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भगवान पार्श्वनाथ |
इस विहारमें भगवान विना किसी भेद भावके सब ही जीवोंको समान रूपसे धर्मामृनका पान कराते थे । उनका विहार देवोपनीत समवशरणकी विभूति सहित होता था । जहां जहां भगवान पहुंच जाते थे वहां वहां इन्द्रकी आज्ञासे कुवेर समवशरणकी रचना कर देता था | जैन शास्त्रों का कहना है कि तीर्थकर भगवानका प्रस्थान साधारण मनुष्योकी तरह नहीं होता है । उनके निकटसे अशुभ रूप चार घातिया कर्मो का अभाव होगया था । इसलिये उनका परम और शरीर इतना पवित्र और हमवजन होगया था कि वह पृथ्वीसे ऊपर बना रहता था । उसके लिये पृथ्वीका सहारा लेने की आवश्यक्ता नहीं रही थी । इसमें आश्चर्य करनेके लिए बहुत कम स्थान है: क्यों के योगमाघनके बल किंचित् कालके लिये छदमस्थ मनुष्य भी अवर आकाशमें तिष्ठते बतलाये गये हैं । फिर जो महापुरुष साक्षात् योगरूप होगया है, उसके लिये आकाश ही आसन होजाय तो कुछ भी अचरजकी बात नहीं है । योगशास्त्रोंके पारंगत विद्वान् इस क्रियामें कुछ भी अलौकिकता नहीं पायेंगे । वास्तमें इसमें कोई अलौकिकता है भी नहीं; यद्यपि यह ठीक है कि आजकल ऐसे योगी पुरुषोंके दर्शन पा लेना असंभव होगया है । यही नहीं योग शास्त्रोंमें बताये हुये सामान्य नियमों के पालनमें पाण्डित्यप्राप्त मनुष्य ही मुश्किल से देखनेमें मिलते हैं । इसलिये आजकलके लोग इन बातोंकी गिनती 'करिश्मो' अथवा 'अलौकिक' चातोंमें करने लगते हैं और ऐसी बातें उनके गलेके नीचे सहसा नहीं उतरती हैं ! किन्तु वह मूलते हैं और आत्माकी अनन्तशक्ति अपना 'अविश्वास प्रकट करते हैं । आत्मामें सब कुछ कर