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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [७९ डॉ० सा० ने वेदोंकेबाद ऐतरेय, तैत्तिरीय आदि बाह्मण दर्शनोका समय आता हुआ बताया है । यह काल महीदास ऐतरेयसे याज्ञचलय तक माना है । इम कालमे सैद्धान्तिक विवेचनाका केन्द्र 'ब्रह्मऋषि देशसे हटकर 'मध्यदेश मे आ गया था, जो हिमालय
और विन्ध्या पर्वतोके बीचका स्थल था। यह परिवर्तन कमकर हुआ ही खयाल किया जा सक्ता है । इस कालमे धर्मकी विशुद्धता जाती रही और पुराण-क्रियाकाण्ड आदिका समावेश हो चला था । ललित कविताका स्थान शुष्क गद्यने ले लिया था। इस समयके तत्वान्वेिषिकोके समक्ष यही प्रश्न था कि" मै ब्रह्ममें कबलान हो सकता हूं।" और इसी लिए योगकी प्रधानता भी इस जमानमें विशेष रही थी। जैन शास्त्रोमे भी भगवान शीतलनाथक समय तक अविच्छन्न रूपसे धर्मका उद्योत बने रहनेका उल्लेख है । उसी समयसे ब्राह्मणोमें लोभकी मात्रा बढनेका उल्लेख किया गया है और बतलाया गया है कि उन्होने नए शास्त्रोकी रचना ना की थी। इसकेबाद मुनिसव्रतनाथ भगवानके समय वेदोंमें
शुयज्ञको आयोजना की गई थी, यह बतलाया है। सचमुच मन शास्त्रोंकी यह कमव्यवस्था ऐतिहासिक अनुसन्धानसे प्रायः हुत कुछ ठीक बैठ जाती है। ऊपर जो वेदोंके बाद कलिकालमें क्रयाकाण्ड आदिका बहना बतलाया है वह जैन शास्त्रके वर्णनके हुत कुछ अनुकूल है। इस अवस्थामे जैन शास्त्रोका यह कथन
विश्वसनीय सिद्ध होता है कि जैनधर्म भी एक प्राचीन कालसे --ए हिस्ट्री ऑफ प्री-वद्धि, इन्ड० फिना० पृष्ठ ३९ । २-उत्तरपण पृष्ठ १०० । ३-पूर्व पृष्ठ ३५१-३६० ।