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[३३] उनका एक चांदीका आभूषण 'निश्क' नामका था। वे मुख्यतः दो विभागों-हीन और ज्येष्ठमें विभक्त थे । यद्यपि वे संस्कारोंसे रहित समझ लिये जाते थे, परन्तु वैदिक आर्य उनको पुनः अपनेमें वापस ले लेते थे। उनके वापस लेनेकी खास क्रियायें 'व्रात्यस्तोम' नामसे थीं। आधुनिक विद्वान पॉ० वेबर साने इन्हें उपरान्तकी बौद्ध जातियों सदृश भाना है और बतलाया है कि यह बौद्धोंके समान कोई ब्राह्मणविरोधी लोग थे। किन्तु प्रॉ० साहबका यह अनुमान भ्रान्तमय है, क्योंकि बौद्धधर्मका जन्म ब्राह्मण साहित्यसे बहुत पीछेका है। इसी तरह अन्य विद्वानोंका इन्हें कोई विदेशी असभ्य जाति अथवा रुद्रशिव सम्प्रदाय बतलाना भी भ्रांतिसे खाली नहीं है। सचमुच यह व्रात्य लोग आर्य थे और विशेषतः क्षत्री आर्य थे क्योंकि वैदिक ग्रन्थोंमें कहा है कि व्रात्य न ब्राह्मणोंकी क्रियायोंको पालते थे और न कृषि या व्यापार ही करते थे। इसलिये व्रात्य न तो ब्राह्मण थे और न वैश्य थे। वे योद्धा थे, क्षत्री थे। अस्तु; पूर्व पृष्ठोंमें हम यह बतला ही आये हैं कि वेदोंमें खासकर ऋग्वेद संहितामें ऋषभ अथवा वृषभ, अरिष्टनेमि आदि जैन तीर्थकरोंके नाम खूब मिलते हैं और भागवत, विष्णु र आदि पुराणों के अनुसार यह ऋषभदेव जैनधर्मके मादि सस्थापक और क्षत्री वंशके थे यह भी प्रगट है । जैन शास्त्र भी इन तीर्थंकरोंको क्षत्री वंशोद्भव ही बतलाते हैं। इतना ही क्यों उनके अनुसार आर्य मर्यादाकी सृष्टि इक्ष्वाक् वंशीय क्षत्रीयों द्वारा ही हुई हैं। ऋग्वेदके वृषभ
9-Indischen Studien 1. 32. २-विण्णुपुगण २-१ । ३-आदिपुराण और उत्तरपुगण देखो।