है, इसी लिये 'आपका आगमरूपी अमृत सर्वोत्कृष्ट है । आपका केवलज्ञान भी अतिशय विशाल और अपरिमित है।' उसके धवल आलोकमे अज्ञानतमसे चुधियाई हुई जखे यथार्थ सत्य को देखने में समर्थ होनी है । उम वैज्ञानिक उपदेशके बल हो लोक इप्स अगाध ससारसागरके पार पहुचनेका साहस कर पाता है । सचमुच भगवानके वस्तुस्वरूपमय धर्म-पीयूष को यीकर ही महान् संसार--रोगमें ग्रसित मनुष्य उपसे मुक्ति पालेते हैं। इसीलिये हे भगवन् । 'आप सबके बंधु है ! जन्म नरा मरण रहित है तथा अपरिमित हैं। आपके ये चरणयुगल मेरा ही क्या सारे ससारका अज्ञानांधकार दूर करदें यही भावना है । आपके परमपावन चरित्रका अवगाहन करते हुये आपके दिव्योपदेशके दर्शन पालेना भी परम उपादेय और आवश्यक है। भगवान पार्श्वनाथके जीवनचरित्रमें यही एक अवसर इतना महत्वशाली है कि इसका प्रभाव उसी क्षण दिगन्तव्यापी हो गया था। तीर्थंकर भगवानका सर्वज्ञानको प्राप्त होना और फिर प्रास्त धर्मामृतकी वर्षा करना बड़ा ही महत्वपूर्ण और प्रभावशाली कार्य है। जिसतरह भगवान महावीरके जीवन में उनके इस दिव्य अवसरका प्रभाव म०
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भगवानका धर्मोपदेश !
[ २३९
- बुद्ध और मक्खलिगोशाल जैसे उत्कट प्रचारकोंपर पड़ा था, वैसे ही भगवान पार्श्वनाथ प्रभावसे उनके समय के धार्मिक वातावरण में एक क्रांति खडी हो गई थी, यह हम अगाडी देखेंगे । यहां पर तो यह देखना मात्र इष्ट है कि भगवानने अपने धर्मोपदेशमे कहा क्या था ?
जैन मान्यता है कि तीनकाल और तीनलोकमें जबजब जो जो तीर्थंकर होगे, उनके धर्मो देश भी वैसे ही एक समान होंगे। उनमें एक दूसरे से किञ्चित् भी अन्तर नहीं पड़ सक्ता है । यह एक बड़ा ही अटपटा और अनोखा सा दावा है, परन्तु ध्यान देनेसे इसकी सार्थकता प्रकट होजाती है। बेशक यह जीको नहीं लगता कि हर समय के हर तीर्थंकरका धर्मोपदेश एक ही प्रकारका और एक ही ढगका हो । यदि उनका धर्मोपदेश एक ही प्रकार और एक ही ढगका हरसमय होता मान लिया जाय, तो फिर विविध तीर्थंकरोंका कालान्तर में अवतीर्ण होना कुछ महत्वशाली रहता भी नजर नहीं पडता, क्योकि समयकी परिस्थिति हर समय एकसी नहीं रहती और एक अमुक प्रकारकी परिस्थिति के अनुकूल कहा गया उपदेश एक अन्य प्रकारकी परिस्थितिके लिये समुचित नही - रह सक्ता और यह स्पष्ट है कि प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक कालमें संसारी जीवोंकी दशा कभी भी एक समान नही रहती है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार उनकी दशा पलटती रहती है । चौथे कालके जीवोंसे आजकल के जीवोकी आयु, काय, बुद्धि, संह नन आदि सब बातें बहुत ही अल्प है और अबसे अगाडीके जीवोकी हालत इससे भी बदतर होगी, यह जैन शास्त्रोंका कथन है । स्वय
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२४०] भगवान पार्श्वनाथ । चौथे कालमें भी सर्वदा एकसा समय नहीं रहा था । जो आयु, काय, बल आदि शक्तियां भगवान ऋषभदेवकी थीं, वह भगवान पार्वनाथकी नहीं थीं, यह पहले जैनशास्त्रके उद्धरणसे प्रकट हो चुका है। अस्तु इस दशामे जैनियोंकी तीर्थकरोंके एक समान सनातन धर्मोपदेश देनेकी मान्यता कुछ असंगतसी जंचती है और इस दृष्टिसे यह है भी ठीक ! परन्तु तीर्थंकर भगवान द्रव्योंका यथावत स्वरूप बतलाते हैं। जो वस्तुका स्वरूप है वही वह निर्दिष्ट करते हैं। वह सर्वज्ञकथित एक वैज्ञानिक भाषण है । इसलिये उसमें अन्तर पड़ना कभी और किसी दशामें भी संभव नहीं है । मे सिद्धान्त और जो तत्व एक तीर्थकरने बता दिये है, वही सिद्धान्त और वही तत्व दूसरा तीर्थकर भी बतायगा: क्योकि सब ही तीर्थकर सर्वज्ञ होते हैं और उनकी सर्वज्ञतामें कुछ मी अन्तर नहीं होता । इसलिए जो बातें एक सर्वज्ञ तीर्थकर वतागा, उसके विरुद्ध दूसरा सर्वज्ञ कुछ कयन कर ही नहीं सक्ता और यह प्रत्यक्ष प्रमाणित है। आन भगवान महावीरके बताये हुये जनधर्ममें सात तत्व बतलाये हुये मिलते है । अब यह कभी भी सभव नहीं है कि किसी भी तीर्थकरके धर्मोपदेशमें इन सात नबॉकी सस्या घटा बढ़ा दी जाय अथवा इनका क्रम उदल दिया न. : आन यह वैज्ञानिक ढगमे निर्णीत है-जीव-अनीव मुख्य दो द्रव्य इस लोकमें हैं। उपयोग चेतना लक्षणको धारण करनेवाला
व है और अनीवमें यह लक्षण नहीं है | जीव अनीव पुहलके मवन्धने मासारिक दुवसागरमें गोते लगा रहा है। अपने मन, ६चन, क.यकी म्ली बुरी क्रियावासी व.पाय प्रवृत्तिके नुसार वह
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भगवानका धर्मोपदेश! [२४१ उसी प्रकारकी पौगलिक शक्तिया, जिनको कर्मवर्गणायें कहते हैं, अपनेमें खींच लेता है। जब यह सुख दुख देनेवाली कर्म वर्गणायें संसारी जीवसे सम्बद्ध होजाती हैं, तब वहां अपनी प्रबलताके अनुसार नियत स्थितिके लिये ठहर जाती हैं । अस्तु; पहले दो तत्त्व तो जीवअनीव हुये और उपरांत कर्मोका आगमन रूप आश्रव और उनका जीवमें स्थिर होने रूप बन्ध यह क्रमसे तीसरे और चौथे तत्त्व प्रमाणित होते हैं। यहांतक तो प्राणीके सुख दुख भुगतने का संबंध स्पष्ट किया गया है, अब अगाड़ी इम उपायका बतलाना ही शेष है कि इस सुख दुखसे कैसे छूटा जाता है ? इसके लिये आवश्यक है कि सुख दुख देनेवाली कर्म वर्गणाओं को आने देनेका मार्ग रोक दिया जाय । यही क्रिया पांचवा सवर तत्व है। अब जब कि कर्मोका आना तो रुक गया तब यही कार्य शेष रह जाता है कि सिलकमेंके कर्मोको नष्ट कर दिया जाय । यह छठा निर्जरा तत्त्व है। बस जब सब कर्म ही नष्ट होगये तब जीव स्वाधीन और सुखी होजाता है । यह सातवां मोक्ष तत्व है। इन सात तत्वोकी यह वैज्ञानिक लडी है और इसमेका एक भी दाना इधरसे उधर सारी लड़ीको तोड़े विना नहीं किया जासक्ता है । इस कारण यह कभी भी सम्भव नहीं है कि भगवान महावीरसे पहलेके श्री पार्श्वनाथ अथवा किसी अन्य तीर्थकरने इनसे किप्ती अन्य प्रकार और ढगके तत्वों का निरूपण किया हो ! इस अवस्थामें यहांपर एक गोरखधंधासा नेत्रोंके अगाडी आ उपस्थित होता है । समय प्रवाहके अनुसार तीर्थंकरोंके धर्मोपदेशमें किंचित् अन्तर पड़ना आवश्यक ठहरता है और वस्तुस्थिति अथवा वैज्ञानिक रूपमें उसका सदा
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२४२] भगवान पार्श्वनाथ । सर्वदा एकसा होना जरूरी प्रमाणित होता है। तो फिर यहां क्या बात है ? इसके लिये तीर्थकर भगवानके बताये हुए स्यावाद सिद्धांतका आश्रय लेना समुचित प्रतीत होता है। प्रत्येक वस्तुमें अनेक गुण है और परिमिन शक्तिको रखनेवाले मनुष्यके लिये यह संभव नहीं है कि वह एक साथ ही उसके सब गुणोका निरूपण कर सके । वह अपेक्षा करके ही उनका उल्लेख करेगा । यदि कोई कहे कि कुचला प्राण शोषक है, तो उपका यह कथन सर्वथा सत्य नहीं है, क्योकि कुचलेमें प्राण पोषक तत्व भी मौजूद है । वातरोगमें चह बड़ा ही लाभप्रद है । इसलिये यह नहीं कहा जातक्ता कि कुचला प्राण शोषक ही है। अतएव तीर्थंकर भगवान के धर्मोपदेशके विषयमे भी यही बात है। समय प्रवाहकी अपेक्षा उसके विधायक क्रममें किंचित् अन्तर उसी हद तक होता है जो उसके मूल भावका नाशक न हो और मूल भाव अथवा सैद्धातिक तत्व पदा सर्वदा एक समान ही रहेंगे। यही वात दिगम्बर और श्वेतापर सम्प्रदायके शास्त्रोमें निर्दिष्ट की हुई मिलती है।
दिगम्बर सम्प्रदायमें श्री वट्टरेर नामक एक प्राचीन और 'प्रसिद्ध आचार्य हुये है। उनका 'मूलाचार' नामका एक यत्याचार विषयक ग्रन्य विशेष प्रामाणीक और बहु प्रचलित है । इस ग्रंथमें श्री चट्टकेराचार्य ने सामायिकका वर्णन करते हुये स्पष्ट रोतिसे कहा है कि'वावीसं तित्ययरा सामाइयं संजमं उवढिसंति । छेदोवठ्ठावणियं पुण मयवं उसहो य वीरो य ॥७-३२||
अर्थात्-'अजितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत वाईस तीर्थंकरोंने सामायिक संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगवानने 'छेदो
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२४३ पस्थापना' संयमका उपदेश दिया है।' यहां मूल गाथामे दो जगह 'च' (य) शब्द आया है। इसको लक्ष्य करके प्रसिद्ध जैन विद्वान् पं० युगलकिशोरजी लिखते है कि 'एक चकारसे परिहारविशुद्धि आदि चारित्रका भी ग्रहण किया जासक्ता है और तब यह निष्कर्ष निकल सक्ता है कि ऋषभदेव और महावीर भगवान्ने सामायिकादि पांच प्रकारके चारित्रका प्रतिपादन किया है जिसमें छेदोपस्थापनाकी या प्रधानता है। शेष वाईन तीर्थंकरोने केवल सामायिक चारित्रका प्रतिपादन किया है। यहांपर यह स्पष्ट है कि यद्यपि वर्तमानकालके २४ तीर्थक्रोके धर्मोपदेशके मूल भादमें कोई विशेप अन्तर नहीं था । परन्तु उनके विधायक क्रममे भेद अवश्य था । और यह क्यो था? इसका उत्तर यही है कि समय प्रभावकी वजहसे यह भेद था। यही बात श्री वट्टकेराचार्य निम्न दो गाथाओमें बतलाते है:'आच वखविभजि, विण्णा, चावि सुहदरं होदि । एदेण कारणेण दु महबदा पच पण्णत्ता ॥ ३३ ।। आदीए दुन्धिसोधणे णिहणे तह मुछ दुरणुपालेया। पुरिमाघ पच्छिमा विहु कप्पाकप्पं ण जाणंति ॥ ३४॥"
अर्थात्-'पांच महाव्रतो (छेदोरस्थापना)का कथन इस वनहसे किया गया है कि इनके द्वारा सामायिका दूसरोंको उपदेश देना, स्वय अनुष्ठान करना पृथक् रूपसे भावनामें लाना सुगम होजाता है और अतिम तीर्थ में शिष्य जन कठिनतासे निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे अतिशय वक्र-स्वभाव होते हैं। साथ ही
१-जैनहितैषी भाग १२ अक ७-८ पृ. ३२५-३२६ ।
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२४४]
भगवान पार्श्वनाथ । इन दोनो समयों के शिष्य स्पष्ट रूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते है । इसलिये आदि और अन्तके तीर्थमे इस छेटोपस्थापनाके उपदेशकी जरूरत पैदा हुई है। यहा यह भी दृष्टव्य है कि आचाचने न० ३३ की गाथामें छेदोक्स्थापनाके लिये पंच महाव्रत शब्द व्यवहृत किया है । वास्तवमें छेडोपस्थापनाकी संज्ञा पंचमहाव्रत भी है और इसमें हिसादिक भेदसे समस्त सादद्य कर्मका त्याग करना पड़ता है । श्रीभट्टाकलकदेव अपनी ' तत्त्वार्थ राजवार्तिक ' में यही लिखते है, यथा"सावयं कर्म हिंसादिभेदेन विकल्पनिहात्तिः छेदोपस्थापना।"
तथापि उन्होंने सामायिककी अपेक्षा व्रत एक ही कहा है और छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा उसके पाच भेद किये हैं. जैसे'सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एकं व्रतं । भेटपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम् ॥"
अस्तु, इस शास्त्रीय उल्लेखसे हमारे पूर्वोक्त वक्तव्यका समर्थन होता है । श्री वट्टकेरस्वामी इन गाथाओंसे कुछ अगाडीवाली गाथाओ द्वारा भी इसी भावको स्पष्ट करते है। वह तीर्थंकरोंका और भी शासन भेद वदलाते हैं । लिखते हैं --- 'सपडिक्कमणो धम्मो पुरिसस्सय पच्छिमस्स जिणस्स । अवराह पडिकम्मणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥७-१२२॥ जावेद अप्पण्णो वा · अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावेदु पडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२६॥ इरिया गोयर सुमिणादि सचमाचरद मा व आचरद । पुरिम चरिमादु सच्चे सव्वे णियमा पडिक्कमदि ॥१२७॥
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२४५ अर्थात-'पहले और अंतिम तीर्थंकरका धर्म अपराधके होने और न होने की अपेक्षा न करके प्रतिक्रमण सहित प्रवर्तता है । पर मध्यके वाईस नीर्थकरोका धर्म अपराधके होने पर ही प्रतिक्रमणका विधान करता है, क्योंकि उनके समय में अपराधकी बाहुल्यता नहीं होती। मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके समयमें जिस व्रतमें अपने या दूसरोंके अतीचार लगता है उसी व्रत सम्बन्धी अतीचारके विषयमें प्रतिक्रमण किया जाता है । विपरीत इसके आदि और अन्तके तीर्थंकरों ( ऋषभ और महावीर ) के शिष्य ईर्या, गोचरी और स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए समस्त अतीचारोका आचरण करो या मत करो उन्हें समस्त प्रतिक्रमण दंडकों का उच्चारण करना होता है। आदि और अन्तके दोनों तीर्थकरोंके शिष्यों को क्यो समस्त प्रतिक्रमण दंडकोका उच्चारण करना होता है और क्यों मध्यवर्ती तीर्थकरोंके शिष्य उनका आचरण नहीं करते है ? इसके उत्तरमें आचार्य महोदय लिखते हैं:=
" मज्झिमयादिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खाय । तम्हादु जपाचरंति तं गरहंता विसुज्ज्ञंति ॥ १२८ ।। पुरिम चरिमाद् जम्हा चलचित्ता चेव मोहलत्वाय । तो सब पडिक्कमणं अंघलय घोड-दिह्रतो ।। १२९ ॥" ___ 'अर्थात-मध्यवर्ती तीर्थंकरोके शिष्य विस्मरणशीलतारहित दृढबुद्धि, स्थिरचित्त और मृढतारहित परीक्षापूर्वक कार्य करनेवाले होते हैं । इसलिए प्रगट रूपसे वे जिस दोष का आचरण करते हैं उस दोषसे आत्मनिन्दा करते हुए शुद्ध हो जाते है । पर आदि
और अन्तके दोनो तीर्थंकरोंके शिप्य चलचित्त और मूढमना होते है। शास्त्रका बहुत बार प्रतिपादन करनेपर भी उसे नहीं
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२४६] भगवान पार्श्वनाथ । जानते। उन्हें क्रमश. ऋजु-जड़ और वक्र-जड़ सम्झना चाहिये । इसलिए उनके समस्त प्रतिक्रमण दडकों के उच्चारणका विध न बतलाया गया है और इस विषयमें अंधे घोड़ेका दृष्टात दिया गया है।' *
इस शास्त्रीय उद्धरणसे स्पष्ट है कि भगवान महावीर और भगवान पार्श्वनाथने अपने धर्मोपदेशमें चारित्रनिरूपण एक दूसरेसे विभिन्न रीतिपर किया था। भगवान पार्श्वनाथ का चारित्रनिरूपण सामायिक सयम और कृत अपराधके प्रतिक्रमणरूप हुआ था और भगवान महावीरने उसका निरूपण प्रथम तीर्थकरकी भांति छेदोपस्थापना अथवा पचमहाव्रत और सर्वथा समस्त प्रतिक्रमण दंडकका उच्चारण करनेरूप किया था। यह एक ऐतिहासिक घटना है, जिसका उल्लेख वट्टकराचार्य ने किया है और इसमें समयप्रवाह ही मुख्य कारण है किन्तु इससे मोक्षप्राप्ति के मूल उद्देश्य और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय मार्ग में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है । वह ज्योंका त्यों रहा है, इसलिये यह कहा जासत्ता है कि दोनों तीर्थकरोके उपदेशक्रममें कुछ भी अन्तर नहीं था। मूल सिद्धातोंमें कभी भी कोई अन्तर नहीं पड सक्ता है । यही कारण है कि अगाध जैन साहित्य में कहीं भी प्राय ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है जिससे एक तीर्थक्करका उरदेश दुसरेके विरुद्ध प्रमाणित हो। इस अवस्था में यह स्वीकार किया जाता है कि निम जैनधर्मका प्रतिपादन भावान महावीरने किया था और जो आज हमें प्राप्त है वही धर्म पार्श्वनाथकी दिव्यध्वनिमे निरूपित हुआ था। आजटलके
• जनहिनपी भाग ५. अक -८ पृ. ३०६-१२७
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२४७ प्राच्यविद्याअन्वेषकोको भी यही व्याख्या यथार्थ प्रतीत हुई है। उनमेंसे एकका कथन है कि 'इम ही प्रकारके अथवा इससे मिलने हुए प्रकारके धर्मके मुख्य विचार महावीरस्वामीके पहले भी प्रवर्तते थे, ऐना माननेमे भी कोई बाधा नहीं आती। मूल तत्वोंमें कोई स्पष्ट फर्क हुआ, ऐसा मानने का कोई कारण नजर नहीं आता और इसलिये महावीरस्वामीके पहले भी जैन दर्शन था, ऐसी जैनोकी मान्यता स्वीकार की जासक्ती है। ..इसके लिये हमारे पास कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, परन्तु साथ ही इसके विरुद्ध भी कोई प्रमाण नहीं है । जैनधर्म का स्वरूप ही इस बातकी पुष्टि करता है, क्योंकि पुद्गल के अणु आत्मामें कर्मकी उत्पत्ति करते हैं, यह इसका मुख्य सिद्धान्त है और इस सिद्धान्त की प्राचीन विशेघताके कारण ऐमा अनुमान किया जाता है कि इसका मूल ई . सन के पहले ८वी-९वी शताब्दिमे है ।" अतएव भगवान पार्श्व नाथने भी ऐसा ही धर्मोपदेश दिया था, जैसा कि आज जैनधर्ममें मिलता है, यह मान लेना युक्तियुक्त है।
श्वेताम्बर शास्त्रों के कथनसे भी हमारे उपरोक्त मन्तव्यमे कुछ बाधा नहीं आती है । उनका भी कथन दिगम्बर जैनशास्त्रोके अनुसार इस व्याख्याकी पुष्टि करता है कि मूलमें सब तीर्थंकरोंका धर्म एक समान होता है, परन्तु समयानुसार उनके प्रतिपादन क्रममें अथवा चारित्र नियमोमें कुछ अन्तर पड सक्ता है, यद्यपि वह मूल
xGlassenapr, Ephemernds Orientales No. 25, P. 13 & Cambridge History of India-Ane. India. Vol. I. P. 154. १-जैनजगत वर्ष १ ।
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__२४८ भगवान पार्श्वनाथ ।
भावके प्रतिकूल और उमको मेटनेवाला नहीं होता है। श्वेताम्बरोंके 'उत्तराध्ययन सूत्र में ऐपा ही वर्णन हमें 'केशी और गौतम 'के सम्बादरूपमें मिलता है । वे शी श्रीपार्श्वनाथनीकी शिष्य परम्पराके एक आचार्य हैं और गौतम भगवान महावीरनीके प्रधान गणधर है । इन दोनों महानुभावोंका संघमहित आकर श्रावस्तीके उद्यानों में ठहरना और फिर परम्पर समाधान करना बताया गया है । वहां लिखा है:
"पुच्छ भन्ते जहिच्छन्ते केसिं गोयममनवी। तओ केसी अणुन्नाए गोयमं इणमब्बवी ।। २२ ।। चाउजामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणी ॥ २३ ॥ एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं तु कारणं । धम्मे दुबिहे मेहावि कह विप्पञ्चओ न ते ॥ २४ ॥ तओ केसि बुवन्तं तु गोयमो इणमव्ववी । पन्न समिक्खए धम्मनत्तं तत्तविणिच्छियं ॥ २५ ॥ पुरिमा उज्जजडा र वंकनडा य पच्छिमा। मज्ज्ञिमा उज्जुपन्ना उतेण धम्मे दुहा कए ॥ २६ ॥ पुरिमाणां दुबिसोझो उ चरिमाणं दुरणुपालो। कप्पो माझमगाणं तु मुविसोज्यो मुपालो ।। २७ ।। साहु गोयम पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो।"
इसका भाव यही है कि ऋप केशीने गौतमगणघरसे पूछा या कि यह क्या कारण है जब कि दोनों तीर्थरोके धर्म एक ही उद्देश्य के लिए हैं तब एक चार व्रत और एकमें पाच बताये गये
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भगवानका धर्मोपदेश! [२४९ हैं । भगवान पार्श्वनाथनीने 'चाउज्जाम' धर्म मुख्य बतलाया था __ और भगवान महावीर 'पंचमहाव्वय' का प्रतिपादन करते हैं। इस‘पर गौतम गणधर यह उत्तर देते बतलाये गये हैं कि 'बुद्धि धर्मके सत्यको और यथार्थ वस्तुओको पहिचानती है । पहलेके ऋषि सरल थे परन्तु समझके कोता थे और पीछे के ऋषि अस्पष्टवादी और समझके कोता (Slow) थे, किन्तु इन दोनोके मध्यके सरल और बुद्धिमान् थे । इसलिये धर्मके दो रूप हैं । पहलेके मुश्किलसे धर्म व्रतोंको समझने थे और पीछेके मुशकिलसे उनका आचरण कर सके थे, परन्तु मध्यके उनको सुगमतासे समझते और पालते थे।'' यहां भी वही भाव है। समय प्रवाहले प्रभावको व्यक्त किया गया है, यद्यपि धर्मके मूलभावको बुद्धि नहीं भुलाती है यह स्पष्ट कह दिया गया है । दिगम्बराचार्य के उपरोक्त वक्तव्यके अनुसार यहां भी भगवन् महावीरके चारित्र धर्मका प्रति पादन " पांच महाव्रत " रूप बतलाया गया है। और वह मध्यके २२ तीर्थंकरोंके निरूपण क्रमसे उन्हीं कारणोवश विभिन्न बतलाया है, जिनको दिगम्बराचार्यने प्रकट किया है। यहांपर यदि अन्तर है तो सिर्फ ' चातुर्यामधम' का प्रतिपादन भगवान पार्श्वनाथ द्वारा बतलाने में है। दिगम्बराचार्य भगवान पार्श्वनाथ एवं मध्यके अन्य तीर्थकरोंका धर्म सामायिक-संयमरूम वतलाते हैं और श्वेताम्बरमूत्र में वह चार प्रकारका बतलाया गया है। श्वे० के मूलसूत्र में इस 'चातुर्याम' शब्दकी कुछ भी व्याख्या नहीं की गई है, परन्तु उपरान्तके श्वेताम्बर टीकाकार उमका भाव
१-जैनमूत्र (SB E ) भाग २ पृ. १२२-१२३ ।
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२५० ] भगवान पार्श्वनाथ । अहिंसा, अचौर्य, सत्य और अपरिग्रह व्रतरूप करते है। इस ३०दका भाव मूलमे इसी रूप था, इस बातको प्रकट करने के लिये कोई प्रमाण उपलव्य नही है । हां, यह अवश्य है कि बौद्वशास्त्रोमें भी इमी चतुर प्रकारके धर्म का निरुपण मनमाधुओके संघमें किया हुआ मिलता है परन्तु वहा उसके भाव अहिंसादि चार व्रतोंके रूप में नही बताये गये है, बलिक दिगम्बर सादायके प्रख्यात आचार्य श्रीसमन्तभद्रस्वामीके निन्न श्लोकसे उसका सामञ्जस्य ठीक बैठ जाता हुआ वहा मिलता है:'विषयाशावगातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतोरक्तस्तप वी स प्रशस्यते ॥ १०॥'
इस ३लोकमे तपस्वी अथवा मुनि वह बतलाया गया है जो विषयोंकी आगा और आकाक्षाने रहित हो, निराम्भ हो, अपरिग्रही
और जन ध्यानमय तरको धारण किये हुये तपोग्न ही हो । यहां निग्रंथ मुनिके चार ही विशेषण गिनाये गये हैं और यह ठीक वैसे ही है जैसे कि बौद्वशास्त्र में बताये गये है । बौद्धशास्त्र में यह उल्लेख साधु अवस्था ( सामन्न फल) को वि वेव मतोके अनुसार प्रगट करते हुये आया है। इसलिये यहार ऋपियो की दशाको स्पष्ट करनेका मात्र है और इसी भाव में ऋपियोंझे चार विशेषण दिगंबर जैनाचार्यने उक्त प्रकार गिनाये हे । अतएव निनय धर्ममें चातुर्याम धर्मका भाव उक्त प्रकार था, यह वौद्वशास्त्रके उल्लेखसे स्पष्ट है। इसका विषद विवेचन हमने अन्यत्र प्रगट किया है। अतएव
१-दीवनिकाय ( P. T. S ) भाग १ पृ० ५७-५८ । २-देखो * भगवान महावीर और म० बुद्ध' का परिशिष्ट ।
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भगवानका धर्मोपदेश !
[ २५१ भगवान पार्श्वनाथी सम्बन्धमें भी इस शब्दका भाव इस रूपमें ही व्यक्त करना विशेष युक्तियुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि भगवान् पार्श्वनाथजी के समय में भी ब्रह्मचर्य धर्मकी आवश्यक्ता बेढब थी, यह हम पहले देख चुके है । जिस प्रकार कहा जाता है कि भगवान् महावीरजी के समय में साधुओंमें ब्रह्मचर्यकी शिथिलता देखकर उसका अलग निरूपण करना आवश्यक होगया था उसी तरह वह आवश्यक्ता भगवान् पार्श्वनायजीके समय में भी कुछ कम नहीं थी । इस दशा में श्वे ० सूत्रकी इस घटनाकथाका परिचय ठीक नहीं बैठता है | श्री समतभद्राचार्य के बताये हुये विशेषणरूप चातुर्याम धर्म पार्श्वनाथजी और महावीरजी दोनों ही तीर्थंकरोंके शासन में मिलता प्रगट होता है । फिर यहां अंतर कुछ भी नहीं रहता है और इस हालत में उक्त खे कथनका कुछ भी महत्व शेष नहीं रहता ! यह सामान्य रीति से कुछ अटपटाता मालूम होता है; परन्तु श्वे० आगमग्रन्थोके संकलन - क्रमको ध्यान में रखने से इसमें संशय अथवा विस्मय करनेको कोई स्थान शेष नहीं रहता ! उन्होंने अपने सैद्धांतिक भेदको स्पष्ट करनेके लिये अनेक पूर्वापर विरोधित उल्लेख किये हैं। खासकर उन्होंने बौद्धों के साहित्यको अपना आदर्शसा माना है । यही कारण है कि श्वे ० सूत्रग्रन्थों में बहुत कुछ बौद्ध ग्रन्थोसे लिया हुआ आज मिल जाता है । और इस
०
१ दिगम्बर जैन ' वर्ष १९ अक ९ से प्रकट हमारी 'श्वेतावर 'जैनोंके आगमग्रन्थ ' शीर्षक लेखमाला तथा दी हिस्ट्री ऑफ प्री० बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० ३७५-३७७ २ जाले चारपेन्टियर. उत्तराध्ययनसूत्रकी भूमिका और नोट ।
४
<
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२५२ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
अवस्था में यह कोई अनोखी बात नहीं है, यदि श्वेतांबराचार्यने चौद्ध ग्रन्थमें चातुर्याम सिद्धातका उल्लेख देखकर उसको अपने शास्त्र में स्थान दिया हो । अगाड़ी जो भगवान् पार्श्वनाथजीको वस्त्र चारण करते हुये बतलाया है, उससे यही प्रमाणित होता है कि यहां पर वास्तविक घटनाका उल्लेख नहीं किया जारहा है, क्योंकि यह स्वतंत्र साक्षी द्वारा प्रमाणित है कि भगवान् पार्श्वनाथ भी दिगंचर वेषमें रहे थे; जैसे कि हम अगाड़ी दखेंगे । तिमपर उक्त वे ० सूत्र में गौतम गणधर को अलग संवसहित एकाकी विचरते प्रगट किया -गया है | वहां भगवान् महावीर का कुछ भी उल्लेख नहीं है, किन्तु यह प्रकट है कि भगवान महावीर संघपहित विहार करते थे और उनके प्रधान गणधर गौतमस्वामी सदा ही उनके साथ रहते थे । ० के सूत्रकृताङ्ग (२/६) गोशालने इसी वातको लक्ष्य करके भगवान महावीरपर आक्षेप किया है | श्वेताम्बरोंके उवासँग दमाओं के ग्रन्थसे भी भगवान संघ में गौतम गणधरा साथ रहना प्रमाणित है । अतएव यह किप तरह पर संभव हो सक्ता है कि गौतमस्वामी अकेले ही केशी ऋषिको श्रावस्ती में मिले हों ? इस दशा में श्वे ० सूत्रके उक्त कथनको यथार्थ सत्य स्वीकार करलेना जरा कठिन है; परन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि उसका आधार एक ऐतिहासिक तथ्य है जो भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के धर्ममें एक सामान्य अन्तर प्रगट करता है । अस्तु;
'उत्तराध्ययन सूत्र में अगाडी बहुतसे छोटे मोटे मतभेदों का उल्लेख किया गया है, जिनमें मुख्य मुनिलिङ्ग विषयक है । शेषमें प्रतिनग्ण संबंधर्मे वहां कहीं भी कुछ उल्लेख नहीं है । इस मुनिलिङ्ग
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भगवानका धर्मोपदेश !
[ २५३ विषयक उल्लेखका विवेचन हम अगाड़ी भगवान् महावीरजीका संबध प्रगट करते हुये करेंगे। किंतु अपने विषयको स्पष्ट करनेके लिये उस उद्धरणको यहीं देदेना हम आवश्यक समझते हैं, जिससे पाठकों को तीर्थकरों के धर्मोपदेश संबंधी हमारी प्रारंभिक व्याख्याकी सार्थकता और भी स्पष्ट हो जावेगी । उत्तराध्ययन सूत्रमें लिखा है :
"अन्नो वि संसओ मज्झ तं मे कहंतु गोयमा ॥ २८ ॥ अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो । देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा ॥ २९ ॥ एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी कहं विप्पञ्चओ न ते ॥ ३० ॥ केसिमेवं बुवाणं तु गोयमो इणमब्ववी । विन्नाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं ॥ ३१ ॥ पच्चयत्थं च लोगस्स नारभाविह विगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगपोषणं ॥ ३२ ॥ अहभवे पन्ना उ मोक्खसन्भूय साहणा । नाणं च दंसणं चेत्र चरितं चेत्र निच्छए ।। ३३ ॥ यहा केशीश्रमण गौतम गणधर से यह पूछने बताये गये हैं कि 'वर्द्धमानस्वामी धर्ममें वस्त्र पहनना मना है और पार्श्वनाथजीके धर्ममें आभ्यन्तर और बहिर वस्त्र धारण करना उचित है । दोनों ही धर्म एक उद्देश्यको लिये हुये हैं फिर यह अन्तर कैसा ?” गौतम गणधर उत्तर में कहते हैं कि 'अपने उत्कृष्ट ज्ञानसे विषयको निर्धारित करते हुए तीर्थंकरोंने जो उचित समझा सो नियत किया । धार्मिक पुरुषोंके विविध बाह्य चिन्ह उनको वैसा समझने के लिये
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२६४] भगवान पार्श्वनाथ । बताये गये हैं। लक्षणमय चिन्होंका उद्देश्य उनकी धार्मिक जीवनमें उपयोगिता है और उनके स्वरूपको प्रकट करना है । अब तीर्थकरोंका कथन है कि सम्यक्ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्षके कारण हैं (न कि बाह्य चिन्ह)।" केशीश्रमण इस उत्तरसे संतोपित होनाते हैं । इस घटनामे भी ऐतिहासिक सत्यको पाना जरा कठिन है, यद्यपि आनकल इतिहासज्ञ इसी मान्यतासे पार्श्वनाथजीकी शिष्य परम्पराको वस्त्रधारी प्रकट करते हैं, किन्तु हम अगाड़ी देखेंगे कि बात वास्तवमें यू नहीं है । जैन मुनियोका भेष प्राचीन कालमे भी नग्न ही था । यहापर जिस सरलतासे इस गंभीर मतभेदका समाधान किया गया है, यह दृष्टव्य है। उस जमाने में जबकि सेद्धान्तिक वादविवादका संघर्ष चर्मसीमापर था तब इस मतभेदका राजीनामा उस सरल ढंगसे होगया होगा जैसा कि उक्त, श्वे० सूत्र में कहा गया है, यह कुछ जीको नहीं लगता है । फिर भी जो हो, इससे हमारे कथनकी पुष्टि होती है कि समयप्रवाहका प्रभाव सामान्य घार्मिक क्रियायोमे अन्तर लासक्ता है । भगवान् पाश्वनाथ और भगवान महावीरजीके धर्मोपदेशके मध्य जो अन्तर था वह हम ऊपर देख चुके है और उससे यह स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित धर्म भी प्रायः वैसा ही था, जैसा कि आज हमें मिल रहा है । अस्तु,
भगवान पार्श्वनाथजीने अपने धर्मोपदेश द्वारा उस समयके सदान्तिक वातावरणको प्रौढ़ बना दिया था। साधरण जनता लौकिक और पारलौकिक दोनो ही वातोमें पराश्रित हो रही थी। लौकिक
१ जनमूत्र (S B. E) भाग २ पृ० १२३
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२५५ बातोंमें ब्राह्मणवर्ण अपनी प्रधानताका सिक्का जमाये हुये था, यह हम देख चुके हैं । साथ ही यह भी जान चुके हैं कि ईश्वरवादका बोलबाला उस समय होरहा था और जनता पारलौकिक बातोंमें भी पराश्रित बनी हुई थी। लोगोको विश्वास था कि जगतमें जो कुछ क्रिया होरही है वह ईश्वर आज्ञाका फल है तथापि विप्र लोगोंकी सहायतासे यज्ञ आदि रचकर इतना पुण्य कमा लेना इष्ट होता था कि जिससे प्रभु प्रसन्न होकर उन्हें स्वर्गसुखका स्वामी बना दें। इसीमें पारलौकिक धर्मकी इतिश्री साधारण जनताके लिये हो जाती थी और लौकिक धर्म में येनकेन प्रकारेण पुत्र-मुखके दर्शन कर लेना आवश्यक होरहा था। यहां ब्रह्मचर्य धर्म का प्रायः अभाव ही था, साधारण जनता इस दशासे पूर्ण संतोषित नहीं थी, यह भी हम देख चुके हैं। अस्तु, इस अवस्थामें लोगोंको पराश्रिताके दुःखदाई पंजेसे निकालना आवश्यक था । परावलम्बी होना हरहालतमें बुरा है, भगवान पार्श्वनाथजीके धर्मोपदेशसे लोगोंको यह बात बिल्कुल हृदयंगम होगई थी।
भगवान पार्श्वनाथने कहा था कि यह लोक अनादिनिधन है । न भी इसका प्रारंभ हुआ और न कभी इसका अन्त होगा, यह जैसा है वैसा ही रहेगा। परंतु इसमें परिवर्तन होते रहते हैं । इन परिवर्तनों में एक पर्याय-हालतकी उत्पत्ति, उसका अस्तित्व और दूसरीका नाश होता रहता है । इसतरह इस लोकमें कोई भी वस्तु स्थाई नहीं हैं। सब ही परिवर्तन शील हैं, अस्थिर हैं, पानीके बुदबुदेके समान नष्ट होनेवाली है , इसलिये इस परिवर्तनशील संसारके मोहमें पड़ा रहना ठीक नही हैं।
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२५६] भगवान पार्श्वनाथ । जीव नित्य है । वह अनादिकालसे इस संसारके झूठे मोहमें पड़ा हुआ दुःख भुगत रहा है । परपदार्थ जो पुद्गल है उसके संबन्धमें पड़ा हुआ यह जीव एक भवका अन्त करके दूसरे में जन्म लेता है। इस तरह यद्यपि संसारमें वह जन्म-मरणरूपी परिभ्रमणमें पड़ा रुलता रहता है, परतु वह मूलमें अपने स्वभावसे च्युत नहीं होता है।' वह अपने स्वभावमें अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य रूप है; कितु पौद्गलिक सम्बन्धके कारण उसके यह स्वाभाविक गुण जाहिरा प्रगट नहीं रहते हैं । वह उसी तरह छुप रहे हैं जिस तरह गंदले पानीमें उसका निर्मल रूप छुप जाता है । इस तरह जीव और पुद्गल अर्थात् अनीवकी मुख्यतासे ही इस लोकमें विविध अभिनय देखनेको मिल रहे हैं। अनीव पदार्थ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल रूप हैं। पुद्गल स्पर्श, रूप, रस, गंधमय है और इसका जीवसे कितना घनिष्ट संबंध है, यह ऊपरके कथनसे प्रकट है । यह अनंत है और अणुरूप है । धर्म और अधर्म द्रव्योका भाव पुण्य-पाप नहीं है। यह एक स्वतत्र प्रकारका पदार्थ है जो जीवको क्रमसे चलने और ठहरनेमें सहायक है । जिप्त तरह पानी मछलीकी सहायता करता है उसी तरह धर्म द्रव्य जीवकी गतिमें सहायक है और जैसे वृक्षकी छाया
१ वान्दो 'ब्रह्मजालसुत्त में प्राचीन श्रमणोंका ऐमा ही श्रद्धान वतलाया गया है। वहा लिखा है कि अमणोंके अनुसार 'जीव नित्य है; लोक किसी नवीन पदार्थको जन्म नहीं देता है । वह पर्वतकी भाति स्थिर है । यद्यपि जीव ससारमें परित्रमण करते है तो भी वे हमेगा
सके पैसे रहते है। यह उल्लेख भगवान पाश्वनाथके सम्बन्धमें है। इसके लिए देखो भगवान महावीर और म० दुद्ध पृ० २२० ।
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भगवानका धर्मोपदेश !
[ २५७ वटोहीको प्रिय है वैसे ही अधर्म द्रव्य जीवको स्थिर रखने में सहायता देती है । आकाश द्रव्य अनंत है और इसका कार्य जीवादि द्रव्योंको अवकाश देना है और कालद्रव्य भी एक स्वतंत्र और अखंड द्रव्य है जो पर्यायोंमें अन्तर लाने में कारणभूत है । इस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छह द्रव्य इस लोकको वेष्टित किये बतलाये गये हैं । प्रधानतया जीव और अजीव ही ये सब गर्भित हैं । और संसारी आत्मा के उल्लेखसे इन दोनों द्रव्योंका बोध एक साथ होता है । अतएव भगवान् पार्श्वनाथने स्वयं जीवको ही पूर्ण स्वाधीन बतलाया था । इस लोकका नियंत्रण किसी अन्य ईश्वर आदिके हाथमें नहीं सौंपा था और न उसके द्वारा इस लोकको सिरजते और नाश होते बतलाया था । स्वयं जीवात्मा ही अपने कर्मोंसे संसार दुःखमें फंसा हुआ है और वही अपने सतप्रयत्नों द्वारा इस दुःखबन्धनसे मुक्त होसक्ता है । परावलम्बी होने की जरूरत नही है । सचमुच इस प्राकृत उपदेशका असर उससमय लोगों पर खासा पड़ा था । सबही को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये इस प्राकृत संदेशके अनुरूप किंचित् अपने सिद्धान्तों को बना लेना पड़ा था और बहुतेरे लोग तो स्वयं भगबान्की शरण आगये थे, यह हम अगाड़ी देखेंगे | भगवानका उपदेश प्राकृत रूपमें यथार्थ सत्य था, वह अगाध था और एक विज्ञान था । यहापर उसके सामान्य अवलोकन द्वारा एक झांकी - भर लगाई जाती है । पूर्ण परिचय और उसका पूर्ण महत्व जाननेके लिये तो अतुल जैनसैद्धान्तिकग्रंथों का परिशीलन करना उचित है । अस्तु
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__ २५८] भगवान पार्श्वनाथ ।
भगवानके उस स्वाधीन संदेशका समुचित आदर हुआ । उस समय लोग यह जाननेके लिये उत्सुक हो उठे कि आखिर संप्तारमोहमें फंसा हुआ यह जीव किसतरह सुख-दुख भुगतता
है । इसके भले-बुरे कार्योका फल सुख दुखरूपमें क्योकर मिल ___ जाता है ? कोई बाह्यशक्ति तो ऐसी है नहीं जो इसे सुख-दुख __ पहुंचाती हो और यह सुख-दुखका अनुभव करता ही है।
इसका भी कोई कारण होना चाहिये ! भगवान पार्श्वनाथके निकटसे उनकी इस शंकाका समाधान होगया था । भगवानने बतला दिया था कि इस लोकमें एक ऐमा सुक्ष्म पुद्गल (Matter) मौजूद है, जो संसारी जीवात्माकी मन, वचन, कायरूप क्रियाकी प्रवृत्ति, निसको कि योग कहते हैं, उसके द्वारा उसकी ओर आकर्षित होकर कषायादिके कारण उससे संबंधित होजाता है । यही उसे सुख और दुखका अनुभव कराता है । जीवात्मा अनादिसे इस पुद्गलके संबंधमें पड़ा हुआ है और इसके मोहमें पड़ा इच्छाका गुलाम बन रहा है। इस इच्छा राक्षसीके फरमानोंके मुताबिक उसे अपने मन, वचन और कायको प्रगत्तिगील बनाना पड़ता है, जिसके कारण सूक्ष्म पुद्गलपरमाणु उसमें उसी तरह आर चिपट जाते हैं जिस तरह शरीरमें तेल लगाये हुये मनुप्यकी देहपर मिट्टी स्वयं आकर जकड़ जाती है। जीवात्माकी मन, वचन और कायरूप क्रिया मुख्यत. क्रोध, मान, माया, लोभरूप होती है । वप्त जितनी ही अधिस्ता और तीव्रता इन क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषायोके करनेमें होती है उतने ही अधिक और तीव्र रूपसे सूक्ष्म पुढ़ल परमाणुओं, जिनको कर्मवर्गणायें कहते हैं, का आगमन उसमें होता है और उतना ही
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भगवानका धर्मोपदेश ! [ २५९ अधिक और तीव्र उसका संसार बंधता है । यदि कोई व्यक्ति बहुत 1 ही मन्दकषायी है तो सचमुच ही उसका भविष्य किचित् सुखमय है और इसके बरक्स जो व्यक्ति बहुत ही उग्ररूपमें कषायों में लीन है तो उसके लिये अगाडी दुःखों की जलती भट्टी तैयार है । - इसलिये यह जीवात्मा के ही आधीन है कि वह चाहे अपने जीवनको सुखरूप बनाले अथवा उसे दुःखोसे तप्तायमान एक ज्वाला- मुखी में पलट दे । किन्तु उसे यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि इस संसार में वह पूर्ण सुखी नहीं बन सक्ता है । धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य उसे निराकुल सुखको नहीं दिला सक्ते हैं । स्त्री, पुत्र और चंधुजन उसे सच्चे सुखका अनुभव नही करा मक्ते हैं । लोकमें कोई ऐसा पदार्थ नही है जो उसे स्थाई सुखका रसास्वादन करा सके ! जब कभी हम किसी कारण से आनंदमग्न होजाते हैं, तो यही कहते हैं कि 'आज हमने अपने आपका खूब आनंद लूटा ।' (We well enjoyed ourselves) यह उद्गार साफ कह रहा है कि हमारे बाहिर कही भी आनंद अथवा सुख नही है ! हम कहते हैं कि बढिया मिष्टान्न या सोहनहलुएमें बड़ा आनंद है, उसके खानेसे हमें आनंद मिलता है, परन्तु यह झूठा ख्याल है । न तो सोहन हलुए में आनन्द है और न उसके मीठार स्वाद लेने में कुछ सुख है । कितना भी खा लीजिये, पर उससे तृप्ति नही होती कि फिर उसको कभी न खानेके लिये तबियत न चले। फिर सोहनहलुआ सबको अच्छा भी नहीं लगता, कोई २ उसके नाम से चिढ़ते हैं तो फिर भला सोहनहलुए में आनन्द कहा रहा ? यदि उसका गुण आनंदरूप है तो सबको ही उसमें आनंद मिलना
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२६०] भगवान पार्श्वनाथ । चाहिये, किन्तु सबको समान रीतिसे उसमें आनंद नहीं मिलता। इसी तरह पान भारतीयोंको बडा प्रिय है । उसको खानेसे उनको आनंद मिलता है, परन्तु यूरो पेयन लोग उसको एक बहुत बुरी चीन समझते हैं फिर वह आनन्ददायक वस्तु कहां रही ? रोगी मनुप्यको वही मिष्टान्न कडुआ मालूम देता है जिप्तको वह पहले बड़े चावसे खाता था । इन प्रत्यक्ष उदाहरणोंसे यह स्पष्ट है कि बाह्य पदार्थोंमें सुख अथवा आनन्द नहीं है । साथ ही जरा और विचार करनेसे यह भी विदित होनाता है कि इंद्रियजनित विषयोंकी तृप्ति करनेमें भी सुख नहीं है । लोग कहते है कि मिठाई खानेमें बड़ा आनन्द मिलता है। दूसरे शब्दो रसना इंद्रियकी मना लूटनेमें आनन्द मिलता खयाल किया जाता है, परन्तु यहां भी भुलावा है । जिस समय हम किसी गहन चितामें व्यस्त होते है तो हमें रसना इद्रियका मजा तृप्त नहीं कर सकता है। हम उस विचारमग्न दशामें यह नहीं जान पाते हैं कि हमने क्या और कितना खा लिया है । यह क्यों होता है ? यदि रसना इंद्रियमें आनन्द देने या सुखी बनाने की शक्ति होती तो वह हरसमय आनददायक होना चाहिये थी ? परन्तु प्रत्यक्ष ऐसा नहीं होता है । जबतक जीवात्माका उपयोग उस इंद्रियकी क्रिया में लीन रहता है तब ही तक उसे आनन्द जैमा अनुभव होता है। इमलिये कहना होगा कि इन्द्रियननित विषयवासनाओंमें भी सुख नहीं है । सुख स्वयं हमारे भीतर है-हममें है-हमारी उपयोगमई मान्मामें है । अतएव सच्चा सुख पानेके लिये हमको सव ही ऐसे सम्बन्धोंको त्याग देना आवश्यक है जो जीवात्माके स्वभावके प्रति
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भगवानका धर्मोपदेश! [२६१ कूल हैं, और इन परसम्बंधोंको त्याग देना उसी तरह संभव है जिस तरह देहपर चिपटी हुई मिट्टीको अलग कर देना सम्भव है। नाइट्रोजन और हाइड्रोजन गैसें अपने सम्बधितरूपमें अपनी असली हालतको जाहिरा गवा देती हैं, परन्तु वह अपनी स्वाभाविक दशा में उसे फिर प्राप्त कर लेती हैं। यही संसारमें रुलते हुये जीवके लिये संभव है, किन्तु यहापर एक प्रश्न अगाडी आता है कि सूक्ष्मपुद्गल कर्मवर्गणायें उसे दुःख और सुख कैसे पहुंचाती हैं ? उनसे एक साथ दो तरहकी हालत कैसे पैदा होजाती है ?
भगवान पार्श्वनाथके धर्मोपदेश में इस शङ्काका प्राकन निरसन किया हुआ मिलता है । उन्होंने बतला दिया है कि कर्मवर्गणाओंके अनेकानेक भेद हैं । जितनी ही हाल इस समारमें हो सक्ती हैं उन सबके अनुरूप कर्मवर्गणाएँ मौजूद हैं। शरीरको सिरननेवाला केवल एक नामकर्मरूपी सुक्ष्म पुद्गल ही है, परन्तु उसके अन्तरभेद भी कई हैं। हड्डियों का निर्माणकर्ता एक 'अस्थिकर्म' उसीका भेद है, किन्तु यह समय कर्मवर्गणामें मुख्यत. आठ प्रकारकी बताई गई हैं। इन्हीं के उत्तरभेद १४८ होनाते हैं और फिर वह अगणितमें भी परिगणित किये जासत है। उसके मुख्य आठ भेद इस. प्रकार वताये गए हैं:
१. ज्ञानावर्णीय कर्म-वह शक्ति है जो जीवात्माके ज्ञान गुणको आच्छादित करती है ।
२. दर्शनावर्णीय कर्म-वह शक्ति है जो जीवात्माके देखनेकी शक्ति में बाधा डालती है ।
३. अंतराय कर्म-यह आत्माके निज बलपर आच्छादन डालता है।
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२६२] भगवान पार्श्वनाथ ।
___४. मोहनीय कर्म-इसके द्वारा आत्माका श्रद्धान व चारित्रगुण विकृत होता है। यहांतक यह चारो कर्म आत्माके निजी स्वभावके विरोधक हैं, इसलिये इन चारोंको 'चार घातिया कर्म' कहते हैं।
५. वेदनीय कर्म-वह शक्ति है जिसके द्वारा ससारी नीवको सुख-दुखकी सामिग्री प्राप्त होती है ।
६ नामकर्म-वह शक्ति है जिसके द्वारा जीवात्मा विविध शरीर धारण करता है।
७. गोत्रकर्म-वह शक्ति है जिसके द्वारा जीवात्मा उच्च और नीच कुलमें जन्म लेता है।
८. और आयु कर्म-वह शक्ति है जिसके द्वारा जीवात्मा एक नियत कालके लिये मनुष्य, देव, तिथंच और नर्कगतिमें निर्वासित रहता है।
इन आठ प्रकारकी कर्मशक्तियों के कारण ही जीवात्मा संसारमें मुख-दुःख भुगतता रहता है । यह कर्म शक्तियां मनुष्यकी मन, वचन, कायकी दुरी और भली क्रियाके अनुसार ज्यादा और कम जटिल होनी रहती हैं, यह ऊपर देखा जाचुका है । जैनगास्त्रों में बड़े विस्तारसे इन कर्मशक्तियोके फल देनेका व्यौरा दिया है। तत्वार्थधिगम सूत्र और गोमट्टपारनीमें इसको इसतरह स्पष्ट कर दिया है कि मनुप्य अपना भविष्य जैसा चाहे वेसा बना सक्ता है। उमे प्रारत नियमोका प्रत्यक्ष अनुभव होनाता है, जिसके बल बह सपने आय-व्ययका लेखा बगबर मिलाता रहता है। यह कर्मवमंगाये हरक्षण जीवात्मामें आती भी रहती है और झड़ती भी
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भगवानका धर्मोपदेश । [२६३ जाती हैं क्योंकि जीवात्मा इस संसारमे किसी क्षणके लिये भी प्रतिदिन मन, वचन, कायरूपी संकल्प विकल्पोसे रहित नहीं है। यदि किसी व्यक्तिने चिढ़कर अपने विपक्षीके ज्ञानोपार्जनमे अंतराय डाल दिया, उसकी पुस्तकों को छुपाकर रख दिया, उसने वहा अपनी असत् क्रियासे अपने आत्माके ज्ञानगुणको और ज्यादा ढक लिया; क्योंकि दूसरेके ज्ञानमे बाधा डालते समय उसके परिणामोमें विकलता और कायकी असतक्रिया हुई थी, जो तद्रूप सूक्ष्मपुद्गलको अपनी ओर खींचनेमे मुख्य कारण थी। इसी तरह दूसरेके दर्शन करने में अंतराय डालना, किसीको लाभ न होने देना आदि ऐमी क्रियायें हैं जो आत्मामें दर्शनावर्णीय अन्तराय आदि कर्ममलको अधिकाधिक बढ़ाती हैं। इनके बरअक्स दूसरोको ज्ञानदान देना, पढाना, शकाकी निवृत्ति करना, छात्रवृत्ति देना, ग्रन्थोका प्रकाश करना आदि ऐसे कृत्य हैं जो ज्ञानको आवरण करनेवाली कर्मवर्गणाको क्षीण बना देते हैं और इस दशामें जीवात्माका ज्ञान अधिकाधिक प्रगट होता है। संसारमें जो कोई अधिक ज्ञानवान और कोई बिलकुल जड़बुद्धि दिखलाई पडता है उसका यही ज्ञानावर्णीय कर्मकी अधिकता अथवा कमताई कारण है। इसी तरह किसीको इष्टदेवके दर्शन करा देना, लाभके मार्गमेंका रोड़ा दूर कर देना, धर्माचरण करना आदि सकृत्य ऐसे हैं जो आत्माके निजी गुणोंको प्रगट होने देनेमें सहायक हैं। इस तरह शुभाशुभ कर्मों द्वारा आत्माकी विविध दशाएं होती हुई इस संसार में देखी जाती हैं।
भगवान्ने अपने उपदेश द्वारा प्रत्येक मनुष्यके लिये यह सुगम बना दिया है कि वह अपने प्रयत्नों द्वारा सच्चे सुखको
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२६४] भगवान पार्श्वनाथ । 'पाले और अपने देनिक मीजान रोज लगा ले । षट्लेश्यायें आत्माकी विविध दशाओका स्पष्ट दिग्दर्शन करा देती हैं। इनके कारण आत्मामें कुछ अन्तर नहीं पड़ता है। आत्मा तो मूलमें दर्शन ज्ञानमई और निरावरण है । यह लेश्यायें उसके सासारिक दशाकी हीनता और उन्नतावस्थाको बतलानेवाली हैं। यह एक कांटा है, निसंपर मनुष्य जीवन को अच्छाई और बुराई हमेशा अन्दाजी जासकती है। कुछ लोग इन षट्लेश्योंको मक्खलिगोशालके छह अभिजाति सिद्धान्तके अनुसार समझते है परन्तु यह न है । गोशाल जीवात्माओंका काय अपेक्षा विभाग करता है और उसकी सादृश्यता भगवानके बताये हुये जीवोंके षट् काय भेढसे किचित् अवश्य होती है' यह पट्लेश्या कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्लरूप वतलाई गई हैं। पहलेकी तीन तो निकृष्ट है और शेष शुमरूप है। इनका भाव समझानेके लिये जनशास्त्रोमें छह मनुष्यों का उदाहरण दिया हुआ मिलता है। कहा जाता है कि छह मनुष्य आमोंका मजा चखनेके लिये एक मित्रके बगीचे में पहुंचे। मित्र साहव बडे सन्नोपी और शानिप्रिय जीव थे। उनने वहांपर स्वतः गिरे हुये जो आम पड़े हुये थे उनको ग्रहण करके अपनी तृप्ति कर ली। इनके एक घनिष्ट मित्र जिनपर इनका प्रभाव किचिंत अधिक पड़ा हुआ था, इनहीके पास खड़े रहकर पेडको हिलार कर माम लेने लगे। इनसे हटकर एक दूमरे मित्र थे, उनको इतनेसे
१० के गानोंम बटा है कि भगवान महावीरके पिता नृप गिदार पदायरे जीवों की रक्षा ने ये । देखो प्री. बुद्धिस्टिक इन्टिन फिन्गमी ० १०६ ।
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भगवानका धर्मोपदेश ।
[ २६५ तसल्ली नही हुई और वह चटसे पेड पर चढ़ गये और उसपर से बीनर कर आमोसे अपनी झोली भरने लगे । इनके साथी इनसे भी एक कदम अगाडी बढ़ गये। उनने गुंचेदार टहनियोको तोडकर अपनी हाथ भरकी जीभकी लालसा मिटाना चाही । किन्तु इन महाशय के पड़ोसी इनसे भी बडे चढ़े निकले । उन्होंने गुद्दों को -काटकर अपनी हवश पूरी करना चाही। परन्तु उनके भी गुरु -इनके हमजोली निकल पड़े । उनने जडसे ही पेड़ को काट लेने की ठराई । इसतरह इस उदाहरणमे आये हुए व्यक्तियोंके व्यवहा र से लेश्याओका स्वरूप स्पष्ट होजाता है । पहले मित्र साहबके परिणाम शुक्ललेश्यारूप थे । वह प्राकृत रूपमें संतुष्ट थे । उनके आकांक्षाका प्रायः अभाव था । दूमरे पेड़को हिलानेवाले महाशय 'पद्म लेश्या की कोटिमें आ जाते है । इनकी तृष्णा मन्द रूपमें भड़कती कही जासक्ती है । पेड़पर चढ़कर आम तोडनेवाले महानुमावके भाव पीतलेश्या रूप थे । यहातक भी गनीमत है । यह परिणाम भी ज्यादा बुरा नहीं है । इसमें असंतोष की मात्रा सीमाको उल्लंघन नहीं कर गई है । किन्तु शेषके तीनो मनुष्यों के परिणाम निःकृष्ट है । वह सीमाको उप गये है । उनके क्रमसे कापोत, - नील और कृष्ण लेश्याका सद्भाव समझना चाहिये । इस प्रकार से ये लेश्यायें मनुष्यको उसकी दैनिक प्रवृत्तिका स्पष्ट दर्शन करा देती हैं । पीतश्यारूप यदि उसका लौकिक व्यवहार है तो भी गनीमत है | वहांतक वह मनुष्य अवश्य रहेगा और अवश्य ही - मौका पाकर पद्म और शुक्ललेश्या रूप भी अपनी दैनिकचर्या बना सकेगा । परन्तु जो व्यक्ति कापोत लेश्या में जा फंसा है, उसके
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२६६] भगवान् पार्श्वनाथ । लिये पीतलेश्यामें आना भी कठिन है। फिर भला नील और कृष्णलेश्यावालोंकी तो बात पूछना ही क्या है ? उपरकी तीन शुभ लेश्यायोंरूप जिसका जीवनव्यवहार होगा, वही अपने निजस्वरूप अर्थात् सच्चे सुखको जल्दी पा सकेगा। इसतरह भगवानका धर्मोपदेश हरतरहसे मनुष्यको स्वाधीन बनानेवाला था। उसको वस्तुका स्वरूप, सचे सुखका मार्ग और मार्गको प्रकट बतलानेवाला कुतुबनुमा जैसा यंत्र भी अच्छीतरह समझा दिया गया था। अतएव यह मनुष्यकी इच्छापर निर्भर था कि चाहे वह पराधीन बना रहे और चाहे तो स्वाधीन बनकर सच्चे सुखको पाले ।
यह बात उस समयके लोगों को भगवानके धर्मोपदेशसे विलकुल स्पष्ट होगई थी कि जीवात्मा स्वय अपने ही बलसे सच्चे सुखको पासक्ता है। इसलिये वह अपने ही आत्माका आश्रय लेना हर कार्यमे आवश्यक समझने लगे थे। स्वातंत्र्यप्रिय बनकर वह न्यायोचित रीतिसे जीवन यापन करते थे और अपना उद्देश्य सचे सुख-मोक्षधामको पाने में रखते थे। इसके लिए श्रीकुन्दकुन्दाचायके शब्डोंमें वे लोग निम्न आयको काममें लाते थे:
"जह णाम कोवि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो अत्यत्थीओ पयत्तेण ॥२०॥ एवं हि जीवराया णादव्यो तहय सद्दहे दव्यो। अणुचरिदव्यो य पुणो सो चेवदु मोक्रसकामेण ॥२॥"
॥समयसार । भाव यही है कि निसप्रकार छोई धनका लालची पुरुष रानाको नानकर उसमें श्रद्धा कर लेता है और उनकी सेवा भक्ति
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भगवानका धर्मोपदेश। [२६७ बढे प्रयत्नसे करता है उसी तरह मोक्षसुखको चाहनेवाले व्यक्तिको अपने आत्मारूपी रानाकी पहिचान करके उसमें श्रद्धा करनी चाहिये और फिर उसकी आराधना करने में लीन होनाना चाहिये। उसको जान लेना चाहिये कि आत्माका स्वभाव रागादिक भावोसे भिन्न ज्ञान, दर्शन और सुखरूप है । आत्मा अनादि, अनन्त और एक अखण्ड पदार्थ है, वह संकल्प-विकल्पसे रहित शुद्ध बुद्ध है, वह स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णसे भी रहित है, साक्षात् सच्चिदानंदरूप है । सच पूछो जो आत्मा है वही परमात्मा है-जो मै हूं सो वह है । इसलिये अन्यकी शरणमें जाना वृथा है । इसप्रकार आत्माके शुद्धस्वरूपमें श्रद्धान करके, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानको पाकरके आत्माके गुणोंमें विचरण करना श्रेष्ठ है । यही सम्यक्चारित्र है। मुक्तिका मार्ग इसी सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप है; परन्तु साधारण जीवात्माओके लिये सहसा यह संभव नहीं है कि वह एकदम इस उच्च दशाको प्राप्त कर लें। वह संसारके मोहमें फंसे हुये हैं। इस कारण उनके लिये व्यवहार मोक्षमार्गका निरूपण किया गया है, जिसपर चलकर वह निश्चय रत्नत्रय धर्मको पा लेते है। व्यवहारसे जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित सात तत्त्वों और नव पदार्थरूप धर्ममें श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है । उनका ज्ञान प्राप्त करना सम्यग्ज्ञान है और श्रीजिनेन्द्रदेवकी उपासना करना, सामायिक जाप जपना, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूप पांच पापोंसे दूर रहना आदि नियम सम्यक्चारित्र में गर्भित हैं। सामान्य जैनीको मधु-मद्य-मांसका त्याग करके उपरोक्त प्रकार अपना नीवन बनाना आवश्यक होता है। इसप्रकारका आचरण बना
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२६८ ] भगवान पार्श्वनाथ। करके वह क्रमश. उन्नति करता जाता है और इस लिहानसे उसके ग्यारह दर्ने भी नियुक्त हैं: जिनको ग्यारह प्रतिमायें कहते है। इनमें चारित्रकी शुद्धता क्रमशः बढ़ती गई है, जो आखिरमें उस मुमुशुको सचे मोक्षमार्गके द्वारपर पहुंचा देती है। पर्वतकी शिखरपर कोई भी व्यक्ति एक साथ छलांग मारकर नहीं पहुच सक्ता है । यही दशा यहां है-जीवात्मा दु खोंके गारमें पड़ा हुआ है. वह उनसे तब ही निकल सक्ता है जब अपनेको समाल कर किनारेकी ओरको पग बढ़ाता हुमा बाहरकी ओरको निकले
यहांतकके कयनसे संभव है कि यह शंकायें भी अगाडी आयें कि कमी जीवात्माको संपारमें फंसा हुआ दुःखी बताया गया है, कभी उसीको पूर्ण सुखरूप कहा है-कभी कर्मको उसके दुखका कारण बतलाया है और कभी उसको पूर्ण स्वाधीन कह दिया है । यह तो एक गोरख धंधेका सा पेच है । लोगोंको भुलावे में डालना है परन्तु वात दर असल यूं नहीं है । गम्भीर विचारके निकट ऐमी शंकायें काफर होजाती हैं। जीवात्माको स्वभावमें शुद्ध और सखरूप कहा गया है परन्तु वह अनादिकालसे संमारमें कर्माके आधीन हुआ दु.ख उठा रहा है। इसलिये वह अपने स्वभावच्चो पूर्ण प्रगट करनेमें असमर्थ है। उसकी दगा उस चिडियाकी तरह है जिसके पख सीं दिये गये हों और जो उड़ नहीं मक्ती है । परन्तु इस पराधीन अवस्थामें भी उसके उड़नेकी भक्ति मौजूद है । यदि वह प्रयत्न करके अपने बंधनोंको काट डाले तो वह अक्स उड़ सक्ती
है। यही दशा संसारमें फंसे हये जीवात्माकी है। संमारी अवस्था में _ वह स्वाधीन नहीं है ! कर्मोंकी जटिलता और निथिलताके अनु
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२६९ सार ही वह कम और अधिक रीतिसे अपनी स्वाधीनताका उपभोग कर सक्ता है; परन्तु इसके माने यह भी नहीं है कि जैसा कर्म उसे नाच नचायंगे वैसा वह नाचेगा ! वह अपनी किंचित व्यक्त हुई आत्मशक्तिको मौका पाकर पूर्ण व्यक्त करनेमें प्रयत्नशील होसक्ता है-बराबर प्रयत्न जारी रखनेपर वह जटिलसे जटिल कर्मबंधनको नष्ट कर सक्ता है, क्योंकि आखिरको वह स्वाधीन और पूर्ण शक्तिवान ही तो है। इसलिये भगवान्ने सर्व जीवन घटनाओंको बिल्कुल परिणामाधीन अथवा कर्माश्रित ही नहीं माना था और इसतरह प्राकृत रूपमें जीवात्माके दो भेद शुद्ध और अशुद्ध अथवा मुक्त और संसारी बताये थे । मुक्तनीव इसलोककी शिखरपर सदा सर्वदा अनन्तकाल तक अपने सुखरूप स्वभावमें लीन रहते हैं और संसारी जीव इस संसार में अपने भले बुरे कर्मोके अनुसार उस समय तक रुलते रहते है जबतक कि वह सर्वथा कर्मोसे अपना पीछा नहीं छुड़ा लेते है । संसारी जीवोंका दश प्राणों के आधार पर जीवन यापन होता है । वे दश प्राण स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्ररूप पांच इद्रिया, मन, वचन, कायरूप तीन बल; आयु और श्वासोच्छ्वासरूप हैं। यह दश प्राण भी व्यवहारके लिये हैं वरन् मूलमें निश्चयरूपसे एक चेतना लक्षण ही जीवका प्राण है । इंद्रियोकी अपेक्षा जीव एकेंद्रिय, दो इद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पांच इद्रियरूप हैं । एथिवीकाविक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक अनेक प्रकारके स्थावर--एक जगह स्थिर रहने वाले जीव एकेंद्रिय है और गंख, कीडी, भौंरा तथा मनुष्य या पशु पनी कसे द्वीन्द्रिय,
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२७०] भगवान पार्श्वनाथ। त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पर्चेद्रिय जीव हैं । इनको त्रम और चतुरेन्द्रिय तकको विकलेंद्रिय भी कहते है ।
जीवके शुद्ध और अशुद्ध व्यवहारको समझनेके लिये ही भगवान्के धर्मोपदेशमें नयोंका निरूपण किया गया है । नय मुख्यरूपमें निश्चय और व्यवहाररूप ही है । निश्चयनय पदार्थोके असली स्वभावको व्यक्त करता है और व्यवहारनयसे उनकी विक्रन दशाओ अर्थात् पर्यायोंका परिचय मिलता है। इसी भेटको
और स्पष्ट करनेके लिये स्याद्वाद सिद्धात अथवा सप्तभंगी नयका निरूपण किया हुआ मिलता है | पदार्थों में अनेक गुण है, वह केवल दो दृष्टियोंसे भी पूर्ण व्यक्त नहीं होसक्ते इसीलिये सात नयों रूप स्याहादसिद्धान्त उमको स्पष्ट कर देता है । यह स्या
• स्याद्वादसिद्धात भगवान् महावीरसे बहुत पहलेका है, यह बात हिन्दूगात्रोंसे भी प्रकट है। 'अनुजित अन्याय' (Legs.2-12) पर टीका करते हुये नीलक कहते है -" मर्व सशतिमिति स्यावादिनः सप्तमगी नयना ।" (२ लो० अ० ४९) महाभारत, शातिपर्व, मोक्षधर्म अ० २३९ श्लो. में भी इसका उल्लेख है। स्यावाट सिद्धातको सशयात्मक मानना जैनियोंके साथ अन्याय करना है। श्री शकगचार्य उसके महत्वको समझ नहीं सके थे, यह महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथ झा सहश ब्राह्मण विद्वान् स्पट कह चुके है। प्रॉ० युवके शब्दोंमें " स्याद्वादका सिद्धान्त बहुत सिद्धान्तोको अवलोकन करके उनके समन्वयके लिये प्रकट हुआ है। यह अनिश्चयमे नहीं उपजा है। यह हमारे सामने एकीकरणका दृष्टिविन्दु उपस्थित करता है। शकराचार्यने जो स्याद्वादपर आक्षेप क्रिया है, वह इमरे मूल रहस्यपर वरावर नहीं बैठता ।. ....अनेक दृष्टिविन्दुओंसे देखे विना एक समग्र वस्तुका स्वत्प नहीं समझा जाता और इसलिए स्थाद्वाद उपयोगी तथा सार्थक है।"
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भगवानका धर्मोपदेश! [२७१ द्वाद सिद्धान्त स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्थात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य , और स्यात् अस्तिनास्तिअवक्तव्य रूप है । स्यात अस्तिनयसे द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सत्तामें प्रगट होता है । स्यात्नास्ति दृष्टिसे द्रव्य अपने विरुद्ध द्रव्यके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोको न रखनेके कारण नास्तिरूप है। स्यात् अस्ति नास्तिकी अपेक्षा द्रव्य है
और नहीं भी है। स्यात् अवक्तव्यरूपसे द्रव्य वक्तव्यके बाहिर है। यदि हम उसको उसके निज औरपर दोनो रूपोंसे एक साथ कहना चाहते हैं । स्यात् अस्ति अवक्तव्य अपेक्षा द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप और साथ ही अपने एवं परके संयुक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूपसे है और अवक्तव्य है । स्यात् नास्ति अवक्तव्य बतलाती है कि द्रव्य पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा और उसीसमय अपने एव परके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके सयुक्त रूपसे नास्तिरूप है और अवक्तव्य भी है और स्यात् अस्त नास्ति अवक्तव्य दृष्टिसे द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे
और साथ ही अपने व परके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके संयुक्त रूपसे है, नहीं भी है और अवक्तव्य भी है। इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धांतका प्रतिपादन भगवान पार्श्वनाथने भी पदार्थोको स्पष्ट सम. झनेके लिए अपने धर्मोपदेशमें किया था। पदार्थोमें नित्य, अनित्य, एक, अनेक आदि परस्पर विरोधी गुण एक साथ देखनेको मिलते हैं; परन्तु यह एक साथ क्हे नहीं जासक्ते । इसीलिये इस स्याहादसिद्धांतकी आवश्यक्ता है। यह उस पदार्थकी खाप्स अपेक्षासे उसके गुणोको ठीक तरहसे प्रगट कर देता है वरन् एकांत पक्षमें पड़कर
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२७२] भगवान पार्श्वनाथ । कभी भी पदार्थका निर्णय नहीं होसक्ता है। इस एकात पक्षके हठ अन्धोवाली मसल चरितार्थ होनाती है । जिसप्रकार कई अघोंने हाथीके विविध अगोपागमेंसे एकर को देखकर हाथीको वैसा ही माननेकी निद की थी, उसी प्रकार एकात दृष्टिसे हम वस्तुके एक पक्षको ही प्रगट कर सक्ते है और वह पूर्णत सत्य नहीं होसक्ता है। अनेकांत अथवा स्याहाद सिद्धातमें यही विशेषता है कि वह वस्तुको सर्वाग रूपमें प्रगट कर देता है और परस्पर विरोधी जचनेवाली वातोंको मेट देता है । उक्त उदाहरणके अन्धे पुरुषोंका झगड़ा इस सिद्धांतकी बदौलत सहजमे सुलझ जाता है। अन्धोंका एक पक्षसे हाथीको उसके पैरों जैसा लम्बा या पेट जैसा चौडा आदि मानना ठीक नहीं है । परन्तु उनका वह कथन असत्य भी नहीं है। हाथी अपने पैरों की अपेक्षा लम्बा भी है, इसतरह कहनेसे वह ठीक रास्तेपर आसक्ते हे और परस्पर भेदको भेट सक्ते हैं। यही इसका महत्त्व है । एक आचार्य कहते है कि:
'कर्मद्वैतं फलद्वैत लोकद्वैतं च नो भवेत् । विद्याऽविद्याद्वयं न स्यात् बन्धमोक्षद्वय तथा ॥२५॥
भावार्थ-'एकांतकी हठ करनेसे पुण्य-पापका द्वैत, सुख दुखका द्वैत, लोक परलोकका द्वैत, विद्या अविद्याका द्वैत तथा वंध मोक्षका द्वैत कुछ भी नहीं सिद्ध हो सकेगा।' इसलिये स्याहाद सिद्धांत ही सर्वथा पदार्थका सत्यरूप सुझाने में सफल होसक्ता है। आपसी भेदोंको भी वही मिटा सक्ता है । इसी सिद्धांतको ध्यानमें रखनेसे कोई भी शंकायें अगाड़ी नहीं आसक्ती हैं। अस्तु !
भगवान् पार्श्वनाथजीके धर्मोपदेशका महत्त्व इतनेसे ही हृदयं
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भगवानका धर्मोपदेश! [ २७३ - गम होनाता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप ही मोक्षका मार्ग है । इस मार्गका अनुसरण करके जीवात्मा अपनेको कर्मोके फन्देसे छुड़ा लेता है । गत जन्मोंमें किये हुये कर्मोको वह क्रमकर नष्ट कर देता है और आगामी ध्यान-ज्ञानकी उच्चतम दशामें पहुंच कर उनके आनेका द्वार मूंद देता है। फिर वह अपने रूपको पा लेता है । जो वह है सो ही बन जाता है। जीवात्माकी आत्मोन्नतिके लिहाजसे ही भगवानने उसके लिये चौदह दर्ने बताये हैं, जिनको गुणस्थान कहते हैं। मोहनीय कर्म और मन, बचन, कायकी क्रियारूप योगके निमित्तसे जो आत्मीक भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हींको गुणस्थान कहते हैं । जितने२ ही यह भाव आत्माके शुद्ध स्वरूपकी ओर बढ़ते जाते हैं उतने ही जीवात्मा आत्मोन्नति करता हुआ गुणस्थानोंमे बढ़ता जाता है । यह चौदह गुणस्थान क्रमकर मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्त्व, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली रूप हैं। इनमें से पहलेके पांच गुणस्थानोंको पुरुष, स्त्री, गृहस्थ और श्रावक समान रीतिसे धारण कर सक्ते है । ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा पर्यंत, जिसमें गृह त्यागी व्यक्तिके पास केवल लंगोटी मात्रका परिग्रह होता है, श्रावक ही संज्ञा है। इस ग्यारहवीं प्रतिमापर्यंत स्त्रियां भी श्रावकके व्रत पाल सक्ती है। शेषमें छठे गुणस्थानके उपरात सव ही गुणस्थानोंका पालन तिलतुष मात्र परिग्रह तकके त्यागी निग्रंथ मुनि ही कर पाते हैं । इन गुणस्थानोंका स्वरूप संक्षेपमें इस तरह समझना चाहिये
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२७४] भगवान पार्श्वनाथ ।
१-मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्त्वका उदय होनेसे राग द्वेष आदि रहित सच्चे देव, सर्वज्ञ प्रणीत, युक्तिसे सिद्ध, पूर्वापर विरोध रहित, आगम और वस्तुस्थितिके यथार्थरूप तत्वोंमें श्रद्धान नहीं हो पाता है । अनादिकालसे ससारमें घूमते हुये जीव इसी मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती होते है। इस गुणस्थानसे निकलकर जीव एकदम चौथे गुणस्थानमें पहुंच जाता है। उसे क्रमशः जानेकी जरूरत नहीं है।
२. सासादन गुणस्थान में जीवात्माका आत्मपतन होता है। चौथे गुणस्थानमें पहुंचकर जीवके उदयमें जन अनन्तानुबंधी कषायमेंसे एक अर्थात् क्रोधका उदय होता है, तब जीवात्मा पतन करता हुआ इस दूसरे गुणस्थानमें होकर पहले गुणस्थानमें पहुचता है । बस पहले गुणस्थान तक पहुंचनेके अतरालमें जो भाव रहते हैं वह साप्तादन गुणस्थान है। अर्थात् सम्यक्त्वके छूटनेपर मिथ्यात्वको पाने तक जो भावोंकी दशा हो वही साप्तादन गुणस्थानवर्ती है।
३. मिश्रगुणस्थान में सच्चे और झूठे देव, शास्त्र और पदार्थका श्रद्धान एक साथ रहता है। चौथे गुणस्थानसे पतन करके ही जीव इसमें आता है । यह जीवकी सत्य और असत्यके बीचमें डांवाडोल अवस्थाका द्योतक है ।
४. अविरतसम्यक्त्व में जीवात्माको सच्चे देव, शास्त्र और पदार्थमें श्रद्धान तो होता है, परन्तु वह व्रतोंको धारण नहीं कर । सक्ता है । अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सत्य और अपरिग्रह यही एक देशरूपमें पंचवत रहेगये है। इनका पालन करनेवाला जीव कभी भी जानबूझकर मन, वचन, कायसे न अपने लिये और न
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२७५ दूसरेके लिये जीवित प्राणियोंके प्राणोंको अपहरण करता है, न गिरी पड़ी, भूली और पराई वस्तु ग्रहण करता है, न परस्त्रियोंसे संभोग करता है, न झूठ और न दूसरोंके प्राणों को संकटमें डालनेवाला सत्य ही कहता है एवं तृष्णाको एकदम बढ़ने न देनेके लिये अपनी सांसारिक आवश्यक्ताओंको नियमित कर लेता है। सचमुच ग्रहस्थ अवस्थामें इन व्रतोंका पालन करनेसे एक ग्रहस्थ संतोषी और न्यायप्रिय नागरिक बन सक्ता है । परन्तु इस चौथे गुणस्थानमें वह इन व्रतोंको धारण करनेमें स्वभावतः असमर्थ होता है। उसके मोहनीयकर्मकी इतनी जटिलता है कि वह सहसा व्रतोंको धारण नहीं कर सक्ता है, यद्यपि उसको सच्चे देव, शास्त्र और तत्वका श्रद्धान होता है । इस सच्चे श्रद्धानकी बदौलत ही जीवास्मा उन्नति करके पाचवे गुणस्थान में पहुंचता है। इसीलिये श्रद्धानका ठोक होना बहुत जरूरी है। सम्यक् श्रद्धान ही सन्मार्गमें लगानेवाला है।
५. देशविरत-गुणस्थानमें जीवात्मा व्रतों का एक देश पालन कर सक्ता है । वह जानबूझकर हिसादि पांच पापोसे दूर रहता है। श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओं का समावेश इस गुणस्थान तक होजाता है । इन ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप इस तरह है-यह संसार में फंसे हुये गृहस्थको क्रमकर मोक्षके मार्गपर लानेवाली है । इनमें प्रवृत्ति मार्गसे छुड़ाकर निवृत्ति मार्गकी ओर उत्तरोत्तर बढ़ानेका ध्यान रक्खा गया है । पहली दर्शन प्रतिमामें एक व्यक्तिको जैन धर्ममें पूर्ण श्रद्धान रखना होता है। उसे उसके सिद्धान्तोंका अच्छा परिचय होना आवश्यक रहता है तथापि वह मांस, मधु, मदि
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२७६] भगवान पार्श्वनाथ। राका त्यागी होकर यथाशक्ति पाच अणुव्रतोंको पालन करनेका प्रयत्न करता है। दूमरी व्रतप्रतिमामें उसे अहिसादि पांच अणुव्रतोंका पूर्ण रीतिसे पालन करना होता है। साथ ही ३ गुणवत
और ४ शिक्षाव्रतोंको भी वह पाता है। दूसरे शब्दोंमें वह प्रति दिवम नियमित रीतिसे अपने आनेजानेके क्षेत्रकी दिशाओं और दूरीका प्रमाण करलेता है, वृथाका वकवाद अथवा पापमय कार्योंका विचार और उनको करनेसे दूर रहता है। शिक्षाव्रतोंमें वह प्रातः, दिवस अपने खानपानके पदार्थोको नियमित कर लेता है, प्रातः, मध्यान्ह और सायंकालको भगवानकी पूजन करता है, पर्वके दिनोमें उपवास करता है और आहार, औषधि, विद्या और अभयदान देता है। इसतरह वह इन व्रतोका पूर्णत• पालन करके अपने त्यागभावको उत्तरोत्तर बढ़ाता जाता है, और इसतरह उन्नति करते हुये वह अपनेमें समभावोंको अर्थात् सब वस्तुओंमें साम्यभाव रखनेका प्रयत्न करता है । इसके लिये वह नियमित रीतिसे प्रतिदिन सवेरे, दुपहर और शामको होशियारीके साथ ध्यान करनेका अभ्यास करता है । सामायिककी दशामें वह अपने परिणामोंको समतारूप बनाने
और अपने आत्मगुणों के चिन्तवनमें लगाता है। सामायिक पाठका प्रथम चरण ही उसके भावको स्पष्ट करता है । जैसे--- • नित देव : मेरी आतमा धारण करे इस नेमको.
मैत्री करे सब प्राणियोमे, गुणिजनोंसे प्रेमको। उनपर दया करती रहे जो दुःख-ग्राह-ग्रहीत है,
उनसे उदासी ही रहे जो धर्मके विपरीत है ।। या तीसरी सामायिक प्रतिमा है। चौथी प्रोपयोपत्रास
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२७७ प्रतिमामें उसको प्रतिपक्षकी अष्टमी और चतुर्दशीको होशियारीके साथ उपवास करने पड़ते हैं। पांचवी सचित्तसाग प्रतिमामें वह सचित जिनमें उपजनेकी शक्ति विद्यमान हो, ऐसी शाक भाजी और जल ग्रहण नहीं करता है । छठी रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमामे वह रात्रिके समय न स्वयं भोजन व जलपान करता और न दूसरोको कराता है। सातवी ब्रह्मचर्य प्रतिमामे वह अपनी विवाहिता स्त्री तकसे भी संभोग करना छोड़ देता है और वह पूर्णतः मन-वचनकायसे ब्रह्मचर्यका पालन करता है। आठवीं आरम्भसाग प्रतिमा वह अपनी आजीविकाके साधनोंका भी त्याग कर देता है। धन कमाने, भोजन बनाने आदिसे हाथ खींच लेता है । नौवी परिग्रहसाग प्रतिमामें वह सांसारिक पदार्थोसे अपनी इच्छा-वाञ्छाको बिल्कुल हटा लेता है और अपनी सब धन-सम्पत्तिको त्यागकर केवल गिनतीके थोड़ेसे वस्त्र और बरतन रखलेता है । दशवीं अनुमतिसाग प्रतिमामें वह सांसारिक कार्योंके संवन्धमें अपनी राय भी नहीं देता है और ग्यारहवी एवं अन्तिम उद्दिष्टसाग प्रतिमामें वह अपने शरीरको बनाये रखने के लिये भोजनको भिक्षा. वृत्तिसे ग्रहण करता है परन्तु वह उन वस्तुओंको ग्रहण नहीं करता है जो खास उसके लिये बनाई गई हों। वह एक चादर और लंगोटीको रखकर ऐलक पदको पा लेता है। ऐलक दशामें वह हाथों में ही लेकर भोजन ग्रहण करता है। यह दोनो महानुभाव अपने साथ एक कमण्डलु और मोरपंखकी पीछी रखते है । तथापि क्षुल्लक एक पिण्डपात्र भी रखते हैं। इनकी भिक्षावृत्ति भी स्वाधीनरूप होती है। यह किसीसे याचना नहीं करते है। नो नादर
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भगवान् पार्श्वनाथ | नियमितरूपमें भोजनके समय आमंत्रित करके शुद्ध आहार देते हैं उन्हींके यहां वह आहार ग्रहण करते हैं । इन ग्यारह प्रतिमाओं में - क्रमशः त्यागभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया है और आखिर में उस -श्रावकका जीवन एक साधुके समान ही करीब २ होगया है । यहांतक स्त्रियें भी इस चारित्रको धारण करसक्ती हैं, परन्तु वह अपनी प्राकृत लज्जाके कारण वस्त्रत्यागकर निर्बंध अवस्थाको धारण नहीं कर पातीं हैं। इस पांचवे गुणस्थान तक जीवात्मा इन ग्यारह प्रतिमाओं रूप ही अपना आचरण बनासक्ता है। पूर्ण रीतिसे वह अहिंसादि व्रतों का पालन नहीं करसक्ता है । निग्रंथ मुनि ही पूर्ण - - रीति से इन व्रतों का पालन करते हैं ।
६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान में यद्यपि पुरुष दिगंबर मुनि हो जाता है और सर्व प्रकारके परिग्रहको त्याग देता है, परन्तु तो भी उसके परिणाम शरीरकी ममता में कदाचित् झुक जाते हैं । यह प्रमत्तभाव है अर्थात् व्यानकी एकाग्रतामें लापरबाई या कोताई है। यहासे सब गुणस्थान निग्रंथ मुनि अवस्था के ही हैं ।
७- अप्रमत्तविरत-गुणस्थान में प्रमत्तभाव को छोडकर मुनि 'पूर्णरूपसे महाव्रतोंको पालन करता है और धर्मध्यानमें लीन रहता है | यहासे आत्मोन्नतिका मार्ग दो श्रेणियोंमें बॅट जाता है- (१) उपगमश्रेणी, जिसमें चारित्र मोहनीय कर्मका उपशम हो जाता है और (२) क्षपकश्रेणी, जिसमें इस कर्मका बिल्कुल नाग होजाता है । यही मोक्षका आवश्यक मार्ग है, चारित्र मोहनीय कर्मके उदय से जीवात्मा के सम्यकृचारित्र प्रगट होनेमें बाघा उपस्थित रहती है । इसका नाश होने ही सम्यच्चारित्रका पूर्णतामे पालन होने लगता
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भगवानका धर्मोपदेश ! [२७९ है, आत्मध्यानकी एकाग्रता हो जाती है, निससे स्वस्वरूपकी प्राप्ति होती है । इसीलिये कहा गया है किः'खाना चलना सोवना, मिलना वचन विलास । ' ज्यौं ज्यौं पंच घटाइये, त्यौ त्यौं ध्यान प्रकास ॥ ६२ ।। आगमग्यान सदा व्रतवान, तपै तप जान तिहूं गुन पूरा। ध्यान महारथ धारन कारन, होय धुरंधर सो नर मूरा ॥ ध्यान अभ्यास लहै सिववास, विना भवपास परै दुख भूरा। कर्म महादिढ़ सैल बडे बहु, ध्यान सु वज्र करै चकचूरा
॥६३ ।। भापा द्रव्यसग्रह द्यानतरायकृता। इस गुणस्थानसे ध्यानकी उत्तरोत्तर वृद्धि होना प्रारम्भ हो जाता है।
८. अपूर्वकरण-गुणस्थानमे उस विचार-क्रिया (Thoughtactivity)को मुनि प्राप्त होता है जिसको अभीतक उनकी आत्माने प्राप्त नहीं किया है। आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानोमें सर्व अतिम सर्वोच्च शुक्लध्यानका प्रथम अनुभव इसी गुणस्थानमें होता है। आत्माके शुद्ध रूपका ध्यान शुद्ध रीतिसे यहीं होता है । आत और रौद्र ध्यान बुरे ध्यान हैं, यह कषायोंको लिये हुये है। धर्मध्यान इनसे अच्छा शुभरूप है और शुक्लध्यान तो सर्वोच्च आत्मध्यान ही है।
९. अनिवत्तिकरण-गुणस्थानमें उपरोक्त विचार-क्रिया (करण) और अधिक बढ़ जाती है जिसमें और भी अधिक शुद्धध्यान होता है, जो प्रथम शुक्लध्यानका ही एक दर्जा है।
२०. सूक्ष्मसाम्पराय-गुणस्थानमें बहुत ही मामूली तरी
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कैसे मोह शेष रह जाता है । सब ही पायवासनाओंका नाश अथवा उपशम होजाता है, केवल सूक्ष्म मंज्वलन लोम - बहुत ही क्रम नामका लोभ रह जाता है, यहां भी प्रथम शुक्लब्यान है ।
११. उपशान्तमोह-गुणस्थानमें मोहका उपशम होजाता है अर्थात् वह दब जाता है, निष्क्रिय होजाता है । यह भाव समस्त चारित्रमोहनीय कर्मोक उपशमसे होता है, यह भी प्रथम शुरू - व्यानका भेद है । यदि कोई मुनिजन विशेष बलवान न हुये तो वह यहांसे पतन करके चौथे अथवा दसवें गुणस्थान में पहुंच जाते हैं । वरन् वह दृढ़तापूर्वक आठवें गुणस्थानकी क्षपकश्रेणीमें उन्नति करने लगते हैं ।
१२. क्षीणमोह- गुणस्थान में मोहका अभाव होजाता है । समस्त चारित्रमोहनीय कर्मोका नाग यहां होजाता है। शुक्रव्यानका दूमरा दर्जा, जो पहलेसे अधिक विशुद्ध है, यहीं प्रगट होता है । मुनि दावे गुणस्थानसे सीधे इस गुणस्थानमें आते हैं, ग्यारहवें गुणस्थानमें जानेकी जरूरत नहीं है, क्योंकि वह उपशम श्रेणीसे सम्बंधित है ।
१३. सयोगकेवली - गुणस्थान चार घातियाकर्म रहित जीवानाकी शरीरसहित शुद्ध दशा है। वहां ज्ञानावर्णीय, दशनावर्णीय, अन्तराय और मोहनीय कर्मीका सर्वथा नाश होजाता है: जो आत्माके निजगुण प्रगट होने में बाधक हैं। बस इनके नष्ट होनेसे आत्मा शुद्ध, बुद्ध, जीवित परमात्मा होजाता है, जिसको अर्हन कहते हैं । पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन और पूर्ण सुखना आत्मा यहां आधिकारी हो जाता है। सर्वज्ञया वह वत्वों का यथावत् प्रतिपादन करता
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है । इस दशा में आत्मामें सकंपपना मौजूद रहता है । किन्तु
मोक्ष प्राप्त कर
1 १४ - अयोगकेवली गुणस्थान में यह संकपपना बिलकुल नष्ट होजाता है । यह गुणस्थान सयोगकेवलीके नेके सिर्फ इतने अन्तराल कालमें प्राप्त होता है ऋ, ऌ, इन पाच अक्षरोंका उच्चारण मात्र ही इसके बाद जीवात्मा शरीर छोड़कर निजरूप होकर पूर्ण सुख और शांतिका अधिकारी अनादिकालके लिए होजाता है और सिद्ध वहलाता है । वह इस लोकके शिखरपर निजानन्दमय हुआ अनतकालके लिये तिष्ठा रहता है । दुःख-शोक आदि वहां उसे कुछ भी नहीं सता पाते हैं । वह सच्चिदानन्द रूप होजाता है ।
इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथका धर्मोपदेश प्राकृत रूपमें संसार तापसे तपे हुये भयभीत प्राणीको शांतिप्रदान करानेवाला संदेश था । वह रसे राव बनानेवाला था । पराधीनता के पलेसे छुड़ाकर स्वातंत्र्य सुखको दिलानेवाला था । सांसारिक विषयवासनाओं और वांछा अकांक्षाओसे कमजोर हुई आत्माओं को सिह समान निर्भीक और बलवान् बना देना, इस धर्मोपदेशका मुख्य कार्य था । निग्रंथ मुनियोंकी चर्या सिंहवृत्तिके समान होती है । जिसतरह प्राकृत रूपमें निशक होकर अरण्य क्सरी बन विहार करता है, उसी तरह दिगम्बर भेषको धारण किये हुये मुनिराज भी निडर होकर वन - कंदराओ में विचरते रहते है और सदैव आत्म स्वातंत्र्यका मंत्र जपते हैं । किन्तु सिंहके पास जानेमें इतर प्राणियोको भय मालूम देता है, पर उन आत्म स्वातंत्र्य स्थली में सिंह समान विचरनेवाले मुनिराज के निकट हरकोई निर्भय होकर पहुंच सक्ता
कि अ, इ, उ,
किया जासके !
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और आत्मकल्याण कर सक्ता है । यही मुनिराज अपने प्रखर आत्मध्यानके बलसे अन्त में त्रिलोक्यपूज्य और सच्चिदानन्दरूप साक्षाद परमात्मा होजाते है, यह ऊपर बताया ही जाचुका है ।
सप्तारके इन्द्रायण फलके समान विषयभोगोंमे फंसे हुये जीवोंके लिए यह सुगम नहीं होता है कि वह एकदम अपनी प्रवृत्तिको बदल दें इसीलिये भगवानने एक नियमित ढंगसे क्रमकर अपनी प्रवृत्तिको वदलना आवश्यक बतलाया था । शास्वत सुख प्राप्त करनेके लिये सात्विक मनोवृत्तिको उत्पन्न करना प्रारम्भमें जरूरी होता है । उसी अनुरूप भगवान के धर्मोपदेशमें मांस, मधु, मदिरा आदि पदार्थो को ग्रहण न करनेकी मनाई थी । यह अखाद्य पदार्थ थे । प्राणियों के प्राणोकी हिंसा करके यह मिल सक्ते हैं । और कोई भी 1 प्राणी अपने प्राणोंको छोड़ना नहीं चाहता है । सबको ही अपने प्राण प्रिय है । इसलिये मासको ग्रहण करना प्राकृत अयुक्त ठहरता हैं । इस नियमको ग्रहण करते ही प्राणी साम्यभावके महत्त्वको समझ जाता है । वह जान लेता है कि जिसतरह मुझे अपने प्राण, अपना धन, अपने बंधु प्रिय हैं, वैसे ही दूसरोंको भी वह प्रिय हैं। इस अवस्था में वह विश्व नेमका पाठ खत. हृदयंगम कर लेता है और अपना जीवन ऐसा सर्व हितमई बना लेता है कि उसके द्वारा सबकी भलाई होती है । फिर वह उत्तरोत्तर अपने समताभावको चढ़ाता जाता है और सांसारिक वस्तुओ से ममत्व घटाकर अपने आत्मा के व्यानमें लीन होनेका प्रयत्न करता रहता है । इसके लिये वह नियमित त्याग और संयमका पालन करता है । संसारके कोलाहलसे दूर रहकर तपश्चरणका अभ्यास करता है । जिस तरह ग्रह
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भगवानका धर्मोपदेश !
[ २८३ स्थदशामें रहकर वह एक आदर्श गृहस्थ होता है, उसी तरह गृहत्यागकी इस अवस्था में वह परम तपस्वी होता है । तपका महत्व अकथनीय है, वह हरहालत में उपादेय है । प्रॉ० जेम्स नामक एक अमेरिकन तत्वज्ञानी इस तपका महत्व इसप्रकार लिखने हैं- 'वैराकी भावना और देहदमन उपयोगी है। जिसतरह बीमा कम्पनी में थोड़ार रुपया जमा करते रहने से अन्त में वह रुपया उपयोगी हुए विना नहीं रहता, उसी प्रकार देहदमनके लिये की हुई तपस्यायें भी आत्मामें ऐसा बल उत्पन्न कर देती हैं कि क्रमक्रमसे वह आत्मा जिनपदको प्राप्त किये बिना नहीं रहता । " सचमुच एकदम न उच्चकोटिका संयम और तपका ही पालन किया जापक्ता है और न एकदम ज्ञान या कल्याणकी ही प्राप्ति होसक्त है । उसमें धोरे २ ही गति होती है और वैसे२ ही ज्ञान और कल्याण भी प्राप्त होता है । शुरू में यह मार्ग नागवार मालूम होता है; किन्तु जहां तनिक उस मार्ग में गाते हुई कि बड़े कठिन जचनेवाले नियम भी चिल्कुल सुगम दृष्टि पड़ने लगते हैं । इम तरह पर पार्श्वनाथजीका धर्मोपदेश था - यह किसी भेदभाव या पक्षपातको लिये हुये नहीं था । प्रत्येक प्राणी हर परिस्थितिमे अपना आत्मकल्याण इसकी आराधनासे कर सक्ता है । भीरु और कमजोर आत्माओको वीर और बलवान बनानेवाला यह मार्ग था । क्षात्रेय शिरोमणि इक्ष्वाकुकुलकेतु काश्यपप्रभू - महावीर पार्श्वद्वारा प्रतिपादित हुआ यह धर्म सर्वथा वीर आत्माओ द्वारा हो अपनाया ही जाता रहा है; परन्तु नीच और भीरु चोर - डाकू जैसे पापी भी इसकी शरण में आकर अपना आत्मकल्याण कर सके थे। भगवानके धर्ममार्गका द्वार केवल
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२८४] भगवान पार्श्वनाथ । मनुष्योंके ही लिये नहीं बल्कि पशुओंतकके लिये खुला हुआ था। वह सबको त्राणदाता था, शांतिसाम्राज्यको सिरजनेवाला था। सचमुच वह था:----
आदि अन्त अविरोध यथारथ, जो भाषत सब वस्तु विधानन। जो अनादि अज्ञान निवारत, जा समान हितहेत न आनन ॥ जाको सुजम तिहूं जग व्यापत, इन्द्र अलापन तनननतानन भविकसन्दको सोअधार है, जो सब निगमागमको आनन ।।
(१६) धर्मापदेशका नृतत्वात 'यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं,
__ तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनौकसः स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः, शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥ १३४॥
श्री समन्तभद्राचार्य । गहन गंभीर वनों में शीतलजलमयी सरिताओंके किनारे वानप्रस्थ ऋषियों के बड़े बड़े आश्रम थे । प्रतिदिवस बड़े समारोहके साथ चहां अग्निहोत्र विधान होता था। नरमेध, गौमेध आदिके नामसे जीवित प्राणियोंके मूल्यमय प्राण बलिवेदीपर उत्सर्गीकृत किये जाते थे। स्वर्गसुख के लालच और पितृऋणके भय के कारण परावलम्बी बनी हुई जनता इस कार्यको हटात् कर रही थी। उघर स्वयं जटिलादि वाननस्थ ऋषिगण अपनी इंद्रियलिप्साको अधिक सीमित नही रस मके थे। पुत्र मुग्वके दर्शन करना उनके निकट मी एक पानव्य था, यद पर कुछ हम पहले देख चुके है किन्तु भगवान
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धर्मोपदेशका प्रभाव । पार्श्वनाथजीने ज्योंही सत्यका सिंहनाद प्राकृतरूपमें घोषित किया था त्योंही इन गहनवनोंके भीतरवाले आश्रमोंमें भी हलचल मच गई थी, अग्निहोत्रिकी उच्च ज्वालायें एक क्षणके लिये थम गई थीं। शिष्यगण एवं साधारण जनता धर्मके नामपर की जानेवाली इस हिंसाके विषयमें सशक हो स्पष्टरूपसे इसका समाधान करनेका आग्रह करने लगे थे। सत्यका वहांपर प्रायः अभाव देखकर वह भगवानकी शरणमें आये थे। यही कारण था कि भगवान पार्श्व नाथका सम्बोधन उस प्राचीनकालमें "सर्वजनप्रिय" ( People's Favourite ) के नामसे होने लगा था। ईसाकी प्रारंभिक शताब्दियोंमें हये श्री समभद्राचार्यनी भी यही कहते हैं कि " निस घातिया कर्मों के नाश करनेवाले तीनलोकके स्वामी पाचप्रभुको देख वनवासी कुतपस्वी, पञ्चाग्नि आदि साधनोंमें त्रिफल मनोरथ होते हुए, भगवानके सदृश होनेकी इच्छासे, शांतिके उपदेश भगवान् अथवा जिसमें शातिका उपदेश है ऐसा मोक्षमार्ग उसके शरणीभूत हुये अर्थात सच्चे मार्गमें लगे थे।" शकसंवत् ७३६में हुये श्री जिनसेनाचार्य भी अपने "पार्श्वभ्युदयकाव्य"में यही कहते हैं, यथा'इति विदितमहर्दि धर्मसाम्राज्यमिन्द्राः,
जिनमवनतिभाजो भेजिरे नाकभाजाम् । शिथिलितवनवासाः प्राक्तनीं प्रोज्थ्य वृत्ति,
शरणमुपययुस्त तापसाः भक्तिनम्राः॥ ६९ ।। "टीका-जटिलादयः कुतापसाः निनकायलेशे निष्फलत्वं 'निश्चिन्वन्तः । तपोमहिम्ना प्राप्तोदयं पार्श्वतीर्थकरं तत्तपोलम्बुकामा: शरणं ययुरिति भावः । यो गिगट् । "
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२८६] भगवान पार्श्वनाथ ।
भाव यही है कि ज टेल आदि कुतापप्त जो थे वह अपने पञ्चाग्नि आदिरूप कायक्लेश एवं अन्य धार्मिक क्रियायोको निष्फल होते देखकर भगवान् पार्धनाथकी शरणमें आये थे। भगवान्के प्राकृत सदेशमें शाति और सुख का स्पष्ट विधान था । वह युक्तिसे प्रत्यक्ष बुद्धिग्राह्य था, उपको पाकर अपने एकात पक्षमें विधर्मियोका विश्वास खो बैठना स्वाभाविक ही था ! वहा हठपक्ष तो था नहीं, सरलता थी, सत्य को पाने की अभिलाषा थी। यही कारण था कि वजन भगवानकी शरणमें आये थे। ईसाकी अठनीं शताब्दिके विहान महर्षि श्री गुणभद्राचार्यनी भी अपने " उत्तरपुराण " में कहते है कि..
'तदा केवलपूजां च सुरेद्रा निरवर्तयन् । संबरोप्यात्तकालादि लव्धिः शममुपागमत् ॥१४५३ प्रापत्सम्यक्त्वसंशुद्धिं दृष्ट्वा तद्वनवासिनः । तापसास्त्यक्तमिथ्यात्वाः शतानां सप्त संयमं ॥१४६।। गृहात्वा शुद्धसम्यक्त्वाः पार्श्वनाथं कृतादराः। सर्वे प्रदक्षिणीकृस प्रणेमुः पादयोद्धयोः ॥ १४७ ॥
अर्थात् जिप्त समय भगवान् पाधनाथको केवलज्ञान की प्राप्ति होराई थी तो उसी समय इंद्रादि देवोंने आकर केवलज्ञानकी पूजा की और वह संवर नामका ज्योतिषीदेव भी कालादि लब्धिके प्राप्त होनेसे अत्यन्त शांत होगया । उसने शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण किया तथा उसे देखकर उस वनमें रहनेवाले सातसौ तपस्वियोंने मिथ्यात्व छोडकर संयम धारण किया, शुद्ध सम्यग्दर्शन स्वीकार
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२८७ किया और उन सबने बड़े आदरसे श्री प्रदक्षिणा देकर उन (भगवान) के दोनों चरणकमलोको प्रणाम किया ।"
(उत्तरपुराण ट० ६७८) यही बात उपरान्तके जैनाचार्य भी कहते हैं। सं० १४६४में हुये श्री सकलकीर्तिनी भी लिखते हैं कि 'जिनेन्द्ररूपी भानुके उदयके होते ही साधु, मुनिश्वरोंका संचार होगया था और जटिलादि कुलिंगी तापत जो थे वह तस्करोके समान विलीन होगये थे।' ('जिनभानूदये संचरंति साधु मुनीश्वराः । तदा कुलिगिनो मंदा नश्यति तस्करा इव ॥१७॥२३॥) सं० १६५४में श्रीचंद्रकीर्ति द्वारा रचित पार्श्वचरितमें भी इस बातका समर्थन किया गया है। वहां लिखा है कि 'साधारण जनताने प्रसन्न भावसे भगवानके उपदेशामृतका पान किया था ।' (लोका. प्रसन्नभावेन पीता हासुधारा ।) श्री चंद्रकीर्तिजीके समकालीन श्वेताम्बराचार्य श्री भावदेवमूरिने भी अपने "पार्श्वनाथचरित' में अनेक मनुष्योका भगवानके धर्मको ग्रहण करना लिखा है। (सर्ग ६, श्लो० २५६-२६७) अन्ततः कविवर श्रीभूधरदासनी भी भगवानके इस दिव्य प्रभावका उल्लेख निम्न प्रकार करते है:
"वचन किरनसौं मोहतम, मिट्यौ महा दुखदाय। वैरागे जगजीव बहु, काल लब्धि बल पाय ।। सम्यकदरसन आदस्यो, मुक्ति तरोवर मूल । संकादिक मल परिहरे, गई जन्मकी मूल ॥ तहां सातसै तापसी, करत कष्ट अज्ञान ! देखि जिनेमुर् संपदा, जग्यौ जथारथ ग्यान ॥
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२८८] भगवान् पार्श्वनाथ ।
दई तीन परदच्छिना, प्रनमें पारसदेव । स्वामि-चरन संयम धस्यो, निंदी पृरव देव ।। धन्य जिनेसुरके वचन, महामंत्र दुखहंत । मिथ्यामत-विषधर-उसे. निर्विप होहि तुरंत ॥"
धेपुराण) सर्वज्ञकथित वाणीका प्रभाव सर्वव्यापी होना स्वाभाविक ही है । उसके समक्ष अल्पमतिवाले एकात पक्षियों अपने मार्गमें रहना कठिन है। भगवान पार्श्वनाथजीके उस समयकी धार्मिक प्रगतिपर यदि दृष्टि डाली जावे तो वहांसे भी इस ही व्याख्याकी पुष्टि होती है। उनके उपरान्तके प्रख्यात मतप्रवर्तकोंमें हम खास तौरपर हिंसा कार्यको दूसरी तरहसे समर्थन करते हुये पाते है। वह जीवात्मा और पाप पुण्यको मेटकर अपनी चिरग्रसित जिह्वा. लंपटताकी सिद्धि करते हुये पाये जाते है। इतनेसे ही कार्य नहीं चला था, बल्कि यह खाप्त मतप्रवर्तक अपने मूल वानप्रस्थ धर्मसे अलग होकर नये मतोंका प्रचार करने लगे थे। आजीवक संप्रदायका जन्म इसी समय वानप्रस्थोंमेंसे हुआ था और उन्होने भगवानके बताये हुए वर्ममें से भी मुनिके दिगंबर मेष और पूर्वोमेसे कुछ अंश ग्रहण कर लिया था। साधारण रीतिसे यहांपर इन खास मतपर्वतकोंकी चर्या पर एक दृष्टि डालकर यह देख लेना सुगम होगा कि सचमुच भगवान पार्श्वनाथके उपदेशका प्रभाव उस समय दिगन्तव्यापी होगया था।
१-भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० १६-२०१२-भगवान महावीर पृ० १६३ और वीर वर्ष ३ अंक ११-१२।
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२८९ भगवान् पार्श्वनाथनीके उपरान्त वैदिक धर्ममें हमको पिप्पलाद नामक आचार्यका मुख्यतासे पता चलता है। इनके सिद्धांतों का विवेचन 'प्रश्नोपनिषद् में किया गया है। इनके छह समसामयिक ऋषि सुकेशस भारद्वाज, शैव्य सत्य काम, सौर्यायनिन गाये, कौशल्य आश्वलाययन, भार्गव वैदर्भी और कबन्धिन कात्यायन थे।' पिप्पलादका समय म० बुद्धसे बहुत पहले खयाल नहीं किया जाता है, यद्यपि जैन हरिवंशपुराणमें इनका उल्लेख याज्ञवल्क्यके साथ किया गया है किन्तु बौद्धग्रन्थोंमें म० बुद्धके एक अधिक क्यप्राप्त समकालीन मतप्रवर्तक ककुड कात्यायन (पकुड़ कात्यायन)का उल्लेख मिलता है। यहांपर कात्यायन जो मुख्य नाम है वह पिप्पलादके समसामायिक ऋषि कबन्धिनकात्यायनका भी है और कवन्धिन एव ककुड विशेषण एक ही भावको प्रगट करनेवाले बताये गये हैं। इस कारण पिप्पलाद कात्यायनसे पहले हुये थे, जो म.बुद्धका समकालीन था। दूसरे शब्दोंमें जब पिप्पलादकी अवस्था अच्छी तरह भर चुकी थी तब कात्यायन युवावस्थामें पग बढ़ा रहा था। इस दशामें भगवान पार्श्वनाथजीके धर्मोपदेशके किञ्चित बाद ही पिप्पलादकी प्रख्याति हुई स्वीकार की जा सक्ती है। अस्तु, इन ब्राह्मण ऋषि पिप्पलादकी गणना उमास्वाति आचार्यके तत्वार्थसुत्रकी टीकामे अज्ञानवाद (अज्ञानी कुदृष्टिः)में की गई है। यद्यपि प्रश्नोपनिषदमें वह एक मान्य ऋषि स्वीकार किये गये हैं; जो ब्राह्मण दृष्टिसे ठीक ही है। पिप्पलादने ईश्वरवादको जो नया
१-प्रधोपनिषद् १।१ । २-हरिवशपुराण पृ० २४९ । ३-प्री-बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० २२६-२२७।४-राजवार्तिकजी (1) पृ. २९४१
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२९०] भगवान पार्श्वनाथ । रूप दिया था, वह उन पर किसी बाह्य प्रभावको पड़ा व्यक्त करती है। उनका कहना था कि सृष्टिका सद्भाव प्रजापतिसे हुआ है जो सार्वभौमिक पुरुष (वैश्वानर पुरुष) अथवा सूर्य है जिसका स्वभाव अग्नि है। सृष्टि रचना करनेकी इच्छा करके प्रजापतिने अपने स्वभावका ध्यान किया और उसके बल अपने शरीरमेंसे एक जोड़ा (मिथुन) पुद्गल (रयि) और प्राणको उत्पन्न किया। इन्हींसे सृष्टि होगई।' यही दोनो-रयि और प्राण-साख्यमतके पुरुष और प्रकृतिके समान ही है, जिनकी सदृशता जैनधर्मके जीव और अनीव भेदसे बहुत कुछ है । एकदृष्टिसे पिप्पलादने अपने उक्त मन्तव्यमें भगवान् पार्श्वनाथके उपदेशकी नकल ही करनी चाही है। भगवानने कहा था कि मूलमें जीवात्मा ही अपना संसार आप बनाता है और स्वभाव अपेक्षा सब ही नीव एकसे है। इसलिये वही स्वयं सृष्टिके रचयिता हैं, जिसमें पुद्गल और व्यवहार प्राणोंकी मुख्यता है। यही नहीं, वह यह भी कहता है कि प्राण (-चेतनामई जीव)
ही पुद्गलको एक नियमित शरीरका रूप देते हैं और जब वह उससे - अलग होता है तब वह शरीर नष्ट होनाता है । भगवान् पार्व
नाथने पुद्गलमई शरीरसे जीवका अलग होना और उसके अलग होनेपर शरीरका विघटना बतलाया ही था। पिप्पलाद जो इस प्रकार ईश्वरवादको नये ढंगसे जैनधर्मसे सशता रखता हुआ, प्रतिपादन कर रहा है, वह भगवान पार्श्वनाथनीके धर्मप्रभावके कारण ही कहा जा सकता है।
पिप्पलादसे कौशलके आश्वलायनने कतिपय प्रश्न किये थे। १-प्री-बुद्रि० इन्डि० फिला० पृ० २२८ । २-पूर्व. पृ. २०९ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव। [२९१ उसने पूछा था कि प्राणों की उत्पत्ति कहांसे है ? वह शरीरमें कैसे आते हैं ? शरीरको छोड़ कैसे जाते हैं ? इसी सम्बन्धके उसने अनेक प्रश्न किये थे। पिप्पलादने इन प्रश्नोंको बहुत ही कठिन 'एक ' अतिप्रश्न' बतलाये थे तो भी यथाशक्ति उत्तर देते हुये उसने कहा था कि प्राणों की उत्पत्ति आत्मासे अथवा अपने निजी स्वाभाव (Inner Essence) से होती है । जीवन में आत्मा उसी तरह है जिसतरह सुर्यमें परछाई पड़ती है। ('आत्मना एषः प्राणो जायते । यथैव पुरुषे छाया एतस्मिन्नेतद् आततम् । प्रश्नोपनिषद ३३) आत्मा सम्राट्वत् शरीरके मध्य हृदयमें रहता है जिससे शरीरकी १ ० १ नाडियां निकलती हैं। इन्हींके द्वारा आत्म-सम्राट अपनी आज्ञाओं की पूर्ति इतर भागोंसे कराता है। यह आत्मा शरीरको मृत्युसे छोड जाती है । मरण समय और शायद जन्मते समय भी इद्रिय ननित ज्ञान (Sense-fuculties) मनमें केन्द्रीभूत रहता है । आत्मा इंद्रियजनित ज्ञानसे स्वतंत्र और ज्ञानमय होकर अपने पूर्व संकलित अच्छे, बुरे या मिश्रित लोक (यथासंकल्पितम् लोकम् ) को जाता है। अपने ही प्रकाशसे वह मार्ग देखता है
और अपने प्राणों की शक्तिसे यह लेनाया जाता है। आत्मा अथवा पुरुषको उसने शुद्ध उपयोगमई (विज्ञानात्मा ) माना था किन्तु उसने अपने खाप्त शमोको इतना अस्पष्ट कहा है कि उनका अर्थ लगाना भी मुश्किल है । तो भी उसने पुरुषके लिये प्राण, प्रकतिके लिए रयी, व्यक्त के लिये मूर्त और अव्यक्तके लिए अमूर्त
१-प्री० बुद्रिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० २३१-२३२ । २-पूर्वक पृ० २३२ । -पूर्व० पृ. २३३ । ४-पूर्व० पृ० २३५ ।
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२९२ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
आदि शब्द बिल्कुल नये नये ही व्यवहन किये थे।' इस सबका कारण भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशका दिगन्तव्यापी होना कहा जा सक्ता है क्योंकि भगवान् पाश्र्श्वनाथने बतला दिया था कि निश्रयसे आत्माका निजस्वभाव - चेतना लक्षण ही प्राण है परन्तु व्यवहार अपेक्षा उनने इंद्रियादि दश प्राण बतला दिये थे, जिनका प्रादुर्भाव आत्मापर ही अवलवित था और इसी भावको पिप्पलाद भी दर्शाने की कोशिष करता है, परन्तु वह अपनी असमर्थता पहले ही स्वीकार कर लेता है । आत्माको जीवनमें परछाई रूप अर्थात् पूर्ण व्यक्त न मानना भी ठीक है, क्योंकि भगवान् पार्श्वनाथजीने लोगों को बतला दिया था कि सांसारिक जीवनमे आत्मा अपने असली रूपमें पूर्ण व्यक्त नही रहता है । मृत्यु समय आत्माका शरीरको छोड़कर अपने सकल्पित-निदान किये हुये स्थानपर जन्म लेते बतलाना भी एक तरहसे ठीक है. परन्तु आत्माका शरीरके मध्य हृदय में विराजमान रहते कहना आदि बातें उसकी निजी कल्पना है। हां, मरणोपरान्त मार्ग में आत्मा अपने ही बलसे जाता है यह ठीक है । उसके प्राणोंकी शक्ति पूर्वसचित कर्म वर्गणाओंकी सदृशता रखती है । वह प्राण, मूर्त, अमूर्त मादि नये शब्द व्यवहार में लारहा है, वह भी हमारे कथन के समर्थक है; क्योंकि यह शब्द जैनधर्मके खास शव्द ('Technical Terms) हैं । अतएव पिप्पलाद के इस सैद्धातिक विवेचनसे यह स्पष्ट है कि उसने पुरातन वैदिक मन्तव्यको भगवान् पार्श्वनाथ के धर्म के सादृश्य बनाने के लिये, उक्त प्रकार प्रयत्न किया था जिसको जैनाचार्य अज्ञानमिथ्यात्वमें १ - पूर्व० पृ० २३३ ॥
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धर्मोपदेशका प्रभाव |
[ २९३ परिगणित करते हैं। यह भगवान पार्श्वनाथके प्रभावको स्पष्ट करता है ।' पिप्पलादने स्वमकी परमोच्च ध्यानमग्न अवस्थामे पहुंचकर आत्माका 'पर अक्षर आत्मा' अर्थात परमात्मा होजाना भी स्वीकार किया हैं । जिस समय स्वप्न दशामें सब संकल्प-विकल्प थम जाते हैं और आत्मा परमात्म- दशा ( Divine State) को प्राप्त होजाता है। इसलिये उसने सबका उद्देश्य एक परमात्मा माना था, जो उसके निकट अशरीरी, अवर्णी और प्रकाशमान् है । वह यह भी कहता है कि जो कोई उस परमात्माको जान लेता है वह सर्वज्ञ होजाता है ' । यहां बिल्कुल ही भगवान् पार्श्वनाथजी के सिद्धान्तकी नकल की गई है। सचमुच शुरू से आखिर तक पिप्पलाद जीवात्माको अपने ही बलसे परमात्म पद प्राप्त करनेको स्पष्ट करने के लिए प्रयत्न करता नजर आता है । उसने पुरातन वैदिक धर्मको भगवानके धर्मोपदेशसे सदृशता लाने के लिये जाहिरा प्रयत्न किया था और यह इसीलिये आवश्यक था कि भगवान् पार्श्वनाथजी का धर्मोपदेश उससमय बहु प्रचलित होरहा था ।
पिप्पलाद के साथ ही दूसरे प्रख्यात् ब्राह्मण ऋषि भारद्वाज हमें मिलते है, जिनका सिद्धान्त 'मुण्डकोपनिषद्' में गर्भित है । इनका अस्तित्व भी बौद्ध धर्मकी उत्पत्ति से पहले अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथनीके तीर्थमें एक स्वतंत्र 'मुण्डक' संप्रदायके नेता रूपमें मिलता है। बौद्धोके 'अद्भुतरनिकाय' में इनके मतकी गणना 'मुण्डकसावक' के नामसे एक अलग संप्रदाय में की गई है । जैन राजवा
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१–पूर्व० पृ० २३६। २- पूर्व० पृ० २३९-२४० । ३-डॉयलॉग्स ऑफ दी वुद्ध, भाग २ पृ० २२० ।
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२९४ ] भगवान पार्श्वनाथ । तिकमें इन्हें क्रियावादी बतलाया गया है। मुण्डकोने अपनेको ब्राह्मण ऋषियोंसे, जो बनमें रहते, तप तपते और पशु यज्ञ करते थे, एवं गृहस्थाश्रमी विप्रोंसे पृथक् व्यक्त करने के लिये अपना वह संप्रदाय अलग स्थापित किया था। वे गिर मुड़ाकर भिक्षावृत्तिसे उदर पोषण करते थे। वह जाहिरा जटाधारी ब्राह्मग ऋयोप्से अलग थे, परन्तु मूलमे वह पूर्णतः वेदविरोधी नहीं थे। उनने इनमेंसे मध्यपुरुषका स्थान ग्रहण किया था। भारद्वान मुडे मिर रहनेसे 'मुण्ड' नामसे प्रख्यात हुआ अनुमान किया जाता है और उसके शिष्य 'मुण्ड श्रावक' कहलाते थे। यहांपर इसतरह एक अलग संप्रदाय स्थापित करने का कोई कारण भी अवश्य होना चाहिये । साधारण कोई कारण दिखाई नहीं पड़ना, सिवाय इसके कि भगवान पार्श्वनाथ नीके धर्मो रदेशका प्रभाव यहां भी कार्यकारी हुआ हो । भगवानके बताये हुये श्रावक मार्ग में सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमाके धारी श्रावक सिर भी मुंडाते है और भिक्षावृत्तिसे ब्रह्मचर्य पर्वक रहकर जीवन बिताते हैं और आठवीं प्रतिमा पूर्णत: आरम्भ त्यागी होनाते हैं। उपरोक्त मुण्डक संरदायके भिक्षओं का जीवन भी इसी तरहका था और उनका निकाप ब्रह्मचारियों में से हुआ कहा भी जाता है तयापि जो उनके साथ 'श्रावक मन्द लगा हुआ है, वह स्पष्ट प्रकट कर देता है कि इस मप्रदायकी उत्पत्ति भगवान पार्श्वनाथके बताये हुये गृहत्यागी श्रावकोंके अनुरूपमें हुई थी। यही कारण है कि एक विहानने इसकी
-मानवानिक (८1) पृ. ९८२-प्री-बुद्धि. इन्डि. किस ... ?-१० पृ. ८०-३८ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९५ गणना जैन संप्रदायके अंतर्गत ही अनुमान की है। साथ ही जब हम इनके सिद्धान्तों पर दृष्ट डालते हैं तो वहां भगवान् पार्श्वनाथके धर्मापदेशका प्रभाव पड़ा हुआ पाते हैं। ___ भारद्वाजने पहले ही परमात्मा अर्थात् ब्रह्म को गोत्ररहित और वर्णहीन ( अगोत्रः अपर्णः) माना था और इसतरह पर उसने भगवान् पार्श्वनाथनीके अनुसार ही धर्म में जाति और कुलमदका खुला प्रतिकार किया था। यद्यपि अधिकांश बातोंमें उसका मत याज्ञवलय के समान था, पर उसने बहुतसी ब्राह्मण क्रियायोका विरोध.. किया था। उसने कहा था कि "आत्माकी प्राप्ति न केवल वेदोंसे, न केवल बुद्धिसे और न अधिक अध्ययन करनेसे हो सक्ती है, जिसको अपना आपा (Self) चाहता है उमीसे उसकी प्राप्ति हो सक्ती है। और न इसकी प्राप्ति उसको हो सक्ती है जो बलहीन, विचारी और उचित ध्यानको नहीं करनेवाला है। यह तब ही सभव है जब एक बुद्धिमान पुरुष बलवान, विचारवान और ध्यानमन्न होकर इसके पानेका प्रयास करता है कि वह अपनेको ब्राह्मणकी संगतिमें पाता है ।" ( मुण्डकोपनिषद् ३।२।३आत्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया ...नायम् आत्माबलहीनेन लभ्यो, न च परमादात् तपतो वाालविगात एष आत्मा विशाते ब्रह्मघामा" ) भारद्वाजने विद्या दो तरहकी मानी थी (१) परा और (२) अपरा । दूसरी अपराविद्यामें उसने चार वेदो और छह वैदिक ज्ञानोको गृहण किया था और परा (Higher or Tauscende
१-डायोलॉग्स ऑफ दी बुद्ध, भाग २ पृ. २२१ । २-प्री-बुद्धिस्टिक इन्डि. फिलामफी पृ० २५३ ।
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२९६ ] भगवान पार्श्वनाथ । ntal) विद्यामें केवल उसको माना था जिसमे 'अक्षर' (Undee. aying) की प्राप्ति होती है । इसतरह उसने यद्यपि वेदोंको स्वीकार किया था, परन्तु ब्रह्म-घाम-परमात्मपदको पाने के लिये उनको आवश्यक नहीं समझा था और अठारह प्रकारके यनों को भी सारहीन माना था। ठीक इसी तरहका विरोध भगवान पार्श्वनाथके प्राकृत धर्मोपदेशसे स्वयं होचुका था । तिसपर भारहान जो यह कहता है कि "जो अपने मनमें इच्छाओंको रखता है वह अपनी इच्छाओंके अनुसार यहा-वहा जन्म धारण करता है, परन्तु जिप्तकी इच्छायें पूर्ण होचुकी हैं उसे अपने सच्चे 'आपा'की प्राप्ति होचुकी है। इसी जन्ममें इच्छाओंका नाश हो सकता है। इसमें जाहिरा तौरपर वह भगवान् पार्श्वनाथजीके उपदेशको ही दुहरा रहा है और यह भगवान के दिव्य उपदेशके प्रभावशाली होनेमे प्रकट साक्षी है! जहा पहलेके वैदिक ऋषियोने विवाह कार्य मुख्य माना था, वहां भारद्वान ब्रह्मचर्यपर जोर देता है। यह इसी कारण कहा जाता है कि भगवान् पार्श्वनाथने केवल अपने धर्मो प्रदेशसे ही नहीं बल्कि अमली जीवनसे ब्रह्मचर्यका महत्व दिगन्तव्यापी बना दिया था। भारद्वान एकान्तदृष्टिसे प्रतिबोध द्वारा (प्रतिबोध-विदित) ही ब्रह्म ( परमात्मा ) को जान लेना मानता था । योगको ही वह ब्रह्मको पानेके लिये आवश्यक समझता था। इस तरहपर मुण्ड श्रावक संप्रदायका निकास भगवान पार्श्वनाथके धर्मोपदेशके प्रभाव अनुरूप हुआ प्रत्ट होता है। .. - डॉ० हर्टल भी स्वतंत्ररूपसे इमी निष्कर्ष पर पहुचे हैं कि ६-पूर्व० पृ० २५४ २-पूर्व० पृ० २५५ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९७ मुण्डकोपनिषद के ऋषियों ने अपने विचार जैनसिद्धान्तसे लिये थे। वह 'मुण्डकोपनिषद के कर्ताका नाम भारद्वाजके स्थानपर अंगरिस बतलाते हैं । संभव है कि अंगरिसका गोत्र भारद्वाज हो और उसी अपेक्षा डॉ० बारुआने उनका उल्लेख उक्तप्रकार किया हो । डॉ सा० अंगरिसकी मान्यताको जैनधर्मानुसार बताते हैं; जैसे वह लोककी आकृतिको पुरुषाकार मानता था और इस पुरुषरूपी लोकके मध्य भागमें मनुष्यलोक; इसके ऊपरवाले हिस्सेमें ब्रह्म स्वर्गलोक और ब्रह्म स्वर्गलोकसे ऊपर 'परमं साम्यम् ' अर्थात् मुक्तिस्थान मानता था।, वह कहता था कि जो मनुष्य यहां बहुत अच्छे २ काम करके विशेष पुण्य संचय करता है, वह मनुष्य सूर्य होकर ब्रह्मलोकमें जन्म लेता है और वहां उत्तम भोगोपभोग भोगता हुआ शुद्ध आनन्दमें जीवन व्यतीत करता है। किन्तु ब्रह्मलोकको प्राप्त हुआ आत्मा जबतक इच्छा रहित नहीं होता है और पूर्व संचित कर्म अवशेष रहता है, तबतक उसकी मुक्ति नहीं होती, उसे संसारमें फिर आना पड़ता है। अंगारिसको हड़ विश्वास था कि जबतक आत्मा रागद्वेष रहित नहीं होत , तबतक उसे अवश्य संसारमें रहना पडेगा; फिर वह वेदों में बताई हुई सारी क्रियायों को भले ही फरे! किन्तु इसके साथ ही वह कहता था कि जिस व्यक्तिका आत्मा कर्मोकी निरा कर डालता है और रागद्वेष रहित व पवित्र होता है तथा जो सदा तपस्या करता हुआ एकान्तमें रहता है व नविनयापन भिशासे करता है और जिसके पास सम्यज्ञान है, वह आत्मा मुक्तिलाम करता है। वहांसे वह कभी लौटकर नहीं आता। ..
अगारिसकी इन मान्यताओं का सादृश्य जैनधर्ममें निर्णित
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२९८] भगवान पार्श्वनाथ । मोक्षमार्गसे बिल्कुल स्पष्ट नजर पड़ता है। दोनो ही सिद्धांतोंके अनुमार यह लोक पुरुषरूप है और सनातन है । (मुण्डक उपनिषद " अनः" यह विशेषण प्रयुक्त करता है ) अंगरिस उस लोकमें ब्रह्मलोकको आनन्दकी एक जगह मानता है किन्तु सर्वोतम स्थान मोक्ष ही स्वीकार करता है । जैनधर्म में भी ब्रह्म एवं अन्य स्वर्ग ऐसे ही आनन्दमई स्थान माने गये हैं और उसमें भी मोक्ष ही सर्वोत्तम स्थान माना गया है । किन्तु जैनधर्ममें स्वर्गसे मुक्ति होना स्वीकृत नहीं है । यह दोनो मतोके अनुमार ठीक है कि रागद्वेष और कर्म रहित आत्मा मुक्ति लाम करता है तथा मोक्षमार्गमें तपस्या एक वास्तविक उपाय है। साथ ही 'मुण्डकोपनिषद में बहुतसे ऐसे शब्द प्रयुक्त हुये है जो जैनसिद्धान्कमे पारिभाषिक शब्दोंके समान व्यवहृत है; ययाकर्म, निर्वेद, वीतराग, सम्यग्ज्ञान, निग्रंथ, इत्यादि । निगथ शब्द जैन साधुका द्योतक है। जैन साधु
ओं की तरह मुण्डकोपनिषदमे भी केशलोंच करने जैसा विधान है:'शिरोव्रत विधिवद्यैस्तु ची।' इन सादृश्यों को देखने एवं जैनग्रथ 'पउमरिय में अगरिसको भ्रष्ट जैन मुनि बतानेसे, यह स्पष्ट है कि 'मुण्डकोपनिषद में निम शिक्षाका समावेश है, वह अवश्य ही जैन . - धर्मसे लीगई है। (देखो ‘धर्मवन'-विशेपाक वर्ष ५ अक १ ८० ९-१०)
उपरान्त मिनचिकेतम् द्वारा 'गोतमक सिद्धान्तोकी उत्पत्ति हुई थी। यह भी भारद्वाजके समसामयिक व्यक्ति थे। नचिकेतमने विवाद, तप और यनवादको स्वीकार किया था; परन्तु
१-० पृ. २६५।
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९९ उनका भाव प्राचीन ऋषियोंसे विलक्षण माना था।' वह प्राचीन यज्ञवादसे स्वर्गकी प्राप्ति होना मानता था, परन्तु उनसे अमर जीवनको पाना अस्वीकार करता था। उसके निकट यज्ञका भाव ज्ञानयज्ञ था। जिसमें इन्द्रियनिग्रह करना और ध्यानको बढ़ाना मुख्य था । वह व्यक्ति (Being) को अजन्मा और ममर बतलाता था। वह कहता था कि न उसकी शून्यसे उत्पत्ति हुई है और न कुछ उससे उत्पन्न हुआ है । व्यक्ति अजन्मा, मनादिनिधन और प्राचीन है । शरीरके साथ उसका नाश नहीं होता । यदि हिंसक यह समझता है कि मैं मारता हूं और मारनेवाला समझता है कि मैं मारा जाता हूं, तो दोनों मूढ़ हैं; न एक मारता है और न दूसरा मरता है।....जिसने पापकर्मसे अपनेको दूर करके शांत नहीं बनाया है और जिसने इन्द्रियनिग्रह नहीं किया है अथवा जिसका मन स्थिर नहीं है वह व्यक्ति (Being) को ज्ञानसे भी नहीं पासक्ता है। ( कठोपनिषद् ॥२॥१८ ) योग ही उसको पानेका द्वार है, जिसका मुख्य भाव इन्द्रियनिग्रहसे था। (स्थिरं इन्द्रिय-धारणं) इसतरह नचिकेतस्ने भगवान् पार्श्वनाथजीके बताये हुए निश्चयनयसे किंचित् आत्म-लाभ प्राप्त करनेका उपाय बतलाया था और वह एकांत पक्षसे पूर्णतः सैद्धान्तिक विवेचन करनेको असमर्थ प्रतीत होता है ! परन्तु उसकी इस शिक्षासे लोगोंने उल्टा ही मतलब निकाला था और उपरांत हिसाकांड वृद्धिपर होगया था; क्योंकि लोगोंको यह धारणा हो गई कि हिसा करनेसे जीवका कुछ नहीं बिगड़ता है । अस्तु; यहां भी साधारणत. भगवान पार्श्वनाथ
१-पूर्व० पृ० २६९ । २-पूर्व० पृ० २७३ । ३-पूर्व० पृ० २७५ ।
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३००] भगवान पार्श्वनाथ । जीके धर्मापदेशका प्रभाव पड़ा नजर पड़ता है। भगवान् के धर्मोपदेशको उपरांत उनकी शिष्यपरंपरा सर्वत्र प्रचलित करती रही थी, यह हम अगाडी देखेंगे।
नचिकेतसके इस सिद्धान्तको ही उपरान्त पूर्णकाश्यपने भी स्वीकार किया था। उसका कहना था कि जब हम स्वय कोई कार्य करते हैं अथवा दूमरोंसे कराते हैं तो उसमें आत्मा न कुछ करता है और न दूपरेसे कराता है। आत्मा तो निष्क्रिय है। इस दशामें जो कुछ हम पाप पुण्य करते है, उसका संसर्ग आत्मासे कुछ भी नहीं है। इसीलिये सूत्रकृतीग और सामन्नफलसुत्तमें उसके मतकी गणना 'अक्रियावाद' में की गई है। इस सिद्धान्तमें भी भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशकी ही झलक दृष्टि पड़ रही है। जैसे कि नचिकेतस्के सिद्धान्तसे भी व्यक्त होता हम देख चुके हैं । निश्चयमें भगवान पार्श्वनाथने आत्माको सासारिक क्रियाओंसे विलग एक विशुद्ध द्रव्य माना था। जिससे पाप पुण्यका कोई संबंध नहीं था । यही भाव एकान्तसे पूर्णकाश्यपने दर्शाया है। वह स्वय एक जैन मुनि था । श्रीदेवसेनाचार्यने (ई० ९ वी शताब्दि) अपने "दर्शनसार" ग्रन्थमें इनको मक्खाली गोशालके साथ भगवान पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्पराका एक मुनि लिखा है जो उपरान्त भृष्ट होगये थे। इनका साधु मेष भी इस बात का समर्थक है। वह भगवान पार्श्वनाथके तीर्थके जैन मुनियोंकी तरह 'अचेलकर ('नग्न) रहते थे। इसी कारण उनकी प्रख्याति अचेलक रूपमें
१-पूर्व० पृ० २७९ । २-पूर्वप्रमाण। ३-८० कृ०-१1१1११३। . ४-दर्शनसार गाथा १७६ । ५--प्री० बुद्धि० इन्दि फिला० पृ० २०७१
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धर्मोपदेशका प्रभाव । [३०१ थी और बहुतसे लोग उनके संप्रदायको अचेलक समझते हैं; परन्तु यह भ्रम है। अचेलक नामका कोई सम्प्रदाय-विशेष प्राचीन भारतमें नहीं था। 'अचेलक' शब्दका व्यवहार उस कालमें संब ही संप्रदायके नग्न साधुओंके लिये होता था; तिसपर जैन साधुओंके लिये वह विशेषतः प्रयोनित किया जाता था। अस्तु; जैन मुनिदशासे भृष्ट होकर पूर्णकाश्यपका अपने मूल विश्वासको विकृतरूप देना स्वाभाविक ही था; क्योंकि उसपर भगवान् पार्श्व'नाथके धर्मोपदेशका खासा प्रभाव पड़ चुका था। पूर्ण काश्यपका सम्बन्ध आजीविक संप्रदायसे रहा था, ऐसा प्रतीत होता है। उसकी मृत्यु ईसासे पूर्व ५७२वें वर्षमें हुई अनुमान की जाती है।
इनके बाद ककुद कात्यायन (पकुढ काञ्चायन)को ले लीजिए। यह म० बुद्धके पहले होचुके थे, और ब्राह्मण थे, यह प्रकट है। बुद्धघोषने लिखा है कि कात्यायन शीतनलको व्यवहार में नहीं लाता था और आवश्यक्तानुसार उष्णजलको काममें लेता था। वह शीत जलमें जीव मानता था। यहां भी भगवान पार्श्वनाथजीके मन्तव्यके स्पष्ट दर्शन होते हैं। उन्होंने शीतनलमें जीव बतलाया था और जैन मुनियोंको उसका व्यवहारमें लेना मना था, यह बौद्ध ग्रंथोंसे भी प्रकट हैं, तथापि उसने काय, सुख, दुःख, जीव आदि शब्द व्यवहारमें लिए थे और ये मूलमें जैन शब्द ही हैं। साथ ही जो
१-धीर वर्ष ३ संक ११-१२ । २-प्री० बुद्धि० इन्डि० फिला० पृ० २७७ । ३-पूर्व० पृ. २८१-२८२ । ४-सुमगलविलासिनी भाग १ पृ० १४४ । ५-पूर्व० पृ० १६८ । ६-प्री० बुद्धि० इन्डि० फिला 'पृ. २८५ ।
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३०२ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
उसकी मानता थी, वह भी भगवान् पार्श्वनाथके उपदेशसे सहशता रखती है । उसका मत था कि 'असत्तामें से कुछ भी उत्पन्न नही होता और जो है उसका नाश नहीं होता ।' भगवान पाइर्दनाथने भी लोकके पदार्थोश ऐसा ही स्वरूप बतलाया था, जिसको उनके उपरान्त कात्यायन विकृतरूप देता प्रतीत होता है । इन्हीं तत्वोके अनुरूप उसने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुख और जीव यह सात तत्व स्वीकार किये थे ।" वह इन्हीं सातके मिलने और विछुडनेसे जीवन व्यवहार मानता था । तत्वोंकी संख्या ठीक सात मानना भी उस समय भगवान् पार्श्वनाथके बताए हुये सात तत्वोकी प्रधानताका ही द्योतक है, वरन् उनकी ठीक सात सख्या मानना आवश्यक न थी । इन तत्वोका मिलन वह सुखतत्वके कारण और विच्छेद दुखतत्वके हेतुसे बतलाता था । इस अवस्थामें वह इनका पारस्परिक प्रभाव एक दूसरेपर पड़ता स्वीकार नहीं करता था, जिससे किसी व्यक्तिको खास नुकसान पहुचाना भी मुश्किल था ! इसलिये उसके निकट किसी जीवको मारना कुछ विशेष महत्व न रखकर केवल व्यवस्थित तत्वोको अलग कर देना था; जिसमे पाप-पुण्यका भय ही नहीं था । सचमुच प्रतरदन, नचिकेतसद् और पूर्ण काश्यपका भी ऐसा ही विश्वास था । भगचद्गीता में भी यह भाव प्रगट किया गया है । आत्माको अमर मानते हुये उसके मूल भावमें यह उद्गार कहे प्रतीत होते है, पर
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१ – सूत्रकृताङ्ग २।१।२२ । २ - जैनसूत्र ( S. B. E ) भाग २ भूमिका XXIV. ३- प्री० बुद्धि० इन्डि० फिल० पृ० २८६ ॥ ४-गीता २1१६-२४ ।
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धर्मोपदेशका प्रभाव।
[३०३
न्तु इनके बल हिसाबादकी पुष्टि करना अनुचित क्रिया है। इसी कारण इन विधर्मियोंको 'तत्वार्थरानवार्तिक' में प्राणिवधमें पापवंधका कारण नहीं है', इस मान्यतावाला बतलाया है ।' (न हि प्राणिवधः पापहेतुर्धर्मसाधनत्वमापतुर्महति ॥ १२ ॥ १८1) इस प्रकार कात्यायनके समयमें भी भगवान पार्श्वनाथके धर्मका प्रभाव कार्यकारी था, यह स्पष्ट है । उनके उपदेशसे वातावरण क्षुभित होगया था इसमें संशय नही और यह विदित ही है कि उनकी शिष्यपरम्परा म० बुद्धके समान विद्यमान थी, जैसे कि हम देखेंगे।
उसी समयके एक अन्य मतप्रवर्तक अजित केशकम्बलि भी भगवान पार्श्वनाथके धर्मोपदेशके प्रभावसे अछूते नहीं बचे थे; यह उनके सिद्धान्तोसे स्पष्ट है। वह वैदिक क्रियाकाण्डके कट्टर विरोधी थे और पुनर्जन्म सिद्धान्तको अस्वीकार करते थे। यज्ञ, बलिदान, श्राद्ध आदिको वह अनावश्यक बतलाते थे। कहते थे कि यदि मृतक पुरुषोंको भोजन पहुंचाना संभव है तो फिर परदेश गये हुये व्यक्तिको भी उसी तरह भोजन पहुंच जाना चाहिए, परन्तु यह होता नहीं, इसलिए श्राद्ध आदि क्रियाकाण्ड वृथा हैं। साथ ही वह इंद्रियनिग्रह और ध्यानको भी आवश्यक नहीं मानता था। वर्तमानको छोड़कर भविष्यसुखकी आशा करनेपर वह विश्वास नहीं करता था । लोकको वह पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका समुदाय मानता था और आत्माको पुद्गलका कीमियाई ढंगका परिणाम बतलाता था । इन चारों वस्तुओंके विघटते ही आत्मा भी विघट जाता है, यह वह कहता था। इसीलिये वह जीवात्मा और शरीरको एक १-राजवार्तिक पृ० २९४ । २-प्री० बुद्धि० इन्डि० फिला० पृ० २८९ ।
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३०४] भगवान पार्श्वनाथ । ही मानता था और प्राणियोंकी हिंसा करना बुरा नहीं समझता था। इसकी इस शिक्षामें भी जैन सिद्धांतके व्यवहारनय अपेक्षा आत्मा और पुद्गलके संमिश्रणका विकृतरूप नजर आता है । भगवान् पार्श्वनाथने इस सिद्धांतका प्रतिपादन किया था, उसीको विकृत रीतिसे प्रगट करनेका प्रयास अजितने अपने उक्त सिद्धांतमें किया है । इस तरह यहां भी पार्श्वनाथजीके धर्मोपदेशका प्रभाव दृष्टि पड़ रहा है । सारांशतः हम उस समयके सैद्धांतिक अथवा धार्मिक वातावरणमें जैनधर्मका खासा प्रभाव पड़ा स्पष्ट देखते हैं। विद्वानोंका भी यह मत है कि उपरोक्त मतप्रवर्तकोंपर अवश्य नैनधर्मका प्रभाव पड़ा था, स्व० मि. जेम्सडेऽल्विस महोदयका वक्तव्य है कि म० बुद्धके समयमें भी 'दिगंबर ' एक प्राचीन संप्रदाय समझा जाता था और उपरोल्लिखित मत-प्रवर्तकोंके. सिद्धांतोपर जैनधर्मका प्रभाव पड़ा नजर पड़ता है। प्रो० डॉ. हर्मनजैकोबी भी यही कहते है कि तीर्थंकों ( पूर्णकाश्यप, कात्यायन आदि )ने उन सिद्धांतो और क्रियायोंको अपना लिया था जो जैनमतमें मिलती हैं और संभवतः यह उन्होंने स्वयं जैनों हीसे ले ली थी। यह भी प्रगट है कि महावीरके समयमे भी जनधर्म विद्यमान था और सो भी उनसे स्वाधीन रूपमें। इससे एवं अन्य कारणोसे यह प्रगट है कि निग्रंथ अर्थात् जैनधर्म भगवान महावीरसे बहुत पहलेसे प्रचलित था। अस्तु, इस दशामें हम जैन ग्रन्थों के उल्लेखोंको सार्थक पाते हैं और भगवान् पार्श्वनाथजीके
१ भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ. २५। २-इन्टियन एण्टीकेरी. भाग ९५० १६१ । ३ पू० पृ. १६२ ।।
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भगवानके प्रमुख शिष्य। [३०५ उपदेशका महत्व और प्रभाव सुगमतः हृदयंगम कर लेते हैं। सचमुच भगवान्के धर्मोपदेशका प्रभाव देखकर कविका निम्न पद्य सोलही आने चरितार्थ होजाता है"आतम रसीको है सुधारसको कुण्ड 'बन्द',
सम्यक् महीरुहको मूल छहरात है। सकल समाज शिवराजको अजज जामें, ऐसो जैन बैनको पताका फहरात है ॥"
(१७) भगवान के भ्रमुख शिष्ला 'गणीशा दश तस्यासन् विधायादि स्वयंभुवं । सार्दानि त्रिशतान्युक्ता मुनीन्द्राः पूर्वधारिणः ॥ यतयो युतपूर्वाणि शतानि नव शिक्षकाः। चतुः शतोत्तरं मोक्ताः सहस्रमवधित्विषः ॥ सहस्रमंतिमज्ञानास्तांबनो विक्रियद्धिकाः। शतानि सप्त पंचाशचतुर्थावगमाः स्मृताः॥ वादिनः षट्शतान्येव ते सर्वेपि समुचिताः। अभ्यर्णीकृतनिर्वाणाः स्युः सहस्राणि षोडश ॥
--उत्तरपुराण । भगवान पार्श्वनाथनीका तीर्थ सर्वमान्य होगया ! ग्राम २ और नगर पत्तनोमें उन भगवानका अहिंसामई और अव्याबाध सुखका संदेश व्याप्त होगया! हर दशा और हर परिस्थितिके लोगोंको अपने २ मन्तव्योंका प्रगट बोध होगया ! कोई स्थान और कोई
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भगवान् पार्श्वनाथ । देश ऐमा बाकी न बचा जिसमें भगवान के दिव्य संदेशने अपना प्रमाव दिगन्तव्यापी न बना लिया हो ! इसी अनुरूप उन भगबान्के प्रभावशाली प्रमुख शिष्य हनारोंकी संख्या थे । यह सर्व ही शिप्य गृहत्यागी और परोपकारी महापुरुष ही थे। इनसे वेष्टित होकर भगवान पार्श्वनाथ ऐसे ही गोमित होरहे थे जैसे वारिकामण्डलमें चन्द्र मनको हरनेवाला होता है। यही नहीं कि इन शिप्यों द्वारा भगवान्की ही शोमा और गौरव बढ़ रहा होउनके तो गुण स्वभावतः निर्मल और प्रकर्षरूप थे। किन्तु अनेकों भव्य पुरुषोंका कल्याण इनके द्वारा हुआ था। इनसे भारतका गौरव वता था । अहिंसामई सार्व प्रेम और आत्मीक भाव इन्हींके सत्प्रय. लोंसे अपना अपना प्रखर प्रकाश यहां फैला रहे थे । विश्वप्रेमकी उमंग हर हृदयमें लहर मारने लगी थी। इसमें मुख्य कारण भगवान् पार्श्वनाथजीका धर्मोपदेश ही था किन्तु उनके प्रमुख शिप्य भी उसमें प्रधान कारण थे। श्री गुणमद्राचार्यजी कहते हैं कि "भगवान् पार्श्वनाथके समवशरणमें स्वयंभुवको आदि लेकर दश गणघर थे, ग्यारह अंग और चौदह पूर्वको धारण करनेवालोंकी संख्या तीनसौ पचास थी। दशहजार नौसो शिक्षक मुनि थे और एकहजार चारसौ अवविज्ञानी थे। इसीप्रकार एकहजार केवलज्ञानी थे, एक ही इनार विक्रिया ऋद्धिको धारण करनेवाले थे। सातसौ पचास मन परयनानी थे और छहसौ वादी थे। इसप्रकार शीघ्र ही मुक्त होनेवाले सब मुनियोंकी संख्या सोलहहजार थी!"' यह सन ही महान ऋषिगण सर्वत्र विचरकर प्राणियोंको अभयदान देते हुये
१-उपपुगा पृ. ५८० ।
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भगवानके मुख्य शिष्य । [३०७ उनको आत्मपंथका मार्ग दर्शाते थे। उस समयके भव्य जीवोंको इनके सन्तसमागममें विशेष पुण्यसंचय करनेका अवसर प्राप्त था। बौद्ध शास्त्रोंमें हमें इन्ही जैन ऋषियोका उल्लेख परोक्षरूपमें हुआ मिलता है । उनके 'ब्रह्मनालसुत्त में पहलीसे चौथी आलोचनातक निन प्राचीन ऋषियोके मन्तव्यों का निकर है वह जैन दृष्टि से जैन मुनियोंकी मान्यताके अनुसार मात्माके निश्चय और व्यवहाररूपको लक्ष्य करके लिखा गया है। किन्हीं ऋषियोंको वहॉ संख्यात पूर्वभव बतलाकर आत्मा और लोकका कथंचित नित्यत्व और अनित्यत्व स्वरूप सिद्ध करते प्रगट किया गया है। यह कथन केवलज्ञानी और अवधिज्ञानी मुनियोंसे लागू है जो श्री पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्परामें म० बुद्धसे पहले इसी प्रकार आत्मा और लोककी सिद्धि करते थे। तथापि जो इन्हीं बातोंको तर्कवादसे सिद्ध करते हुये बताये गये हैं, वह भगवान् पार्वनाथके वादी मुनियोंको लक्ष्य करके कहा गया प्रतीत होता है।' इसतरह यह ऋषिगण केवल वर्षा. ऋतुके चार महीनोंमें एक स्थानपर ठहरते थे, वरन् ग्राम-ग्राम और नगर-नगरमें विचरते हुये धर्मोपदेशका अमृत तृषित जनताको पिलाते थे। इन्हीके सदकृत्योंका यह परिणाम निकला था कि जनता धर्मके नामपर होनेवाली हिंसाके विरुद्ध आवाज कसने लगी थी और पुरोहितोंकी 'पोपडम'का अन्त करनेको उतारू होगई थी। यह महापुरुष स्वयं अपना कल्याण करते थे और प्राणीमात्रके उपकारमें दत्तचित्त रहते थे। यही नहीं कि केवल पुरुषवर्ग ही अपने आत्मकल्याण और धर्मप्रचारमें संलग्न था; बल्कि आर्य ललनायें भी
१-भगवान महावीर और म० बुद्र० परिशिष्ट पृ० २२२ ।
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३०८] भगवान पार्श्वनाय । इस सेवा-मार्गसे विमुख नहीं थीं। कोमलांगी रमणीरत्नोंने अपने वासना विलासको उठाकर एक तरफ रख दिया था । ज्ञान अंजनसे उन्होंने अपने दिव्य चक्षुओंको प्रभामई बना लिया था। गृहकुटुम्बका ममत्व उनकी 'वसुधैव कुटुम्बकम्'की नीतिमें बाधक नहीं था। वह स्वयं संयमी जीवन व्यतीत करती हुई अपना आत्मकल्याण करती थीं और देश में सर्वत्र विहार करती हुई विद्वानोसे शास्त्रार्थ करता और जनताको धर्मामृतका पान कराती थीं । वह रमणीरत्न थीं सारे संसारके लिये आदर्शरूप थी। इन्हींके साथ श्वेत वस्त्रोंको धारण करनेवाले उदासीन गृहत्यागी श्रावक और श्राविकायें भी अपनी शक्तिके अनुसार धर्मप्रभावनाके कार्यमें संलग्न थे । इन सबके विषयमें श्री गुणभद्राचार्यजी कहते हैं कि.
"सुलोचनाद्याः पत्रिशत्सहस्राण्यार्यिका विभोः। श्रावका लक्षमेकंतु त्रिगुणाः श्राविकास्ततः ॥१५३॥"
अर्थात्-'उन भगवान्के समवशरणमें सुलोचनाको आदि लेकर छत्तीसहजार अनिकाएं थीं. एकलाख श्रावक थे और तीनलाल श्राविकायें थीं।" यह सब ही अपना आत्मकल्याण करत सर्वत्र भगवान के साथ रहकर धर्मका उद्योत करते थे। इनके अतिरिक्त जनेकों राना, सेठ और देव-देवियां भगवान के साधारण भक्त । इनमें मुख्य भगवान्के माता-पिता थे, वे इन तीर्थकर भगवान हद प्रदानी होकर उनके मासनका या फलानेमें दत्तचित्त छ । यही बात श्री वादिरानमूग्निी इन शब्दोमें प्रकट करते है'राजा पुनः स जिनभक्तिमरावनम्रः,
मोच्यकराव्यपदमदिनमण्डलश्री।
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भगवान्के मुग्व्य शिष्य । [३०९ देवस्य तीर्थमघसार्थहरं नरेषु,
प्राभावयत् त्रयविधिर्नन विश्वसेनः ॥४३॥' अथातु-'भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिसे नम्रीभूत, उत्तम राज्यसे शामित तीन ज्ञानके धारक राजा विश्वसेन पापोंके नाशक भगवान जिनेन्द्रके तीर्थकी मनुष्योंमें प्रभावना करने लगे थे। ऐसे ही धर्मवत्सल भक्तोंके द्वारा शीघ्र ही भगवान के शासनकी विजय वैजयंती सर्वत्र फहराने लगी थी। भगवान पार्श्वनाथनीकी पवित्र स्मृतिमें अनेक स्थानोंपर दिव्य मदिर और चैत्यागार निर्मित हो गये थे। जिनमें सदा ही भगवानका यशगान हुआ करता था ! यही नहीं कि भगवानके शिष्य भारतवासी ही रहे हों, बल्कि विदेशोंके भी बहुजन आपके परम भक्त थे। नील-महानील और अमितवेग आदि विद्याधर लोग भारत बाह्य प्रदेशके राज्याधिकारी थे। उन्होंने भारतम तीर्थ वन्दना करते हुये तेरपुर (उस्मानाबाद)के निकट अनेक जैन मंदिरोंको निर्मापित कराया था और उनमें मणिमई श्री पार्श्वनाथनीकी प्रतिबिम्ब बिराजमान की थी। सारांशतः भगवानकी भक्ति-सौरभका मधुर गुनार दिग् दिगान्तरोमें फैल गया था !
भगवान् पार्श्वनाथजीके प्रमुख गणधर स्वयंभू नामके थे। यही सर्व प्रथम भगवान्की अमृतवाणीको ग्रहण करनेवाले नर-रत्न थे। इन्होने ही भगवानकी दिव्यध्वनिको अवधारण करके द्वादशाङ्गरूप, पूर्वोकर सयुक्त जैन आगमकी रचना की थी। वही आगम भगवान् महावीरके सर्वज्ञ होने तक सर्वत्र प्रचलित रहे थे । हत्भाग्यसे इन प्रमुख गणधर महारानके विषयमें कुछ भी विशेष परिचय नहीं
१ मुनि कणयामर विरचित 'करकंडुचरित्र' सधि ५।
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३१०]
भगवान पार्श्वनाथ । मिलता है। केवल इन्हीके संबंधमें यह बात नहीं है, बल्कि उस समयके किसी भी अन्य गणघर अथवा मुनिका पूर्ण परिचय अभाज्यवश प्राप्त नहीं है। सब ही दिगंबरजैन शास्त्रोंमें केवल यही उल्लेख मिलता है कि भगवान् पार्श्वनाथजीके दश गणधर थे, जिनमें प्रमुख -स्वयंभू थे। 'गणधरादि महर्षिस्तोत्र में भी इनका कुछ विशेष परिचय नहीं मिलता है । वहां भी केवल नामोल्लेख है, यथाः
'नेमि पार्श्व स्वम्भवाद्या गौतमाद्याश्च सन्मतिं । नेम्यो गणधरेशेभ्यो दत्तोऽर्योदयं पुनातु वः॥'
स्वयंभू महाराजके अतिरिक्त अवशेष नौ गणधरोंका उनमें नाम भी नहीं मिलता है। सचमुच इतने प्राचीनकालके महत पुरुबोंका विशेष परिचय पाना कठिन है। हा. श्वेताम्बर संप्रदायके अर्वाचीन साहित्यमें अवश्य ही इन सबके नाम दिये हुये मिलते
हैं; किन्तु वे आपसमें ही एक दुसरेके खिलाफ हैं । इतना अवश्य __ है कि प्रायः वे सब ही भगवान्के प्रमुख गणधरका नाम "आर्यदत्त"
बतलानेमें एकमत हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके इस मतभेदका कोई विशेष कारण तो दृष्टि नहीं पड़ता है। होसक्ता है कि दोनो संप्रदायोंने अपने आपसी मतभेदके कारण पूर्व पट्टावलियोंमें भी अन्तर रक्खा हो । श्वेताम्बरोंके 'पार्श्वचरित'में भगवानके दश गणधरोंके नाम यूं बतलाये हैं:-आर्यदत्त, आर्यघोष, वशिष्ठ, ब्रह्मनामक, सोम, श्रीधर, वारिषेण, भद्रयशस, जय और विजय', किन्तु उनके 'शत्रुञ्जयमहात्म्य' में केवल 'आर्यदत्तकी अध्यक्षतामे नौ सुरियोंका होना' लिखा है और ‘फल्पसूत्र में केवल गणघर आर्यदत्तका ही भावदेवसूरि, पा०च सर्ग: श्लो. १३५०-१३५८१२ शत्रुजयमाहात्म्य १४१६८
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भगवानके मुख्य शिष्य। [३११ उल्लेख है। उपरांत श्वे. मुनि आत्मारामनीने स्वरचित 'अज्ञानतिमिरभास्कर में भगवान पार्श्वनाथनीकी जो शिष्यपरंपरा दी है, वह इनसे भिन्न है । वह भगवान्के प्रमुख शिष्यका नाम आर्यसमुद्र लिखते हैं और फिर श्री शुभदत्त गणधर, श्री स्वामी प्रभासूर्य, श्री हारदत्तनी और श्री केशीस्वामीका उल्लेख क्रमशः करते हैं। इसतरह पर भगवान पार्श्वनाथजीके मुख्य गणघरोंका ठीकसर परिचया पालना आन कठिनसाध्य है और इस अवस्थामें केवल यही निःसंशय, स्पष्ट है कि भगवान के मुख्य गणधर दश थे। इन सबकी अध्यक्ष-- ताम उक्त मुनिगण विचरते थे। प्रमुख गणधर स्वयंभू मनःपर्ययज्ञानी थे और उपरान्त उनको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी।
इनके अतिरिक्त श्री पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्पराके विशेष प्रख्यात् मुनि हमको श्री पिहिताश्रव नामक मिलते हैं। दिगंबर जैन शास्त्रोंमें इनका विविध स्थानोंपर उल्लेख मिलता है । श्वेतांबर यति आत्मारामजी भी इनके विषयमें कहते हैं कि 'यह स्वामी प्रभासूयेके कई साधुओमेंसे एक थे। दिगम्बर जैन शास्त्रोमें इनको भगवान पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्पराका एक साधु लिखा है और बतलाया है कि इनके एक बहुश्रुती शिप्य बुद्धिकीर्ति नामक थे, जिन्होंने भ्रष्ट होकर क्षणिकवादका प्रचार किया था । यह बुद्धिकीर्ति चौद्धधर्मके संस्थापक म० गौतमबुद्धके अतिरिक्त और कोई अन्य व्यक्ति नहीं थे। म० बुद्धने स्वयं अपने मुखसे एक स्थानपर जैनमुनि होना स्वीकार किया है। ऐसा मालम होता है कि म०
१ क पसूत्र १६१ १ २ जनहिषी भाग ७ अक १२ पृ० २ । ३-जैन हितेपी भाग ७ अंक १२ पृ. 1-दर्शनमार -10 । १३-मान्दर्ग गौतमबुद्ध ५० १५ ।
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३१२ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
बुद्ध के पितृगण भी श्रमणभक्त थे। जिस समय म० बुद्धका जन्म हुआ था, उस समय एक अजितनामक श्रमण ऋषिने उनको देखकर आशीर्वाद दिया था तथापि जिस समय वे कपिलवस्तुसे बाहिर आरहे थे, तब भी उनको एक श्रमण के दर्शन हुये थे । यह श्रमण बौद्धभिक्षु तो नहीं हो सक्ते, क्योंकि उस समय चौद्धधर्मका अस्तित्व नहीं था किन्तु इसके माने यह भी नहीं है कि वे निश्चितरूपमें जैनश्रमण ही थे, क्योंकि उस समय आजीविक आदि साधु भी श्रमण नामसे उल्लेखित किये जाते थे । यद्यपि यह ठीक है कि मुख्यतः इस ' श्रमण ' शब्दका प्रयोग जैनसाधुओं के लिये ही होता था, क्योंकि जैनधर्मको ' श्रमणधर्म ' ही बतलाया गया है तथापि ऋग्वेदमें जो श्रमणों का उल्लेख है वह निसंशय जैन श्रमणोंसे ही लागू है क्योकि आजीविक आदि इतर श्रमणोंकी उत्पत्ति ईसासे 'पूर्व ९०० वर्षसे हुई बताई जाती है, जबकि ऋग्वेद करीब चार हजार वर्ष इतना प्राचीन बतलाया जाता है। रही बात म० बुद्धके समागममें आये हुये उक्त श्रमणोकी, सो जब हम बौद्ध ग्रन्थ 'ललित विस्तर' में यह उल्लेख पाते है कि म० बुद्ध अपने बाल्यका लमें श्रीवत्स, स्वस्तिका, नन्द्यावर्त और वर्द्धमान यह चिन्ह अपने शीशपर धारण करते थे, जिनमें से पहलेके तीन चिन्ह तो क्रमशः शीतलनाथ, सुपार्श्वनाथ और अरहनाथ नामक जैन तीर्थंकरों के चिह्न हैं और अंतिम वर्द्धमान स्वयं भगवान् महावीरका नाम है तब यह कहना ठीक ही है कि संभवत उक्त श्रमण जैन मुनि ही थे
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१ - बुद्धजीवन (S. B. E. XIX) पृ० ११।२ - इन्डियन एन्टीक्वेरी भाग ९ पृ० २४६ । ३- कल्पसूत्र १० ८३ | ४- १०।१३६
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भगवानके मुख्य शिष्य । [३१३ और राजा शुद्धोदन उन जैन श्रमणोंके भक्त थे। इस प्रकार श्री 'पिहितानव सुनिरानके सर्व प्रमुख शिष्य बुद्धिकीर्तिके पितृकुल एवं उनके उपरान्त बौद्धधर्मके प्रवर्तकरूपमें वर्णन है। वह भ्रष्ट जैन मुनि थे और भगवान महावीरके समकालीन थे।
"मौन एकादशी व्रतकथा" में भी श्री पिहिताश्रव मुनिका कथन है । इस कथामें कौशांबीके राना हरिवाहन और उनकी 'पट्टरानी शशिप्रभाका अपने राज्यविमुख पुत्र सुकौशलके सम्बन्धमें
श्री सोमप्रभु नामक मुनिराजसे जिज्ञासा करने का उल्लेख है। मुनिराजने राजा रानीका समाधान करते हुये कहा था कि 'कौशल्य देशके कूटनगरमें राजा रणसिंह और उसकी रानी त्रिलोचना थी। इनके राजत्वकालमें उसी नगरमें एक कुणवी रहता था, जिसके तुगभद्रा नामकी भाग्यहीना कन्या थी। तुगभद्राकी शैशव अवस्थामें ही उसके मातापिता कालकवलित होगए थे और वह ज्योंत्योंकर बड़ी हुई ! आठ वर्षकी जब वह थी तब एक रोन घास काटनेके 'लिये वनमें जाते हुये उसे श्री पिहिताश्रव मुनिरानके दर्शन हो गये। उसने भी श्रीगुरुके मुखारविंदसे धर्म श्रवण किया और उनके परामर्शसे एकादशी व्रत ग्रहण किया ! व्रतको पूर्णत. पालकर वही कन्या मरकर तेरे यह सुकौशल नामक पुत्र हुआ है । यह चरमशरीरी है, इसी भवसे मोक्षलाभ करेगा। इसीलिये यह राज्यकाजसे विमुख रहता है।' राजा अपने पुत्र का यह पूर्वभव सुनकर संसारसे विरक्त हो चला और राजभवनमें आकर उसने सुकौशलको तो
१-भगवान् महावीर और म० बुद्ध पृ० ३७-३८ । २-जैनकथासग्रह
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३१४] भगवान पार्श्वनाथ । राज्यसिंहासनपर आरूढ़ किया और स्वयंने पिहिताश्रव आचार्यके निकट जाकर दीक्षा ग्रहण करली थी। इधर सुकौशल राज्याधिकारी तो हुये, परन्तु इनका चित्त सदा ही राज्यकानसे उदास रहता था। नौवत यहांतक पहुची कि एक मंत्रीने इनके विरुद्ध षड्यंत्र भी रचडाला कि जिससे यह सुगमतासे राज्यच्युत किये जासकें; किंतु दूसरे राज्यभक्त मंत्रीने इसका भंडा फोड़ दिया ! परिणामतः सुकौशल राजाने राज्यभक्त मंत्रीको राज्यपद दिया और स्वयं मोक्षलाभ किया था। इस कथासे भी पिहिताश्रव मुनिराजका भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थमें होना प्रमाणित है, क्योकि भगवान महावीरके धर्मप्रचारके समय कौशाम्बीमें राना शतानीकका राज्य होना लिखा गया है, जिनसे पहले ही उक्त घटना घटित हुई होगी ! किन्तु इस कथामें कौशाम्बीको कौशल्य देशमें अवस्थित बतलाया है; जो ठीक नहीं है क्योंकि कौशलकी रानधानी श्रावस्ती थी और कौशाम्बी वत्सदेशका राजनगर था । साथ ही श्री 'उत्तरपुराण'जीके निम्न अशसे इस कथाकी बहुत सहशता है और इसमें घटनास्थान चम्पा बतलाया गया है, यथाः
"अस्त्यत्र विषयोगाख्यः संगतः सर्ववस्तुभिः। नगरी तत्र चंपाख्या तत्पतिः श्वेतवाहनः॥ ८ ॥ श्रुत्वा धर्म जिनादस्मान्निनिर्वेगाहिताशयः। राज्यभार समारोप्य सुते विमलवाहने ॥ ९ ॥ संयम बहुभिः सार्द्धमत्रैव प्रतिपन्नवान् । १ हमारा भगवान महावीर पृ० १०८ । २ जैन कथासग्रह पृ० १३५ । बुद्धिस्ट इन्डिया पृ० २३२।
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भगवानके मुख्य शिष्य । [३१५ चिरं मुनिगणैः साकं विहृत्याखंडसंयमेः॥१०॥ धर्मेषु रुचिमातन्वन् दशस्वप्यनिशं जनैः। प्राप्तधर्मरुचिः ख्यातिः सख्यं यत्सर्वजंतुषु ॥ ११॥ अद्य मासोपंवासांते भिक्षार्थ प्राविशत्पुरं । पुरुषाः संहतास्तत्र तत्समोपमितास्त्रयः॥ १२ ॥ नरलक्षणशास्त्रज्ञस्तेष्वेको वीक्ष्य तन्मुनि । लक्षणान्यस्य साम्राज्य पदवीप्राप्तिहेतवः ॥१३॥ अटत्येष च भिक्षायै शास्त्रोक्तं तन्मषेससौ। वदन्नभिहितोन्येन न मृषा शास्त्रभाषितं ॥ १४ ॥ त्यक्तसाम्राज्यतंत्रोयमृषि केनापि हेतुना। निविण्णस्तनये वाले निधाय व्याति निजां ॥१५॥ स्वयं स्वार्थ समुद्दिश्य तपः कर्तुमिहागतः । मंत्रिप्रभृतिभिः सर्वैः कृत्वा तं शंखलात ॥ १६ ॥"
यहांपर चम्पाके राजा श्वेतवाहनको अपने विमलावाहन पुत्रको राज्य देकर श्री वीर भगवानके निकट तपश्चरण धारण करते बताया है। उपरांत मुनि भेषमें उन्होंने राजगृहमें लक्षण-शास्त्र-वेत्ताओंके मुखसे अपने पुत्रका मंत्रियों द्वारा राज्यच्युत किया जाना भी सुना था, यह भी उक्त श्लोकोंमें कहा गया है। पूर्वोक्त सुकौशल मुनिवाली कथा भी इसी ढंग की है। इसलिये बहुत सम्भव है कि उपरांत कालके उक्त कथाकारने सुकौशल मुनिकी कथाको विशेषता देनेके लिये चम्पापुरके श्वेतवाहनवाली घटनाको उसमें जोड़ दिया हो ! इसीलिये शायद उन्होंने कौशल देशके राजाका पुत्र सुकौशलको बतलाया है। कौशलके एक राजाका नाम महाकौशल बौद्ध
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___३१६] भगवान् पार्श्वनाथ ।
शास्त्रोंमें मिलता है, जिनके पुत्र प्रसेनजित थे। साथ ही राजाका हरिवाहन नाम भी श्वेतवाहन नामसे सदृशता रखता है । इन बातोंके देखते हुए जब हम 'आराधना कथाकोष' में सुकौशल मुनिकी कथाको पढ़ते हैं, तो यह ठीक जंच जाता है कि उक्त “मौन एकादशीव्रत कथा' का वर्णन ऐतिहासिकताके विरुद्ध है। इसी 'कथासंग्रह' की एक अन्य कथामें हम मध्य कालके राजा नरव
का सम्बंध देख ही चुके हैं। जिसको उस कथामें बहु प्राचीन कालमें जा रक्खा है । 'आराधना कथाकोष' मे सुकौशल अयोध्याके राजा प्रजापालके समयमें हुये सेठ सिद्धार्थके पुत्र बताये गये हैं और उन्हें दूसरे भवसे मोक्षगामी होते बतलाया गया है। किन्तु इस सब वर्णनसे इतना तो स्पष्ट ही है कि मुनिराज पिहिताश्रवके निकट किसी व्यक्तिने अवश्य ही दीक्षा ग्रहण की थी, यह व्यक्ति संभवत: सेठ सिद्धार्थ ही प्रतीत होते हैं। साथ ही अंगदेशस्थ चम्पापर राजगृहके राजा श्रेणिकके पुत्र कुणिकका राज्याधिकारी होनेका भी सम्बंध उक्त वर्णनसे स्पष्ट है । चम्पाके राजा अयोग्य
थे और मंत्रियोंने उन्हें राज्य-भ्रष्ट कर दिया था। इस मौके पर __ कुणिकका वहांपर अधिकार प्राप्त कर लेना सुगम ही था। इस तरह
इस विवरणमें कुणिकका चम्पापर राज पानेका कारण उपलब्ध हो जाता है, जो भारतीय इतिहासके लिये भी उपयोगी है । अस्तु !
श्री 'नागकुमार चरित'में भी एक पिहितानव मुनिका उल्लेख हमें मिलता है; किन्तु जैन शास्त्रोंमें श्री नागकुमारजीको भगवान्
१-इन्डियन हिम्टांरीकल क्वार्टी भाग १ पृ० १५८ । २-आगधना स्याकोप भाग २ पृ. २३२ ।
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भगवानूके मुख्य शिष्य । [ ३१७
- नेमिनाथजीके तीर्थमें हुआ बतलाया जाता है ।' और उस अव-स्था में इन पिहिताश्रव मुनिका भगवान् पार्श्वनाथजीकी शिष्यपर-म्पराका मुनि होना अशक्य है । परन्तु जब नागकुमार चरित में अनेक ऐसी बातोका उल्लेख हम पाते हैं जिनका सम्बंध भगवान् - महावीर के प्रारम्भिक कालकी घटनाओंसे प्रायः ठीक बैठता है, तो यही प्रतिभाषित होता है कि यह पिहिताश्रव मुनि वही हैं जो श्री पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्परा में थे । हो सक्ता है कि नागकुमा- का जन्म श्री नेमनाथस्वामीके तीर्थमें होगया हो और वह भगवान् पार्श्वनाथजीके तीर्थके अंतिम समयतक बल्कि उपरान्ततक विद्यमान रहे हो, क्योंकि उनकी आयु भी १०७० वर्षकी बतलाई गई है । उनकी कथामें जय और विजय नामक मुनियोंका भी उल्लेख मिलता है; और इसी नामके मुनियोंका होना श्री पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्परा में भावदेवसूरिके "पार्श्वनाथ चरित" से भी प्रकट है जैसे कि हम ऊपर देख चुके हैं । गिरितट नगरसे नागकुमारका श्री नेमि - नाथजीकी वंदना के लिये पर्वतपर जानेका उल्लेख भी इस बातका द्योतक है कि उस समय भगवान् नेमिनाथ विद्यमान नही थे । नागकुमार की कथा में सिधुदेशके राजा चंडप्रद्योत बताये गये हैं ।' उस प्राचीनकाल में इस नामके एक प्रामाणिक राजा केवल उज्जयनीके थे और वह भगवान् महावीर के समय में भी विद्यमान थे । किन्तु यहां पर जो उनको सिंधुदेशका राजा लिखा गया है, वह भी ठीक
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१ - श्री पुण्याश्रव कथाकोष' पृ० १८० । २ - पूर्ववत् । ३ - पूर्व० पृ० १६९।४ - पूर्व० पृ० १७३ । ५- पूर्व० पृ० १७२ । ६ - बुद्धिस्ट इन्डिया ० २३ |
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] भगवान पार्श्वनाथ । है, क्योंकि जैनाचार्योने चर्मणावती नदीको ही सिंधुनदी माना है; बल्कि इस नामकी एक नदी वहीं मौजूद थी। इसलिये ही इस नदीके तटवर्ती देशको सिंधुदेश जैन शास्त्रोंमें लिखा गया है। गजा चेटककी राजधानी विशालाको भी इसी अपेक्षा सिंधुदेशमें
जैनाचार्योंने लिखा है । उज्जयनीका ही दूसरा नाम विशाला __ था। कवि कालिदासने अपने मेघदूत काव्यमें उसीके लिये
"विशालां विशालाम्' पदका प्रयोग किया था। इसीपरसे उपरान्तके जैनाचार्योने विशाला (वैशाली ) को सिंधुदेशमें बतला दिया था यद्यपि वास्तवमें वह विदेहदेशमें थी, जैसे कि आज पुरातत्वकी खोजसे प्रमाणित हुआ है । आन भी जैन शास्त्रकारोंकी तरह कतिपय विद्वान् भ्रमसे कवि कालिदासके उक्त पदका प्रयोग वैशालीसे सम्बंधित कर देते हैं: जबकि वास्तवमें वह उज्जयनीके लिये ही लागू है। अतएव इस कथनसे यह स्पष्ट है कि उपरोक्त चण्डप्रद्योत, नो सिंधुप्रदेशके राजा बताये गये है, वही हैं जो उपरान्तमें उज्जयनीके प्रख्यात राजाके रूपमें हमें हिन्दू, बौद्ध और जैनशास्त्रोंमें मिलते हैं । इस उल्लेखसे भी नागकुमारजीका भगवान्
१-अस्व. सिन्धो चर्मण्वत्वा । योगिराट:-पार्वाभ्युदयकाव्य टीका। २-भवभूतिका 'मालतीमाधव नाटक'-कनन्धिम जागरफी (नवा संस्करण) नोट पृ० ७२७ । ३-कवि धनपालने अपने 'भविष्यदत्त चरित में इस प्रदेशका सिंधु नामसे उल्लेख किया है-देखो अग्रेजी जैनगजट वर्ष २२ पृ० २४९ पर मेरा लेख । ४-श्रेणिकचरित्र पृ० और उत्तरपुराण पृ० ६.४ । ५-विशाला उज्जयिनीपुरीम् । 'विशालोज्जविनीसमा इत्याभिवानात् योगिराट. श्री पार्श्वभ्युदय काव्य पृ० ९०-९१ । ६-देखो हमारा 'भगवान महावीर' पृ० ६३-६८ । ७-डॉ० वी० सी० लॉने यह पद वैशालीके लिये बतलाया है और उनके अनुसार हमने ऐमा लिखा था।
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भगवान्के मुख्य शिष्य। [३१९ -महावीरसे किञ्चित् पहले तक विद्यमान रहना प्रमाणित होता है । यह नागकुमार मगधदेशके कनकपुर नामक नगरके राजा जयंधरकी रानी पृथ्वीमतीके पुत्र थे। इनका मूल नाम प्रतापंधर था। बौद्धोंके 'उदेनवत्यु' नामक कथानकमें कौशाम्बीके एक राजाका नाम परन्तप 'लिखा है। यह म० बुद्धसे "किञ्चित पहलेतक मौजूद थे और इनका पुत्र उदायन था, जो वीणावादनमें बहुप्रसिद्ध था । सभव है कि प्रतापंधरका ही उल्लेख बौद्धोंने परन्तपके रूपमें किया हो। जो हो, इन प्रतापंधरने अपने पिता द्वारा घरसे निकाले जानेपर बहु देशोंमें पर्यटन किया था और विविध स्थानोंकी राज्यकन्यायोंसे याणिग्रहण किया था। अन्ततः यह अपने नगरको वापिस प्रहंच गये थे और राजा जयंधरने इनके सुपुर्द राज्य करके स्वयं श्री पिहिताश्रव मुनिके निकट दीक्षा ग्रहण करली थी। इसके अति रिक्त पिहिताश्रव मुनिका उल्लेख इस कथामें कई जगह और भी आया है।
श्री 'पुण्याश्रव कथाकोष' में श्री भविष्यदत्तकी कथामें भी पिहिताश्रव मुनिका कथन है । वहा लिखा है कि भविष्यदत्तने पिहिताश्रव मुनिसे दीक्षा ली थी; परन्तु इस ग्रंथसे प्राचीन कवि धनपालके भविष्यदत्त चरित्र में मुनिका नामोल्लेख नहीं है ।
श्री “सम्यक्त्व कौमुदी' की विष्णुश्रीकी कथामें भी पिहिताश्रव मुनिका उल्लेख है। दक्षिण देशके वेनातट नगरके राजा
१-लाइफ एण्ड वर्क आफ बुद्धघोष पृ० ११९ । २-पुण्याव -कथाकोष पृ० १७९ । ३-पूर्व० पृ० १९२ । ४-श्री सम्यक्त्व को ५ .. पृ० ८४ ।
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३२० ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
सोमप्रभने यज्ञोंके द्वारा जो फल नहीं प्राप्त कर पाया था, वह वहीं के एक गरीवपर दानशील विश्वभूति नामक ब्राह्मणने मुनि पिहिताश्रवको आहारदान देने से उपार्जन कर लिया था । इम दानशील ब्राह्मणके फल - प्रभावको देखकर ही राजा पिहिताश्रव मुनिराज के निकट गया था और उनसे अन्तत श्रावक के व्रत उसने ग्रहण किये थे | यह कथा भी सभवत. भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थंके मुनि पिहिताश्रवसे सम्बंधित है । इनके अतिरिक्त अन्यत्र हमें मुनि पिहिताश्रवके विषय में कुछ अधिक ज्ञात नहीं होता है । तथापि इतने विवरण से यह तो स्पष्ट ही है कि मुनि पिहिताश्रव सर्वत्र विचर कर उस समय धर्मका उद्योत कर रहे थे । किन्तु खेद है कि उनके विषय में इससे अधिक और कुछ ज्ञात नहीं है ।
दिगंबर जैन शास्त्रोंमें इनके अतिरिक्त संजय, विजय, मौनलायन आदि जैन मुनियोंका उल्लेख भी हमें भगवान् पार्श्वनाथजीके तीर्थकालमें हुआ मिलता है और इन सबका उल्लेख हम अगाड़ी एक स्वतंत्र परिच्छेद में करेंगे । यहांपर श्वेतांबर संप्रदाय के साहित्यपर भी एक दृष्टि डाल लेना आवश्यक है । वहां हमें भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थके सर्वाभिमुख मुनिके रूपमें श्रमण केशीके दर्शन होते है ।' यह भगवान महावीरस्वामी के समय में विद्यमान थे और एक सघके आचार्य थे । इन्हींकी अध्यक्षतामे पार्श्व स्वामी के तीर्थ के मुनियोंने श्री महावीरस्वामीकी शरण ग्रहण की थी, यह श्वेतांबर शास्त्रोंका कथन है । इससे अधिक इनके विषय में हमें और कुछ ज्ञात नहीं है । इनके अतिरिक्त श्री भावदेवसूरि भगवान्
१ - उत्तराध्ययन सूत्र २३ ।
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भगवान के मुख्य शिष्य। [३२१ पार्श्वनाथजीके चार स्वास शिप्योका उल्लेख करते हैं। वे शिव, सुंदर, सोम और जय नामक थे। इनको भगवानकी दिव्यध्वनिसे ज्ञात होगया था कि वे उसी भवसे सिद्धपद प्राप्त करेंगे और इसी अनुरूप वे धार्मिक जीवन व्यतीत करने लगे थे। किन्तु जब ही मोक्ष प्राप्तिका समय निकट आया तो उनके हृदय क्षुभित होगए ।
आखिर वे भगवानकी शरणमें आये। जहा उन्हें शीघ्र ही केवलज्ञानकी प्राप्ति होगई और वे सब सिद्ध होगये ।' 'सूत्रकृतांग' में भी एक 'उदय पेढालपुत्त' नामक मुनिका उल्लेख है। यह श्रीपार्श्वनाथजी शिष्यपरम्पराके शिष्य वहां बतलाये गये है। (पासावचिज्जे नियंठे मेयज्जे गोत्तेण । ) इनका गोत्र मेदार्य ( मेयज ) था। इन्होने कुमार पुत्र नामक ऋषिसे 'प्रत्याख्यान' सबमें राजगृहके लेप नामक गृहपतिके भवनमें चर्चा की थी। यह लेप मूलमें नालदाके निवासी थे, जहां इनकी ‘शेष द्रव्या' नामक उदकशाला और उसके पास 'हस्तियाम' नामका एक बडा बगीचा था।
(पुरातत्त्व भाग २ अक २ पृष्ठ १३३) इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथजीके खास शिप्यों और उनके तीर्थके मुख्य मुनियोंके पवित्र जीवन थे । इनके वर्णनसे स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथनीका भी एक संगठित मुनिसंघ था और वह भगवान महावीरजीके समय तक विद्यमान रहा था । यह बात नथी' कि म बुद्धके पहले कोई संगठित मुनिसंघ भारतमे नहीं ही था। भगवान पार्श्वनाथके भव्य शिष्यगण एक नियमित संघमें म० बुद्धके पहलेसे जैनधर्मकी विजय वैजयंती उड्डायमान कर रहे थे, भव्योंको
१-लाइफ एण्ड स्टोरीज ऑफ पार्श्वनाथ पृ० १७० ।
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३२२] भगवान् पार्श्वनाथ । सच्चे सुखका राजमार्ग निस्टह भावसे जतला रहे थे, रंकसे लेकर राव तकका कल्याण कर रहे थे । भेद और पक्षसे विलग रहते वे सबके ही आदर पात्र बन रहे थे। वे अपना और परका उपकार करनेमें सदा बद्धपरिकर थे । लोभ और ममत्व तो उनको अपने शरीर तकसे नहीं था । वे वीर थे, पूर्ण निस्ष्टही थे, अपने जैसे आप थे ! परम त्यानके साक्षात् आदर्श थे । परमपूज्य श्रमण थे। उनके चरणों में सब ही नतमस्तक होते थे ! कविकी तानमें तान मिलाकर सब यही कहते थे:-- "जस गावत शारद शेप खरो, अघवन्त उधारनको तुमरो। तिहित शरनागत आन परो, विरदावलिकी कछु लाज धरो॥ दुख वारिधत प्रभु पार करो, दुरितारि हरो सुखसिंधु मरो। सब क्लेश अशेष हरो हमरो, अब देख दुखी मत देर करो।"
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(१८) মৃন্তু , ক্লোস্মৃন্তু ভুলুনি
शेषः शिष्या । "मसयरि-पूरण रिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्भि। सिरिवीर समवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण ॥ १७६ ।। चहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयारसांगधारिस्स । णिग्गइ झुणीण, अरुहो णिग्गयविस्सास सीसस्स ॥१७७॥ 'ण मुणइ जिणकहियसुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पोवेयभासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ॥ १७८॥
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मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३२३ अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयउ माणोहु । देवो अ णत्थिं कोई मुण्णंझाएह इच्छाए ॥ १७९ ॥"
श्री दर्शनसार। अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर सर्वज्ञपदको प्राप्त कर चुके थे ! केवलज्ञान सूर्यका प्रखर उदय उनके निकट हो चुका था ! देवोंने आकर उस समयपर हर्षित भावसे आनन्दोत्सव मना करके और सभामण्डप रचकर उस अवसरकी दिव्यशोभाको और भी अधिक • बढ़ा दिया था ! भगवान महावीर गंधकुटीमें अष्ट प्रातिहार्यसहित अन्तरीक्ष विराजमान थे, परन्तु तो भी उनकी वाणी नहीं खिरी । देवेन्द्र आदि तृषित चातकोंके एकटक निहारते रहनेपर भी भगवान द्वारा धर्मामृतकी वर्षा न हई ! देवेन्द्र आश्चर्यमें पड़ गया, उसने अपने विशिष्ट अवधिज्ञानके बल जान लिया कि भगवानके दिव्यो'पदेशको अब धारण करनेवाला योग्य व्यक्ति यहां मौजूद नहीं है। • इसीलिये वह रानगृहके इन्द्रभृति गौतम नामक वदेपारांगत विद्वा. ‘नको वहां लिवालाया और वह भव्य ब्राह्मण भगवानकी शरणमें “प्राप्त होकर आतुर धर्मात्मा-चातकोंको भगवानकी दिव्यध्वनिसे धर्मपीयूष पिलानेमें सहायक हुये । किन्तु इसी समय भगवानके समवशरणमें श्री पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्पराका मक्खलि अथवा “मश्करि गोशाल नामक एक वर्यप्राप्त ऋषि मौजूद था । उसे इस घटनासे बड़ा रोष आया। वह फौरन ही समवशरणसे उठकर चल दिया और बाहर निकलकर कहने लगा कि 'देखो कैसे आश्चर्यकी बात है कि मैं ग्यारह अंगका ज्ञाता हूं तो भी दिव्यध्वनि नहीं हुई ! पर जो जिनकथित श्रुतको ही नहीं मानता है, जिसने अभी
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३२४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
हाल ही दीक्षा ग्रहण की है और जो वेदोंका अभ्यास करनेवाला ब्राह्मण है वह गौतम (इद्रभूति) इसके लिये योग्य समझा गया ! अत जान पड़ता है कि ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता।' बस इस निश्रयके साथ ही वह अपने इस मतका प्रचार लोगो में करने लगा और यह प्रकट करने लगा कि अज्ञानसे ही मोक्ष होता है । देव या ईश्वर कोई है ही नहीं । अतएव स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान करना चाहिये ।
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इसप्रकार भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थमें के यह एक अन्य प्रख्यात मुनिका परिचय है । यह तो वौद्धशास्त्रोंसे भी सिद्ध है कि मक्ख लिगोशाल नामक एक बहुप्रसिद्ध मतप्रवर्तक तत्र मौजूद था और आखिर वह आजीविक सम्प्रदायका मुख्य नेता बन गया था । " उनके 'दीघनिकाय' में उसको अज्ञानमतका ही प्रर्वतक बतलाया है । गोशालके मुखसे वहां पर यह कहलाया गया है कि " न कोई हेतु है और न कोई ऐसी पहलेसे स्थित सत्ता ही है जो सत्तात्मक जीवोंके संक्लेशका कारण हो । उनका अशुद्धपना हेतुरहित और पहलेसे स्थित किसी वस्तुकी रचना नहीं है । तथापि सत्तात्मक जीवोंकी शुद्धता के लिए न कोई कारण है और न कोई ऐसा तत्व (Principle) जो पहलेसे मौजूद हो । उनकी शुद्धता अहेतुमय और बिना किसी पहलेसे स्थित वस्तुकी रची हुई है ।" उनकी उत्पत्ति के लिये वहां कुछ नहीं है जो व्यक्तियोंके चारित्रके फलरूप
१ - महापरिनिव्वान सुत्त (P. T. S Vol. II) पृ० १५० । २-' वीर” वप ३ अंक १२-१३ पृ० ३१८-१९। 3 – दीर्घनिकाय (P. T. S, Vol. II) पृ० ५३-५४ । ४ -यहापर देव या ईश्वरको नहीं मानका भाव स्पष्ट है ।
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मक्खलिगोशाल, मौलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३२५
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हो, दूसरो के कार्योंके परिणामरूप हो अथवा मानवी प्रयत्नों का नतीजा हो । उनका प्रार्दुभाव न वीर्यसे और न प्रयत्न से होता है । तथापि न मानुषिक त्यागसे और न मानुषिक शक्तिसे प्रत्येक सत्तात्मक प्राणी, प्रत्येक कीड़ा, मकोडा, प्रत्येक जीवित पदार्थ चाहे वह पशु हो अथवा वनस्पति; वह सब आतरिक ( Intrinsic ) शक्ति, वीर्य और ताकतसे रहित है, किन्तु अपने परिणामाधीन आवश्यक्तामें फॅसा हुआ वह छह प्रकार के जीवनोंमें सुखदु भुगतता है । इस तरह संसार में परिणामाधीन भटकता हुआ व्यक्ति चाहे वह मूर्ख हो अथवा पंडित हो नियत महाकल्पोंके उपरान्त समान रीतिसे दुःखका अन्त करता है ।" मूर्ख अथवा पडितको समान रीतिसे मोक्ष लाभ करते बतलाना, इस बातका द्योतक है कि मक्ख लिगोशाल मोक्ष प्राप्तिके लिये ज्ञानको आवश्यक नहीं मानता था। अतएव इस कथनसे परिच्छेदके प्रारम्भमे दी हुई गाथाओ का समर्थन होता है, जिनका भाव वही है, जो हम ऊपर बता चुके हैं। यहां जैनाचार्यने गोशालके मंतव्य ठीक वही बताये है, जो बौद्धोंके उक्त उद्धरणमे निर्दिष्ट किये गये हैं । इसी प्रकार श्वेतांबर जैनोके 'सूत्रकृतांग' में भी गोशालकी गणना अज्ञानवादमें की गई है । साथ ही पाणिनि भी मक्खलिगोशालका मत इसी तरहका प्रतिपादित करता है । पाणिनिसूत्रमें कहा गया है कि - मक्खलि कहता था - कर्म मत करो, शांति वाछनीय है।' भाव यही है कि कुछ
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१- इसमें स्पष्टतः अक्रियावादको स्वीकार किया गया हैं, जिसका भाव यही है कि कुछ मत करो, स्वच्छन्द रहो, शून्यतामें मत्त बनो ! जैसे दिगम्बर शास्त्रकारका कथन है । २ - सूत्रकृताग २ - १ - ३४५ । ३ - आजीविक्स भाग १ पृ० १२ ।
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३२६] भगवान पार्श्वनाथ । मत करो, शून्यमें गर्त होनाओ। परिणामवादके हाथोंमें कठपुतले बने नाचते रहो । नियत कालमें तुम्हारा स्वयं ही निवटेरा होजायगा।
किन्तु 'दर्शनसार' की उपरोक्त गाथाओमें 'मस्करि-पुरण' का 'एक साथ उल्लेख किया गया है, मानो यह दोनों एक ही व्यक्ति है अथवा इनका इतना घनिष्ट सम्बंध है, जो इन दोनोंका उल्लेख एक साथ किया जा सके। यह बात दि. जैनाचार्यके इस कथनसे ही केवल प्रगट नहीं है, किन्तु बौद्धोंके ' अत्तरनिकाय' नामक अन्थसे भी यही प्रमाणित है। वहां मक्खलिगोशालके छ अभिजाति सिद्धातको पूर्णका बतलाया गया है और उसीमें अन्यत्र उसको मक्खलिगोशालका प्राय शिप्य ही बतलाया है। इसी कारण आधुनिक विद्वान् पूर्णकाश्यप और मक्खलिगोशालके आपसी संबंधको स्वीकार करते हैं और इसलिये जैनाचार्यका उक्त प्रकार इन दोनों व्यक्तियोंका एक साथ उल्लेख करना कुछ अनोखा नहीं है।
हां । श्वेतांबर जैनोंकी मान्यता इस विषयमें इसके विरुद्ध है। वे मक्खलिगोशालको स्वयं भगवान महावीरका शिष्य बतलाते हैं
और उनकी छद्मस्थ अवस्थामें वह भगवान महावीरके निकट दीक्षित हुआ था यह कहते हैं। किन्तु यह ठीक नहीं है । उनके अन्य ग्रन्थोंसे यह बाधित है, क्योंकि उनमें यह प्रगट किया गया है कि छद्मस्थावस्थामें भगवान बोलते नहीं थे-मौन रहते थे। इस दशामें गोशालका भगवान् महावीरका शिप्य बतलाना गलत है और इस
१-अगुत्तरनिकाय भाग ३ पृ० ३८३ । २-इन्डियन एन्टीक्वेरी भाग ४३ । ३-भगवती मूत्र १५-१६ । ४-आचाराग मूत्र (S. BE) पृ. ८० ।
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मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिप्य । [३२७. कारण उनके अन्य कथनपर भी सहसा विश्वास नहीं किया जा सक्ता ! आधुनिक विद्वान् भी इसी निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि गोशाल भगवान् महावीरका शिष्य नहीं था; परन्तु साथ ही वह श्वेतांबर ग्रेथों के आधारसे जो स्वयं उसे भगवान महावीरका गुरु बतलाते है और भगवानने नग्न भेष उससे ग्रहण किया था, जो यह कहते है वह भी ठीक नहीं है ! जेन मान्यताके अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर स्वयं बुद्ध होता है और इसी अनुरूप किसी भी जैन अथवा अजैन शास्त्रसे यह प्रमाणित नही है कि भगवान महावीर अथवा किसी अन्य तीर्थकरने किसी व्यक्तिसे कोई शिक्षा ग्रहण की हो । जिस श्वेतांवर ग्रन्थके बल आधुनिक विद्वान गोशालको भगवानका गुरु बतलाते है स्वय उससे भी यह प्रमाणित नहीं होता कि गोशालसे भगवानने कुछ सीखा हो । नग्न भेष ग्रहण करनेकी बात भी उल्टी है ! भगवान महावीरके निकट आकर गोशालने नग्न भेष ग्रहण किया था। तब फिर भला यह कैसे संभव है कि भगवानने उससे नग्न भेष ग्रहण किया हो । इस दशामें आधुनिक विद्वानोंकी यह सब कोरी कल्पना ही है ! गोशालके विषयमें यह स्पष्ट है कि उसने अपने सिद्धात 'पूर्वो' से लिये थे और यह पूर्व सिवाय जैन पूर्वोके और कोई थे नहीं । यह आधुनिक विद्वान भी मानते है। साथ ही उसके सिद्धांत भी जैनसिद्धांतोंसे लिये हुये प्रगट होते
१-आजीवियस भाग १ पृ० १७, जैनसूत्र (S. B. E YOL XLV) भाग २ भूमिका ५ ।२-पूर्व दोनों प्रमाण, हिस्टारील ग्लीनिंग्स प० ३८-४१ और प्री.बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी प्र० ३७४ और ३८१। ३-विशद विवेचनके लिए "वीर" वर्षे ३ अक १२-१३ देखना चाहिये । । ४-आजीविक्स भाग १ पृ. ४२-४५'।
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३२८] भगवान पार्श्वनाथ । . हैं । वह आत्माका अस्तित्व और उसका स्वरूप करीबर जैनधर्मके अनुसार मानता था । आत्माको वह अरोगी सांसारिक मलोंसे विलग स्वीकार करता था एवं संसार परिभ्रमण सिद्धांतको भी स्त्रीकार करता था। भगवान पार्श्वनाथनीने इसी तरह आत्मा संबंधी सिद्धांत प्रतिपादित किया था । यही नहीं, अणुवाद (Atomic Theory) जो खास जैनियोंका ही सिद्धान्त है, वह भी उसको टीक जैनधर्मके अनुसार मान्य था। उसका नग्न भेष भी भगवान पार्श्वनाथनीके अनुरूप था। अष्टांग निमित्त ज्ञानको उसने पूर्वोसे ग्रहण किया ही था, जिनका प्रदिपादन भगवान पार्श्वनाथनीकी दिव्यबनिसे होचुका था। उसका चत्तारिपाणगायं चत्तारिअपाणगायं सिद्धांत जैनियोंके सल्लेखना व्रतके समान ही था। उसने सव्वे सत्ता, सव्वे जीवा, अधिकम्म, संजी, असंज्ञी शब्द जो व्यवहृत किये थे, वह खास जैनियोंके शब्द हैं। मक्खलिने अपना छै अभिजाति सिद्धात भी भगवान पार्श्वनाथके पटकाय जीवभेदसे ग्रहण किया था और जेन शास्त्र स्पष्ट रीतिसे उसके जैन मुनि होनेकी घोषणा करते ही हैं । अतएव जैन मुनि-दशासे भ्रष्ट होकर उक्त प्रकार जैनधर्मसे सादृशता रखते हुये सिद्धांतोंका प्रतिपादन करना उसके लिए आवश्यक ही था ! उसका गिप्य उपक नामक आनीविक जैन तीर्थकर अनन्त जिनकी भी उपासना करता था। सचमुच आजीविक संप्रदायकी उत्पत्ति भगवान पार्श्वनाथजीके
५-जनमत्र S B E. भाग ५ भूमिका । २-उन्मा श्रो० आफ ग्लिीजन पर इथिक्स भाग २ पृ. १९९। ?-आजीविस्म भाग १ पृ. ११ । ४-दीघनिकाय (S. B E.) भाग २ पृ० -४ । ५-श्री-बुद्रिस्टिक, टन्दियन फिलासफी पृ० ३०१।।
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मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३२९ 'दिव्य उपदेशके प्रभाव अनुरूप हुई थी और मक्खलिगोशालने भी अन्ततः उसका नेतृत्व स्वीकार कर लिया था। इसी कारण बौद्धशास्त्रोंमें उमका वर्णन हमें म० बुद्धके समयमें एक स्वाधीन मतप्रवर्तकके रूपमें मिलता हैं। आधुनिक विद्वान् बौद्धोंके तत्कालीन कथनको उससे पहलेके समयसे भी लागू कर देते हैं, यद्यपि यह ठीक है कि म० बुद्धके धर्मोपदेश देनेके पहले ही स्वतंत्र मतप्रवतक रूपमें वह प्रकट हो गया था । किन्तु इसके अर्थ यह नहीं होसक्ते कि मक्खलि कभी जैन मुनि नहीं था और भगवान महावीरने उससे ही सैद्धातिक विचार करनेकी योग्यता प्राप्त करके एक नया सघ स्थापित किया था, जैसा कि किन्ही लोगोंका ख्याल है। आजीविक सप्रदायका उद्गम जहां जैनधर्मसे हुआ था, वहां उसका अन्त भी जैनधर्मके उत्कृष्ट प्रभावके समक्ष हुआ था । उपरांत कालमें आजीविकोंका उल्लेख दि. जैनोंके रूपमें होता था और वे दि० जैन होगये थे। (हल्श, साउथ इडियन इंसक्रिपशन्स, भा० - १८० ८८ व आजीविक भा० १)।
इसप्रकार भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थवर्ती एक अन्य प्रख्यात ऋषिका वर्णन है। भगवान महावीरके सर्वज्ञपद पाते ही वह उनसे विलग होगया था और आजीविक संप्रदायका नेता बनकर परिणामबाद और अज्ञानका प्रचार करने लगा था !
मक्खलिगोशालके अतिरिक्त संजय, विजय और मौद्गलायन नामक मुनि और थे जो भगवान् पार्श्वनाथकी शिप्यपरम्परामें
१-भगवान महावीर पृ० १७३ और वीर' वर्ष ३ अंक १२-१३॥ २-दीघनिकाय-मामण्ण फलसुन ।
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३३०] भगवान पार्श्वनाथ । उल्लेखनीय है। सजय और विनय यह दोनों चारण (आकागगामी) जैन मुनि थे और यह भगवान महावीरके जन्म समय तक विद्यमान थे । इनको किसी प्रकारकी सेद्धातिक सशय विद्यमान था: जिसका समाधान इनको भगवान महावीरके दर्शन करते ही होगया था । श्वेतांबरोंके 'उत्तराध्ययनसत्र में भी एक सजय नामके मुनिका उल्लेख है परन्तु यह प्रगट नहीं कि वे भी यही मुनि थे। किंतु उधर बौद्ध शास्त्रोंमें भी एक सजय नामक मतप्रवर्तकका उल्लेख मिलता है और उनके शिष्य मौदलायन एवं सारीपुत्त वहां बतलाय है। मौदलायन जैन मनि थे, यह वात श्री अमितगति आप यके निम्न श्लोकोंसे प्रगट है:
"रुष्टः श्रीवीरनाथस्य तपस्वी मौडिलायनः। शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥ ६८ ॥ शुद्धोदन सुते बुद्धं परमात्मानमब्रवीत् । माणिन. कुर्वते किं न कोपवैरिपराजिताः॥६९॥"
इन श्लोकोंमें मौडिलायन अथवा मौद्गलायन नामक तपस्वा श्री पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्परामें बतलाया है । उसने महावा भगवानसे रुष्ट होकर बुद्ध दर्शनको चलाया था और शुद्धोदनकपुर वुद्धको परमात्मा माना था यह भी कहा है ! यहांपर महिला बौद्धमतका प्रवर्तक इसीलिये लिखा है कि मौद्गलायन विशेष प्रर और बौद्ध धर्मका उत्कट प्रचारक था । इस अपेक्षा मौद्गलायन
१-उत्तरपुगण पृ० ६०८ और महावीरचरित पृ० २५ उत्तराध्ययन (S BE ) पृ. ८२। ३-महावग्ग १० ४-धर्मपरीक्षा अध्याय १८ । ५-हिस्टारीकल ग्लीनिन्गास 2
४० २५५ । २
हावग्ग १-२३-२४॥ निन्गास पृ. ४५ ।
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___ मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३३१ ही बौद्धधर्मका प्रवर्तक कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति नहीं है । इस दशामें यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य भी उन्हीं मौद्गलायनका उल्लेख कररहे हैं; जिनके गुरु संनय बताये गये हैं और जब स्वयं मौद्गलायन जैन मुनि थे, तो उसके गुरु भी जैन मुनि होना चाहिये ।। सौभाग्यसे इनके गुरु संजयका जैन मुनि होना अन्यरूपमें भी प्रमाणित है। और यह सजय एवं जैन शास्त्रके चारण ऋद्विधारी मुनि संजय संभवतः एक ही व्यक्ति हैं। पहले संजयकी शिक्षायें जो बौद्ध शास्त्रोंमें अंकित है' वह जैनियोंके स्याहाद सिद्धांतकी विकृत रूपान्तर ही हैं। इससे इस बातका समर्थन होता है कि स्याहाद सिद्धांत भगवान महावीरसे पहलेका है, जैसे कि जैनियोंकी मान्यता है और उसको संजयने पार्श्वनाथनीकी शिष्य परंपराके किसी मुनिसे सीखा था; परन्तु वह उसको ठीक तौरसे न समझ सका और विस्त रूपमें ही उसकी घोषणा करता रहा । जैन शास्त्र भी अस्पष्ट रूपमें इसी बातका उल्लेख करते हैं, अर्थात वह कहते हैं कि संजयको शङ्कायें थीं जो भगवान महावीरके दर्शन करनेसे दूर होगई ! यदि यह बात इस तरहसे नहीं थी तो फ़िर भगवान महावीर और म० बुद्ध के समयके इतने प्रख्यात मतप्रवतकका क्या हुआ, यह क्यों नहीं विदित होता ? इसलिए हम जैन मान्यताको विश्वसनीय पाते हैं और देखते हैं कि संजय अथवा संजय वैरत्थीपुत्र जो मौद्गलायनके गुरु थे, वह जैन मुनि सजय ही थे। दूसरी ओर इस व्याख्याकी पुष्टि इस तरह भी होती है
१-समनफलसुत्त' "डायोलॉग्स आफ बुद्ध" ( S. B.B. II) २-महावस्तु भाग ३ पृ० ५९.
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३३२ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
कि इन संजयकी शिक्षाकी सादृश्यता यूनानी तत्ववेत्ता पैर होकी शिक्षाओंसे बतलाई गई है' । एक तरहसे दोनोंमें समानता है और इस पैरोने जैम्नोफिट्स सूफियोंसे, जो ईसा से पूर्वकी चौथी शताव्दिमें यूनानी लोगोंको भारतके उत्तर पश्चिमीय भागमें मिले थे, यह शिक्षा ग्रहण की थी ।" यह जैम्नोसू फिट्म तत्ववेत्ता निग्रंथ (दिगम्बर) साधुओंके अतिरिक्त और कोई नहीं थे। यूनानियोंने इन साधुओंका नाम 'जैनोसू फिट्स' रक्खा था । अतएव जैन साधुओंसे शिक्षा पाये हुये यूनानी तत्ववेत्ता पैरहोकी शिक्षाओंसे उक्त संजयकी शिक्षाओंका सामञ्जस्य बैठ जाना, हमारी उक्त व्याख्याकी पुष्टिमें एक और स्पष्ट प्रमाण है । इस अवस्थामें भगवान् पार्श्वनाथजीकी तीर्थपरम्परा के संजय और मौद्गलायन नामक प्रख्यात् साधुओंका स्पष्ट परिचय प्रगट होजाता है । सचमुच भगवान पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्परामैसे म० बुद्ध, मक्खलिगोशाल और मौद्गलायनका विलग होकर अपने नये मत स्थापित - करना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि भगवान पार्श्वनाथजीके दिव्योपदेशका प्रभाव उस समय प्रबल रूपमें सर्वव्यापी होगया था और उसके कारण सैद्धान्तिक वातावरणमें हलचल खड़ी होगई थी ! इसप्रकार भगवान पार्श्वनाथजीकी शिष्यपरम्पराके प्रख्यात् शेष शिष्योंके चरित्रका भी सामान्य दिग्दर्शन हम यहां कर लेते हैं । इनके अतिरिक्त और भी किन्हीं मुनियों का उल्लेख भगवानके तीर्थवर्ती महापुरुषोका परिचय कराते हुये अगाड़ी स्वयमेव हो
१ - हिल्टारीकल ग्लीनि० पृ० ४५ २ - पूर्व प्रमाण ३ - इन्साइक्लोपेडिया ब्रेटेनिका भाग ३५
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मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३३३ जायगा ! इसके अगाडी हम श्वेतांबरियोंके पार्श्वचरितमें आये हुये किन्हीं प्रख्यात् व्यक्तियोंका विवरण देदेना उचित समझते हैं, जब कि हमारा उद्देश्य भगवानके शासनका यथासंभव पूर्ण परिचय उपस्थित कर देना है । अस्तु;
(१९) सागरदत्तु अगर खुत्युदत्तु वेष्टी !* 'स्त्री नदीवत् स्वभावेन चपला नीचगामिनी । उन्दृत्ता च जड़ात्मासौ पक्षद्वयविनाशिनी ॥"
भावदेवसूरिः। पुंड्रदेशमें ताम्रलिप्ति नगर प्रख्यात् था ! यहांपर भगवान पार्श्वनाथजीके समयमें एक सागरदत्त नामका श्रेष्टी पुत्र रहता था। सागरदत्त भरपूर यौवनमें पैर रख चुका था, पर तो भी वह कामशरसे वींधा नहीं गया था । उसे स्वभावसे ही स्त्रियों की सूरतसे वृणा थी, वह उनका नाम सुनते ही बहक उठता था । कामदेवसे उसने इसतरह प्रत्यक्ष ही विरोध ठान लिया था, किन्तु वह इस विरोधमें सफल न हुआ ! कामदेवके शरोंने उसे व्यथित अवश्य किया, पर वह उसके हृदयको पलट न सके !
___ एक दिन सागरदत्तकी दृष्टि एक वणिक सुताके सुन्दर रूप सौन्दर्यपर जा भटकी थी। उसके मनमोहक सौन्दर्यने सागरदत्तको विह्वल बना दिया था। वह उसके मुखरूपी कमलका भौंरा तो
* इनकी कथायें श्वेताम्बराचार्यके “ पाश्वनाथ चरित "के आठवें सर्गमें वर्णित हैं । दिगम्वर शास्त्रोंमें इनका उल्लेख नहीं है।
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३३४] भगवान पार्श्वनाथ । __ अवश्य ही बनगया पर वह दूरसे ही उसके सौन्दर्यसे अपने नेत्र
सफल करना चाहता था। स्त्रियोंके प्रति जो उसके कटुभाव थे, उनको उसे कामिनीकी रूप-राशि भी दूर न कर सकी थी। कितु इतना होते हुये भी सागरदत्तके बन्चुननोने उसका वाग्दान संस्कार उस कन्यारत्नसे कर दिया ! संभव था कि इस सम्बन्धसे सागरदत्तका मनोभाव बदल जाताः पर ऐसा न हुआ और इस बातका पता उस कन्याको भी चलगया । वह बड़ी ही खेदितमना हो गई; पर निगश न हुई। उमने एक श्लोक लिखकर सागरदत्तके पास भेज दिया। जिसमें उसने लिखा था कि 'हे बुद्धिमान पुरुषरल ! आप इस महिलाका अनादर क्यो करते है, जो सर्वथा आपकी अननुगामिनी बनी हुई हैं ? पूर्णिना चद्रको अपने आप चमका देती है, वसे ही बिजली समुद्रको और स्त्री गृहस्थको प्रकाशमान बना देती है। सागरने इस श्लोको पड़ डाला और यह भी उसके हृदयको पलटने में असफल हुआ । उसने इसके उत्तरमें उपरोक्त श्लोक लिख भेजा, जिसका भाव था कि 'एक नदीके समान स्त्री स्वभावसे ही चपल और नीचगामिनी है। जिस समय वह वन्धनकी अपेक्षा नहीं करती है तो दोनों पक्षोंका नाश करती है । बस वह जड़ बुद्धि है।'
मागरदत्त के इस उत्तरको पाकर वह चतुर वणिकसुता जान गई कि जरूर किसी स्त्रीके असदव्यवहारने इनके हृदयको दूषित पर रक्खा है । इसलिये हताश होनेकी कोई बात नहीं है । वात भी वास्तवमें यूं ही थी। सागरदत्त अपने पूर्वमवमें एक विप्र था और इसकी स्त्रीने इसे विप देकर मारनेका प्रयत्न किया था। यही
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सागरदत्त और वन्धुदत्त श्रेष्टि। [३३५ दुःखदायी व्यवहार उसके हृदयसे इस भवमें भी नहीं उतरा था। , इसीलिए वह स्त्री मात्रसे द्वेष करता था। किन्तु शायद पाठक यहां
पर वणिक कन्याका उसके साथ इसतरह पत्रव्यवहार करना अनु'चित समझें ! आजकल जरूर नन्ही उमरमें वणिकोंकी कन्याओं के वाग्दान सस्कार और विवाह लग्न हो जाते है और वर-वधूको एक दूसरेके स्वभावका भी परिचय नहीं हो पाता है । इसी कारण आज दाम्पत्यसुखका प्रायः हर घरमें अभाव है और आदर्श दम्पति मिलना मुश्किल होरहा है । किन्तु उस जमाने में यह बात नहीं थी। तब पूर्ण युवा और युवत्तियोके विवाह होते थे और परदा उनके परस्पर परिचय पानेमें बाधक नहीं था। इसी कारण उक्त वणिक सुताने विना किसी सकोचके सागरदत्तको प्रेमपत्र लिखा था। जब उसका वह पत्र भी इच्छित फलको न दे सका, तो उसने एक और पत्र लिखा, इसमें उसने कहा कि 'सचमुच यह तो बड़ा ही अन्याय है कि केवल एक स्त्रीके दोषको लेकर सारी ही स्त्री जातिको दोषी ठहरा दिया जाय । क्या शुक्लपक्षके पूर्णमाकी रात्रिसे इसीलिए घृणा करना ठीक है कि उसके पहले कृष्ण पक्षमें उसकी बहिन बिल्कुल अंधेरी होती है ?
सागरदत्त इस सारगर्मित उत्तरको पाकर अवाक रह गया ! रूप-सौन्दर्य अवश्य ही उसके मनको पलटने में असफल रहा था, परन्तु ज्ञानमई विवेक-वचन अपना कार्य कर गये। सागरदत्त उस वणिक-कन्याकी बुद्धिमत्ताके कायल होगये । उनको अपनी गलती नजर पड गई। उन्होंने जान लिया कि सचमुच सारी स्त्रीजातिको दूषित ठहराना अन्याय है। इस जातिको ही यह सौभाग्य प्राप्त
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३३६ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
हैं कि वह त्रिलोक वंदनीय तीर्थंकर भगवानको जन्म देकर जगतका कल्याण करती है । इसलिए स्त्री मात्रसे घृणा करना बुद्धिमत्ता नही है । वह हमारे आदरकी पात्र हैं । उनकी अवहेलना करना, स्त्रियोंको पैरोसे ठुकराना अपना अपमान करना है। बस जब सागरदत्तका हृदय इस तरह पलट गया, तो सानद दोनों युवक युवतीका शुभ लग्नमें विवाह होगया । वह सुखपूर्वक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगे !
उन दिनों भारतीय व्यापार आजकलकी तरह हेय अवस्थामें नही था | तबके व्यापारी भी कोरे दलाल नहीं थे । सुतरा वे देशविदेश घूमकर अपने देशके व्यापारको उन्नत बनाते थे और यहांकी आर्थिक दशा फलती-फूलती देखते थे। तब यह बात भी न थी कि राजनीतिके नामसे विविध देशोंमें व्यापारिक प्रतिस्टद्धा चलती हो और मायावी चालोंसे निर्बल अथवा पराधीन जातियों के जीवन संकटापन्न बनाये जाते हों । साथ ही उस समयके व्यापारमें यह भी विशेषता थी कि उस समयके व्यापारी स्वयं ही देश विदेशमें जाया करते थे । विदेशों में जाना तब पाप नहीं समझा जाता था और न घनिक व्यापारी स्वयं परिश्रम करना अपनी शानके खिलाफ समझते थे । इसी अनुरूप सागरदत्तने भी व्यापारके लिये विदेश जानेकी ठहराई ! वह सातवार विदेश गया, परंतु सातों ही दफे उसके जहाज़ समुद्र में नष्ट होगये । लाभान्तराय कर्म उसके मार्गमें ऐसा आड़ा आरहा था कि उसे बार २ प्रयत्न करने पर भी लाभ नहीं होता था, किन्तु किसीके सर्वदा एकसे ही दिन नहीं रहते है । आठवीं बार उसे अपने व्यापार में खुब ही नफा
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सागरदत्त और बन्धुदत्त श्रेष्टि। [३३७. हुआ-उसके परिश्रमका फल मिल गया ! वह हर्षका फूला घर लौटा और देवालय निर्मित करनेमें उस धनका एक भाग खर्च करना उसने ठान लिया। लोगोंके कहनेसे वह पुंड्रदेशमें स्थित भगवान् पार्श्वनाथके समवशरणमें दर्शन करने गया और वहां उसने अपने मनोभावको प्रकट किया ! कहते हैं कि भगवानका परामर्श पाकर उसने देवालयमें श्री अर्हत् भगवान्की बिम्ब बड़े समारोहसे स्थापित की और वह आनंदसे धर्माराधनमें कालक्षेप करने लगा! वास्तवमें उसका यह कार्य एक आदर्श कार्य था। "अपने व्यापारसे जो लाभ उठाओ उसमें से एक मागको समयकी आवश्यक्तानुसार महापुरुषोकी सम्मति लेकर धर्मार्थ खर्च दो" मानो इस संदेशको ही वह आजके व्यापारियोके लिये व्यक्त कर रहा था !
इसी समय सागरदत्तके परिणामोंकी दशा सुधर चली थी और उसने भगवान् पार्श्वनाथजीके निकटसे व्रत ग्रहण करनेकी ठान ली थी किन्तु हत्भाग्यवशात उसे विदित हुआ कि भगवान्का विहार अन्यत्र होगया ! वह दिल मसोप्त कर रह गया ! फिर उसका क्या हुआ यह विदित नही है ! ___भगवान् पार्श्वनाथनी वहांसे विहार करते हुये नागपुरीमें पहुंचे थे। उससमय नागपुरीमें धनपति सेठके बन्धुदत्त नामक पुत्र बड़ा ही सुशील था । बन्धुदत्तका विवाह वसुनन्द सेठकी पुत्री चन्द्रलेखासे हुआ था; परन्तु ठीक उस अवसर पर जब कंकण बधूके करमें बांधा जा रहा था, एक सपने उसे डस लिया । रंगमें भंग हो गई-आनन्दमें क्रन्दनाद होने लगा ! संसारकी क्षणिक दशाका प्रत्यक्ष चित्र ही खिच गया ! सो भी एक दफे ही नहीं,
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३३८] भगवान् पार्श्वनाथ । बल्कि ठीक छै दफे यही घटना घटित हुई ! लोग वन्धुदत्तको 'विषहस्त' कहने लगे और कोई भी उसके साथ अपनी कन्याका विवाह करनेको राजी न होता था । बन्धुदत्तको भी अपने भाग्यपर रोष आ रहा था ! बुद्धिमान् पिताने इस समय उसे सिंहलद्वीपको व्यापारके लिये भेज दिया ! बन्धुदत्तने वहा खूब धन कमाया, परन्तु लौटते समय अभाग्यसे उसका जहाज नष्ट हो गया और वह एक तख्ताका सहारा पाकर एक सम्पत्तिशाली द्वीपके किनारे जा लगा। वहांपर एक मणिमई पर्वत था । बन्धुदत्त उसकी शिविरपर जा पहुंचा और वहां भगवान् नेमिनाथजीके भव्य मंदिरके दर्शन किये एवं वहां उसने श्रावकके व्रतोको ग्रहण किया । उसके इस सरल भावको देखकर चित्रांगद नामक सम्यक्त्वी विद्याधर बहुत ही प्रसन्न हुआ । उसने इसका विवाह करवा देनेकी व्यवस्था करदी ! किन्हीं विद्याघरोंके साथ बंधुदत्तको उसने कौशाम्बी भिजवा दिया। वहां वह भगवान पार्श्वनाथनीके मंदिरमें दर्शन कररहा था* कि वहाके जिनदत्त सेठने इनको देख लिया और इनके साथ अपनी प्रियदर्शना नामकी कन्याका विवाह कर दिया ! बन्धुदत्त खुशी२ यहां रहने लगा, किन्तु आखिर उसने अपने घर जानेकी ठहराई ।
बन्धुदत्त गर्भभारसे झुकी हुई अपनी प्रियाको लेकर नागपुरीको जारहा था कि मार्गमें भीलोने इसे लूट लिया और वे प्रियदर्शनाको भी इससे छीन ले गये । इन भीलोंका स्वामी चन्द्रसेन
* यह जीको नहीं लगता कि भगवान्के साक्षात् विद्यमान रहते हुए उनके निम्ब वनगये हों । इस अपेक्षा इन घटनाओंका स्पष्ट घटित हुआ समझना जरा कठिन है।
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सागरदत्त और बन्धुदत्त श्रेष्टि। [३३९ था, उसने जब प्रियदर्शनाको जिनदत्तकी पुत्री जाना तो वह बड़े असमंजसमें पड़गया। जिनदत्तने उसका बड़ा उपकार किया था ! इसलिये प्रियदर्शनाको उसने बडी होशियारीसे रक्खा, और बंधुदत्तको ढूंढनेके लिये आदमी दौडा दिये ! परन्तु बन्धुदत्तका पता न चला। इसी अन्तरालमें प्रियदर्शनाको वहीं एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई ! ____ इधर बंधुदत्त अपनी प्रियाके विरहमें व्याकुल हुआ विशालाको जारहा था। वहां उसके चाचा थे; किंतु मार्गमें सुना कि उसके चाचाके कुटुम्बको वहांके राजाने किसी अपराधके लिये बन्धीगृहमें डाल दिया है । बन्धुदत्तके सिरपर आफतका पहाड़ ही टूट पड़ा। उसे उससमय अपने कुतकर्मोके फल पानेका रहस्य समझमें आया ! वह दुःखितहृदय होकर वहासे नागपुरीकी ओर चल दिया, किंतु मार्गमें उसे उसके चाचा मिले और साथ ही अशरफियोंसे भरा 'एक सन्दूक मिला । इसी समय वहाके कोतवालने इनको राज्यकी चोरी करनेकी आशङ्कासे बन्दीगृहमे डाल दिया ! कितु बदीगृहमें पहुंचनेके साथ ही उसके भाग्यने पलटा खाया । राजाकी चोरीका पता चलगया। असली चोर पकडा गया, बन्धुदत्त और उसका चाचा छोड़ दिये गये, वे छुटकारा पाकर अपनी राह लगे।
मार्गमे चन्द्रसेनके आदमियोने इन्हें पकड़ लिया। एक आफतसे छूटे तो दूमरीमें फंस गये, परन्तु इसमें उनकी भलाई ही थी। उनका शुभोदय था जो भील उनको पकड़कर चन्द्रसेनके पास ले चले । वहां बन्धुसेनका अपनी प्रिया और पुत्रसे समागम हुआ, वे आनन्दपूर्वक वहासे विदा होकर अपने घर पहुंचे ! सवने वंधुदत्तका बड़ा सम्मान किया और बहुतेरोंने उनकी आत्मकहानी
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३४० ] भगवान पार्श्वनाथ । सुनकर जैनधर्ममें श्रद्धान किया ! इधर जब भगवान पार्श्वनाथजीके समवशरणके नागपुरी पहुंचनेका समाचार बन्धुदत्तको मालूम हुये, तो वह बड़े मोदभावसे भगवान् की वन्दना करनेको गया । वन्दना करके उसने भगवानसे अपने पूर्वभव सुने और वह अत्यन्त हर्षित हुआ। उपरान्त उसने भगवान्के धर्मोपदेशको सुना और उनसे पंचव्रतोंको गृहण किया। भगवानके मुखसे यह सुनकर कि वह और उसकी पत्नी दूसरे भवसे मोक्षलाभ करेंगे, उसे बड़ा ही सतोष हुआ ! वह भगवान्को नमस्कार करके घर लौट आया और धर्ममय जीवन व्यतीत करके सहस्रार स्वर्गमें जाकर देव हुआ ! जैनधर्मकी कृपासे उसे स्वर्गसुखोंकी प्राप्ति हुई ! सत्धर्म सदा ही सुखदाई होता है !
इसप्रकार भगवान्के समयके दो सेठ-पुत्रोंके दर्शन करके हम शेषमें उनके तीर्थके कतिपय अन्य मुख्य व्यक्तियोंका दिग्दर्शन करेंगे और फिर भगवान्का मोक्षकल्याणकका दिव्य वर्णन देखकर उनका भगवान् महावीरजीसे जो सम्बन्ध था, उसको प्रकट करेंगे।
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महाराजा कुरकुण्डु "तहिं देसिरवण्णई धणकरण पुण्णई, अछिणयरि सुमणोहरिय! जण णयण पियारी महियलसारी, चंपाणामइ गुणभरिय ॥३॥" 'तहिं अरि विदारणु भयतरु वारणु धाडीवाहणु पहु हुयउं ।'
—मुनि कणयामर ! राजा दन्तिवाहन उस भुवनमोहिनी युवतीकी ओर एकटक निहारते ही रह गये । वह उसकी अतुलरूप राशिपर विमुग्ध हो
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महाराजा करकण्डु |
[ ३४१ गये। उनकी समझमें न आया कि वह मनुष्य है अथवा यक्ष है या अप्सरा है । तिसपर यह जानकर वह और भी अचंभे में पड़ गये कि जिस सुन्दरीने उनके मनको मोह लिया है, वह उस कुसुमपुर नगर के कुसुमदत्त मालीकी कन्या है । ऐसे साधारण मनुष्यके घर में इस शुभ लक्षणोंवाली, बड़ी २ राजकुमारियोके रूपको चिनौती देनेवाली कन्याका जन्म लेना उनकी समझमें न आया ! जगली फूलोंके बीच गुलाबका पालेना एक अजीब ही बात थी । वह संशय में पड़ गये, राजाज्ञा होनेकी देर थी कि कुसुमदत्त वहांपर आ उपस्थित हुआ । राजा दंतिवाहन ने उससे पूछा कि तेरे यहां यह कन्या कहांसे आई ? जो सत्य बात है उसको कह दे, इसीमें तेरी भलाई है । बेचारा गरीब माली अवाक रहगया ! वह मन ही मन सोचने लगा कि यह आफत कहासे आगई ? इस कन्याको मैंने नाहक ही पाला । न जाने इसने राजाकी क्या अवज्ञा की है जो वे मुझपर कुपित हैं ? अब तो सब बात ज्योंकी त्यो कह देने में ही भलाई है । यह सोचकर वह बोला कि महाराजकी दुहाई ! यह कन्या मेरी नहीं है । गंगानदीमें बहता हुआ एक सन्दूक मुझे कई वर्ष हुए तब मिला था । उसमें यह कन्या नवजात दशामें बन्द थी | महाराजके विश्वास हेतु मै वह सन्दूक अभी लिये आता हूं यह कहकर माली वहां सन्दूक ले आया । राजाने उस सन्दूकको देखा । उसमें उसे एक मुद्रा (मोहर ) दिखाई पड़ी, जिससे उसने जान लिया कि वह राजवशकी पुत्री है । यह देखकर उसके हर्षका पारावार न रहा । वस फिर देरी काहेकी थी ? राजा दन्तिवाहनने शुभ लग्न में बड़े ही आनन्दसे उस सुन्दर पद्मावती नामकी
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३४२] भगवान् पार्श्वनाथ । राज-कन्याका कोमल कर विवाह-वेदी पर ग्रहण कर लिया । थोड़े ही दिनोंमें इन नवदम्पतिमें गाढ़ प्रेम होगया ! पद्मावती राना दन्तिवाहनकी बड़ी प्रिय रानी बन गई! ___राना दन्तिवाहन अंगदेशमे चम्पानगरके राजा थे। उस समयके राजाओंमें यह भी मुख्य थे । वास्तवमें पद्मावती भी रानकन्या थी और वह कौसांबीके राजा वसुपालकी पुत्री थी । ('कउसंविए रायहो पमरिय छाय हो, वसुपालहु पउमावइ दुहियाइया मणिविराए' ) यह रानदम्पति आनदपूर्वक कालक्षेप कर रहे थे कि रानवशको आल्हाटके कारण यह समाचार सुनाई दिये कि रानी पद्मावतीके शुभ गर्भ है । रानीके यह दिन वडी खुशीसे कटने लगे । उसे मिस वातकी आकांक्षा होती उसकी पूर्ति कर दी जाती थी। हर तरह उसे हर्षमना रखने का प्रबंध था। माता और परिस्थितिका प्रभाव गर्भस्थ वालकपर भी पडता है, इस बातका पूरा ध्यान रानी पद्मावती के विषयमें रक्खा जाता था । इस दशामें गर्भस्थ बालकका प्रभाव भी माताकी चालढालमें प्रगट होने लगता है । माताकी भावनाओंसे ही उसका परिचय मिल जाता है । रानी पद्मावतीके हृदयमें भी अटपटी भावना उठ खड़ी हुई । वह असा-वार थी, जो गर्भस्थ बालकके असाधारण प्रभुत्वको प्रगट कर रही थी, उसकी इच्छा हुई कि कुऋतुमें ही मेघमण्डलसे आच्छादित आकाशके होते हुये राजाके साथ हाथीपर बैठकर वनविहार करना चाहिये । राजा दन्तिवाहन इस समय अपनी प्रियाकी प्रत्येक -इच्छाको पूरी करनेमें तत्पर थे। उन्हें इस बातको पूरी करनेमें भी देर न लगी । उन्होंने अपने विद्याधर मित्रकी सहायतासे मायामई
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महाराजा करकण्डु '
[ ३४३
मेघों को भी सिरज लिया । उस ज़माने में भी पदार्थ विज्ञान इतना उन्नत अवश्य ही था कि आजकलकी तरह कृत्रिम बादल तब भी विद्या बलसे बनाये जा सक्ते थे । मेघोंके आते ही राजाने नर्मदातिलक नामक हाथीको सजवाया और उसपर रानीको बैठाकर वह वनविहार के लिये चल दिया। बातों ही बातों वह बहुत दूर निकल आये और इतनेमें ही हठात् हाथी भी विजक गया । वह राजा - रानीको ले भागा । किसी तरह भी उसने अंकुशको न माना । यही बात मुनि कणयामर कहते हैं:
" सो कुंजरूदुडरं चित्तिपहिह भग्गउं जाइ किलिजरहो । ता जणवड धाविड कहेवण पाविज वाहुडिगड सोणियपुर हो । १२ दुष्ट हाथी वेतहाशा भागता ही चला गया । उसने एक गहन वन में प्रवेश किया । राजाने इस समय यही उचित समझा कि यदि मैं इससे बच सकू तो किसी न किसी तरह इसे पकड़वा लूंगा । इसी भावको दृढ करके वह एक वृक्षकी शाखा पकड़कर लटक गये । हाथी उनको छोड़कर भागता ही चला गया । बिचारी पद्मावती रानी उसपर अकेली बैठी रह गई । उसके भाग्य में अशुभ कर्मकी रेखायें खिंच रहीं थीं और वह इस समय पूर्ण फलवती थी । बिचारीको अनायास ही पतिवियोगका कष्ट सहन करना पड़ा। कहा तो प्रसन्नचित्त होकर वनविहार करने निकली थी और कहां यह विरह - दाह उत्पन्न होगया । उसके विवेकने उसे ढाढस बंधाया ।
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धीरज बाधे वह अपने भवितव्यकी बाट जोहने लगी । हाथी भागता हुआ बढ़ता ही गया । राजा जबतक लौटकर चंपापुर पहुंचे ही पहुचे कि तबतक वह कोसौ दूर चला गया। पता लगाना भी मुश्किल
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३४४ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
हो गया । हाथी रोषमें भरा हुआ जाकर एक तालाब में घुम पड़ा और यही मालूम हुआ कि रानी पद्मावतीको वह पानी में डुबो ही देगा, किन्तु यहां ठीक मौकेपर रानीका पुण्य सहायक होगया । वनदेवीने प्रकट होकर रानीको उस तालाबके निकटवाले सुरम्य उपवनके एक वृक्षके तले बैठा दिया ! यह उपवन दंतिपुर नगर के निकट था, यह भी 'करकंडुचरिय' में लिखा है, यथा:"ता दिउ ऊववणु खरुख्कु । मयरहियउणी रणायमुखु ॥ तर्हि रुखको तले वीसमइ जाम। णंदणुवणु फुल्लिउ फलिङ ताम ॥ ता दंतीपुर के विविचित्त । भड मालिहि अग्गह कहिय वत्त ॥
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तें तरु तलित ताल दिट्ठी दिव्बवाल । णंवणसिरिसोहई गुणवमाल|| पुणु चिंतइ उ सामण्ण एह । रुवेण अउछी दिव्वदेह ||"
इनसे यह भी प्रकट होता है कि उस उपवन में बैठी हुई पद्मावतीको वहाके भट नामक मालीने देखा था । वह उसको देखकर आश्चर्यमें पड़ गया था । रानीकी दिव्य देहको देखते हुये वह सहसा यही न निश्चय कर सका कि वह यक्षी है अथवा कोई राजपुत्री है । आखिर वह माली उसके निकट आकर सब हाल पूछने लगा और सब हाल सुनकर उसने रानीको सान्तवना दी । उपरांत वह रानीको अपने घर लिवा लेगया । उसने दु.खीजनों को आश्रय देना अपना कर्तव्य समझा और उसने रानीको बडी होशि- यारीसे अपने यहां रहने दिया ! उसका यह सुवर्ण कृत्य भारतीय सभ्यताके आदर्शका एक नमूना था । दुःखी और अंबला जनकी - सहायता करना सचमुच एक खास धर्म है, किन्तु आज के भारतमें
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महाराजा करकण्डु। [३४५ यह मर्यादा प्रायः उठसी गई है। यही कारण है कि आये दिन अबला स्त्रियों और गरीबोंपर अत्याचार होनेके समाचार सुनाई देते हैं। यह भारतीय मर्यादाको कलंकित करनेका प्रयास है, जो सर्वथा त्यजनीय है । भट मालीका अनुकरणीय उदाहरण इस ओर समुचित कर्तव्य निर्दिष्ट कर रहा है। रानी पद्मावती इस मालीके यहां रह तो रही थी; परन्तु इस भले मानसकी मारदत्ता नामकी स्त्री बड़ी ही क्रूरा और दुष्टा थी। वह पद्मावतीको चैन नहीं लेने देती थी । एक रोज उसकी बन आई । माली तो दूर बाहिरगांव गया था । घरपर वही अकेली थी। उसने चटसे रानीको बाहर कर दिया। वह अपने दुष्ट स्वभावसे लाचार थी। उसे रानीकी दयनीय दशापर जरा भी दया नहीं आई ! लाचार होकर रानी पद्मावती रोती हुई नगरके बाहिर स्मशान भूमितक -पहुंची थी कि वही उसे प्रसववेदनाने आघेरा। उसी स्मशानमें . उसने पुत्र प्रसव किया ।
देखो कर्मोकी विचित्र गति । राजमहलोंमें फूलोकी सेजपर सोनेवाली रानी पद्मावती अकेले ही निर्जन स्मशानमें पुत्र प्रसव करती है। उसके निकट एक मामूली परिचारिका भी नहीं है। है तो केवल भारत-वसुन्धराका स्नेहमई अंचल है। उसीके सहारे वह वहां भी सानन्द पुत्र प्रसव कर सकी ! पुत्रोत्पन्न होगया-रानीके विषादमें हर्षके वादल उमड़ आये। और वह फलदाता भी हुये। नवजात शिशुका सितारा चमक गया ! उस स्मशानभूमिका मातंग बड़ी विनयभावसे रानीके निकट आकर कहने लगा कि 'माता' आज्ञा कीजिये-आप मेरी स्वामिनी हैं।' -पद्मावती रानीने यह
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३४६] भगवान पार्श्वनाथ । अनोखी बात सुनकर उससे पूछा-"तुम कौन हो, जो मुझ दुःखिनीको अपनी स्वामिनी कहते हो ? भाई, मै तो तुम्हें नहीं जानती हूं।" वह मातंग बोला-" विद्युत्प्रभ नगरके राजा विद्युत्प्रम और रानी विद्युल्लेखाका मै वालदेव पुत्र हूं । एक दिन मैं अपनी स्त्री कनकमालाके साथ दक्षिणकी ओर क्रीड़ा करनेको जारहा था। मार्गमें कलिंगदेशके उपरांत श्री विंध्यगैलकी रामगिरि गिपिरपर श्री वीर नामक मुनिराज विराजमान थे। ('हताए समउ दरिकणदिसिहि रम्ममाणु गयणुय लेगडे, अंधकलिंग हो अंतरिण, विनय सेलु अग्गह ठियउं ॥ २ ॥') इसलिये मेरा विमान उनके ऊपरसे नहीं जासका । (मुणीसरु दिट्ठऊ-तहोणाऊ चल्ला दिव्व विमाणु) मुझे बड़ा भारी क्रोव उत्पन्न हुआ क्योंकि मैने समझ लिया कि इन्होने ही मेरे विमानको रोका है। अतएव वीर मुनिको मैंने उपसर्ग करना प्रारंभ किया । (विकिड उवप्लग्गु तासु) परन्तु उनके पुण्यप्रभावसे मेरी सब विद्या नष्ट होगई। मैं भौंचक्कासे रह गया । मुझे चेत हुआ । मैंने अनेक प्रकारसे उन मुनिवरकी स्तुति की और उपरांत उनसे विद्या सिद्ध होनेका निमित्त पूंछा है। उन्होंने कहा कि चंपापुरके राजा दन्तिवाहनकी पद्मावती रानीको दुष्ट हाथी ले भागा था, सो वह दंतीपुरमें मालीके यहां रहती है । किन्तु मालिन उनको अपने घरसे निकाल देगी और वह भीममसानमें पुत्र प्रसव करेगी। उस बालककी तू जत्र रक्षा करेगा और
१-पुण्यात्रव कथाकोष पृ० २० इस ग्रंथमें अगाडी पद्मावतीका सहायक होना और हस्तिनापुरका स्मशान बताया गया है, जो इससे प्राचीन मुनि कणयामर विरचित 'करकडु महारार चरिव' से वावित है।
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महाराजा करकण्ड।
[३४७.
वह राज्याधिकारी होजावेगा तब उसके राज्यमें ही तुझे विद्या सिद्ध, होंगी।' सो हे स्वामिन् ! इस मातंगभेषमें मैं वही विद्याधर पुत्र वालदेव हूं । ( मायंगहो रुवें खेयरइं ) उस दिनसे मातगके वेषमें इस स्मशानकी देखरेख रखता हुआ यही रहता हूं।"
बालदेवकी यह आश्चर्यभरी वार्ता सुनकर रानी पद्मावतीको संतोष हुआ। उसने धीरज धरके अपने नवजात शिशुको उसे दे दिया । और उमसे कहा-'तो इस बालकका लालनपालन तू ही कर ।' बालदेवने भी स्नेहपूर्वक वह बालक लेलिया और घर ले जाकर अपनी पत्नीको सौंप दिया ! उसने भी बड़े प्रेमसे उसे अपने वक्षस्थलसे लगा लिया। बालकके हाथोंमें खुजली थी । इस कारण उसका नाम उनने करवंडु रख दिया। (तहो पउरकंडु देरकेवि करी, करकंडुणामु किउ पयडुधरि)
१-तेरूसिवि पुणु मोदिण्णु एवउ । णहुभगालहे सहि विज्जयाउ ॥ ते सावे विज्जउ गउ खणेण । मइ चिंतिउर्वाहण्णिए णियमणेण ॥ एहु मुणिवरु णउ सामणु होइ । त होइ खणद्वेज भणेइ ॥ इम मणि विचलहि लग्गु तासु । किं मुनिवर महो किउविज्जणासु ॥ किंकर तुम्हें हे देव देव । जम्मेविण छडउ तुझ सेव ॥ कोहाणतु सामहि सामिसाल । मापसरउ तणु वणे सयण काल ॥ तो क्यणे उवसमु गउ मुणिंदु । मताण पहावेण फणिंदु ॥ (इससे तो स्वय मुनिवरका कुपित होना प्रगट है ?),
धत्ता-सो मुणिवरु जाणिवि तु मणु, कमकमल एवि पिणु पभणि चउ । हे मुगिवरु करुणइ कहहिं महो, कह होसइ विज्जउरमणियउ ॥४॥ तं सुणिवि मुणीसरु परमणाणि, महो सम्मुहु वोलइ दिव्य वाणि । हे खेयर
चपाणराहि वासु, सिरी धाडी वाहन बंधुरासु ॥ पोमावइ वहीं भामणि __गएण, णेवेनी दुठे करि वितेण । पावे वीसा पुणु मालिएण, दतीपुरे.
णवी तुरिय एण ॥ तहो धरिणिए कलहु करेति सावि, णीसारिय अविसइ इहावि । तहोणंदणु होसई पवरखेडे, पालेसहि सो तुहं गुणणिकेचें ॥
१०
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३४८] भगवान पार्श्वनाथ ।
दुःखिनी रानी इसतरह अपने पुत्रको स्वरक्षित स्थानमें छोडकर पामके एक श्रमणोंके नगरमें चली गई और वहां एक आर्यिकाके आश्रयमें रहने लगी। एक दिन उसके साथ जाकर उसने समाधिगुप्त मुनिराजके निकट (णामेण समाहिगुत्तुपरु ) दीक्षाकी याचना की। किन्तु मुनिराजने उसे उससमय दीक्षित नहीं किया
और कहा कि 'पूर्वभवमें तूने तीनवार अपने व्रत भंग किये हैं, उनके फलरूप तीन दुःख तुझपर आनेवाले हैं। सो उनका उपशम होचुकने पर तथा पुत्र राज्यका सुख देखकर उसीके साथ तु भी तप धारण करेगी।' यह सुनके पद्मावती उसी साध्वीके साथ रहने लगी। इधर करकंडु वालदेवके यहां दिनोंदिन बढ़ने लगा। उचित कालमें वालदेव विद्याधरने उसे धीरे २ संपूर्ण कलाओंमें चतुर बना दिया! इसपकार करकंडु आदि उस भीम स्मशानमें सुखसे समय व्यतीत करने लगे। ___एक दिन श्री जयभद्र और वीरभद्र नामके दो मुनिरान उस स्मशानमें आकर विराजमान होगये । (ते भीम मसाणयं आय जान) उसममय एक मुटके नेत्रोंमेंसे तीन वांस उगते हये दिखलाई दिये। इसपर किसी साधुने उन आचार्य महाराजसे जिज्ञासाकी कि 'भगवान' यह क्या कौतुक है ? आचार्यने कहा-'इसमें आश्चर्य कुछ नहीं है, इस नगरका जो कोई राजा होगा, इन तीन वांसोंसे उसके अंकुश, छत्र और ध्वजाके दंड बनाये जायगे। उससमय यह बात
____-तादुखीर मणि पोमावइ, समणियर हो गयर हो, खणि गयाइ, समणिरया अज्जियक तिया हे, अछंतियज मलइतावतहिं।-पुण्याश्रवमें गाधारी ब्रह्मचारिणीके आपमें रहने ववाया है। पृ० २१.
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महाराजा करकण्डु। [३४९ ब्राह्मणने सुन ली, सो वह उन वांसोंको उसी समय काट लेगया और पीछे किसीप्रकार करकंडुने उससे उन्हें लेलिया ।"
उन बांसोंको करकंडुने क्या लिया, सचमुच वहांका राज्य ही उनके हाथोंमें आगया ! कुछ दिनोंमें वहांका राजा कालके गालमें जा फंसा ! वह पुत्रहीन था उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। नगरभर हाहाकार करने लगा था। (सुनामुहाहारउट्ठिउ पुरवरम्मि, अइदुखु पविहिंउनणवयम्मि) इससमय एक राजाकी खोनमें पाटक्छ हाथी छोड़ा गया था। वह हाथी करकंडुको ही अपनी पीठपर बैठाकर नगरमें ले आया था। (णिझर झरंतमय गिल्लगंडे करकंडु चडिउ ताकरि पयंडे । कविलीला मणहरं पह वहेइं-ण सुखद अहरावई सहेई) नगरवासियोंने इसपर करकंडुको अपने नगरका राना बना लिया और खूब आन्नद मनाया था।
करकंडुराना होगये -उनको वैभवकी प्राप्ति हुई ! उन्हीक साथ बालदेवकी भी विद्या सिद्ध होगई। महापुरुषोंका सत्सम सदा सुखदाई होता है । वह विद्याधर प्रसन्नतापूर्वक करकंडुको नमस्कार करके अपने निवासस्थान विजयाईको चला गया। इधर करकंडु . आनन्दसे राज्य करने लगे।
१-पुण्याश्रव कयाकोष पृ०२१-२२१२-मुनि कणयामर विरचित करकंडु चरित'में यहापर कनौजके एक राक्षसका आख्यान और दिया है, जिसने करकडुकी सेवा स्वीकार की थी। तथापि बनारसके एक वणिकका भी उल्लेख है; यथाः"वाणारसिणयर हो मित्तवेवि, देसत्तरगय आणाणतेवि। धणु अजिवि आवहि चलिविजाम, वा अतरि रक्खसु रिठ्ठताम । सो परिकविते भयभीवणट्ठ, पाविठ्ठ जेमतव चरण भह । गर मुणहिं किं हिमवए अवाण, ते पाविएतेण , पलायमाण । वणारसि णयरि मगाहिरामु, अरिविंदु गराहिउँ अस्थि णामुए
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३५० ] भगवान पार्श्वनाथ ।
एक रोज़ किसी वणिकने आकर इनसे कहा कि 'महाराज, सोरठदेशमें गिरिनगरके राजा अरिसिरके बड़ी ही रूपवती मदनावती नामकी कन्या है। वह सर्वथा आपके योग्य है ।' करकडु इस समाचारको सुनकर गिरिनगर पहुंचे ! सौभाग्यसे स्वय मदनावतीने इनको देख लिया और वह इनको देखते ही कामवाणसे व्यथित होगई। यह जानकर उसके पिताने करकंडुको बड़े आदरसे अपने यहां ठहराया और शुभलग्नमें मदनावतीका विवाह करकंडुसे करा दिया। (सुविसुद्ध दिणहि रनिए मणाह, सामंतहिं कियउ विवाहु वहा) निस समय विवाहका मंगलीक उत्सव होरहा था, ठीक उसी समय रानी पद्मावती भी वहां पहुच गई। उनने हर्षित होकर करकंडुको आशीष दी। विवाह उपरान्त रानदम्पति दंतिपुर लौट आये।
दंतेपुरमें भी खूब उत्सव मनाया गया। याचक जनोको दान दिया गया और श्री जिनमदिरमें पूजनभजन किये गये! फिर राजा करक्डु आनन्दपूर्वक मदनावतीके साथ कालयापन करने लगे किन्तु इसके कुछ दिनों बाद ही चंपासे राजा दंतिवाहनका दूत बूरे समाचार लेकर आया। उसने कहा कि यातो करकंडु महाराज राना
१-"एत्थथिदेव सोरट्ठ देसु, सुरलोउ विडविउ जे असेसु । तर्हि, शायरु गिरिणयरु णामु सुरखेयर णर णयणाहिरामु । तहिं राउ अस्थि अरि- . सिर कयतु, अजव मुणउ अजियगि कतु ।" २-'करकडु गेय आयणणेण, मयणावलि पीडिय कामएण । आयण विवालेहि तणिपवत्त, राएणलिहाविय हरिमणेत्त ।" 3-"तहिं अवसरि पोमावइ विमाय, णियणदणु देखहु तुरिय आय। सादिट्ठी करकडेणिवेण, पुणु पणमिव भावेण वण्णवेण। णियपुतविवाहें हरिसियाइ, आसीसयदणीतुरिउ ताई। चिरु जीवहि णदणु पुहइशाह, कालिन्दी सुरसरिजा ववाह ।" (आसीसदेविसागय तुरति)। ६- चपाहिवदुवउ आणि एत्यु ।'
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महाराजा करकण्डु |
[ ३६
दंतिवाहनकी आज्ञा स्वीकार करें, वरन रणक्षेत्र में आजावें । करकंडु क्षत्रियपुत्र थे | उनने रणक्षेत्रमें आना ही स्वीकार किया, दूत लौट गया। चंपानरेश उसके मुखसे करकंडुका उत्तर सुनकर आगबबूला होगए । उन्होने रणभेरी बजवा दी और कूचका बिगुल फूक दिया गया । नियत समय में चंपानरेश दलबल सहित दंतिपुरके निकट आपहुचे । करकंडु भी सेना सहित मुकाविला करने को तैयार थे । दोनों दलोंकी मुठभेड़ होनेवाली थी । रणक्षेत्रमें योद्धा हूंकारने ही लगे थे कि इतने में रानी पद्मावती वहां आपहुंची । उन्होने पितापुत्रका आपस में परिचय करा दिया और इसतरह खूनकी नदियां बहते बहते बच गई, रणचंडिकाका खप्पर न भरने पाया, किन्तु आनन्ददेवीकी बहुभाति अर्चना होने लगी ।
राजा दन्तिवाहन अपनी प्रिया और पुत्रको पाकर बडे प्रसन्न हुये और बड़े आदर से उनको चंपानगर लिवाले गये। वहां पहुंचकर फालान्तर में राजा दन्तिवाहनने राजपाटका मार कर कंडुके हाथ में छोड़ दिया और आप दिगबर मुनि होगये, दुद्धर तपश्चरण तपकर अन्तमें शिवरमणीके गलहार बनगये । इधर करकंडु नीतिपूर्वक राज्य करने लेंगे।
१- " इयेखिवि णिउ करकडु णामु । गजजणण णयरु गुणगणिय धातु ॥ घत्ता - जे सगरि सुडवर खेयरह, भउजणियउ घणुहरम असरहिं, ते वेडि पट्टण चउदिसहि, गय तुरयण गरिंदहि दुद्धरहिं ॥१२॥" पुण्याश्रवमें करर्कडुका चपाकी ओर वढना लिखा है । २ - ' ता दुद्धररायह जो धरदु, करकंडहो वउ राय पट्टू । पुणु अप्पणु राय तरकणेण, तणुमडिउ तवसिरिभूसणेण । कम्म गढि णिउवण सारु, तउचरि विसुदुद्धरु काममारु । तणु छडेविखडिविहिमयगड, सो लग्गउ सिववहुतणए कठु । घत्ता - गउ धाड़ीवाहण, सियणिलउ, कणयामर वण्णउ गुणह वरु । करकडु करतउ रज्जु पुरि, सो अच्छइ मणिणिहिययहरु || २२ || "
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___३५२] भगवान् पार्श्वनाथ ।
एक समय मत्रियोंने करकंडुसे कहा कि-'हे देव, द्राविड़, चेरम्, चोल, पांड्य आदि देशके राजा आपका शासन नही स्वीकार करते हैं. यद्यपि अन्यथा आपका शासन निष्कण्टक दिगन्तव्यापी होरहा है । इसलिये हे प्रभु, उनको जीतना चाहिये ।" करकंडुके मनमें भी यह सलाह चढ़ गई और उसने सेना सुसज्जित कराकर दक्षिण भारतकी ओर पयान कर दिया ! कुछ दिनोंमें यह लोग तेरपुर नामक नगरमें पहुंच गये । करकंडु वहीं डेरा डालकर ठहर गया । दूसरे रोज इन्होंने एक प्रतीहारसे पूछा कि वहां कोई रमपीक देखनेयोग्य स्थान भी है। उसने बड़े हर्षसे वहीं पासमें पश्चिमकी और एक दर्शनीय पर्वत वतला दिया। करकंड फौरन ही उसके दर्शन करनेको गये । पर्वतके ऊपर उन्होंने एक मनोहर वापी देखी और गुफाके भीतर श्री वीतराग जिनेन्द्रभगवानकी मनोज्ञ प्रतिमाके दर्शन किये। उन्होंने दर्शनवंदना करके अपना जन्म सफल माना ! उपरांत वह दूसरे पर्वतपर भी शीघ्र चढ़ गये ! वहां उन्होने देखा कि एक कुण्डमें जल भरा हुआ है और कमल खिल रहे हैं । एक हाथी उनमेंसे एक कमलको तोडकर वापीके द्वारपर चढ़ा रहा है । इस कृत्यको देखकर करकंडुको यह विश्वास
१-“सो मह्वरूप भणइ देव देव, तुज्जमहियलु सयलुविकरइ सेव । पारीदीवड़देसेणिव अत्थिघिट्ट, तेणमहिंणकासु विद्दिणइदुटछ । सिरि चोडिपडिणमेण चेर, णड करहिं तुहारी देव केर । "२-ए अग्घिदेव पछिमदिसाहि, अइणिय दुउ पव्वउ रम्मुताहि। ३-पुणु दिट्ठउ ते जिण वीयराउ, सयुणणर्हि लग्गउ साणु राउ । पुण्याश्रवमें पहले लड़ाई हुई वतलाई है । पृ० २३. ४-जिणेसहवादवि पछिव वेविगिरिंदहो उप्परि सिग्घ चडेवि । णिहा. ल्यतेहिं दिस्सह मुहाई, मणाम्म पिवाई जाइ सुहाइ । इत्यादि.
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महाराजा करकण्डु |
[ ३५३
होगया कि इस वापीमें अवश्य ही कोई पूज्यनीय देव है ! इसलिये उसने उस वापीको खुदवाया, जिसमेंसे एक मंजूषा ( सन्दूक ) में रक्खी हुई पार्श्वनाथ भगवानकी रत्नमई प्रतिमा निकली । उस मनोहारी प्रतिमाके दर्शन करके करकंडुने बड़ा हर्ष माना और उसका अर्गलदेव नाम रखकर उस गुफामें स्थापना करदी | यह भव्य स्थान उन्होने 'कलि' नामसे संज्ञित किया। (गोवडणु हरिणा कलिउणां ) इसी अनुरूप वह आज भी कलिकुण्ड नामसे परिचित है ।
प्रतिमाजीकी स्थापना कर चुकनेपर उनके सामने एक ऊंची वेढंगी जगह मालूम पड़ी ( हरिवीढहोप्परि दिट्ठ गट्ठि ) कर कंडुने इसे साफ करने की आज्ञा देदी । कारीगरने जल निकलने की संभावनासे उसे फोड़ना उचित नहीं बताया, परन्तु करकंडुने उसको साफ करा देना ही मुनासिब समझा । कारीगरने वह जगह फोड़ना शुरू करदी और फोड़ते ही उसमेंसे अथाह जलप्रवाह बह निकला, जिससे सारी गुफा पानीसे भर गई । ( तं भरिय उलुयणु जलेण सव्वु) लोगों का वहांसे निकलना मुश्किल होगया । इसकारण राजाने वहां पर एक कुश आसनपर संन्यास ग्रहण कर लिया और आत्मचिंतनमें ध्यान लगाया । ' इतने में एक नागकुमारने प्रगट होकर कहा कि - "हे राजन् ! कालके माहात्म्यसे आजकल इस रत्नमई प्रतिमाकी रक्षा नहीं हो सक्ती थी, इसकारण मैंने यह गुफा जलपूर्ण की है । इसलिये तुझे जलके रोकनेके लिये आग्रह नहीं करना चाहिये ।" और बड़े आग्रह से राजाको उठाया ।' राजाने उस गुफा' और प्रतिमाके बनानेवालेका हाल नागकुमारसे जानना चाहा। इसपर १ - जिणुर्विववि णिग्गउ तित्यु ताव । २- पुण्याश्रव कथाकोप पृ० २४.
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__३५४] भगवान् पार्श्वनाथ ।
चह कहने लगा कि ' पहले विजयाईकी दक्षिण श्रेणीके रथनूपुर नगरमें नील और महानील नामके विद्याधरराजा थे। वे राजभ्रष्ट होकर यहां तेरपुरमें आकर राज्य करने लगे थे। उन्होंने ही पार्श्वनाथनीको उत्सर्गीकत यह गुफा और उनकी प्रतिमा वनवाई थीं। यह दोनों राजा उपरान्त तपस्या करके स्वर्गगामी हुये थे। इनके बाद नभस्तिलकपुरके राजा अमितवेग और सुवेगने आर्यखडके जिनालयोंकी वंदना करते हुये मलयगिरिपर रावणके बनवाये हुये जिनमंदिरोंके दर्शन किये थे। वहीं भ्रमण करते हुये इन्हें भगवान पार्श्वनाथजीकी रत्नमई प्रतिमा मिली थी। वे उसको एक मंजूषामें रखकर लेचले थे कि एक जगह मार्गमें उसे खखा
और फिर वह उसको वहांसे नहीं उठा सके थे | अतएव उन्होंने तेरपुर जाकर एक अवधिज्ञानी मुनिसे इसका कारण पूंछा; मिससे मालूम हुआ कि सुवेग आयु पूरीकर जन्मान्तरमें वहीं हाथी
१-तर्हि अस्थि णयर खेयरव मालु-णामे रहणेउरु चक्ववालु । तहिं खेयर भावर अत्यिनेवि-णामेण णीलमहणीलतेवि । ववितेराणवरु आय तर्हि, थाइवकीपउ रज्जु भन्छ । २-कह पासजिणिठहोदुरियणासि, सुएयक्वहिदिणमुणिवर हो पामि ।मणिरयणहिं मणि णिन्माविप्पहि, फिउछाउतेहिंजिग पडिमप्पढ् । ३-वेवदहे उत्तरटिसहि णयर अत्यहि वे विभाव अग्गोणणिटिउ सबद्ध सम नसिक्त दिवापर पटर धाम । ते अमीयवेयसुब्वेपणाम । मुनिसुद्ध सील सगो अहग, पम्मतुरयणपरिभूतिया । ते पव्विन्विहिवतणकरति, सचल्यि एकहि दिणेमहत । दक्गिदिसिलंकहि जतएहिं, मलयम्मिविसह तादिदछ तेहिं । सिरिपदीणामेगिरिवरिटु, सहिकीलणुछ आवइ सुरिंदु । तहोउवरि खणेद्धविड़ीय, णसग्गही सुरवड परिवढ़िय । वत्ता-ते पेखिविठुहपक्यधवलु, चवीस जिनालय गयगया, त पेनिवि हरिसहि तर्हि "जिपर, विणिवारिक्र्रहो जेहिं मवणु ॥ ४ ॥
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महाराजा करकण्डु। [३५५ होगा और जब राना करकंडु वहां आकर मंजूषाको खोलेंगे तब वह हाथी सन्यासमरण करके स्वर्गको जावेगा। यह सुनकर वह दोनों राजा उन मुनिराजके निकट दीक्षा ले गये और आयुके अन्तमें अमितवेग तो ब्राह्मोत्तर स्वर्गको गया और सुवेग आर्तध्यानके कारण मरके हाथी हुआ ! अमितवेगके जीव देवके समझानेसे सुवेगके जीव हाथीने सम्यक्त्वयुक्त होकर व्रतोंको ग्रहण किया था। सो वह निरंतर वहां पूना किया करता था। सो हे राजन् ! देवके कहे अनुसार जब तुमने बांबी खुदवाई, तब हीसे यह हाथी समाधिस्थित हो रहा है, यही इस गुफाके सम्बन्धकी कथा है।'
इस प्रकार कथा कहकर नागकुमार तो नागवापिकाको चला -गया और राजाने उस हाथीको धर्मश्रवण कराके समाधिमरण कराया, जिससे वह महस्रार स्वर्गमें जाकर देव हुआ। पीछे करकंडुने वहां · पर गुफायें एवं जिनमंदिर बनवा दिये थे। (लयणोवए करकंडुयणु, काराविउ जिणवर वर भवणु)।
करकंडु तेरपुरमें जिनमदिर आदि बनवाकर अगाड़ी बढ़ गये और फिर वह सिंहलद्वीप जापहुंचे।' शायद उस समय अपने शत्रुओपर आक्रमण करना उनने मुनासिब न समझा होगा। इसी लिये वहांसे वह सिहलहीपको चले गये थे। वहांके राजाने एक चारण मुनिके मुखसे इनकी बावत पहले ही सुन लिया था। सो उसके सिपाहियोंने इनके आगमनकी सूचना उसे दी थी। (जो भासिउ चारण मुणिवरेण-वरु आयउ णरवइसोभरेण) राजा इनको
१-ता एक्वहिं दिणि करकड एण-पुणुदिणु पयाणउ तुरियएण । गउ सिंहलदीवही णिवसमाणु-करकडु णणहिउ परपहाणु ।
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३५६ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
बडे आदर से अपने यहां लिवाले गया था और शुभलग्न में अपनी पुत्रीका विवाह उनसे कर दिया था । (वेवाहु कियउलहुताहूकेवि ) करकंडु यहां नववधू के साथ कुछ दिन रहकर अन्यत्र चले गये थे । और विद्याधर कन्या आदिके साथ विवाह करके घूमते फिरते द्राविड़देशमें चोल, चेरम, पाण्ड्य आदिके राजाओंके सन्मुख जा डटे थे ।' यहां घोर युद्ध हुआ था और आखिर इन राजाओको करकंडुसे परास्त होना पड़ा था । जिस समय करकंडु इनके मुकुटोंको पैरोंसे कुचलता अगाड़ी बढ़ रहा था, तो उसने उनमें जिनप्रतिमाओंको बना देखा । उनको देखते ही वही स्थंभित हो गया । उसने समझा यह बड़ा अनर्थ हो गया ! अपने साघर्मी भाइयोको मैंने वृथा ही कष्ट दिया । वह बहुत ही दुःख करने लगा और उसने उनसे क्षमायाचना करके मैत्री करली । वात्सल्यप्रेमका यह अनूठा चित्र है ! श्रावकोंमें गऊवत्सवत् प्रेम होना चाहिये, इसका यह एक नमूना है ! आजके श्रावकोंको मानों वात्सल्यभाव धारण करनेका प्रगट उपदेश देरहा है - कह रहा है कि जैनी जैनी में परस्पर भेद नहीं होना चाहिये । उनको परस्पर मिलकर रहना चाहिये ! करकंडु महाराजका यह आदर्श कार्य सर्वथा अनुकरणीय है ।
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करकंडु महाराजने उन राजाओंसे विदा होकर तेरापट्टनको प्रयाण किया । वहां पर उनकी मदनावली रानी उनसे आकर मिल
१ - तर्हि अत्थि विकितिय दिग्णसराउ - सबहिउ ता करकडु राउ । ता दिविड़देसमहि अलु भमतु - सपत्तउ तहिं मछरुव तु । तहिं चौड़े चोर पंडिय णिवाह, केणाविखणद्वे ते मिलीयाहि । २ - करकड धरियाते विरणे, सिरमज्द मल्वि चरणेहिं तहो मउड़ महिं देखिवि जिणपढ़िम, करकडवोजायर वहुलु दुहु ॥ १८ ॥
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महाराजा करकण्ड ।
[३५७. गई ।' फिर वे और रानियोंको लेकर चंपापुर पहुंच गये और वहां आनन्दसे राज्य करने लगे ! ।
एक रोज बनपालने आकर राजदरबारमें खबर की कि महाराज, विना ऋतुके ही सारी फुलवारी फल फूल गई है । उद्यानमें ज्ञानवान श्री शीलगुप्त नामक मुनिराजका आगमन हुआ है ।
बनपालके मुखसे यह शुभ समाचार सुनकर करकडुने बड़े हर्षमा__ भावसे मुनिराजको परोक्ष नमस्कार किया और फिर वह सपरिवार'
मुनिवन्दनाके लिये गये ! मार्गमें जाते हुये उनने एक दुःखिया' स्त्रीको विलख विलखकर रोते देखा । ( एहणारि बरहि कि रुवएं, विलवंती हियवइ दुहु करहं) सो उसने इसका कारण पूछा ! लोगोंने कहा कि महाराज, इसके पुत्रका जन्म हुआ था। उसे अकालमें ही मृत्युके मुखमें जाना पड़ा है। इसीलिये यह स्त्री रो रही है । यथा--- उप्पण्णउ णंदणु विहिवसेण, सो णीयउ आयहि वइवसेण । ते रुबइ सदुरकउ महिलएह, अप्पणिउ धल्लइवद्धदयेह ॥
यह सुनते ही करकंडुके नेत्रों के अगाड़ी संसारका वास्तविक रूप खिच गया ! वह इसके क्षणिक रूपको देखकर भयभीत हो गए ! उनके हृदयमें वैराग्य उदय होगया। आपा-परका भेद
१-करकण्डु तहतउणीसरिउ, गउ सम्मु हु तेरापट्टण हो । 'जर्हि सुन्दरि मयणावलि हरिय, सम्पत्तउ तपए सुववण हो ॥१९॥' 'गउ चम्पइ साहिविगहि णिवइ, सो रज्जु करन्तउ वहुय दिणइ ।।' २-'चम्पाहि उबुद्दयण वेठियउ मुहलीलइ अछइ जावतर्हि, ता आयड ऊज्जाणाहिवई अत्याणिविठ्ठउराउ जहिं ।" "धम्मालउसजम णिलउमाइ-किं जिणवत्मणि वेसेंणराइ । तहिं आयउ मुणिवर जाणजुत, णामेणपसिद्धउ सीगुत्तु ॥" 'करकंडु सुणेविणुत्त वयणु सत्याणजो अहिउतरियणेण ।'
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___३५८] भगवान पार्श्वनाथ ।
दृष्टि पड़ गया ! (तं सुणिवि वयणु रायाहि राउ-संसार होउवरि विरत्त भाउ) वह राजाधिराज इन्ही शुभ भावोंको लिये हुये नंदनवनमें पहुंच गये । (संपत्त उणंदणु तण भमहु) वहां उन्होंने भक्तिभावसे उन मुनींद्रकी वंदनाकी और संस्तुतिकी थी। जैनाचार्य यही कहते है:_ 'भामरेतिउ देविणु थुइ करेवि । पुणु चरण दामलजुवलउसरेवि ।। जय तिमिर विणासण खरदिणिद । पय पाडिय पई मुरणर फणिंद ॥ जय माण महागिरि वज्ज दण्ड । जय णिरुममोक्खहो भरिय कुण्ड ॥जय मोह विडवि छिंदणकुट्ठार। जय चउगइ सायर तरण पार ॥ तुई दूरि णमंतहं हरीहपाऊं। जहं दिणयरु तम फेडण सहाऊ ।। यह सुमरइ अणुदिणु जो मणेण । सो सिवपुरि पावइ तरकणेण ॥ कमकमलइ वंदिवि मुणिवएमु । ऊवविठ्ठउ अग्गे एतवधरासु॥ सो भणइ भडारा हरिय छम्मु । महो कोविपयासहि परम धम्मु ।"
करकंडु मुनिराजकी विनय करके उनके सामने बैठ गया और तब उन कपालु भट्टारकने परम सुखकारी धर्मका उपदेश दिया, जिसको सुनकर सबके हृदय प्रसन्न होगये। उपरांत सबने अपने२ पूर्वभव उन महाराजके मुखारविन्दसे सुने । उससे उनने जाना कि कुंतलदेगके तेरपुर नगरमें पहले एक ग्वाला था। उसने बड़े प्रेम
और भक्तिभावसे एक हजार पांखुरीवाले कमलसे श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा की थी और आयुके अन्तमें शुभभावोंसे मरकर वही ग्वालाका जीव राजाधिराज करकंड हुए ! अगाड़ी उनने जाना कि श्रावस्ती नगरीमें (भरहि अत्थि सावत्थिपुर) सागरदत्त सेठ और नागदत्ता
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महाराजा करकण्डु। [३५९ नामकी उसकी स्त्री थी। अपनी स्त्रीको सोमशर्मा नामक एक विप्रमें अनुरक्त जानकर उसने दीक्षा ले ली और आयु पूर्ण करके वह स्वर्गधाम पहुचा । वहींसे चयकर वह चंपापुरका राजा दत्तिवाहन
हुआ ! इधर वह सोमशर्मा ब्राह्मण मरकर कलिग देशमें नर्मदाति__लक हाथी हुआ। ( उप्पण्णउ कुभिकलिंग देस ) यही हाथा रानी
पद्मावतीको लेभागा था । प्राणियोंका मोह और वैर जन्मजन्मान्तरमें भी नही जाता है। इसलिये वृथा ही राग, द्वेषके वशीभूत होकर किसीका अहित करना बुरा है । खैर ! अगाड़ी शेष जो व्यभिचारिणी नागदत्ता रही थी वह भी मरगई और बहुत कालतक भ्रमण करके ताम्रलिप्ति नगरीमें वसुदत्त वणिककी स्त्री हुई । (एत्थत्थि मरहि पुरि तामलित्ति, जोवंतणु सुखइ लहइतित्ति। वसुमित्त तर्हि वणि अत्थि...) इसके दो पुत्रियां धनवती और धनश्री नामकी हुई थीं। धनवतीका विवाह णालंदा नगरके सेठ धनदत्त और सेठानी धनमित्राके पुत्र धनपालके साथ हुआ था । (णालंदणयरि धणुदत्तुवणि-धणमित्तागेहिणि तहो सुयऊ .) दूसरी धनश्रीको कौशाम्बीके वैश्य वसुपाल और वसुमतीके पुत्र वसुमित्रने व्याही थी । (कउसंविणयरि वसुपाल सेवि-इत्यादि) वसुमित्र जैन धर्मावलम्बी था । इससे धनश्री भी उनके संसर्गसे जैनी होगई। एक दफे उसकी माता नागदत्ता भी वहां आई । धनश्रीने श्री मुनिवरके पास लिवानाकर अपनी माताको अणुव्रत लिया दिये, किन्तु अपनी दूसरी पुत्रीके समागममें पहुंचकर उसने उन व्रतोंको छोड़ दिया। उसने तीनवार यह व्रत लिये और तीनों ही वार छोड़ दिये (जहतेहंवउ भमाउ एक्कवार, तहतिणिवार भग्गउ मुत्तार)
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३६०] भगवान पार्श्वनाथ । उपरान्त चौथी वार वह वनोमें अटल होगई ! निदान जैनधर्मको पालते हुये उसकी मृत्यु हुई और वह कौशाम्बीके राजा वसुपाल
और रानी वसुमतीके बुरे मुहूर्तमें पुत्री हुई: जिमसे इसको मंजूषामें रखकर गगामें बहा दिया गया था। फिर कुसुमदत्तमालीके यहां लालनपालन पाकर यह राना दंतिवाहनकी प्रिया हुई थी।
श्री मुनिराजके मुखसे सबने अपने पूर्वभव वर्णन सुनकर वैराग्यको प्राप्त किया ! उन पवको काललब्धिकी प्राप्ति होगई-वे मोक्षके मार्गमें लग गये ! राजाधिराज करकंडु अपने पुत्र वसुपालको चम्पाका राजा बनाकर मुनि हो गये । उनके साथ चेरमादि क्षत्रियोंने भी दीक्षा ली थी। साथ ही पद्मावती माता एवं उनकी स्त्रियां आर्यिका होगई ! करकंडु महाराज सांसारिक वैभवको तिनकेके समान त्याग करके मुनि हो गये । श्री गुरुके चरणोंकी उन्होंने वंदना की और वह विरक्त हो गये। (जिणचरण लग्गु दूखाउ भीड संसारहो उवरि विरत्ति थीउ) यह उन्हीं जैसे महापुरुषके योग्य कार्य था।
करकंडु महारानने मुनिअवस्थामें घोर तपश्चरण किया और आयुके अन्तमें उन्होंने सर्वार्थसिद्ध विमानमें जा जन्म लिया ! ( सव्वत्यसिद्धि संपतु खणे, कणयामर मुणिवर घयहलहं । ) एक -ग्वालाका जीव श्री जिनेन्द्र भगवान के चरणोंका सेवक बनकर मनुप्यलोकमें मनुष्यों द्वारा पुज्य राजाधिराज हुआ और फिर देव आयुको प्राप्त हुआ ! यह जैनधर्मकी शिक्षाका मर्म समझानेवाला प्रकट उदाहरण है । करकंडु महाराजने श्री पार्श्वनाथ भगवान्के तीर्थमें जन्म लेकर उन्हीं भगवानके मूलनायकत्वके मंदिर धाराशिव (तेरपुर) में बनवाये थे ! जहां मान भी हजारों जैनी जाकर आपके पुण्यमई
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जिनेन्द्रभक्त सेठ। [३६१ कार्यके निमित्तसे धर्मोपार्जन करते हैं ! इस तरह भगवान् पार्श्वनाथजीके तीर्थमें हुये प्रख्यात नृपका यह चरित्र है +
श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें इनकी गणना चार प्रत्येक बुद्धोमें की है; जो बौद्धसाहित्यमें भी बहुप्रसिद्ध हैं। वहां इनको कर्मनाश करके केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष लाभ करते लिखा है । डा० जार्ल चारपेन्टियरने इनके चरित्रपर कुछ प्रकाश डाला है।
(२१) जिन्नत खेल !* 'नत्वा श्रीमजिनं भक्सा स्वर्ग मोक्षमुखपदम् ! वक्ष्येजिनेन्द्रभक्तस्य सत्कथां सोपगृहने ।'
ब्रह्मनेमिदत्त । सातमजले महलकी अंतिम मंजिलपर सम्यग्दृष्टि शिरोमणि सेठ जिनेन्द्रभक्त द्वारा निर्मित सुन्दर जिनचैत्यालय था ! सूर्य नामक ___+ मुनि कणयामर विरचित 'करकडुचरित्र के आधारपर ही यहा यह वर्णन दिया गया है परन्तु इस चरित्रके मूल परिचयके लिए मूल ग्रन्थ ही देखना चाहिए । मुनि कणयामर सभवतः १०वीं शताब्दिके कवि थे। देखो इलाहाबाद यूनीवर्सिटी जर्नल पृ० १७४ । १-जाले चारपेन्टियर, उत्तराध्ययनसूत्रकी भूमिका पृ० ४४ । २-उत्तराध्ययनसूत्रकी वृत्तिमें उल्लेख हैं.-'इह च यद्यपि नमिप्रवर्जेव प्रकृन्ता तथापि यथायम् प्रत्येकबुद्धस् तथान्येऽपि करकंड्वाद्यस् त्रय एततसमकालसुरलोकच्यवन प्रवर्जया ग्रहणकेवलज्ञानोत्पत्तिसिद्धिगतिभोज इति प्रसगतो विनेयवैराग्योत्पादनार्थम् तद्वक्तव्यताप्य अभिधीयते।' पूर्व० भाग २ पृ० ३१२ । 3-Pacceka-buddhages chichten. PP 41-56-86-164, * पूज्य ब. सीतलप्रसादजीने इनसेठको श्री पार्श्वनाथजीके तीर्थमें बतलाया है । (बंगाल जैनस्मारक पृ० १२१)
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३६२] भगवान पार्श्वनाथ । चोर क्षुल्लकवेषमें वहां पहुंच गया! भव्य चैत्यालयको देखकर उसका हृदय गद्गद हो गया ! मनोहर वेदिकामें श्री पार्श्वनाथ भगवान्की अति मनोज्ञ और रत्नमई प्रतिमा विराजमान थी जिसपर रत्नजटित तीन छत्र अपूर्व ही शोभा देरहे थे। इन छत्रोंमेंसे एकमें वैडूर्यमणि नामक अत्यन्त कांतिमान बहुमूल्य रत्न लगा हुआ था ! वेषधारी क्षलकका हृदय उसको देखते ही बांसों उछलने लगा ! उसको सोलह आने निश्चय होगया कि यह बहुमूल्य रत्न तो अब मिल
ही गया । लोभके वशीभूत होकर उस क्षुल्लक वेषधारी चोरने कुछ __ भी कार्य अकार्य न पहिचाना ! उसे केवल वैडूर्यमणिको पानेकी फिकर थी।
यह सूर्यचोर चोरोंके एक नामी गिरोहका सदस्य था और उस गिरोहका नेता सौराष्ट्र देशके पाटलिनगरके राजा यशोध्वज और रानी सुसीमाका पुत्र सुवीर था' सुवीर महाव्यमनी और चोर था ! उसने ताम्रलिप्त नगरके जिनेन्द्रभक्त सेठके चैत्यालयमेंके मूल्यमई रत्नका हाल सुना था । इसी कारण उसने अपने साथियोंको उस रत्नको किसी तरह भी ले आनेके लिये कहा था। इसपर इस सुर्यचोग्ने उम रत्नको ले आनेका भार अपने ऊपर ले लिया था ! सूर्य चोरको मालूम था कि जिनेन्द्रमक्त सेठ अपने नामके अनुसार ही जिनभगवान्के परमभक्त है और वे धर्मात्मा पुरुषोंसे बड़ा प्रेम करते हैं। सेठनीकी इस धर्मवत्सलतासे अनुचित लाभ उठाना उस चोरने ठान लिया। अनेक जीर्ण मंदिरोंका उद्धार करानेवाले, आवश्यक्तानुसार अनेकों भव्य मंदिरों और प्रतिमाओंको वनवानेवाले एवं चारों संघोंको दान देने और सत्कार करनेवाले उन सेठको इस
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जिनेन्द्रभक्त सेठ । [३६३ तस्करने ठगनेका पूरा इरादा कर लिया ! वह झटसे क्षुल्लक बन गया और सेठनीके नगरमें जा पहुंचा। वह रत्नके लालचसे व्रत उपवास आदि भी करने लगा ! सेठजीने धर्मात्मा क्षुल्लकका आगमन ज्योही सुना त्योही वे उसकी वन्दनाको गये ! क्षुलुकका क्षीणशरीर देखकर सेठजीकी श्रद्धा उसपर होगई। उनने क्षुल्लकको प्रणाम किया और वह उसको अपने महल लिवालाये। सच है कि
'अहो धूर्तस्य धूर्त्तत्वं लक्ष्यते केन भूतले । यस्य प्रपञ्चतो गाढं विद्वान्सश्चापि वंचिताः॥
अर्थात्-"जिनकी धूर्ततासे अच्छे२ विद्वान् भी ठगा जाते है, तब वेचारे साधारण पुरुषोंकी क्या मजाल जो उनकी धूर्तताका पता पासकें।" ऐसे ही धूर्त साधुजनोंको बदनाम करते है !
क्षुल्लकजी महलमें पहुंचकर उस मणिको ले उडनेकी ताकमें थे। रात आते ही उनका दांव लग गया। वे मणिको लेकर महलके बाहिर हो चलते बने; पर अमाग्यसे मार्गमें कोतवालने उनको पकड़ लिया ! वह ज्यों त्योंकर आखिर जिनेन्द्रभक्त सेठकी शरण आये ! सेठ धर्मात्मा थे, वे अपराधी पर भी क्षमा करना जानते थे। उनने क्षुल्लकके दुष्कर्मकी ओर दृष्टिपात भी नहीं किया ! प्रत्युत कोतवा लके सिपाहियोको ही डांट दिया कि वृथा ही तुम एक तपस्वीको चोर बतलाते हो। इस रत्नको तो यह मेरे कहनेसे लाये हैं। यह बड़े अच्छे साधु हैं। मिनेन्द्रभक्तके यह वचन सुनकर सिपाही लोग तो नमस्कार कर चलते बने, और सेठजी उन क्षुल्लक महाशयको एकान्त स्थानमें लेजाकर कहने लगे कि-'यह बड़े दुःखकी बात है कि तुम ऐसे पवित्र वेषको धारण करके उसे नीच कर्म
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३६४]
भगवान पार्श्वनाथ । करके लजा रहे हो ! तुम्हें ऐसे नीच कार्य करना क्या उचित हैं ? इन कार्योंसे वेषकी निन्दा और तुम्हारी आत्माका अहित होता है। तुम्हें ऐसे दुष्कार्योंकी बदौलत कुगतियोंका ही वास मिलेगा ! शास्त्रकारोंने तो स्पष्ट ही कह दिया है कि ----
'ये कृत्वा पातकं पापाः पोषयन्ति स्वकं भुवि । सक्त्वा न्यायक्रमं तेषां महादुःखं भवार्णवे ।।"
अर्थात-"जो पापी लोग न्यायमार्गको छोडकर और पापके द्वारा अपना निर्वाह करते हैं, वे संसार-समुद्रमे अनन्तकाल दुःख भोगते हैं।" याद रक्खो कि अनीतिको गृहण करने और अधिक तृष्णा रखनेसे जल्दी ही नाशके गर्त में जाना पड़ता है। इस अमूल्य नर जन्मको पाकर बर्बाद न कर दो। कुछ आत्महित करलो।' इसप्रकार शिक्षा देकर जिनेन्द्रभक्त सेठने उस क्षुल्लकको अपने स्थानसे अलग कर दिया !
___ भगवान् पार्श्वनाथनीके तीर्थमें हुये यह जिनेन्द्रभक्त सेठका चरित्र है। धर्मात्मा पुरुषोंको कैसा आदर्श जीवन व्यतीत करना चाहिए, यह उनके व्यवहारसे स्पष्ट है । अपराधी पर भी रोष न करना-पापीसे घृणा न करना-यह उनके आदर्शसे प्रगट है। पापसे दूर रहने का वह उपदेश दे रहे हैं। धर्मात्मा साधुजनके भेषका आश्रय लेकर जो पाखंडी पुरुष स्वयं धर्मको बदनाम करते हैं, उनके प्रति श्रावकोंका क्या कर्तव्य होना चाहिये, यह भी जिनेन्द्रभक्त
सेठके उक्त उदाहरणसे स्पष्ट है । अंधश्रद्धाके वशवर्ती होकर पाखडी - लोगोंको धर्मापवाद करने देना भला धर्म हो ही कैसे सक्ता है ?
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विधुच्चर मुनि ।
(२२)
विद्युच्चर मुनि। " सर्वसौख्यप्रदं नत्वा जिनेन्द्रं भुवनोत्तमम् । वक्ष्ये विद्युञ्चराख्यानं विख्यातं मुनिमाषितम् ॥"
ब्रह्मनेमिदत्त। मिथिलानरेश वामरथ अपने एकांत भवनमें बैठे हुये थे। आनन्द वार्ता होरही थी । सामने ही सुन्दर वेषभूषाको धारण किये हुये एक पुरुष उपस्थित था। वह महारानको मन मोहनेवाली बातें सुना रहा था। बातों ही बातों राजाका हार लेकर बह चम्पत होगया ! सब लोग देखते ही रह गये ! इस घटनासे मिथिलानरेशको बड़ा रोष आया । उन्होने अपने यमदण्ड नामक कोतवालको बुला भेना और सात दिनके अन्दर चोरका पता लगा लानेकी आज्ञा चढ़ादी!
__ यमदण्ड परेशान था । वह अपने जानेमें चोरको खोन निकालनेके लिए जमीन आस्मान एक कर चुका था, पर तो भी पता लगानेमें सफल न हुआ था ! छै रोज होचुके थे-दृप्सरे ही रोज राज दरबारमें चोरको हाजिर करना था ! वह इसी फिराको नगरके बहार निकला ! यू ही एक सूनसान मंदिर में वह जा निकला। वहां उसने एक कोढीको पड़ा पाया! कोतवालको उसपर कुछ शक हुआ और वह उसको पकड़ लाया ! दूसरे रोज राजदरबारमें उसी कोढीको उपस्थित करके कह दिया कि 'महाराज, आपका चोर यही है।' कोतवालने उसको चोर तो बता दिया; परन्तु उसके पास कोई प्रमाण नहीं था, जिससे वह उसे चोर सिद्ध कर सत्ता ! दरवारियोंकी
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भगवान पार्श्वनाथ । सलाहसे यह विषय विचारकोटि में पड़ गया। उस रोज़ कुछ निश्चय न हुआ। कोतवाल उसे अपने घर ले आया और उसकी खूब अच्छी तरह मरम्मत की । परन्तु उसने तब भी चोरी करना न कबूला । दृमरे रोज रानसभामें उसी कोढीको कोतवाल फिर लेगये
और राजासे बोले-" महाराज, यही पक्का चोर है । " किन्तु कोढ़ोने फिर भी इन्कार किया !
आखिर राजाने उसको अभयदान देकर पूंछा कि तू सचा हाल बतादे-हम तेरा अपराध क्षमा कर देगें । इसतरह राजासे जीवदान पाकर उस कोढ़ीने चोरी करना कबूल करली । वह बोला-'रानाधिराज' अपराध क्षमा हो । मै ही वास्तवमें चोर हूं।' राजा यह सुनकर चकित होगया । उनने पूछा कि 'इतनी विकट मार सहते रहने पर भी तूने यह बात नहीं कबूली । तू बड़ा साहसी है, तूने कैसे यह वेदना सहली ?' उसने कहा कि-'महाराज, मैंने एक मुनिरानके मुखसे नर्कोके दुखोका वर्णन सुना था । सो मुझे निश्चय था कि इम वेदनासे कहीं अधिक वेदना तों मैं पहले अनेक वार नकोंमें भुगत चुका हूं। वहीं भयभीत न हुआ तो इस वेदनासे विचलित होना फिजूल है ।' राना यह उत्तर सुनकर बडे हर्षित हुए । उनने उसे वर दान दिया; पर उस चोरने आप कुछ भी न मांगकर यमदण्ड कोतवालको ही सब कुछ देनेकी प्रार्थना की! यह देखकर राजा और भी अचंभेमें पड़ गया ! उनने उससे पूछा कि यमदण्ड तो तेरा बैरी है-तु उसे मित्र मानकर प्रेमका व्यवहार कैसे कर रहा हैं ? वह चोर बोला-'महाराज, यह मेरे मित्र ही हैं। इसका खुलासा यूं है सो सुनिये-दक्षिणके आभीर प्रान्तमें
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विद्युच्चर मुनि। [३६७ वेना नदीके तटपर वेनातट नगरमें राजा जितशत्रु राज्य करते थे। उनकी रानी जयावतीसे विद्युच्चर नामका उनके पुत्र था। वहांके कोतवाल यमपाश थे। उनकी यमुना स्त्रीसे यमदण्ड नामका पुत्र हुआ था । आपके कोतवाल वही यमदण्ड हैं । विद्युच्चर और यह एक गुरुके पास पढ़ते थे। इनने कोतवालीका ज्ञान प्राप्त किया था और विद्युच्चरने चौर्य शास्त्रका मंथन किया था । एक रोज विद्युचर और इनमें शपथ होगई कि जब तुम कोतवाल होगे तब मैं चोरी करूंगा और फिर देखूगा तुम कितने होशियार हो ! कालान्तरमें नितशत्रु और यमपाश जैन मुनि होगये। सो विद्युच्चर राजा हुये और यमदण्ड कोतवाल पदके अधिकारी हये। परन्तु यह अपनी पूर्व शपथके भयसे यहां चले आये । राजन् , मैं ही विद्युच्चर हू । सो मैं इनकी होशियारीकी बानगी लेने यहां चला आया। दिनमें कोढ़ीके वेषमे रहता था और रातको अपनी शपथके अनुसार इनको छकाता था। इसलिये यह हमारे मित्र ही है।' उपरान्त विद्युच्चर यमदण्डको लेकर अपने शहरको वापस चला आया। किन्तु इस घटनासे उसे वैराग्य उत्पन्न होगया था। उसने शीघ्र ही अपने पुत्रको राज्यका भार सौंप दिया और जिन दीक्षा लेगया। इनके अतिरिक्त कई अन्य राजकुमार भी मुनि होगए थे। भव्यात्माओंके ऐसे ही आदर्शनीवन होते है। वह बड़ेसे बडा त्याग बातकी बातमे कर देते है।
विद्युच्चर मुनि होगये । खूब ही आत्मोन्नतिके मार्गमें बढ़ने लगे और सर्वत्र उनका विहार होने लगा। एक रोन वे घूमते हुए ताम्रलिप्त नगरीमें जापहुंचे। वहांकी चामुण्डदेवीने इनको वहां
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३६८ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
घुसने से रोका; किन्तु शिष्योंके आग्रहसे यह नगरी में चले गए और वहां पश्चिम परकोटेके पास पवित्र स्थानपर आसन मांड़कर घोर बैठ गए। चामुण्डदेवीको यह बात बुरी लगी। उसने इनपर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया | अनेक प्रकार के उपद्रव होने लगे, पर तो भी यह मुनिराज अपने ध्यानसे विचलित न हुए । प्रत्युत इनका ध्यान बढता गया और अन्तमें इन्होंने कर्मोका नाशकर मोक्षघामको प्राप्त किया । विद्युच्चर मुनिराज के पादपद्मोसे तामृलिप्ति नगरी पवित्र होगई - वह निर्वाण स्थान वन गया । यह राजपुत्र विद्युच्चर मुनि भी भगवान पार्श्वनाथजी के तीर्थमें हुए माने जाते है । ( देखो वगाल, विहार जैन स्मारक ८० १२१ )
DE ( २३ )
राजा वसुपताल और चित्रकार ! ' पादपद्मद्वयं नत्वा जिनेन्द्रस्य शुभप्रदम् । उपधानकथावक्ष्ये यतः सौख्यं भजाम्यहम् ||' - ब्रह्मनेमिदत्त । श्री पार्श्वनाथ भगवानकी मनोज्ञ प्रतिमापर चतुर कारीगरने बड़ी सुन्दरतासे लेप चढ़ाया, परन्तु रातके वीचमें वह स्वयमेव ही उतर पड़ा। चित्रकार बड़ा विस्मित हुआ । उसने समझा कि कोई त्रुटि होगई होगी, इसी कारण यह लेप उतर पड़ा है। परंतु दूसरे दिन और तीसरे दिन भी यही घटना घटित हुई । चित्रकार बड़े -असमंजस में पड गया ! कई दिन उसे ऐसे ही बीत गये । उसकी समझमें न आया कि ऐसा क्यों होता है ?
I
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राजा वमुपाल और चित्रकार ! [३६९ श्री अहिच्छत्रपुरके राजा वसुपाल बड़े बुद्धिमान् थे । जैन धर्ममें उनको गाढ़ श्रद्धा थी। उनकी रानी वसुमती भी बडी बुद्धिमती और धर्मपर प्रेम करनेवाली थी। राजा वसुपालने अहिच्छत्रपुरमें 'सहस्रकूट' नामका भव्य जिनमंदिर बनवाया था और उसमें श्री पार्श्वनाथ भगवानकी मनोहर प्रतिमा विराजमान् की थी। इसी प्रतिमापर लेप चढानेको राजाने चित्रकार बुलाया था। यह चित्रकार मांसभक्षी था । इसकी अपवित्रताके कारण उसके द्वारा चढ़ाया हुआ लेप प्रतिमाजीपर नहीं ठहरता था। और राजा एवं सब अन्य लोग इस घटनासे दुःखी थे। उनकी समझमें इसका कारण नहीं आता था। ___आखिर वह चित्रकार किसी मुनिमहारानकी शरणमें पहुंचा'
और उनसे इस घटनाका कारण पूंछा। मुनिराजने बतला दिया कि'प्रतिमा अतिशयवाली है। कोई शासनदेवी या देव उसकी रक्षामें नियुक्त रहते है । इसलिए जबतक यह कार्य पूरा हो तबतक उसे मांसके न खानेका व्रत लेना चाहिए।' लेपकारने वैसा ही किया। मुनिराजके समीप उसने मांस न खानेकी प्रतिज्ञा ग्रहण करली। इसके बाद जब उसने दूसरे दिन लेप किया तो वह प्रतिमापरसे नहीं छूटा-वह उसपर ठहर गया । व्रतका माहात्म्य ही ऐसा है। व्रती पुरुषको हर कार्यमें सिद्धि होती है। इस हर्ष समाचारको सुनकर राजा वसुपाल भी बड़े प्रसन्न हुये और उनने चित्रकारको वस्त्राभूषण देकर उसका सत्कार किया। वे राजा रानी उस भव्य मूर्तिकी पूजा वंदना दीर्घकाल तक करते रहे और उन्हीके पुण्यकार्यसे आज भी अनेकों श्रावक उन प्रमूकी पूजा अर्चना करने
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३७० ] भगवान पार्श्वनाथ । अहिच्छत्रको जाते हैं-वहांसे पुण्यकी पोट बांधलाते हैं। अस्तु;
इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथनीके तीर्थमें हुये एवं उनसे सम्बन्धित पुरुषोंके दिव्य जीवनाख्यानोंका परिचय हम पालेते हैं । सचमुच उनके निर्वाणलाभ कर चुकनेके उपरान्त तक हुये प्रधान पुरुषोंके दर्शन हम करलेते हैं। अब अगाडी केवल इन प्रमूका निर्वाण कल्याणक और उनका भगवान महावीरजीसे सम्बंध देखना ही शेष है।
(२४) भृगवतनुकता निर्माणलाभ ! "कुर्वाणः पंचभिमासैविरहीकृतसप्ततिं । संवत्सराणां मासं स संहृत्य विहतिक्रियां ।। १५५ ॥
त्रिशन्मुनिभिः सार्द्ध प्रतिमायोगभास्थितः । श्रावणे मासि सप्तम्यां सितपक्षे दिनादि मे ।। १५६ ॥ भागे विशाख नक्षत्रे ध्यानद्वयसमाश्रयात् । गुणस्थानद्वये स्थित्वा सम्मेदाचल मस्तके ।। १५७ ॥ तत्कालोचितकार्याणि वतयित्वायथाक्रमं । निःशेषकाने शानिर्वाणं निश्चलं स्थितः ॥ १५८ ॥
मन्द मन्द पवन चल रही थी, नीलाकाश सुहावने वादलोस मण्डित होरहा था। अमण सूर्योदय अपनी मन्दमुस्कान छोडते हुये एक झाकी भर लगा रहे थे, मानो भगवान पार्श्वनाथजीके अतुल विभवकों देखकर वह अपना मुंह ही छिपा रहे हों! पावस ऋतु था। श्रावणका महीना था। वृक्ष-लता, पशु-पक्षी और नर-नारी सबक
श्री गुणभद्राचार्य।
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भगवानका निर्वाणलाभ! [३७१. हृदयोंमें मोदभाव छारहा था । सबही प्रसन्न हुये मीठे २ राग अलाप रहे थे ! शुक्लपक्ष अपनी विमलताका परिचय देरहा था। मानों स्पष्ट ही कह रहा था कि मैं सार्थक नाम हूं। जैसा मेरा नाम है वैसा मेरा काम है। शुक्लभावोंका पूर्ण प्रार्दुभाव मेरे ही शुक्ल आलोकमें होतक्ता है। मेरे ही धवलरूपका साथी इस विशाखा नक्षत्रमें आज अपना वैभव दिखला सक्ता है। आजका दिन ही इस पुनीत ससर्गसे हमेशाके लिये पवित्र और पावन बन गया है। वह देखिये प्राकृत संकेतोको पाकर इस दिव्य अवसर पर स्वर्गलोकके देवगण भी आ रहे हैं । इन्द्र-इन्द्राणी और देव देवाङ्गनायें अपने २ विमानोमें बैठे हुये जयजयकार करते हुये चले आरहे हैं। सब ही पुलकितबदन होरहे है। इधर पृथ्वीपर देखिये तो सब ही राना महाराना, सेठ और साहूकार प्रसन्नतापूर्वक भगवान पार्श्वनाथकी विरदावलि गाते बढे चले आरहे है । पशु-पक्षी और वृक्ष लतायें भी प्रफुल्लत हुये दृष्टि पडरहे है । जरा और नजर पसारिये, देखिये । दिशायें निर्मल होगई है-भव्य शैल महामनोहर दीख रहा है। यह श्रावण शुक्ला सप्तमीका दिवस ही अनुपम है।
भला यह दिवस अनुपम क्यों है ? इस रोज इन्द्र और देव, राजा और प्रजा कब और क्यों आनन्द मनाने आये थे ? आये थे तो कहां आये थे ? इन सब प्रश्नोका समाधान भगवान पार्श्वनाथजीके शेप जीवनपर नजर डालनेसे हल होनाता है। शास्त्रोमें वतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथनीने विहार और धर्मप्रचारमें पांच महीने कम सत्तर वर्ष व्यतीत किये थे। उपरान्त वे श्रीसम्मेदाचल पर्वतकी परमोच्च शिखरपर आनकर विराजमान हये थे।
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___३७२ ] भगवान् पार्श्वनाथ । जिस महापवित्र पर्वतराजकी टोकोंपरसे परमगुणधारी अनते मुनीन्द्र
और कई तीर्थंकर भगवान् समस्त कर्मोका नाश करके मोक्ष पधारे थे, वह इन भगवान्को अपने अङ्कमें धारण करते फूला न समाया था ! देवदुन्दभिकी प्रतिध्वनिरूप जो महाप्रिय आनन्दध्वनि उसकी गुफा
ओमेंसे निकलती थी, वह उसके प्रसन्न भावोको प्रकट कररही थी !' त्रिजगपूज्य भगवान्को अपने अञ्चलमें पाकर भला वह क्यों न प्रमुदित होता ? वह उनको पाकर हमेगाके लिये पवित्र होगया । देशविदेशोमें उसका नाम होगया! देवोने भी उसकी गुणग्राहकताका मूल्य उसी समय चुका दिया । उनने उसकी सर्वोच्चशिखरका नाम, जिसपर भगवान् पार्श्वनाथनी आ विराजमान हुए थे, सुवर्णभद्रकूट रख दिया । उसके उस सुवर्णमयी कूटपर विराजित भगवान् परम शोभाको धारण किये हुये थे। तिसपर देवोद्वारा की गई। पुप्पोंकी वृष्टि भगवान्के लिये स्वयवरमाला सरीखी ही जान पड़ती थी; मानो मोक्षसुंदरीने स्वयं ही आकर उन भगवानको वर लिया हो!
भगवान्ने श्रीसम्मेदशिखिरपर आकर अपनी समवशरण विभूतिका त्यागन कर दिया था। वह विभूति स्वयं ही विघट गई थी। भगवान् इसप्रकार समस्त सभासे विमुक्त होकर एक मासका योग निरोध करके विराजमान होगये थे। उनके साथ छत्तीस मुनिराज और थे। वे भगवान् प्रतिमायोगमें तिष्ठ रहे थे।' श्रावण शुक्ला सप्तमीके सवेरे ही उनने तीसरे और चौथे शुक्लध्यानोंका आश्रय लिया था। और शेष चार अघातिया कर्मोंका नाश करके वे अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पांच शव्द्रोंके उच्चारण करने जितने'
१-पाश्वनाथचरित् (कलकत्ता) पृ. ४१७ ।
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भगवानका निर्वाणलाभ ! [ ३७३ समयतक अयोगकेवली पदमें प्राप्त रहकर मुक्तिधाममें जा विराजमान हुये थे । अचल मोक्षस्थान में वह परामत्मारूपमें जाकर तिष्ठ गये थे। लोककी शिखरपर हमेशा के लिये पूज्यपनेको प्राप्त होगये थे ! सबसे बडे पदको वे पाचुके थे, समस्त प्राणी उनके चरणोंके आश्र यमें रह रहे हैं !
भगवान् पार्श्वनाथजीके मोक्ष प्राप्त करते ही इंद्रादि देवोंने उनके निर्वाणकल्याणकी पूजा की और बड़ी भक्ति से उन प्रभुकी वंदना करने लगे । उपरात उन्होंने श्री जिनेन्द्र भगवान के दिव्य' देहकी दग्धक्रिया की यथा:
" तव इंद्रादिक सुरसमुदाय, मोख गये जाने जिनराय । श्री निर्वानकल्यानक काज, आये निज निज वाहन साज ॥' परमपवित्त जानि जिनदेह, मुनिसिविकापर थापी तेह | करी महापूजा तिहिं बार, लिये अगर चंदन घनसार ॥३०७॥ और सुगंध दरव सुचि लाय, नमे सुरासुर सीस नमाय । अगनिकुमार इंद्र तैं ताम, मुकुटानल प्रगटी अभिराम ||३०८|| ततखिन भस्म भई जिनकाय, परमसुगंध दसौं दिसिथाय । सो तन भस्म सुरासुर लई, कंठ हिये कर मस्तक ठई ॥ ३०९ ॥ भक्तिभरे सुर चतुरनिकाय, इह विध महा पुण्य उपजाय । कर आनंद निरत बहु भेव, निज निज थान गये सब देव ||३१०||"
१ - किन्हीं लोगोंका कहना है कि तीर्थकर भगवान्की दिव्यदेह काफूकी तरह खिर जाती है और देवलोग अपनी भक्तिको प्रदर्शित करनेके लिये भावामई शरीर रचते एवं उसकी दग्ध क्रिया करते है । तथा नराशिको लेजाकर वे क्षीरसमुद्रमें स्थापन करते हैं ।
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३७४ ] भगवान पार्श्वनाथ ।
__ इसप्रकार निर्वाण उत्सव मनाकर देवगण सुरलोकको चले गये थे। किन्हीं शास्त्रकारोंका मत है कि देवोंने भगवान्के निर्वाणस्थानपर मणिमई स्तूप बना दिया था । इसतरह भगवान पार्श्वनाथजी परमपदको प्राप्त होगये थे। एक सामान्य हाथीका जीव आत्मोन्नति करते२ परमोच्चदशाको प्राप्त होगया! यह धर्मकी महिमाका फल है । नियमित इद्रियनिग्रह और सत्य अध्यवसाय वडेसे बडे कार्यकी पूर्ति पाड़ देता है। कितनी भी छोटी दशाका जीव उपेक्षणीय नहीं है। वह भी अपने आत्मबल अथवा सदप्रयत्नों द्वारा सब कुछ कर सक्ता है। नीच दशाके प्राणियोंको साहस दिलानेवाला भगवान्का पवित्र जीवन सर्व सुखकारी है । उसका अध्ययन और मनन भला किसको आनन्दका कर्ता न होगा ?
__ भगवान् पार्श्वनाथका निर्वाण अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीरजीके निर्वाणकालसे ढाईसौ वर्ष पहले हुआ, शास्त्रोमें बतलाया गया है । और भगवान महावीरजीका जन्मकाल आजकल ईसवीसनसे ५९९ वर्ष पहले माना जाता है। इस अपेक्षा भगवान् पार्श्वनाथका जन्मकाल ईसवीसनसे ८४९ वर्ष पूर्व प्रमाणित होता है और चूंकि उनकी अवस्था सौ वर्षकी थी; इसलिये उनका निर्वाणसमय ईसासे पूर्व ७४९ वर्ष ठीक बैठता है । किन्तु कोई २ महागय उनचा जन्म समय ईसासे पहले ८१७ वर्षमे मानते है । परन्तु हमने विरोप रीतिमे भगवान महावीरका निर्वाणकाल ईसासे
१-श्री भावदेवमग्नि ऐमा उल्लेख अपने पार्श्वनाथचग्नि में किया है। २-उत्तर पुगण पृ० ६०७ । ३-भगवान् महावीर पृ० २१३ और जनमत्र (S BE.) भाग • भूमिका । ४-लाइफ एण्ड स्टोरीज ऑफ पाश्वनाथ, प्रस्तावन [पृ. ८ नोट २ ।
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भगवानका निर्वाणलाभ! [३७५ पूर्व ५४५ वर्षमें स्थापित किया है। अतएव भगवान् पार्श्वनाथ___ जीके मोक्षलाभ करनेकी घटना ईसासे पूर्व ७७० वर्ष में घटित हुई
मानना ठीक जंचता है और इस दशामें भगवानका जन्म ईसासे पूर्व ८७० वर्षमें, गृहत्याग ईसवीसन्से ८४० वर्ष पहले और केवलज्ञान ईसासे पूर्व चार महीने कम ८४० वर्षमें हुआ सिद्ध होता है। इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथ कब हुये यह स्पष्ट होजाता है।
किन्तु देखना यह है कि यह पर्वतराज श्री सम्मेदशिखिर कहां था कि जहासे भगवानने मोक्षलाभ किया था। आजकल हजारीबाग निलेका सम्मेदाचल ही यह पर्वत माना जाता है और हजारों श्रावक प्रतिवर्ष उसकी वदना करने जाते हैं। प्राचीनकालसे इसीको सम्मेद शिखिर मानकर लोग यात्रा करने आते थे, यह प्रकट है। 'उत्तर पश्चिमसे आनेवाले पटना और नवादासे खड़गदिह होकर पालगज आते थे। वहासे यह पर्वत निकट ही है। दूसरी ओर दक्षिण और पूर्वके यात्री उस सडकसे आते थे जो मानभूमके नैयुर स्थानसे चलकर नवागढ होती हुई पालगनको जाती है । ये सड़कें सन् १७७० ई० से पहले काममें आती थी। अतएव यही प्रतिभाषित होता है कि जिप्स पर्वतसे भगवान पार्श्वनाथजीने मोक्षलाभ किया था वह यही पर्वत है । पहलेके एक परिच्छेदमें रावणकी दिग्विजयका उल्लेख करते हुए भी यह देखा जाचुका है कि आधुनिक हिमालय और मध्यप्रान्तके बीचवाली पृथ्वीमे कही पर सम्मेदाचल था । माहिष्मती नगरसे चलकर रावणको कैलाश पहचने के
१-भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० १११-११४ । २-बगाल विहार सैन स्मारक पृ० ४० ।
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३७६] भगवान पार्श्वनाथ । पहले सम्मेदशिखरके दर्शन होगये थे। अस्तुः यह मानना ठीक है कि आजकलका सम्मेदशिखर या पारसनाथहिल ही प्राचीन सम्मेदाचल है।
___ भगवान् पार्श्वनाथके निर्वाणस्थान होनेकी अपेक्षा ही सम्मेदशिखिर अधुना पारसनाथ हिलके नामसे प्रख्यात है । यह विहारओड़ीसा प्रान्तस्थ छोटेनागपुरके हजारीबागमें २३ -५८' उत्तर और ८६°- पूर्व अक्षरेखाओंपर स्थित है । क्रूकसाहब इसकी प्रशंसा इन शब्दोंमें करते हैं कि-"पर्वत संकीर्ण पर्वतमालासे वेष्टित है, जिसमें अनेक शिखरे हैं । यह पर्वतमाला अर्धचंद्राकार है और सबसे ऊंची चोटी ४४८० फीट की है । यह जैनियोंके तीर्थस्थानोंमेंसे एक है। जैनी इसे सम्मेदशिखिर कहते हैं । इस पर्वतपरसे बीस तीर्थकर मोक्ष हुये बतलाये जाते हैं। इसका 'पारसनाथहिल' नाम २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथकी अपेक्षा ही पड़ा है। जैन संप्रदायकी जो एकान्तवासकी प्रकृति है उसीके अनुसार उनने इस निरापद स्थानको जिसके प्राकृत सौन्दर्यको देखते हुये ठीक ही अपना पवित्रस्थान माना है। मधुपुरसे चलकर जब तीन मील पर्वतपर चढ़ जाते है तो झट एक मोड़के साथ ही जैनमंदिर दृष्टि पड़ने लगते हैं। यहासे मंदिरोंकी तीन पक्तियां एक दुसरेके ऊपर स्थितसी नजर पड़ती हैं, जिनमें करीब पन्द्रह चमकती हुई शिखिरें दिखाई देती हैं। इन शिखरोंपर सुनहले कलशे चढ़े हुये रहते हैं तथापि श्वेतांबरों के मंदिरमें लाल और पीली ध्वजायें फहराती रहती हैं। यह सब ही पर्वतके श्यामवर्णमें सफेद महलोंका चमकता हुआ बड़ा समुदाय ही दीखता है। यहां तीन मुख्य मंदिर हैं ...(एक पार्श्व
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भगवानका निर्वाणलाभ! [३७७ नाथजीका भी इन्हींमें है) इन मंदिरोमें अव योरूपियन लोगोंके पहुचनेकी मनाई है, किन्तु सन् १८२७ ई०में एक इग्रेजने इनके दर्शन किये थे। उन्होंने पाश्वनाथ भगवानकी नग्न मूर्तिको ध्या. नाकारमें उनके सर्पचिन्हसे मंडित यहा पाया था । समूचे पर्वतपर और बहुतसे मदिर हैं, जिनकी प्रत्येक जेनी अवश्य ही वंदना करता है। यह प्रवर्ति भगवान् पाश्वनाथनीके मदिरकी वंदना और पर्वतकी परिक्रमाके साय पूर्ण होती है, परिक्रमा करीब तीस मीलका है ।"२ यहां सर्व प्राचीन मंदिर १७६५ ई की है। दिगम्बर सम्प्रदाय भी यहा प्राचीनकालसे पूजा-वन्दना करती आई है और मूलमें इसी संप्रदायकी प्रतिमा श्री पार्श्वनाथनीकी टौं कपर विराजमान रही हैं। इस भव्य स्थानके दर्शन करते ही आनन्दसे शरीर रोमांच हो उठता है, और यात्री पुलकितवदन हो सारे दुःखसंकट भूल जाता है। तीर्थकर भगवान्के चरणकमलोंसे पवित्र हुआ स्थान अवश्य ही अपना प्रभाव रखता है। जिन बुरी आदतोंको मनुष्य अन्यत्र लाख प्रयत्न करनेपर भी नहीं छोड़ता उन्हींको वह यहां बातकी बातमें त्याग देता है । यह इस पुण्य स्थानका पवित्र प्रभाव है, जैनियोंमें इसका आदर विशद है। प्रत्येक जैनीको विश्वास है कि इसकी
6-In recent times no Europenn has been allowed to enter the temples, but a visitor, who.e gmined them in 1827 found the image of Parsvanath to represent the saint, sitting naked in the attitude of meditation, his head Shielded by the snake, hich is hus special emblcm - Crooke in ERE
२-इन्साइल्कोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथिक्स-पारसनाथहिल । ३-ब० वि० के. जैनस्मार्क पृ० ४० ।
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७८ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
एकवार वन्दना करने से ही दुर्गतिका वास छूट जाता है। इस तरह भगवान के पवित्र निर्वाण धामका परिचय है ।
भगवानके निर्वाण कल्याणकके दिग्दर्शन करके प्रत्येक हृदय अपनेको ऋत ऋत्य मानता है । इस परिच्छेद में उसके परोक्षदर्शन होरहे हैं और यह आत्म-कल्याणका प्रकट कारण है। इसके स्मरण मात्र से ही सुखोंकी प्राप्ति होती है, क्योकि जिनेन्द्रदेवकी भक्ति सर्व सुखोंको प्रदान करनेवाली है । इसलिए श्री जिनेन्द्र भगवान पार्श्वनाथजीके प्रति वारम्वार नमस्कार है ।
( २३ ) भगवान् पार्श्वनाथ और महावीरस्वामी..
"पार्श्वगतीर्थसन्ताने पंचगद्विशताब्दके । तदभ्यन्तरवत्यर्थ महावीरोत्र जानवान् || २७९ ||"
- उत्तरपुराण |
भगवान पार्श्वनाथजीको मुक्तिलाभ होगया, किन्तु फिर भी उनका तीर्थ महावीर स्वामीके जन्न समय तक चलता रहा । भगवान् पार्श्वनाथमे महावीर स्वामी ढाईसौ वर्ष बाद हुये थे । इम अन्तराल कालमें उनकी आयु भी गर्भित थी । भगवान पार्श्वनाथ वर्तमान युगके २३ वें तीर्थंकर थे और भगवान् महावीर २४ व अथवा सर्व अन्तिम तीर्थकर थे । प्रत्येक युगमें सनातन रीतिसे चौवीस तीर्थकर होते है । इनका परस्पर संबंध जाहिरा कुछ नहीं होता ! यह एक समान महान् पुरुष होते हैं । इसीतरह भगवान पार्श्वनाथ मी एक जीवित परमात्मा थे और अनुपम थे। और महावीर
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भगवान पार्श्व व महावीरजी। [३७९ स्वामी भी सशरीरी परमात्मा और लासानी थे। हां, प्रत्येक तीर्थकरका संबंध होता है तो केवल इतना ही कि पूर्वागामी तीर्थकरकी शिष्यपरंपरा उपरान्तके तीर्थकरकी शरणमें स्वतः पहुच जाती है। वह पूर्व तीर्थकरके पवित्र मुद्रवसे परंपरीण यह सुन चुहती है कि आगामी अमुक तीर्थकर होंगे उनके द्वारा जैनधर्मका उद्योत पुनः होगा उसी अनुरूप उन तीर्थकरके शिष्य आगामी तीर्थंकरके आगमनकी वाट जोहते रहते हैं। उनके आग-, मनके साथ ही वे उनकी शरणमें पहुंच जाते हैं। प्राकृत एक तीर्थकरके समागमसे विलग होकर वे दूसरे तीर्थकरके समागममें पहुंचनेके उत्सुक रहते हैं। उनके लिये यह आवश्यक नहीं होता है कि वे अलग बने रहें । उनको तो तीर्थकर भगवानके आगमनकी उत्कण्ठा रहती है और उसी अनुरूप वे उनकी शरणमें स्वतः ही पहुंच जाते है। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर स्वामीके विषयमें भी यही हुआ था। पार्श्व भगवानसे ८३७५० वर्ष पहले श्री नेमनाथ स्वामीने, जो २२वें तीर्थंकर थे, अपनी दिव्यध्वनिसे वह बतला दिया था कि आगामी इतने २ अन्तरालकालसे पार्श्व और वईमान नामक दो तीर्थंकर और होंगे। साथ ही उनने इन तीर्थकरोंकी खास२ जीवन घटनाओंको भी बता दिया था । यही बात भगवान महावीरजीके सम्बन्धमें हुई थी। भगवान पार्श्वनाथनीके मुखारविंदसे लोगोंको मालूम पड़ गया था कि अतिम तीर्थंकर भगवान् महावीरस्वामी द्वारा एकवार जैनधर्मका उद्योत होना और शेष है । जिस तरह भगवान महावीरके उपदेश अनुसार आज हमको
१-हरिवशपुराण पृ० ५६६-५७६ ।
१२
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३८० ] भगवान् पार्श्वनाथ । आगामी होने वाले तीर्थकरोके नाम आदिका पता चल चुका है, उसी तरह पार्श्वनायनीकी शिष्यपरंपराको महावीर स्वामीके होनेका 'परिचय मिल चुका था । इमलिये भगवान पार्श्वनाथ नीकी शिष्यपरंपराके शिष्य भगवान् मह वीरके आगमनकी बाट जोह रहे थे और वे म्वत उनकी शरणमें आये थे।
किन्तु किन्हीं अजैन विद्वानोंका यह अनुपान है कि भगवान् पार्श्वनाय और महावीरस्वामीके तीर्थकरपने में अन्तर था और इन दोनों तीर्थकरोके शिष्य भगवान् महावीरस्वामीके समयमें भी अलग थे; यद्यपि वे आखिर दोनों मिलकर एक हो गये थे। इसके लिये वे श्वे के उत्ताध्ययनसूत्रकी वह घटना उपस्थित करते हैं जो श्री गौतमम्बामी और केशी श्रमणके संवाद रूपमें वहां मिलती है।' डॉ० वेनीम घव बारुआ महोदय, इसी बातको लक्ष्य करके दोनों तीर्थंकरोंके आपसी सम्बन्धको इन शब्दोंमें प्रकट करते हैं। वे लिखते हैं कि-" महावीर स्वयं अपने शिष्योंमें निगन्ठ अथवा निग्रंथ नाममे परिचित थे। यही नाम अर्थात् निग्रन्थ पाके तीर्थ संघसे भी लागू था, जिन्हें जैनी २३वें तीर्थकर बतलाते हैं। यहां यह प्रश्न ममुचत है कि वस्तुतः महावीरके सैद्धातिक पूर्वागामीसूरपमें क्या पार्श्व स्वीकार किये जा सक्ते है ? जाहिरा नहीं; क्योंकि ऐसा कोई भी माधन प्राप्त नहीं है जिससे पार्श्व एक सिद्धान्तवेत्ता (Phil copher) प्रमाणित हो सकें । पार्य महावीरके पूर्वागामी अवश्य थे, किन्तु एक विभिन्न प्रकारके ! वह प्राचीन तापसोंकी भांतिके एक मधु थे; जिनने कि महावीर और बुद्धके पूर्वागामी
१-उतराध्यान सूत्र २३ ।
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भगवान पार्श्व व महावीरजी ।
[ ३८१ (जिनों, बोधिसत्वों) जैसे मिथिलाके राजा नि मे और अरिष्टनेमिके समान ही त्याग धर्म (Life of renunciation) पर अधिक जोर दिया था । यह विदित होता है कि महावीरने गृह त्यागकर उस संघका आश्रय लिया था जो पार्श्वके बताये हुये नियमों का पालना करता था । नाथवंशी क्षत्रियोंकी समूची संप्रदाय (देखो उवामगदसाओ ६) अथवा महावीरजीके पितृगण तो अवश्य ही (आचारान २।१५-१६) भगवान् पार्श्वके संघके उपासक थे । इस अवस्थाम यह अनुमान करना सुगम है कि महावीरकी दृष्टि स्वभावतः पार्श्वसंघकी ओर गई होगी । ( हार्ट ऑफ जैनीज्म पृ० ३१ ) प्रो० जैकोबीने पार और महावीर तीर्थंकरोंके पारस्परिक सम्बन्धपर ठीक प्रकाश डाला है । (जैन सूत्र S. B. E भाग २४० १९-२२ भूमिका) उनने ठीक ही कहा है कि पहले दो विभिन्न निर्गन्ध संघ थे, जिनके सिद्धान्तों में केवल 'चार व्रत' अथवा 'चार नियम ही समान थे । और आखिर इसी भेदके कारण उपरांत दो बडे भेद हो गये थे । ' सामन्नफलसुत्त ' नामक बौद्ध ग्रन्थ में जो सिद्धान्त महावीरका बताया गया है उसे मूलमें कमसे कम 'चातुयाम् संवर" शब्दरूपमें तो अवश्य ही पार्श्वका बताना उक्त प्रो० सा०का ठीक है । इस सिद्धान्त में बताया गया है कि महावीरजीके अनुसार मात्म मंथन, सात्न निग्रह और ध्यान एकाग्रताका मार्ग 'चातुर्यामसंवरने मीति है। यह मंबर पानीके व्यव्हारसे विलग रहने, पाप दूर रहने मादि रूप है।.... प्रोग्रीम डेविडसने प्रो० नकोमोके भाव समा नहीं है, यही वह कहते हैं कि 'उनके मनसे भारनियमार्थके चार मउ थे ।' प्रो० मैकोरीने यह कहीं नहीं
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२८२] भगवान पार्श्वनाथ । वहा है। इस तरह नैकोबीके साथ यह मानना ठीक है कि सामन्तफलसुत्तमें निन चार नियमोंका उल्लेख किया गया है वह गलत है और जो सिद्धांत महावीरका बताया गया है वह न उनका है और न उनके पूर्वागामी तीर्थंकरकाः यद्यपि उसमें किसीके विरुद्ध भी कुछ नहीं है। क्योंकि जैन ग्रन्थोंके अतिरिक्त बौद्धोके मज्झिमनिकाय (१३५-३६)के एक सूत्रसे ज्ञात होता है कि महावीरकी दृष्टिमें मोक्षमार्ग अहिमा, अचौर्य, शील, मत्य और तपोगुण जैसे नानपरीषह, उपवास, आलोचना आदि रूप था। . इसलिये जैन और बौद्ध दोनोंके आधारसे यह कहा जासक्ता है कि इनमें से पहलेके चार नियमोका विधान पार्श्व द्वारा हुआ था और उनमें अंतिम महावीरनी द्वारा बढ़ा दिया गया है ।
"अब अपने २ समयके प्रतिष्ठित तीर्थंकरों, पार्श्व और महावीरका पारस्परिक अन्तर स्पष्ट ननर पडता है अथवा यूं कहिये कि अब इस प्रश्नका उत्तर दिया जा सकता है कि वस्तुतः क्या पार्श्व महावीरके सैद्धांतिक पूर्वागामी पुरुष थे ? पार्चका जो थोड़ासा बीवन विवरण प्राप्त है वह स्पष्ट दिखलाता है कि वह अमलीकायकी ओर अधिक रुचि रखते थे। उनका व्यवस्थापक गुण उल्लेखनीय था। जिस संघकी स्थापना उनके द्वारा हुई थी वह अपने उच और कठिन दर्जेके साधु चारित्रके लिए प्रख्यात रहा था। उनने चार नैतिक नियमों का पालन करना अपने शिष्योके लिए. आवश्यक बतलाया था। इन्हीं नियमोंका पालन करना बुद्ध और महावीरने भी उचित ठहराया था। पावके विषयमें यदि इन्हीं चार नियमों में उनके चारित्र विधानका मन्त समझ लिया जाय, तो
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भगवान पार्श्व व महावीरजी ।
[ ३८३
ठीक न होगा । वस्तुतः इनके अतिरिक्त उनके चारित्र विधान में अनेक नियम साधु और उपासकोंके लिए और थे। यह कहना भी अत्युक्ति नहीं रक्खेगा कि निगन्यसमाज के समग्र चारित्रनियम पाई और उनके शिष्यो के अनुसार थे । किन्तु इस चारित्र नियमके साथ एक और कठिन नैनिक नियमावली विनयवाद या शीलव्रत थी, जिसको महावीर और बुद्धने एक स्वरसे उचित ठराया था। दूसरे शब्दों में पार्श्वके चारित्र नियम यद्यपि अच्छे थे, परन्तु उनके निर्माणक्रम और औचित्य दर्शाने के लिये सैद्धांतिक व्यवस्था की आवश्यक्ता श्री; जिससे वे उछृंखल न जंचे और समाजकी सुविधा में भुला न दिये जांय । (उत्तराध्ययनके संवादसे स्पष्ट है कि, पार्श्वका केवल एक धार्मिक स था जबकि महावीरका केवल एक धार्मिक संघ ही नहीं afer एक सैद्धातिक मतका पृथक् दर्शन थी ) ।”
इसके अगाडी डॉ० बारुआ महावीरस्वामीका सैद्धांतिक गुरु गोशालको अनुमान करते हुए कहते है कि - " जब कालान्तर में महावीर अपना नया संघ स्थापित करने में सफल हुए और उसे कुछ अंशमें आजीवकों के समान और शेषमें पार्श्वके शिष्यों के अनुसार रक्खा तो दोनों (निर्ग्रन्थ) सघोंमें प्रगट भेद नजर पड़ने लगा । जब कि नवीन संघकी सैद्धांतिक उत्कृष्टता पुराने संघको अन्धकार में डाल रही थी, तब उसके अनुयायियोंने किसी तरह अपने अस्तित्वको बनाये रखना नावश्यक समझा था | जाहिरा प्रतिरोध अथवा प्रति स्पर्धा इसका उपाय न था । उपाय केवल समझौते में था ! उत्तराव्ययन सम्बादसे प्रगट है कि एक समय सवस्य ही पुराने संके
1- हिस्ट्री ऑफ प्री टिनिनकी ५० ३७७-३८२ ॥
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३८४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
अनुयायी समझौते की फिकर में थे ।... बौद्धोंके पासादिक और सामग्राम सूत्रोंसे उस समयका भी पता चलता है जबकि महावीरजीकी सुक्ति के साथ ही उनके शिष्य दो भागोमें विभक्त हो गये थे । पार्श्वके अनुयायियों को इस समझौतेसे नये सबके सिद्धान्तवाद (Philosophy) को पाने का लाभ हुआ था ।" "
इस समस्त कथनमें इन बातोंको प्रगट किया गया है कि:(१) भगवान पार्श्वनाथ यद्यपि महावीरस्वामीके पूर्वागामी तीर्थंकर थे, परन्तु उनके निक्ट वह सिद्धांतवाद उपस्थित न था जो महावीरस्वामीके निकट था ।
(२) महावीर स्वामीने पार्श्वनाथजी के संघका आश्रय लिया था | उपरांत उससे सम्बन्ध विच्छेद करके वे मक्ख लिगोशालके साथ रहे थे; जिससे नग्नदशा आदि नियम ग्रहण करके उनने अपना नवीन संघ स्थापित किया था ।
(३) महावीरजी के समय मे भी निर्ग्रन्थ सघ ष्टथक२ मौजूद थे; जिनमें 'चतुर्यामव्रत' अथवा 'चतुर्यामसंवर' समान थे ।
(४) 'सामन्न फलमुत्त' में चतुर्यामसंवरमे जो बातें गिनाई गई. हैं वह ठीक नहीं है । वह न महावीरस्वामीके धर्मोपदेशमें मिलती हैं और न पार्श्वनाथजीके । तथापि चातुर्यामसंवर नियम महावीरका बतलाना गलत है । वह केवल चातुर्याम रूपमें पार्श्वनाथजी से लागू है, जिसका भाव पार्श्वनाथजीके चातुर्यामव्रत, जिसका उल्लेख श्वेतांबरोंके 'उत्तराध्ययन सूत्र में है, उससे है। महावीरखामीने इन व्रतोंमें अंतिम अर्थात् पांचवा व्रत स्वयं बढ़ा दिया है और उनका २ - पूर्वपुस्तक पृ० ३८३ ॥
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भगवान पार्श्व व महाबीरजी। [१८५ विवेचन सैद्धांतिक ढगसे किया है। शीलव्रत नियम भी उनके खास थे। प्रो. हीस डेविड्स जो प्रो० जैकोबीको चातुर्याम नियमसे पार्श्वनाथनीके चार व्रतोंका भाव ग्रहण कहते बतलाते हैं वह गलत है । और (५) पार्श्वनाथनीके और महावीरस्वामीके सघोमें परस्पर प्रगट भेद था, जिसके कारण यद्यपि पहले दोनों सघ अलग थे। परन्तु उपरांत वे एक होगये । आखिर महावीरस्वामीके निर्वाणके उपरांत ही वह फिर दो भागोंमें विभक्त होगये; जैसे कि बौद्धोंके ग्रन्थोंसे प्रगट है।
अतएव आइये पाठकगण ! इन पांच बातोंके औचित्यपर भी एक दृष्टि डाल लें । उपरोक्त कथनमें भी पार्श्वनाथनीको महावीरस्वामीका पूर्वागामी तो स्वीकार किया गया है, परन्तु उनको एक सामान्य साधु बतलाया है, जिनको अपने सघकी व्यवस्था और चारित्र नियमोंसे ही मतलब था। सिद्धांतवाद ( Philosophy) न उनके लिये आवश्यक था और न वह उनके निकट मौजूद था। कोई भी ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिससे यह सिद्ध किया जासके कि पार्श्वनाथस्वामी एक सैद्धांतिक वक्ता अथवा तत्त्ववेत्ता (Philosopher) थे; किन्तु इसके साथ ही ऐसा भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है जो जैनियोकी मान्यताको गलत ठहराकर भगवान् पार्श्वनाथके निकट सिहातवाद नहीं था, यह प्रगट कर सके । प्रत्युत डॉ० हेल्मुथ वॉन लगेसेनप्पने यही प्रगट स्वीकार किया है, जैसे कि हम पहिले देख चुके हैं कि जैनधर्मके 'मूल तत्वोमें कोई स्पष्ट फर्क हुआ, ऐसा माननेका कोई कारण नजर नहीं आता और इसलिये महावीरस्वामीके पहले भी जैन दर्शन था, ऐसी जैनोंकी
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३८६ ]
भगवान् पार्श्वनाथ |
मान्यता स्वीकार की जा सक्ती है । .. जैनधर्म का स्वरूप ही इस बात की पुष्टि करता है; क्योंकि पुद्गल के अणु आत्मामें कर्म की उत्पत्ति करते हैं, यह इसका मुख्य सिद्धांत है और इस सिद्धातकी प्राचीन विशेषताके कारण ऐमा अनुमान किया जासक्ता है कि इसका मूल ई० सन्के पहले वीं शताव्दिमें हैं ।'
१
प्रो० डॉ० जार्ल चार पेन्टियर भी स्पष्ट लिखते है कि 'पार्श्वकी शिक्षा सम्बन्ध में हमें विशेष अच्छा परिचय मिलता है । यह प्रायः खासकर वैसी थी जैसी कि महावीर और उनके शिष्यों की थी ?' (देखो केविन हिस्ट्री आफ इन्डिया भाग १ ० १५४) भारतीय अणुवाद (Atomic Theory ) का इतिहास भी जैनदर्शनकी प्राचीनताको प्रगट करता है; जैसे कि ऊपर डॉ० ग्लेसेनप्पने व्यक्त किया है । सचमुच भारतीय दर्शनोंमें जैनदर्शनमें ही इस सिद्धान्तका निरूपण सर्व प्राचीन मान्यताओके आधारपर किया गया है। हिन्दुओं में केवल वैशेषिक और न्यायदर्शने इसको स्वीकार किया
[; परन्तु वहां वह प्राचीनरूप इसका नहीं मिलता है जो जैन धर्म प्राप्त है । (देखो इन्साइक्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड ईथिवस भाग १ ० १९९ - २०० ) इसलिये यह सिद्धान्त भगवान् महावीर के पहले से जैनदर्शन में स्वीकृत था, यह स्पष्ट है | साथ ही बौद्धोंके मज्झिमनिकाय (भाग १४० २२५ - २२६) में निर्ग्रन्थ पुत्र सञ्चकका कथानक दिया है, जिसमें उसके बुद्ध से सैद्धांतिक विवाद करने का उल्लेख है । यह निर्ग्रन्थपुत्र बुद्धका समसामयिक था । इस कारण इसका पिता म० बुद्ध से पहले ही मौजूद होता
1-Glassenapp Ephemerides Onen t 25 P 13
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भगवान पार्श्व व महावीरजी! [३८७ प्रमाणित है । इस अपेक्षा प्राचीन जैनधर्ममे भी सैद्धांतिक विज्ञान होनेका समर्थन होता है । दूसरे शब्दोंमें भगवान पार्श्वनाथके निकट भी जैन दर्शन मौजूद था, यह स्पष्ट होजाता है ।
तिसपर स्वयं डॉ० बारु आने भगवान् पार्श्वनाथनी द्वारा किये हुये जीवोंके षट्काय भेदको स्वीकार किया है। अब यदि उनके मतानुसार यह मान लिया जाय कि भगवान् पार्श्वनाथजीके पास कोई सैद्धांतिक क्रम पदार्थ निर्णयका नहीं था, क्योंकि वे तत्ववेत्ता ही नहीं थे, तो फिर यह कैसे सभव है कि उनने जीवोंका षटकायभेद निरूपित किया हो ? इससे तो यही प्रगट होता है कि पार्श्वनाथनीने अवश्य ही पदार्थनिर्णयरूप एक सिद्धांतवादका निरूपण किया था। जब कि जैनशास्त्रोंमे भगवान् पार्श्वनाथ और महा. वीरस्वामीके धर्मोपदेशमें पारस्परिक अन्तरको स्पष्ट बतलाया गया। है, तब यह कुछ जीको नहीं लगता कि उन्होंने इस भारी भेदको प्रगट करना आवश्यक न समझा हो ! प्रत्युत बौद्ध शास्त्रोंके उल्लेखोंसे अन्यत्र हम देख चुके है कि भगवान पार्श्वनाथनीके शिष्यगण स्वतंत्र रीतिसे आत्मवादको सिद्ध करते थे और उनमे वादी भी थे। तिसपर पूर्वटष्ठोंमें जो हम भगवान पार्श्वनाथनीके समय एवं उनके वादके मुख्य मत प्रवर्तकोंके सिद्धांतोपर भगवान पार्श्वनाथनीके सैद्धांतिक उपदेशका प्रभाव पड़ा देख चुके है, उससे स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथ द्वारा भी वैसा ही जैन दर्शन निरुपित हुआ था जैताकि भगवान महावीरजीकी दिव्यध्वनिसे प्रगट
१-प्री-बुद्धिस्टिक इडियन फिलासफी पृ. ३०३ । २-इदिगन' . हिस्टॉरीकल क्वाटिी भाग २ पृ० ७०८-७०९ ।
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३८८ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
हुआ था | तीर्थंकरों के धर्मोपदेश में मूलतत्वोकी स्थापना एक समान होती है, यह हम पहले ही देख चुके हैं। इसलिए यह मानना कुछ ठीक नहीं जंचता कि भगवान् पार्श्वनाथजी द्वारा सिद्धांतवादका प्रतिपादन नहीं हुआ था और वे एक सिद्धांतवेत्ता नहीं थे ।
किन्तु डॉ० बारुआने यह निष्कर्ष उत्तराध्ययनके उस अंगसे निकाला है जिसमें कहा गया है कि 'पहले ऋषि सरल थे, परन्तु समझके कोता थे और पीछेके ऋषि अस्पष्टवादी और समझ के कोता थे. किन्तु इन दोनोंके मध्यके सरल और बुद्धिमान थे । .... पहले के मुकिलसे धर्म - व्रतों को समझते थे और पीछेके मुन्किलसे उनका आचरण कर सकते थे । परन्तु मव्यके उनको सुगमतासे समझते और पालते थे ।" इसके साथ ही दिगम्बरोंके 'मूलाचार' जीमें भी करीब २ ऐसा ही कथन मिलता है, जैसे कि पूर्व में देखा जचुका है । वहां लिखा है कि आदि तीर्थमें शिष्य मुलिसे शुद्ध किये जाते . है, क्योंकि ये अतिशय सरल स्वभावी होते हैं । और अन्तिम तीर्थमें शिप्यनन कठिनता से निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे अतिशय वक्र स्वभाव होते है । माथ ही इन दोनों सम्योंके शिष्य स्पष्टरूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते हैं ।' इन कथनोंसे अवश्य ही यह प्रमाणित होता है कि मध्यवर्ती तीर्थकरोंके शिष्य, जिनमें भगवान पार्श्वनाथनीके शिष्य भी सम्मिलित हैं सरल, बुद्धिमान् और धर्मको नियमित से पालनेवाले थे । वे उसप्रकार वक्र नहीं थे और न उतनी हील हुज्जत धार्मिक विषयोंमें करते थे जितनी कि पहले श्रीमदेव और अन्तिम श्री वईमान स्वामीके शिष्य
१ - उसगययन २३ ।
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भगवान पार्श्व व महावीरजी! [३८९ करते थे। इसलिये अवश्य अंतिम तीर्थकरके शिष्योको विशेष रीतिसे धार्मिक क्रियायोंको समझानेकी आवश्यक्ता युक्तियुक्त प्रगट होती है, परन्तु इसके माने यह नहीं होसक्ते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथने जैन सिद्धांत अथवा दर्शनका निरूपण नहीं किया था। जैनसिद्धांतका निरूपण तो उनने प्रायः उसी तरह किया था जिस तरहभगवान महावीरने किया था । हां, उनके शिष्य सचमुच इतने सरल और बुद्धिमान थे कि उनको समझानेके लिये उन्हें उतना अधिक प्रयत्न नहीं करना पड़ता था । इसलिये जैनशास्त्रोंके उपरोक्त कथनोंसे यह प्रमाणित नहीं होता कि भगवान पार्श्वनाथनीने दर्शनवाद (Philosophy) का प्रतिपादन ही नहीं किया था। डॉ० बारुआ यद्यपि करीब२ सत्यकी तहतक पहुंचे हैं; परन्तु उनने शिष्योंकी सरलता और बुद्धिमत्ताके कारण भगवान पार्श्वनाथनीके निकट दर्शनवाद न माननेमें अत्युक्तिसे काम लिया है यह कहनेके लिये हम बाध्य है । भगवानकी दिव्य ध्वनिसे तत्वों का निरूपण अवश्य हुआ था।
दूमरे महावीरस्वामीको पहले पार्श्वनाथनीके संघमें सम्मिलित __ होने और फिर अलग होकर आजीविकसंघमें मिलनेकी बात भी
कोरी कल्पना है । उसके लिये कोई भी जैन अथवा अजैन प्रमाणा उपलब्ध नहीं है । अवश्य ही जैनशास्त्र कहते हैं कि नाथवंशी क्षत्री और भगवान महावीरके पितगण भगवान पार्श्वनाथके सपके उपासक थे; किन्तु इसके साथ ही वे भगवान महावीरको एक स्वाधीन श्रमण होनेका भी उल्लेख करते हैं, क्योंकि तीर्थंकर भगवान 'स्वयंबुद्ध' होते हैं। वे दूसरोंको अपना गुरु नहीं बनाते हैं। यही बात भगवान् महावीरके सम्बन्धमें जैनशास्त्रोंमें कही गई है। उनको
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भगवान् पार्श्वनाथ |
वहां केवल सिद्धों को नमस्कार करके श्रमण धर्मका अभ्यास करते 'लिखा गया है।' इस हालत में जैन ग्रन्थोंके बल पर यह नहीं कहा जा सक्ता कि महावीरस्वामीने पहले श्री पार्श्वनाथजी के संघका आश्रय लिया था | हां, आजकलके विद्वान अवश्य ऐसी कल्पना करते हैं और इस पल्पना में कितना तथ्य है, यह उपरोक्त पंक्तियोंसे स्पष्ट है । इसके साथ ही आजीविक संप्रदायके नेता मक्ख लिगोशालको महावीरस्वामीका गुरु बतलाना भी निराधार है । जैन अथवा अनैन शास्त्रोंसे यह सम्बन्ध ठीक सिद्ध नहीं होता ! श्वेताम्बरोंके 'भगवतीसूत्र' के कथनको यथावत् ऐतिहासिक सत्य स्वीकार किया ही नहीं जा सक्ता, यह बात स्वय डॉ० वारुआने स्वीकार की हैं। उसका कथन स्वयं अपने एवं अन्य वे० ग्रन्थोके कथनसे विलग पडता है । इसलिये उसके कथनसे इतना ही स्वीकार किया जा सत्ता है कि गोशालका जैन धर्मसे सम्बन्ध था और महावीरजी के केवलज्ञान कल्याणककें पहलेसे वह अपनेको 'जिन' घोषित करने लगा था | उसके सिद्धान्तोंपर जैनधर्मका प्रभाव पड़ा था बल्कि उसका मत जैन धर्मसे ही निकला था, यह हम पहले और अन्यत्र दिखला चुके हैं । * इसलिये उसका प्रभाव महावीरजी पर पड़ा हो, यह स्वीकार नहीं किया जामक्ता ! जब भगवान् महावीरजीका दिव्य प्रभाव म ० वुद्ध जैसे बड़े और प्रभावशाली मतप्रवर्तक पर पड़ा
२
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१ - उत्तरपुराण पृ० १०, भगवान् महावीर पृ० ९३ और जैनमत्र ( S. BE.) भाग १ १० ७६-७८|- आजीविक्म भाग १ १० १० १ ३ - वासगदसाड ( Biblo Iadica ) परिशिष्ट पृ० १११ । ८-भगवान महावीर पृ० १७३ और वीर वर्ष इव जयती अक । ५-भगवान मह वीर और महुद्ध पृ० १०३ - १०६ ॥
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भगवान पार्श्व व महावीरजी ! [३९१ तब फिर भला यह कसे सभव है कि मक्खलिगोशालने अंतिम जैन तीर्थंकरको प्रभावित किया हो ? महावीरजीपर गोशालका सबसे बड़ा पड़ा हुआ प्रभाव 'नग्नदशा' का बतलाया जाता है।' कहा जाता है कि नग्न वेष उनने गोशालसे लिया था। किन्तु यह कथन स्वयं 'भगवतीसूत्र' से बाधित है, जिसके आधारपर ही यह मत स्थापित किया गया माना जाता है। उसमें स्पष्ट कहा है कि जिस समय गोशाल महावीरजीके पास दीक्षा याचनाके लिये आया था, उस समय वह बस्त्र पहिने हुये था। साथ ही बौद्ध ग्रन्थोंसे प्रकट है कि वह पहले वस्त्रधारी था किन्तु उपरात अपने मालिकके पाससे नग्न वेषमें ही भाग जानेसे वह नग्न होगया था। इससे भी प्रगट है कि वह पहले नग्न नहीं था, परन्तु वौद्धोंकी यह कथा विश्वासके योग्य स्वीकार नहीं की गई है । इसलिये इसका कुछ भी महत्व नहीं है । 'भगवती सूत्र' की कथा और यह कथा दोनो एक ही कोटिमें रखने योग्य है। किन्तु इसके विपरीत दिगम्बर जैन शास्त्र 'दर्शन सार' की साक्षी विशेष प्रामाणिक है। वेशक यह ग्रन्थ नवी शताब्दिका है, परन्तु इसका आधार एक प्राचीन ग्रन्थ है । " एक तरहसे यह प्राचीन मतोंका संग्रह ग्रन्थ है और इसतरह विश्वासके योग्य है तिसपर उसमें जो बातें म० बुद्धके बारेमें कही गई हैं, वह प्रायः बिलकुल सत्य ही प्रमाणित हुई हैं। इस कारण हम इस दिगंबर
१-जनमत्र (S. B. E. ) भूमिका और आजीविक भाग १ । २-उपासगदमामो (Biblo. Ind.) परिशिष्ट पृ० ११० । ३-आजी. विस्म भाग १० ११।४-जनहितैषी वर्ष १३ अ ६-७ पृ. २६२॥ ५-भगवान् महावीर और म० बुद्र . ४९-५० ॥
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भगवान् पार्श्वनाथ |
जैन ग्रन्थ हो ऐतिहासिक कोटिका एक प्रामाणिक ग्रन्थ माननेको बाध्य है | इसमें मक्ख लिगोशालको भगवान पार्शन थजीके तीर्थका श्रमण बतलाया है और वह भगवान महावीरजी के समवशरणसे दिव्यध्व न खि नेके पहले ही रुष्ट होकर अज्ञानवादका प्रचार करने लगा था, यह कहा है, जैसे कि पहले देखा जचुका है । इस अवस्था में यह वान ठीक नहीं बैठनी कि भगवान महावीरजीने मक्खलिगोश लमे कुछ ग्रहण किया हो । उपरोक्त दिगम्बर शास्त्र के मत से भी यह प्रगट है कि भगवान महावीरजी के धर्मोपदेशके पहले से ही मक्ख लिगोशाल अपने मतका प्रचार करने लगा था; यद्यपि वह अन्तर विशेष न था ।
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साथ ही दि० शास्त्रोंमें भगवान पार्श्वनाथ अथवा उनके शिष्यों को वस्त्रवारी नहीं बताया गया है । यह केवल श्वेतांबरोंकी मान्यता है कि भगवान पार्श्वनाथ और उनके शिष्य वस्त्र धारण करते थे; यद्य प उनके आचारांगसूत्रमें नग्न वेषको ही सर्वोच्च श्रमण दशा बतलाई है और तीर्थकरोंने उसे धारण किया था, यह कहा है।' उनके 'उत्तराध्ययन सूत्र' में जहां केसी श्रमणको बिलकुल ही आमानीसे इस मतभेदका समझौता करते लिखा है, वह जरा जीको खटकता है । जब केसी श्रमणको यह विश्वास था कि वस्त्रधारी दशा से मुक्तिलाभ हो सक्ता है; तब फिर उनको यह क्यों आवश्यक था कि वे नग्नवेष धारण करके वृधा ही इम कठिनाई को मोल लेते ? यदि यह कहा जाय कि उम ममय भगवान् महावीर - १ - जैनसूत्र S. B. E. ) भाग १ १० ५५-५६ । २- पूर्व • पृ० ५७-५८ ।
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भगवान पार्श्व व महावीरजी। [३९३ जीके दिगम्बर संघका इतना अधिक प्रभाव बढ़ गया था कि प्राचीन संघको उनसे अलग रहकर अपना अस्तित्व बनाये रखना कठिन था, तो वह भी ठीक नहीं विदित होता, क्योंकि यह तो ज्ञात ही है कि भगवान पार्श्वनाथ नीका संघ विशेषर तिसे व्यवस्थित ढंगपर था और उस समय बौद्धादि वस्त्रधारी साधु-संप्रदाय मौजूद ही थे। जिस प्रकार यह बौद्धादि वस्त्रधारी संप्रदाय अपने स्वाघोन अस्तित्वको बनाये रखनेमें सफल रहे थे, वैसे प्राचान निग्रंथमघ भी रह सक्ता था। उपके पास अच्छे दर्जेका सिद्धान्त तो था ही, इसलिए ऐसा कोई कारण नहीं था, जिसकी बनहसे उपका नूतनमघमें मिल जाना आनवार्य था ! इसके साथ ही यह भुल या नहीं जा मक्ता है कि 'उत्तराध्ययन सूत्र' किंवा सर्व ही श्वेताम्बर आगमग्रन्थ सर्वथा एक ही समर और एक ही व्यक्ति द्वारा सकलिन नह' हुए थे। तथापि उनमें बौद्ध ग्रन्थों का प्रभाव पड़ा व्यक्त होता है । और जिस समय में वह क्षमाश्रमण द्वारा लिपिबद्ध किये जा हे थे, उसके किञ्चित पहले एक केशी नामक आचार्य उत्तर भारतमें होचुके थे. जो मगधके राना संग्रामके पुरोहित और बुद्धघोष पांचवी शताब्दि ई०) के पिता थे। यदि यह केशी उत्तर भारतमें बहु प्रख्यात रहे हो और इनका जैन सम्पर्क रहा हो तो कहना होगा कि इन्हीं केशीके आधारसे उक्त आख्यान रखा गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं ! इत । तो स्पष्ट ही है कि केशी नापका एक व्यक्ति देव
१-जनसूत्र (S B. E. ) को भूमिका प्री बुदिस्टिक इन्डियन फिलासफी J० ३७६ । २-नाचार रेटिपरके 'उ रान की भमिका
और 'दिगार नन' वर्ष १९-२ में प्रस्ट दमाग ले ।। ३- लाइफ एण्ड वह आफ ३ रोष पृ. २६ ।
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३९४ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
धिंगणि क्षमाश्रमणके कुछ पहले अवश्य हो चुका था और प्राचीन एवं नवीन निग्रंथसघर्षे किंचित नाममात्रका भेद था । अस्तु, जो हो उसको छोड़कर थोड़ी देरको यह मान लिया जाय कि प्राचीन अर्थात् पार्श्वसंघमे वस्त्र धारण करना जायज था- दूपरे शब्दों में तपश्री कठिनाई कम थी- तो फिर वुद्धको अपना एक नूतन सघ स्थापित करनेकी आवश्यक्ता शेष नहीं रहती, क्योंकि बुद्धने तपश्ररणकी कठिनाई और ब्राह्मणोंके क्रियाकाण्डके खिलाफ अपना मत स्थापित किया था, सो यह दोनो बातें प्राय. उपरोक्त मानतासे उनको प्राचीन निर्यथसंघ में मिल्ती ही थीं। इससे भी यही प्रकट होता है कि प्राचीन जैन संघ में भी नग्नवेष ही मोक्ष-लिङ्ग माना गया था । म० बुद्धके पहलेसे ही नग्नवेष आदरकी दृष्टिसे देखा जाता था, यह बात पूर्णकाश्यप के नग्नसाधु होनेके कथानकसे स्पष्ट है । वह नग्न इसीलिये हुआ था कि उसका आदर जनसाधारणमें अधिक होगा । अत्र यदि भगवान् पार्श्वनाथके द्वारा नग्नवेषका प्रचार नहीं होचुका था, तो फिर नग्नवेषका इतना आदर उस समय कैसे बढ़ गया था ? यह प्रश्न अगाड़ी आता है । हिन्दुओंके उपनिषद कालीन वानप्रस्थऋषि इस वेषके कायल नहीं थे और यह भी प्रगट नहीं है कि मक्खलिगोशालके आजीविक पूर्वागामी नग्न रहते थे, प्रत्युत उनको तो 'वानप्रस्थ ढंग' का साधु लिखा है । नग्नवेष, पूर्वोके आठ निमित आदि सिद्धान्त आजीविक संप्रदाय में जैन धर्मसे लिये हुये प्रमाणित होते हैं । इस कारण अन्य कोई
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८२-८३ । २ - इन्डियन
१ - भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० एन्टीक्वेरी भाग ९ पृ० १६२ । ३- आजीविक्स भाग १ पृ० ३ ।
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भगवान पार्श्व व महावीरजी। [३९५ ऐसा व्यक्ति नहीं दीखता जिसके द्वारा महावीरस्वामीके पहलेसे नग्नवेषका प्रचार किया गया हो, सिवाय भगवान पार्श्वनाथजीके ! इसलिये हठात यह मानना पड़ता है कि भगवान् पार्श्वनाथजी भी नग्नवेषमें रहे थे और उनके शिष्य भी वैसे ही रहते थे । जैन साधुओंकी सर्वोच्च अवस्था नग्न थी, यह बात दिगम्बर, श्वेतांबरे, दोनों ही जैन संप्रदायोंके शास्त्रों और ब्राह्मणे एवं बौद्ध ग्रथोंसे भी प्रमाणित है। तथापि अन्यत्र हमने बौद्ध शास्त्रोंके आधारसे यह सिद्ध करदिया है कि भगवान पार्श्वनाथजीके शिष्य भी नग्न वेषमें रहते थे, क्योंकि 'महावा में निन 'तित्थिय' श्रमणोंको नग्न और हाथकी अंजुलिमें भोजन करते बतलाया है वह जैन साधु हैं और यह प्रगट ही है कि बुद्ध ने अपनेसे प्राचीन साधुओका उल्लेख इस विशेषणसे किया है एवं महावग्गमें उपरोक्त उल्लेख उसवक्त आया है जब म० बुद्ध अपना सब स्थापित करते ही जारहे थे और महावीर भगवान छमस्थ अवस्थामें थे । अतएव इस सब विवरणको देखते हुये यह स्वीकार नहीं किया जासक्ता कि भगवान पार्श्वनाथ
और उनके शिष्य नग्नवेषमें न रहे हों और भगवान महावीरने मक्खलिगोशालसे नग्नवेष ग्रहण किया हो।
__ १-आचारागसूत्र (S. B. E.) भाग १ पृ. ५६ । २-ऋग्वेद १०-१३६, वराहमिहिरसहिता १५-६१ व ४५-५८, महाभारत ३-२६-२७, रामायण वालकाण्ड भूपण टीका १४-२२। ३-दिव्यावदान पृ. १६५, जातकमाला भाग १ पृ० १४५, विशाखावत्यू धम्मपदत्यकथा भाग १ खण्ड २ पृ. ३८४, डीपीलॉग्न ऑफ वुद्ध ३-१४, महावग्ग ८१-५, ३-१, ३८-18; चुत्वग्ग ४,२८,३, संयुत्तनिकाय २, ३, 10, ७ धम्मपदम् पृ. ३ इत्यादि । ४-भगवान महावीर और म० बुद्ध परिशिष्ट पृ० २३७-२३८ ।
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भगवान् पार्श्वनाथ । इस व्याख्याका समर्थन अब तकके उपलव्ध जैन पुरातत्वसे भी होता है । इस समय भगवान पार्श्वनाथजीकी संभवतः सर्वप्राचीन मूर्तियां जैन सम्राट् खारवेल महामेघवाहन (ईसासे पूर्वरय शताब्दि) द्वारा निर्भित खंडगिरि-उदयगिरिकी गुफाओंमें मिलती हैं और यह नग्नवेपमें हैं। इससे स्पष्ट है कि आनसे इक्कीससौ वर्ष पहले भी भगवान पार्श्वनाथनी नमवेषमें ही पूजे जाते थे। इस समय दिगम्बरश्वेतांबर प्रभेद भी जैन संघमें नहीं हुये थे। इसके बाद कुशानकाल (Indo-Scythian Period)की मथुरावाली मूर्तियोंमें भी भगवान पार्श्वकी मूर्तियां नग्नवेषमें मिली हैं। आश्चर्य यह है कि इनमेंसे एक श्वेताम्बर आयागपटमें भगवान पार्श्वनाथकी पद्मासन मूर्ति नग्न ही हैं। इसमें कान्ह श्रमण एक खंड वस्त्र ( अंगोछे ) को हाथकी कलाई पर लटका कर नग्नताको छुगाते हुये प्रगट किये गये हैं। वैसे वह संपूर्णतः नग्नवेषमें हैं। श्वेताम्बर संप्रदायके साधुओंकी तरह उनके पास अभ्यन्तर और वहिरवस्त्र नहीं हैं और न उस तरहके एकवस्त्रधारी साधु ही हैं, जैसे कि श्वे. संप्रदायमें माने जाते हैं। श्वे ० :संप्रदायके अनुसार खंडवस्त्रधारी तीर्थकर भगवान एक प्राचीन चित्र में लंगोटी लगाये दिखाये गये हैं। इस अवस्थामें यह कान्हश्रमण पूर्ण श्वेताम्बर साधुकी कोटिमें नहीं आते हैं। उनका स्वरूप भट्टारक रत्ननन्दि कृत 'भद्रबाहु चरित'में बताये हुए 'अर्घफालक' (अर्धवस्त्र)वाले जैन साधुओंसे ठीक मिलता है। भट्टारक रत्ननन्दिने श्रुतकेवली भद्रबाहुनीके समयमें शिथि१-जैन नत्र (S. B. E.) भाग १ पृ० ७१-७२ । २-जू जैनिसमस प्लेट २०८ । ३-भगवान महावीर पृ० २२७१ ४ जनहितषी भाग १३ पृ० २६६॥
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भगवान पार्श्व व महावीरजी। [३९७ लाचारी मुनियों द्वारा इस संप्रदायकी उत्पत्ति मानी थी और फिर जिनचन्द्र द्वारा पूर्णतः श्वेताम्बर भेद हुआ उनने कहा है। इस
मुर्तिके स्वरूपसे उनका कथन प्रमाणीक ठहरता है ।. हमने इसके ___ पहले भी 'अर्धफालक' संप्रदायका अस्तित्व स्वीकार किया थाः
यद्यपि पं० नाथूरामजी प्रेमीने इसे एक कल्पना ही खयाल किया था। और यह प्रायः सर्वमान्य है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर भेदकी जड़ यद्यपि भद्रबाहु श्रुतकेवलीके निकटवर्ती कालसे ही पड़ गई थी, परन्तु उसका पूर्ण विच्छेद ईसवीसन् ८० या ८२में हुआ था। इसके मध्यवर्तीकालमें अवश्य ही अर्धफालक शिथिलाचारी श्रमणसंघ रहा प्रगट होता है, जो वैसे तो प्राचीनरूपमें अर्थात् नग्नचेषमें रहता था; परंतु लज्जा निवारणके लिये खंडवस्त्र रखता था। इस दशामें दिगंबर जैन कथन विश्वास न करनेके योग्य नहीं ठहरता है। अतएव यह स्पष्ट होनाता है कि श्वेताम्बर संप्रदायको भी पहले नग्नवेष स्वीकार था। यही कारण है कि मथुराके कंकाली टीलासे निकली हुई पूर्ण नग्न तीर्थकर मूर्तियोंपर श्वे० आम्नायके आचार्यों आदिका नाम अंकित है। इस प्रकार प्राचीन पुरातत्वसे भी श्री पार्श्वनाथ एवं अन्य जैन तीर्थंकरोंका नग्नवेष में रहना प्रमाणित है। स्वर्गीय सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकर महोदयने भी यह प्रगट स्वीकार किया था कि "प्राचीन जैन मूर्तियां प्रायः नग्न ही मिलती हैं । गुफा मंदिरों में भी दिगंबर प्रतिमायें मिलती हैं ।
१-कैम्बिजहिस्टी ऑफ इन्डिया भाग १ पृ. १६५ और साउथ इन्डियन स्टडीज भाग १ पृ. १५ इत्यादि । २-जैनहितैषी भाग ११ पृ० २९१-२९२ । ३-पूर्व० भाग ५ पृ. २५ ।
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३९८ ] भगवान पार्श्वनाथ । अतएव ऐमा कोई साधन उपलब्ध नहीं है, जिससे यह स्वीकार किया जासके कि भगवान पार्श्वनाथनी के संघमें वस्त्रधारी अवस्थाके निग्रंथ मुनि थे और भगवान स्वयं वस्त्रधारण किये रहे थे, जैसे कि मे०का क्थन है।
तीसरी और चौथी बातो में कुछ तथ्य अवश्य है । यह निर्विवाद सिद्ध है कि भगवान महावीरजीके प्रारभिक जीवन तक अवन ही भगवान पार्श्वनाथजीका संघ मौजूद था। किन्तु ज्यों ही जवीन संघ उत्पन्न हुआ त्योही प्राचीन संघ के ऋषि उसमें मिल गये थे। उनमें विशेष अन्तर नहीं था और वह भगवान महावीरनीकी नाट जोह रहे थे, यह हम देख ही चुके हैं। चातुर्याम् नियम जो दोनों सघोंमें समान बतलाया जाता है, वह उसी रूपमें एक माना जासत्ता है जिप्तरूपमें वह सामन्नफल सुत्त में मिलता है। जनश्रमणके यही चार लक्षण थे जो इस बौद्धसुत्तमें बताए गये है, जैसे कि हम पहले देख चुके है। यह बात दि जैन ग्रन्थ 'रत्नकरण्ड' श्रावकाचारसे प्रमाणित है. यह पहले ही दिखाया जाचुका है। अतएव यह कहना कि वौद्धोने महावीरस्वामीके प्रति जिप्त चार्तुयाम सवरका निरूपण किया था कह गलत है कुछ तथ्य नहीं रखता! भगवान महावीर के समकालीन म° बुद्धसे ऐसी गलती होना असंभव ही है। बौद्ध शास्त्रों जिन सिद्धांतोको जैनोंका बतलाया गया है वह 'मूल में ठीक हैं; यद्यपि उनकी व्याख्या करने में कहीर बौद्धोंने अत्युकिसे काम लिया है। इसलिए यह नहीं स्वीकार किया जासत्ता कि भगवान पाइन्नाथ नीके निकट चातुर्याम नियमका भाव चार
-भगवान मावीर और म० बुद्ध, परिशिष्ट ।
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भगवान पार्श्व व महावीरजी। [३९९ व्रतोंसे था और भगवान महावीरजीने उन्हींमें अंतिम व्रत और बढ़ा दिया था। बौद्धोंके मज्झिम निकायमे भगवान महावीरजीके पांच वन ठीक ही बताये हैं; पर उनके किसी ग्रंथमें भी भगवाना पार्श्वनाथनीके उन चार व्रतोंका उल्लेख नहीं है, जिनको श्वेताम्बर अन्य प्रगट करते हैं। फिर भगवान महावीर द्वारा यदि उन व्रतोंमें ही एक और बढ़ाया गया था, तो वह अतिम 'तपोगुण' अथवा अपरिग्रह व्रत न होकर ब्रह्मचर्यव्रत था । इस अवस्थामें डॉक बारुआका यह कथन भी उचित प्रतीत नहीं होता । तथापि डा० जैकोबीने यद्यपि पालीके 'चातुर्याम' और प्रारुतके 'चातुज्जाम' शब्दोंको समान बतलाया है; परन्तु यह भी उनने स्पष्ट स्वीकार किया है कि 'चातुजाम' से भगवान पार्श्वनाथजीके चार व्रत प्रगट होते हैं। इसलिये स्व० डॉ० ह्रीस डेविड्सका प्रॉ० जैकोबीको 'चातुर्याम' से श्री पार्श्वनाथजीके चार व्रत ग्रहण करते बतलाना ठीक है और वह जो इससे चार व्रतोंका भाव निकलना गलत बतलाते है, वह भी ठीक है । इस तरह दि० जैन ग्रन्थों एवं चौद्धोंके शास्त्रोंसे यह प्रगट नहीं होता है कि भगवान पार्श्वनाथजीके चार व्रत थे। साथ ही ऊपर जब हम यह देख चुके हैं कि पार्श्वनाथनीके निकट भी सैद्धांतिक क्रम मौजूद था, तो यह नहीं कहा जासक्ता कि व्रतोंको उनने नियमित रीतिमें न रक्खा हो! तथापि शीलवतोंका प्रार्दुभाव अंतिम तीर्थंकर द्वारा हुआ ख्याल करना भी कोरा ख्याल है। क्योंकि शीलव्रतोंमें पंच महाव्रत भी हैं और इनका अस्तित्व भगवान पार्श्वनाथ नोके संघमें मिलता है। 1-जनमत्र (S B.E) भाग : मिका पृ० २० ।
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४००] भगवान पार्श्वनाथ । यद्यपि यह ठीक है कि दोनों संघोंमें चारित्रभेद केवल आचरणमें लानेकी दृष्टिसे अवश्य था; जैसे कि जैन शास्त्रोसे प्रगट है।
सर्व अंतिम जो यह कहा गया है कि दोनों संघोंका मेल, यद्यपि समयकी मांगकी वजहसे जाहिरा होगया था, जिससे पार्श्वसंघको वीर-संघका सिद्धांत पानेका लाभ हुआ था; परन्तु वह ज्यादा दिन न टिका और महावीरस्वामीके निर्वाण उपरान्त पुनः भेद होगया! खेद है कि यहां भी हम डॉ० वारूआके साथ सहमत नहीं हो सक्ते । यह सत्य है कि भगवान महावीरजीके कैवल्यपद प्राप्त करने और संघ स्थापित करनेके साथ ही पार्श्वसंघके ऋषि मादि सदस्य भगवानके संघमें सम्मिलित हो गये थे; किन्तु ऊपरके कथनको देखते हुये यह नही स्वीकार किया जासक्ता कि उनको इससे सिद्धान्तवाद (Philosophy) पानेका लाभ हुमा था! साथ ही बौद्धशास्त्रोंके कथनसे यह भाव निकालना कि भगवान महावीरजीके निर्वाण होते ही वीरसंघ दो भागोंमें विभक्त हो गया था, ठीक नही प्रतीत होता ! यह दिगंबर और श्वेताम्बर दोनों आम्नायोंके ग्रंथोंके विरुद्ध है। भगवान महावीरजीके उपरान्त जबतक उनके केवलज्ञानी शिष्य, जिनमें सर्वअंतिम जम्बूस्वामी थे, मौजूद रहे थे, तबतक तो किसी तरहका भी कोई प्रभेद पड़ा दृष्टि नहीं पड़ता है, क्योंकि दोनों आम्नायोंमें केवलज्ञानियोके सम्बन्धमें कुछ भी अन्तर नहीं है। आपसी प्रभेदकी जड़ श्रुतकेवलियोंके जमानेसे और बहुतकरके भद्रबाहुजीके नमानेसे ही पड़ी प्रतीत होती है। इस समय निग्रंथसंघकी ठीक वही दशा होरही थी जो बौद्धशास्त्रोंमें वतलाई गई है। और यह विदित ही है कि इस समय अथवा.
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भगवान पार्ष व महावीरजी। [४०१ इससे किञ्चित उपरान्त ही बौद्ध शास्त्र उस रूपमें संकलित किये गये थे, जैसे कि अब मिलते हैं । इसी कारण उन्होंने साधारणतः भगवान् महावीरके निर्वाण बाद संघभेद बतलानेका भाव उस समयकी घटनाको लक्ष्य करके लिखा था। बौद्धशास्त्रोंमें यही एक उदाहरण नहीं है जिसमें यह भ्रमात्मक बात हो प्रत्युत और भी उदाहरण हैं जिसमें अजातशत्रुको उसके समयके उपरांतकी घटनाओंसे सम्बंधित बतलाया गया है। इससे बौद्धग्रन्थों के कथनका भाव यही है कि भगवान् महावीरजीके उपरान्त एक काफी समयके वाद संघभेदकी नींव पड़ी थी। कमसेकम भद्रबाहु श्रुतकेवलीके समयतक तो संभवतः संपूर्ण संघ एक था। किन्हीं अजैन विद्वानोंका भी यही मत है। अस्तुः
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथनी और महावीरस्वामीका पारस्परिक सम्बंध क्या था ? दोनों ही महापुरुष एक समान तीर्थकर थे और उनकी शिक्षा भी प्रायः एक समान थी; किन्तु उनके संघमें चारित्रनियमोंको पालने में किंचित अन्तर अवश्य था । और यह अन्तर मूलमें कुछ नहीं था ! जैन धर्मकी यह खासियत रही है कि वह प्राचीनसे प्राचीनतर कालसे अपने सिद्धान्तोंको वैसे ही प्रगट करता चला आरहा है, जैसे कि वे आन उपलब्ध हैं। यद्यपि उसके बाह्यरूप क्रियाकाण्ड आदिमें अवश्य ही सामयिक प्रभाव पड़ा प्रगट होता है ।
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१-कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इन्डिया भाग १ पृ० १६५ । २-पूर्वपृ. १६९।
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४०२]
भगवान पार्श्वनाथ |
( २६ ) उपसंहार ।
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जयतस्तव पार्श्वस्य श्रीमद्भर्तुः पदद्वयम् ।
क्षयं दुस्तरपापस्य क्षयं कर्तुं ददुज्जयम || ' - श्री समन्तभद्राचार्य. ।
हे प्रभो पार्श्वनाथ ! 'आप मोहादिक सम्पूर्ण अंतरंग शत्रुओं को जीतनेवाले हो, सबके स्वामी हो । हे देव ! आपके चरणकमल अतिशय शोभायमान हैं । सर्वत्र विजय देनेवाले है | अतिशय गहन प पोंको भी नाश करने के लिये समर्थ है । हे भगवन् ! आपके ऐसे चरणकमल मेरा अंधकार दूर करो।' अवश्य ही त्रिभुवनवन्दनीय भगवान्की पवित्र संस्तुति भक्तजनके अज्ञानतमको नाश करनेमें मूल कारण है । पतितपावन प्रभूके पाद- पद्मोंका भ्रमर बन जानेसे पाप-पङ्कमें फंसा रहना बिल्कुल असंभव है । प्रभुकी भक्ति प्रभुकी विनय परिणामों में वह विशुद्धता लाती है कि स्वयमेव ही सब संकट नष्ट होजाते हैं और भक्तवत्सल प्राणी आनन्दसर में गोते लगाता है । भगवान् पार्श्वनाथ एक ऐसे ही पतितपावन उपामनीय परमात्मा थे । उन्होंने मोहमायाको अपनेसे दूर भगा दिया था । क्रोध, मान, माया लोभ आदि मानवी कमजोरियोको उनने पास फटकने नहीं दिया था ! बाहिरी शान- गुमानके कारणोंको तो वह प्रभू पहले ही नष्ट कर चुके थे । प्राकृतरूपमें वे विवसन होकर निर्भीक विचरण करते थे । जैसे बाहिर थे, वैसे भीतर थे । न जाहिरा देखने में कोई शारीरिक दोष था और वैसे ही न मनमें कोई मॅल था, वे खुबसूरत अनूठे थे । प्रकृतिके अञ्चलमें ज्यों
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भगवान पार्थ व महावीरजी। [४०३ नीलाकाश शोभता है, त्यों ही वे भगवान अपने नीलवर्ण शरीरमें अपूर्व सुन्दरताको पारहे थे । उनका सौन्दर्य अपूर्व था ! सौन्दर्य ही केवल नहीं, बलिक अनन्त गुणोंसे पूर्ण उनका चारित्र अनुपम था । इसलिये वे खूबसूरत और खूब सीरत दोनों थे । सब लोगोंको वे प्रिय थे । सब उनको अपना स्वामी कहते थे। अपने जीवनमें ही वे इस परम पूज्य प्रभुताको पहुंच चुके थे। उस समयके लोग ही उन्हें अपना परम हितेच्छु समझने थे यही बात नहीं थी, बल्कि आज भी उनका नाम और काम उसी तरह "पुन रहा है और सचमुच जबतक आन्तिकताका 3 पर रहेगा तबतक वह बराबर पुजता रहेगा। जीवित परमात्माके गुणगान भला कैसे भुलाये जासक्ते है ? उनके गुण उनका उपदेश
और उनका स्वरूप हर समय और हर परिस्थितिके प्राणियोंको सुखदाई है उनका दिव्य चरित्र इस व्याख्याकी प्रगट साक्षी है। वे अनुपम थे उनसे अकेले वे ही एक थे ! कमालमें द्विधा भावको जगह मिलना अप्तम्भव है ! कानोंसे हजारों नाम सुने जाते हैं। परन्तु प्रभू पार्थ जैसा नाम कही सुननेमें नहीं आता ! युगसे वीत गये पर वह नाम आन भी जीता जागता चमक रहा है । उनके दिव्य दर्शन पानेका सौभाग्य इस युगके किसी भी भव्यात्माको प्राप्त नहीं हुआ है, पर तो भी उनके नामकी माला एक नहीं दो नहीं हजारों लाखो प्राणी जपा करते हैं। सो भी केवल भारतीय ही नहीं ! उनके चरणकमलोंका स्मरण करनेवाले अंगरेन भी हैंजर्मन भी है। पूर्व और पश्चिम, दुनियाके दोनों भागोंमें भगवानके गुणगान गाये जाते हैं ! यह क्यों? क्यों सर्व दिशायें प्रमृ पार्श्वकी
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.४०४] ___ भगवान पार्श्वनाथ । अद्वितीय कीर्तिसे गूंज रहीं हैं ? इसलिये कि उनमें अनन्त प्रेम था-अनन्त वीर्य था-अनन्त ज्ञान था ! सब जीवोंके कल्याणका द्वार उनके भव्य दर्शनमें मिलनाता है । विजयलक्ष्मी उनके उपासकोंके सम्मुख आ उपस्थित होती है। क्योंकि उनका दिव्य चरित्र साम्यभाव और उत्कट विश्वप्रेम का पाठ पढ़ाता है। उनके उपासक परम अहिंसाव्रतको पालते हैं-दयाके दर्शन उनके दैनिक जीवनसे होते हैं। और दया सत्यकी सहोदरा है । फिर भला कहिये कि दयाप्रेमी प्रमू पार्श्वके उपासक सत्यके हृदयमें निवास करते हुये क्यों नहीं विजय-लाभ करेंगे ? उनके सर्व कार्य अवश्य ही सिद्धिको प्राप्त होगे। प्रभू पार्श्वकी भक्ति-श्री तीर्थकर भगवानकी उपासना अवश्य ही मनुष्य जीवनको सुफल बनानेवाली है। इसीलिए कवि कहते हैं कि:
"जनरंजन अघभंजन प्रभुपद, कंजन करत रमा नित केल । चिन्तामन कल्पद्रुम पारस, वसत जहां सुर चित्रावेल ॥ सो पद सागि मूढ़ निशिवासर, मुखहित करत कृपा अनमेल। नीति निपुन यों कहैं ताहिबर, 'वालू पेलि निकालै तेल' ॥"
सचमुच प्रभू पार्श्वके पाद-पद्मोंका सहवास छोड़कर अन्यत्र सिर मारनेमें कुछ फल हाथ आनेका नहीं है। भगवान पार्श्वनाथका ' पवित्र जीवन हमें स्वाधीन हो सच्चे सुखी बननेका उपदेश देता है। परतंत्रताकी पराधीनतासे विलग रहना वह सिखाता है। जीवित प्राणीमें अनन्त शक्ति है-आस्तिकोंको यह वात उनके दिव्य संदेससे हृदयंगम होजाती है। वह जान जाते हैं कि कीड़ी-मकोड़ी,
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उपसंहार।
[४०५ वृक्ष-लता, सभ्य-असभ्य सब ही प्राणी समान शक्तियोंको रखनेवाले है-कुछ मुजायका नहीं जो उस दशामें वह हीन होरहे हैं । निमित्त मिलते ही-काललब्धिको पाते ही वे अपनी अव्यक्त शक्तिको प्रकट कर देंगे। भगवान पार्श्वनाथका जीव एक भवमें मदमत्त हाथी था; परन्तु वही संयममयी त्यागमार्गमें लगकर त्रिलोकवन्दनीय परमात्मपदको प्राप्त होगया । इसलिये किसी भी व्यक्तिको हेय समझना घृणाकी दृष्टिसे देखना अन्याय मार्ग में पग बढ़ाना है। प्रत्येक प्राणी हमारा बंधु है-ज्यों हमें जीवनप्रिय है त्यों उसे है-इसी भावको भगवान पावके निकटसे ग्रहण करके विश्वप्रेमका साम्राज्य इस जगतमें सिरज देना बिलकुल संभव है । साम्यभावका प्रचार दिगंतव्यापी उसी रोन होगा जिस रोज भगवान पार्श्वका बताया हुआ मार्ग लोगोंको दृष्टि पड़ेगा! बाहिरी चकाचौंधमें फंसे रहनेसे कार्य न सधेगा-रिवाजों और क्रियाकाण्डोंकी उपासना करनेसे कुछ हाथ न आयगा ! त्याग मार्ग में पग बढ़ाने और संयमको अपनानेमें ही संसारकी मुक्ति शेष है-इस बातको इस दिव्य चरित्रसे गांठ बांध लेने में ही कल्याण है । भगवान पार्श्वनाथने कमठके जीव तापसीको यही बात सुझाई थी। अतएव स्वाधीनताके उपासकोंके लिए भगवानका दिव्य जीवन उसी तरह महत्व पूर्ण है जिस तरह दिशाभानके लिए नाविकोंके लिए ध्रुव तारा है । सरल पाहत जीवनसादा लिबास और सादा भोजन और हृदयमे विश्वप्रेमका वास इस धरातलको भी स्वर्गवास बना देता है, यह विश्वास ही त्राणदाता है! सत्यके हृदयमें सदैव बना रहना ही सर्व सुखको पालेना है ! भगवान पार्श्वनाथजीने यही सुखसंदेश जगतको सुनाया था इसीलिये.
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४०६]
भगवान पार्श्वनाथ ।
उनके चरित्रके एक रशिम-प्रकाशको पाकर उनके पवित्र चरित्रको 'पूर्ण करते हुए आइए पाठकगण उनके चरणोंमें नतमस्तक होलें: क्योंकिः
"नरनारक आदिक जोनि विपैं,
विषयातुर होय तहां उर. है । नहिं पावत है मुख रंच तऊ,
__ परपंच प्रपंचनिमैं मुरझै है ॥ जिन पारश सों हित प्रीति विना,
चित चिंतित आश कहां मुरझै है। जिय देखत क्यों न विचारि हिये,
कहुं ओसकी बूंद सों प्यास बुझे है ॥
इतिशम्-ॐ शान्तिः !
आश्विन शुग २ स. १९८३ मगलवासने परिपूर्णम् ।
ता. ७-१२-१९२६ ।
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ग्रन्थकारका परिचय। [४०७.
न्थकारका परिचशू । ससारमें भटकते हुए क्षुद्र जीवका परिचय ही क्या ? निस प्रकार और सब जीव हैं वैसा ही यह प्राणी है ! एक ही निगोदरूपी जननीके उदरसे जन्मे हुये भाइयों में अन्तर ही क्या ? उनमें पर. स्पर विशेषता हो ही क्या सक्ती है ? फिर मेरा और तेरा परिचय क्या ? पुगलके संसर्गमें आया हुआ यह जीव इस अनन्त संसारमें नानारूप रखता है, उन विविध रूपों के फेरमें पड़ना बहुरुपियेके तमाशेके दृश्यसे कुछ अधिक महत्व नहीं रखता ! परन्तु संसारका अइंकार उसने वेढब उलझा हुआ है- वह उसके सारापारको देखने नहीं देता। उसे नजर ही नहीं पड़ता कि वह तो
अनन्तदर्शन, अनंतज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखरूप है, सिद्ध | है, शुद्ध है, परम बुद्ध है। सचमुच मेरी अनन्तगुणमई समृद्धि
है। देखने में देह परिमाण भले ही हू, परन्तु निश्चय जानो मैं असख्य प्रदेशी हूं और अमूर्तिक हूं, अनन्तरूप हू, परमानन्द हैं, सहज हू, नित्य हूं, चिदानन्द हु, मेरा चेतना लक्षण है, मैं चैतन्य है भखण्ड हूं और लोकालोकका प्रकाशक हूं। रत्नत्रय मेरे अगकी शोभा बढ़ाते हैं। सहज स्वरूपको दर्शाकर मै सिद्ध समान देदीप्यमान हू । संसारकी रागद्वेष कालिमासे रहित शुभाशुभ कर्मकलकसे विहीन निकलक हूं, समन्तभद्र हूं, शास्वतानन्द हूं, पर हूं कहा ? अहंकारका पर्दा फटे और 'सोऽहं' की भूमि प्रगट हो तर वहीं जो हू सो दृष्टि पहं । आज तो दुनियां मुझे कामताप्रसाद कहकर पुकारती है। मनुष्य जातिमें मेरी गणना होती है, जैनधर्मका मुझमें अनुगग प्रकट होता है। में भी जैनी बनने के प्रयत्नमें हैं।
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४०८ ]
भगवान पार्श्वनाथ |
वैसे जन्म मेरा ऐसे स्थान में हुआ जहां जैनमतका नाम सुननेको नहीं था और बचपन भी जिनेन्द्र भगवान की शरणसे दूर२ वीता ! पर इसका अर्थ यह नहीं है कि पुण्योदयसे मेरा जन्म एक जैन कुलमें नहीं हुआ है ? मैं जन्मसे जैनी अवश्य हूं । परन्तु जैन कुलमें जन्म लेनेसे ही कोई जैनी नहीं होजाता ! इसीलिये मैं कहता हूं कि मैं जैनी बनने की कोशिषमें हूं । जैनधर्म है विजयमार्ग ! विजयी - वीर ही इसको अपनानेके अधिकारी हैं ! मनुष्य में जितनी -नीचता है, संसारका जितना अहंकार है, उस सबपर विजय पानेके लिये जब कहीं तैयारी की जाय तब कोई जैनी हो ! अथवा कवि भाषके शब्दोंमें 'सकलजनोपकार सज्जा सज्जनता जैनी' जैनी है । मनुष्य मात्र के उपकार करनेका सज्जनोत्तम भाव हृदयमें जागृत होना कठिन है ! फिर भला कोई जैनी कैसे होवे ? अपनेमें इसी भावको जागृत करनेकी उत्कट अभिलाषासे विजयी वीरों - महावीरोंके चरित्रमें मन पग रहा है । शायद मैं कभी सचमुच जैनी हो जाऊँ ? फिर भला कहिये कि इस अवस्थामें मेरा परिचय लिखने से किसीको क्या फायदा होगा ? यह भी तो एक अहंकार है । पर संसारकी ममता और लोगोंका कौतूहल जो कराले सो थोड़ा है ! वैसे उनमें और मुझमें अथवा अन्य किसीमें अन्तर ही किस बातका हैं। अंतर के कपाट खुलें तो सच्चा दर्शन ठीक परिचय मिल जावे !
मेरे इस वर्तमान रूपका अवतरण भारतवर्ष में संयुक्त प्रांतके एक जैन कुटुम्बमें हुआ है । उस समयकी बात है कि जब मुगल साम्राज्य छिन्न भिन्न होगया था, तब विविध प्रांतोंके शासक स्वाचीन राजा और नवाव बन बैठे थे । फर्रुखाबादमें भी एक ऐसी
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ग्रन्थकार का परिचय। [४०९ ही नवाबी थी। आगरा प्रांतके जिला एटामें तहसील अलीगंजके अन्तर्गत मौना कोट है। कहते हैं कि तब इसी ग्रामके एक सज्जन नवाबके 'नायब' थे और इन नायबके भण्डारीका कार्य समझिये 'एक जैन कुटुम्ब करता था। उसी जमाने में यह हुआ कि फर्रुखाबादके नवाबका कोई सम्बंधी कोटके पास मा निकला ! कहते हैं। कि उसका नाम नवाबखां बहादुर था। उसने अलीगनकी नींव जमाई । जब अलीगंज वसने लगा तब बहुतसे लोग बाहरसे बुलाकर वहां वसाये गये । कहा जाता है कि उसी समय कोटके उक्त जैन कुटुम्बके लोग भी अलीगंज आगये । उनको यहा भूमि दी गई तथा एक बाग भी मिला, जो आजतक इस कुटुम्बमें है। इस कुटुम्बमें एक सज्जन ला० निर्मलदाप्त नामक थे। उनकी संतानमें श्री फूलचन्दनी नामक हुये । कोट ग्रामसे आने के कारण यह जैन कुटुम्ब तबसे बराबर 'कोटवाले ' नामसे Lख्यान है। वैसे यह वैश्य जातिका है। जैनोंमें वैश्य भनेक उपजातियो में विभक्त हैं, यह वंश बुढेलवाल कहलाता है । ऐतिहा एक शोधसे मालूम हुआ है कि बुढेलों का निकास लगभग १६ गताब्दिमें लम्बकंचुक जातिसे हुआ था। लवकंचुक जातिकी उत्पत्ति दिवशी राजा लोमकरणकी संतानसे हुई कही जाती है। वैसे तो द्वारिकाके साथ सारे यदुवंशियों का नाश होगया था; परन्तु जरत्कुमा निःशेष रहे थे। वह कलिगमें जाकर राज्य करने लगे थे। उनके बाद कलिङ्गमें बहुतसे राजा हुये, परन्तु उनमें कोई भी लोमरण नामक नहीं है । अतः मालूम ऐमा होता है कि यदुवंशो गाना मगवान महावीरके बाद कलिंगके राजा जितशत्रुकी संतान कोई हमा
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भगवान पार्श्वनाथ । । कलिगसे इन लोगोंको ईसवी पूर्व ४ थी या तीसरी शता" बाहर चला जाना पड़ा था और तब यह लम्बकाञ्चन देशमें नारहे थे । यह देश कलिंगके निकट कहीं दक्षिण भारतमें होना उचित है। श्री समन्तभद्राचार्यके भ्रमण वृत्तान्तमें दक्षिणस्थ नग
के साथ एक 'लाम्बुश' नामक नगरका उल्लेख हुआ है । औरइक्षिणमें काचीपुर जैनोंका प्राचीन केन्द्रस्थान है । अतएव 'लाम्बुश और कांचीपुरके मध्यवर्ती देशका उल्लेख लम्यकाञ्चन नागसे होना संभव हो सक्ता है । इस दशामें यहाके निवासी राजभ्रष्ट यदुवंशिपोंकी सतान लम्बकंचुक जाति कही नासक्ती है । इसी जातिका अपररूप बुढेलवाल है । उक्त कुटुम्ब इसी बुढेलवाल वगोद्भव है। उक्त श्री ला० फूलचन्दजी व्यापार निमित्त मेरठ पहुचे। वहां एक फौनी अफपरसे उनकी भेंट हो गई। वे परस्पर उपकृत होगये । फूलचन्दनी फौनी कमसरियटमें काम करने लगे । धीरे२ फौजी खनाची होगये, उनका फर्म दूर२तक प्रसिद्ध होगया । श्री फूलचन्दनीके चार पुत्र थे-(१) ला० परमसुखनी, (२) ला० कुन्दनलालनी, (३) ला० झम्मनलालनी, (४) ला• गिरधारीलालनी। उनके उपरान्त यह चार भाई फर्मके कार्यको समुचित रीतिसे न चला सके और वह पर्म फेल होगया । ला• कुन्दनलालनीके तीन पुत्र हुये-(१) श्री प० तेजरायनी, (२) ला० धन्नामलनी, (३) व ला० गोविन्दप्रसादजी । ये तीनों भाई गानविद्या विशारद हैं; यद्यपि सर्वलघु इस समय उनके बीचमे नहीं है । प० तेजरायनी संस्कृतज्ञ और धर्मज्ञ वयप्राप्त विद्वान है। आपके सुपुत्र बाबू अंबाप्रसादजी 'मिलिद्री अकाउन्ट डिपार्टमेन्ट में एकाउन्टेन्ट थे। दुर्भा
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ग्रन्थकारका परिचय।
ग्यसे उनका गत चैत्रमासमें असमयमें ही स्वर्गवास होगया । ला० गिरधारीलालनीके एकमात्र पुत्र श्री ला० प्रागदासनी हैं । लेखकके ' पूज्य पिता यही हैं, पुराने फर्मके फेल होनेके बाद पिताजी अपना
एक स्वतंत्र 'वेन्किन्गफर्म' स्थापित करनेमें सफल हुये थे । तबसे __ यह फर्म बराबर चल रहा है, चूकि इसका सम्बन्ध सरकारी फौजसे
है; इसलिये भारतके विविध प्रान्तोंमें फर्मको जाना पडता रहा है। ऐसे ही जिस समय पिताजी सीमा प्रान्तकी छावनी कैम्प वेलपुरमें थे, उस समय मिती वैशाखशुक्ला त्रयोदशी बुधवार संवत् १९५८को मेरे इस रूपका जन्म हुआ था। माताजी धार्मिक चित्तवृत्तिकी धारक थीं, यद्यपि मुझे बचपनमें जैनधर्मके साधक साधनोका संसर्ग: प्राप्त नहीं हुआ. परन्तु मातानीकी धार्मिकवृत्तिने मेरे हृदय में उसका प्रतिविम्ब ज्योका त्यो अकित कर दिया। रातको जब मै पहार तारोके विषयमें प्रश्न करता तो वह समाधान करती हुई मुझसे यह कहलवाके सुला देती कि 'जिनवर तारे मन भर कूचे, जहा जीव
तहां तीन किनारे। जा मडलीमें उच्चरे ताहि श्री पार्श्वनाथकी आनि. __तब इसका मतलब कुछ समझमें नहीं आना. किन्तु जब आना
सोचता है तो इस सरल उक्तिमें जनवमकी खाम बातोका उग भरा हुआ पाता हूं। जिनेन्द्र भगवान ही तारे हैं, उन्हींको मनमें स्थारित करके ताला बद करदो । किसी अन्यको हरयके उच्चापन पर मत बैठाओ, संसारसागरमें भटकने हुये म पाणी लिये कि होन-रत्नत्रय-किनारे हैं, उन्हें नीं भूलना चाहिये। श्री पार्थनायके शासनको छायामें नव नानन्दसे कालोप करें : इस साल
गहन उपदेश भला और कने हदय गम हो मता? पीता
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२] भगवान पार्श्वनाथ। ऐणाम था कि जब हैदराबाद सिघमें मैं 'नवलराय हीरानंद ऐकेमी' नामक स्कूलमें अंग्रेजी पढ़ता था, तब अन्य छात्र जहां गुरु नकनीके बोलमें धर्मपरीक्षा देते थे, वहां मैं जैन स्तोत्र और सामायिकपाठको सुनाता था। इस तरह धार्मिक भावुकताकी जड़ मेरे हृदयमें बचपनसे जम गई थी । बचपन में मेरठ व अलीगंजमें मैंने हिन्दी और उर्दू पढ़ली थी । हैदराबादमें मैट्रिकतक अंग्रेजीका अध्ययन किया था; दूसरी भाषा फारसी थी। अलीगंजमें एक पंडित महाशयसे संस्कृत भाषा पढ्नेका प्रयत्न किया, पर असफल रहा। सन् १९११ के लगभग मेरा विवाह कर दिया गया । सन् १९१८ में माताजीका स्वास्थ्य खराब हो गया और
उन्हींकी सेवामे व्यस्त रहने के कारण मेरा अध्ययन वीचमे ही ! छूट गया। इसके बाद ही माताजी और पत्नीका देहात होगया,
घर सूना होगया, हृदयमें अपनेको पहिचानने का भाव जागृत हुआ परन्तु व्यापार में लग जानेसे वह ज्यादा पनपा नहीं! हैदराबाद के अतिरिक्त बरेली में भी फर्मका कार्य चल निकला । मैं वरेली रहता था। धर्मपुस्तकोंके देखने का सौभाग्य मुझे म्ब० कुमार देवेन्द्रप्रसाद जीके विज्ञापनोंसे प्राप्त हुआ था। उन्होंने मुझे एक्दम अपनी सत्र पुस्तके भेज दी थीं | मैं उनका अध्ययन करता रहा। फिर मेरे अभिन्न मित्र और प्रेमी श्रीयुत् वा गिववरणलालनीके यहा वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। उस समय व० गीतलप्रमादजी म० मे भेट हुई। उन्होंने जनधर्मके अध्ययन और प्रभावनाके लिये उत्तपादित किया । मैं 'जनमित्र' व 'निगम्बर जैन मंगवाने लगा। इनके पानेमे व लिखनेका गीक हमा। देख लिखे परन्तु मर
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ग्रन्थकारका परिचय |
[ ४१३ न छपे । ब०जीने उत्साह वर्द्धनार्थ किन्हीं२ को 'मित्र' में स्थान दिया । फलतः लिखना न छूटा । लिखता रहा तो लिखना आगया । बरेलीमे तो कविता रचनेका भी उद्योग चलता रहता था । इसी समय श्रीमान् बाबू चम्पतरायनी वेरिष्टरकी मूल्यमई रचनाओका लाभ हिन्दी जनताको करनेकी उत्कट अभिलाषासे मैंने उनके इथेजीके ग्रन्थोंका हिन्दी अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया । बेरिष्टर सा० ने 'असहमत संगम' के कई अध्यायोका अनुवाद मुझे करने देनेका अवसर प्रदान किया । यहीसे मेरी ग्रन्थ रचनाकी ओर प्रवृत्ति होगई । जब मैं बरेलीमें था तब ही मेरा द्वितीय विवाह हो गया । इसके पहले ही मै समाजोन्नति के कार्यों में भाग लेने लगा था । कानपुर और लखनऊ की महासभा में शामिल हुआ था । महासभाकी कूटनीति से मन उचटासा था । तिसपर दिल्ली के अधिवेशनमें पडितदलकी दुर्नीतिने समाज नेताओं को उसके विमुख कर दिया । समाजका मच्चा हित करनेके नाते 'भा० दि० जैन परिषद' का जन्म हुआ । जहा मैने 'जैनगजट' में महासभाकी सफलता के लिये कई लेख लिखे थे और उसके सुधार करने की धुन में था, वहा सुधारका अवसर न देखकर उल्टै शक्तिका दुरुपयोग समझकर मैने परिषदकी ओर ध्यान दिया । परिषद के कर्णधारोंने मेरे अयोग्य कन्धोपर 'वीर' पत्रके सम्पादनका भार डाल दिया व यथाशक्ति उसका पालन कर रहा हू । सौभाग्यसे हिन्दी प्रतिष्ठित लेखक उसको अपनाने लगे है और विदेशोमे भी वह जैनधर्मका परिचय कराने में सहायक है । उधर इन दिनो स्वास्थ्य हीन रहा और तबियत एकात में मग्न रहने लगी । इम एकांत में कभी भगनानके
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४१४ ] भगवान पार्श्वनाथ । दिव्य चरित्रोंको अवलोकन करनेका अवसर मिला, जिसके परिणाम रूप चरित्र ग्रंथ लिख गये । इटावामें महावीरजयंतीपर जब कोई उपयुक्त महावीरचरित्र न मिला, तब एक चरित्र लिखनेका साहस हुआ। तवहीसे 'भगवान महावीर' 'महारानी चेलनी' आदि करीब १२१३ छोटेमोटे ग्रन्ध लिख गये । इस समय ध्यानाध्ययनमें ही समय बीतता है । भगवान महावीर विषयक एक निबंधपर 'यशोविजय जैन ग्रन्थमाला की ओरसे स्वर्णपदक मिला । इन्दौरकी निबध जांच-कमेटीने 'जेन संख्या के द्वाससे बचने के उपाय' सम्बन्धी निबंधोंमें लेखकका निवध सर्व प्रथम ठहराया ! उघर 'रायल ऐशियाटिक सोसाइटी-लन्दन'का भी सदस्य लेखक चुना जाचका है । अंग्रेजीके विविध भारतीय और विदेगीपत्रोंमें जैनधर्मविषयक लेख प्रगट होते रहते हैं । जैनोंका कोई भी प्रामाणिक इतिहास न होनेके कारण तरह के अपमान उन्हें सहन करने पडते हे । इस कमीको दूर करनेके लिये 'संक्षिप्त जैन इतिहास' कई भागोंमें लिखना प्रारंभ होगया है और उसके दो भाग लिखे भी जाचुके हैं। मत्वान्वेपणके बल मुझे प्रचलित जैनधर्मका स्वरूप विकृत दृष्टि पड़ता है और उसके सुधारके लिये मैं सदा तत्पर रहता हूं। इस सुधार कार्यको अपने आसपास अमली सूरत देने में मुझे अपने सम्बधियों ताकी नान्बुमी महन करनी पड़ी। पर मैं सत्यमार्गसे विचलित नहीं हुआ । जनोपकाकी भावना हृदयमें जागृत रहे यही वांछा रहती है । सायद किमी दिन यह भावना मुझे मचा जनी बना दे! अधिक अभी क्या लिग् ? अन्तु वन्दे वीरम् |
-कामनाममाट जन ।
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