________________
[ ३२ ]
अतके विवेचनसे जैनधर्मकी प्राचीनताका वोध पूर्णरूपेण हो गया है. परन्तु हम पूर्वमें यह बतला 'त्रास' प्राचीन जैनोंका आये है कि भगवान् महावीरजी के पहले
द्योतक है ।
जैनोका उल्लेख ' व्रात्य
रूपमे उसी
तरह होता था, जिस
तरह उपरांत वे और अब जैन
' निर्ग्रन्थ ' और ' अईत ' नामसे प्रख्यात हुये थे नामसे जाहिर है । इसलिये यहांपर हमको अपने इस कथनको सार्थकता भी प्रकट कर देना उचित है । इसके लिये हमें दक्षिणी जन विहान प्रो० ए० चक्रवर्ती महोदय के महत्वपूर्ण लेखका आश्रय लेना पड़ेगा, जो अग्रेजी जैनगजट ( भा० २१ नं० ६) में प्रकाशित हुआ है । इस साहाय्यके लिये हम प्रोफेसर साहब के विशेष आभारी है। वैदिक साहित्य में 'व्रात्य' शव्द्रका प्रयोग विशेष मिलता है और उससे उन लोगों का आभास मिलता है जो वेदविरोधी थे और जिनसे उपनयन आदि सरकार नहीं होते थे । मनु व्रात्य विषय यही कहते हैं कि "ये लोग जो द्विजों द्वारा उनकी सजातीय पत्नियोंसे उत्पन्न हुये हों, किन्तु जो धार्मिक नियमो का पालन न कर सकने के कारण सावित्रीसे प्रथक कर दिये गये हो, व्रात्य है ।" (मनु १०/२० ) यह मुख्यता क्षत्री थे । मनुजी एक व्रात्य ात्री ही अल, मछ, लिच्छवि, नात, करण, खस और द्राविड़ वंशकी उत्पचितकाने है । ( मनु० १०/२२ ) वास लोगोंका नावा भी रूपका था । उनकी एक खास तरहकी पगड़ी (क)- एक वहम और एक खाम प्रकारका धनुष (यएक कपड़ा पहनने और रथमें चलने थे।