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उनका उल्लेख प्रतिपक्षियों द्वारा 'गरगिर' रूपमें होना भी ठीक है ।।
इस विवेचनका सम्बंध ' अरुणमुख ' शव्दसे भी ठीक बैठता है; जिसका प्रयोग उन वतियोंके लिये हुआ था जो जैन थे, जैसे पहले कहा जा चुका है । इस कथनका समर्थन इन शब्दोसे भी होता है जो जैन भावको प्रगट करते हैं; यथा: - ऋषभ, आदिजिन, महात्रतपतिः महायतिः, महाव्रतः, यतीन्द्रः, दृढव्रतः, यति, अतीन्द्रः, इन्द्राचर्यः आदि । इनसे केवल यतियों और व्रतियों का अस्तित्व ही जैन शास्त्रोंमें प्रगट नहीं होता, बल्कि इनसे यह भी प्रगट है कि इस धर्मके प्रभाव के सामने इन्द्र सम्प्रदाय - वैदिक मतका वास हुआ था । ' अदन्टयम् दन्डेण अनन्तश्चरंति ' अर्थात् ' वे उसको दण्ड देकर रहते जिसको दण्ड नहीं देना चाहिये ।' इस उल्लेखसे प्रगट है कि व्रती पुरुष जहां रहते हैं वहां इन्द्र- यज्ञोंके विरुद्ध. आज्ञायें निकालते हैं, क्योंकि उसमें हिंसां होती है। ऐतरेय ब्राह्मण' एवं अन्य वैदिक साहित्यमें ऐसे बहुतसे उल्लेख हैं जिनमें विविध ' राजाओं द्वारा उनके राज्योंमें यज्ञोंके करने देनेका निषेध मौजूद है । सतपथ ब्राह्मण और वजसनेय संहितासे भी यही प्रगट हैं जिनमें कौशल - विदेह देशके पूर्वी आर्योको मिथ्या घर्मानुयायी और वैदिक यज्ञोंका विरोधी लिखा है और यहां जैनधर्मका बहु प्रचार प्राचीनकाल से था ।
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- व्रात्योंके खास वस्त्र, पगड़ी, रथ आदि जो कहे गये हैं; वह एक साधारण और स्थानीय वर्णन है - और उनका सम्बंध केवल ग्रहस्य एवं गृहपति व्रात्यों (जैनों ) से है । किन्तु
पगड़ी, रथ, ज्यहाद आदि शब्दोंकी