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१०८] भगवान पार्श्वनाथ । उक्ति चरितार्थ हुई थी। वह रानी महा भीलवान और गुणोंकी खान थी। जिस तरह वह अपने सौन्दर्यमें एक थी वैसे ही वह विद्या और कलाओंमें परमप्रवीण थी। नृप विश्वसेनके चंचल मनको वह अपने रूप और गुणोसे स्थिर करने में चतुर थी। उनकी नहिमाका वर्णन जैन कविके निन्न पद्योंद्वारा करना ही पर्याप्त है:"नखसित सहज नुहागिनि नार, तीन लोक तियतिलक निगार : नरल मुलन्छन नंदिन देह, भाषा मधुर भारती चंद्र ।। रंभा रति जिम आगे दीन, गेहिनिल्प लग छवि छीन । इन्द्रव इमि दी सोय, गविति आगे दीपक लोय ॥ जनन हग्य बढ़ावन एन सावित्र-चन्द्र वहिका जन ! नरल सार गुनमनिकी खानि, नीलमन्पदाकी निधि जानि ॥ सबनताकी अवधि अनृप, कला मुविकी नीनारप । नान लेन अघ तज मनीप, मना-उत्प-मुक्तारल-नी ॥ त्रिभुवननाथ रनकी मही, बुधिवल नहिना जाय न कहीं । वहुविध दम्पति नपति जोग, मैं पुनीत पुन्य फल भोग -
इन ललना-ललाम महाराणी ब्रह्मदत्ताकी सगतिमें महाराज विश्वसेन आनन्दसे काल्यापन कर रहे थे। समुचित रीतिसे 'प्रजाका पालन करते थे और धर्माचरण एवं शास्त्रमनन द्वारा आत्म कल्याण करते थे। बनारसकी प्रना भी उनकी छत्रछायामें परम सुखी थी। श्रावोंके पडावश्यक कौन उस नगरीमें सूव पालन होता था । अहिसाधर्मका प्रभाव वहां ओर व्याप्त था। सोनेके कलशोंसे मंडित अपूर्व कारीगरीके जिनमंदिरोंमें प्रतिदिवस मात्मरूपकी सुध दिलानेवाली, चंचल मनको सर्वज्ञ भगवानके गुणोंमें अनुरक्त करनेवाली एवं महापुरुषोंकी नीतिकृतज्ञता ज्ञापनकी मर्या
- कविवर मृघग्दास कृत "पाशेषगरी पृ० ८३ ।