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________________ ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२२५ विश्वात्मक ज्ञान और विश्वप्रेमके आगार भगवान पार्श्वनाथका जब सर्व प्रथम दिव्य उपदेश वनारसके निकट अवस्थित वनमे हुआ तो उनका यश दिगन्तव्यापी होगया। वे भगवान् जो कुछ कहते थे वह प्राकृत रूपमें कहते थे। वहां रागद्वेषको स्थान प्राप्त नहीं था। उनकी क्रियायें भी प्राकृतरूप निरपेक्ष भावसे होती थी। इसी अनुरूप सर्व लोकोका कल्याण' करनेके लिये उनका विहार भी आर्यखंडमें हुआ था । एक तीर्थकरके लिये यत्र-तत्र भ्रमण करके संसारके दु खोसे छट पटाते हुये जीवोको धर्मका सुखकर पीयूष पिलाना आवश्यक होता है। यह उनकी तीर्थकर प्रकृतिका प्रकट प्रभाव है । इसी अनुरुप भगवान पार्श्वनाथका भी पवित्र विहार और धर्मप्रचार समस्त आर्यखंडमें हुआ था। श्री वादिराजसूरि भी यही कहते हैं - देवस्तु धर्मममृतं वरभव्यशस्यैः, संग्राहयन प्रविजहार विधाय जिष्णुः । स्वाभाविकः खलु रवेः कमलाववोधी, दिक्षु भ्रमस्स न विचारपथोपसपी ॥४४॥ अर्थात्-'जिस प्रकार कमलोंके खिलानेवालाः दिशाओंमें सूर्यका भ्रमण स्वभावसे ही होता है उसके वैसे भ्रमणमें विचार करनेकी जरूरत नहीं पड़ती उसी प्रकार जयगील भगवान जिनेन्द्रका भी भव्य जीवरूपी धान्योंके लिये धर्मामृत वषोनेवाला विहार स्वभावसे ही होने लगा। आज यहां तो कल वहां विहार करना चाहिये इस प्रकार इच्छा पूर्वक उनका विहार न था।' (पा० च० ४० ४१६)
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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