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विवेचना |
'धनुष' (ज्योद) कुछ विशेष अर्थ रखता है ।' टीकाकारने उसे ' अयोग्यं धनुष' लिखा है । बहुधा वह धनुष प्रत्यंचा रहित अथवा नुमाइशी धनुष बताया गया है । इससे क्या मतलब सघता था, यह कहा नहीं गया है तो भी यह ठीक है कि धनुष शस्त्र रूपमें क्षत्रियोंका एक मुख्य चिन्ह है, परन्तु ऐसे निकम्मे धनुषको वह क्यों रखते थे ? इससे यही भाव समझ पड़ता है कि वह इन अहिंसा धर्मानुयायी क्षत्री पुरुषोंके लिये केवल उनके क्षत्रियत्वका बोधक एक चिन्ह मात्र था । यह तो स्पष्ट ही है कि उनके गुरुओंने उनसे अहिंसाव्रत ग्रहण कराया होगा, उस समय उनके लिये अपने जातीय कर्मको त्याग कर ब्रह्मचारी होजाना और खाली हाथों रहना जरूर अखरा होगा । जिस तरह आजकल सिख लोग केवल नुमायशी ढंगपर 'किरपान' को रखते हैं, उसी तरह वह क्षत्री भी जो अहिंसाव्रतधारी थे, अपने हाथमें अपना कुलचिन्ह 'धनुष' प्रत्यंचा रहित
कल
१ – यह ध्यान रहे कि व्रात्य शब्द श्रावक और साधु दोनों का सूचक उसी तरह है, जैसे बौद्धकालमें 'निर्ग्रन्थ', मध्यकालमें " आईत" और आज - " जैन " शब्द हैं । तिसपर पगड़ी, रथ, धनुष, एक लाल कपडा पहननेका उल्लेख गृहपतिके सम्बन्धमें हुआ है । ( J. R. A. S. 1921) इस कारण इन वस्तुओंका सम्बन्ध केवल 'हीन व्रात्यों' ( श्रावकों ) से समझना चाहिये । 'ज्येष्ठ नात्य' (साधु) तो बिलकुल दिगम्बर ही प्रगट किये गये है । जैसे कि हमने भी भगवान् पार्श्वनाथ एव उनके पूर्वके तीर्थकरोको नग्न वेषधारी प्रगट किया है । सम्भव है कि अयोग्य धनुषको उनके हाथमें बतलामा उपहास सूचक हो । जैसे आजकल कोई लोग अहिंसाधर्मको राजनीतिका विरोधी बतलाते है ।
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