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[ ४४ ] रखते थे । यह उपरोल्लिखित प्रॉ० सा०का अनुमान है । इसके अतिरिक्त हीन, ज्येष्ट, गृहपति, अनुचनः, स्थिवरः, समनिचमेद्रः, निंदितः आदि शब्द जो व्रात्योके सम्बन्धमें व्यवहृत हुये है। इनका
भी खुलासा कर देना आवश्यक है । हीन और ज्येष्ठसे तो भाव -सभवतः अणुव्रतों और महाव्रतोसे होगा और गृहपति गृहस्थ भावकोंका आचार्य या नेता होता है। इसे विशेष धनवान और विद्वान् बताया है । इस शव्दका प्रयोग जैन शास्त्रों, जैसे श्वे० उवास्गदशाओमे हुआ मिलता है । वाकीके तीन शब्दोंका व्यवहार ज्येष्ठ व्रात्योके प्रति हुआ है । इनका अर्थ लगाने में सब ही टीकाकार भ्रांतिसे बच न सके हैं, यह बात प्रॉ० चक्रवर्ती सा० बतलाते हैं। वह अगाड़ी कहते हैं कि 'अनुचन' का अर्थ तो हो टीका
कारोने ठीक लगाया है, जिसका मतलब ज्येष्ठ व्रात्य दिगम्बर एक धर्मशास्त्र ज्ञाता विद्वान्से है। स्थजैन मुनि थे। विर शब्द भी साफ है जिसके अर्थ
गुरुसे हैं और इसका व्यवहार जैनशास्त्रोंमें खूब हुआ मिलता है । जैन गुरुओंकी शिप्य परम्परा 'स्थिविरावली' नामसे प्रख्यात है । जिन सहननाममें भी इसका प्रयोग हुआ मिलता है। किन्तु वैदिक टीकाकारोंने इसे भी नहीं समज पाया है, क्योंकि यह समनिचमेद्र शब्दके साथ प्रयोजित हआ है। इस शब्दका शब्दार्थ 'पुरुषलिंगसे रहित' होनेका है। टीकाकार भी यही कहते हैं, यथा--"अपेतप्रजननाः ।" भला व्रात्योंके लिये ऐसा घृणित वक्तव्य क्यों घोपित किया गया ? सामान्यतःजो पुरुप सामानिक रीतिके अनुसार सवस्त्र होगा, तो सचमुच उसके प्रति