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३६] भगवान पार्श्वनाथ । ऋद्धियोकी प्राप्ति हो गई । त्यागभावमे अपूर्व शक्ति है, मनुप्यको स्वाधीन वनानेवाला यही एक मार्ग है। ___ राजर्षि आनंदकुमार एक रोज क्षीर नामक वनमे वैराग्यलीन खडे हुये थे। मेरुके समान वह अचल थे, आत्मसमाधिमे लीन वह टससे मस नहीं होते थे। इसी समय एक भयंकर केहरी उनपर आ टा। अपने पजेके एक थपेडेमे ही वह धीरवीर मुनिराजके कंठको नोच ले गया ! और फिर अन्य शरीरके अवयवोंको खाने लगा ! इस प्रचंड उपसर्गमे भी वे महागभीर राजर्षि अविचल रहे। उन्होने अपनी अन्तर्दृष्टि और भी गहरी चढ़ा दी। वह यह भी न जान सके कि कोई उन्हें कुछ कष्ट पहुंचा रहा है । वह दृढ़ श्रद्धानी थे कि आत्मा अजर-अमर है, गरीर उसके रहनेका एक झोपडा है। मग्ण होनेपर भी उसका कुछ विगडता नहीं इसलिए शरीरके नष्ट होनेने राग-विराग करनेकी उनको जरूरत ही न थी। माजकलो मत्यान्वेषी भी इसी तत्वको पहुंच चुके हैं। प्रमिड वैज्ञानिक मर ओलीवर लॅॉनने यह स्पष्ट प्रकट कर दिया है कि मृत्युके उपरात भी नीव रहता है। मृत्युमे भय करनेका कोई कारण नहीं, (देखो हिन्दुस्थानरिव्य)। राजर्षि सानन्दकमार तो उम सत्यके प्रत्यक्ष दर्गन करचुके थे । फिर भला वह किसतरह मिहन्त उपसंगमे विचलित होने वह अपने आत्मव्यानमें निश्चल रहे और इन शुभ परिणामोंमे उम नश्वर गरीरको छोडकर आनत नामक म्बर्ग, देवेन्द्रोमे पूच इन्द्र हुये '
यह रेगेमिंद जिमने इतने कर भावसे राजर्पिपर आक्रमण किया था, मित य झम्टी जीवा और कोई नहीं था। न हन्स