SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२३५ यदि उनके समयके दुप्कालमें दक्षिणमें जैनी न होते तो वह वहांको प्रस्थान केसे कर जाते ? क्योंकि जैन मुनि श्रावकोंके यहां सविधि आहारदान पासक्ते हैं अन्यत्र उसका मिलना कठिन है । इससे यही प्रगट है कि वहांपा जैनधर्म उनके पहलेसे विद्यमान था। 'रामावलीकथे' नामक ग्रन्थनें यही कहा गया है और इस कथनको विद्वान् लोग करीब २ विश्वपनीय ब लाते हैं।' तिसपर बौद्धोके 'महावंश' नामक ग्रन्थमें ईस्वी सन्से पहले ४३७के करीब सिहल लंका ( Cey.on) मे अनुरुद्धपुरके बताये जानेका वर्णन दिया हुआ है। उसमें वहांपर ' गिरि,' नामक एक निगन्थ (जैन) उपासकको स्थान देने एवं बहाके राना पाडुगाभय द्वारा ' निगन्थ । कुम्बन्ध ' के लिये एक मंदिर बनवानेके उल्लेख आये है। इस कथनसे स्पष्ट है कि सिहल-लकामें ईसासे पूर्व पांचवी शताब्दिमें जैनधर्म मौजूद था। इस दशामें दक्षिण भारतका उस समय उसके प्रचारसे अछूता बच जाना कुछ जीको नहीं लगता । इसी कारण कतिपय विद्वान् इस बातको माननेके लिये तैयार हुये हैं कि श्री भद्रबाहुस्वामीसे पहले ही जैनधर्मका अस्तित्व दक्षिण भारतमें मौजूद था। यहापर यह शका करना भी वृथा है कि जैनधर्म समुद्र मार्गद्वारा सीधा सिंहल-लकाको पहुंच गया होगा, क्योंकि जब वह जहाजोंद्वारा लका पहुच सक्ता है तो उसी तरह दक्षिण भारतमें भी दाखिल हो सक्ता है । दक्षिण भारतसे भी सामुद्रिक व्यापार तब चलता था । तिसपर जैनशास्त्र स्पष्ट कहते हैं कि वहांरर जैन १-स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म पृ. ३२ । २-महावश पृ० ४९ । ३-स्टडीज इन साउथ इडिपन जैनी ज्म भाग १ पृ० ३३ ।। ३
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy