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आनन्दकुमार |
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भोगकर वह इसी वनमें सिह हुआ था । अपने कमठ और मरु
भूति भवके बधे हुए वैरको वह यहां भी नही भुला सका ! राजर्षिको देखते ही उसे अपना पूर्वभव याद आगया और फिर जो उसने अधम कर्म किया, वह पाठक पढ़ ही चुके है । नीच केहरी इस अघके वशीभूत होकर पचम नर्कमे जाकर पड़ा ! शुभाशुभ कर्मो का फल प्रत्यक्ष है । शुभ कर्मोकर एक जीव तो उन्नति करता हुआ पूज्यपदको प्राप्त हो चुका और दूसरा अपनी आत्माका पतन करता हुआ नर्कवास में ही पड़ा रहा । यह अपनी करनीका फल है ।
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आनन्दकुमार राजर्षि मरुभूतिके ही जीव थे और यही स्वर्गलोकसे आकर अपने दसवें भवमें त्रिजगपूज्य भगवान पार्श्वनाथ हुये थे । देवलोकमे इन्होने अपूर्व सुखोका उपभोग किया था । इस तरह भगवानके पूर्व नौ भवोका दिग्दर्शन है । इससे यह स्पष्ट है कि भगवानने उन सब आवश्यक्ताओंकी पूर्ति कर ली थी, जो तीर्थकर जन्म पानेके लिए आवश्यक होतीं हैं । एक तुच्छ जीव भी निरंतर इन आवश्यक्ताओकी पूर्ति कर लेनेसे रकसे राव हो सक्ता है, यह भी इस विवरणसे स्पष्ट है । कर्मसिद्धांत का कार्यकारी प्रभाव यहां दृष्टव्य है । अस्तु, अब अगाड़ी भगवान पार्श्वनाथके जन्मोत्सव संबंध में कुछ कहने के पहले हम यहांपर उस जमानेकी परिस्थितिपर भी एक दृष्टि डाल लेंगे, जिससे उस समयका चातावरण कैसा था, यह मालूम हो जायगा ।